Sunday, November 30, 2014


कलिकाल का विद्वत समाज
बिरला छात्रावास के दक्षिणी कोने पर स्थित अश्वथ वृक्ष के नीचे भगत जी अपनी दुकान लगाते हैं। वे बताते हैं कि  उनकी यह दुकान मालवीय जी के जमाने से चली आ रही है। उनके दुकान की दानेदार मूँगफली और अदरक युक्त नमक की कोई शानी नहीं है। एक दिन मैं अपने परिवार (बिना माता-पिता के ) के साथ उधर से गुजर रहा था तो मूँगफली खाने की इच्छा हुई । वाहन से उतरकर भगत से मूँगफली ली  और वहीं पेड़ के नीचे बैठ गया । बच्चे नाला पार कर फुटबाल का आनंद लेने आगे बढ़ गए। हम पति-पत्नी मूँगफली फोड़ने लगे। मूँगफली फोड़ना भी एक कला है। अक्सर लोग दाँत से अथवा हाथ से पूरी ताकत लगाकर फोड़ते है। परिणामस्वरूप दाने सही मात्रा मे हाथ नहीं आते हैं। मूँगफली के पेट वाले हिस्से की तरफ अगले हिस्से के पास अंगूठा से दबाने पर यह अपने आप दो भागों में  बंट जाता है और दाना साबुत निकलता है। इस कला को हम देहाती मटर छीलने के लिए भी प्रयोग करते है। बड़ी-2  महफ़िलों के लिए तैयार की जाने वाली मूँगफली की दास्तान तो अद्भुत है। गरीब और बेसहारा औरतें तो इसे अपने नाजुक होंठो से इसलिए छिलती है कि  कहीं दाने के किसी हिस्से में दरार न पड़  जाये। क्योंकि इससे उनकी मजदूरी पर असर पड़ सकता है। इस पर प्रो कृष्ण कुमार ने एक बेहद मार्मिक कहानी भी लिखी है-द्रौपदी के होंठ।   
अपनी सहधर्मिणी को मैं यह सब सुना रहा था। पर उनका ध्यान तो कहीं और था। मैंने उनसे पूछा आप यहीं हैं न! बोली हाँ। उन्होने कहा जरा ऊपर डाली पर तो देखिये। शाम का समय था । पक्षी अपने घोसलों की तरफ लौट रहे थे। जगह के लिए खींचतान जारी थी । तरह-तरह की आवाजें आ रहीं थीं। पक्षी-कलरव सुनकर बड़ा आनंद आ रहा था। तभी मेरी नजर  वृक्ष के एक मोटी डाल पर आमने-सामने बैठे दो पक्षियों पर पड़ी। उनके हाव-भाव से लग रहा था कि वे दोनों काशी विवि में कहीं और से बहक कर आ गए हैं। अन्य अधिकांश पक्षी अपनी-2 जगह पर बैठ गए थे । पर ये दोनों अभी भी बेचैन थे।  एक ने पूछा-मित्रवर काक ! किधर से आना हुआ है? काक ने कहा-यहीं अयोध्या से आना हुआ है। तुम कहाँ से आए हो उल्लू भाई? उल्लू ने कहा – जनकपुर से । दोनों की आँखों में अचानक खुशी की लहर दौड़ गई । गोया त्रेता की रिश्तेदारी याद आ गई हो। सुख-दुख के बाद दोनों अपने मूल विषय शिक्षा पर आ गए। काक ने बताया कि मैं तो साहित्य का अध्यापक हूँ । यहाँ काशी में कुछ पुराने विद्वानों से संपर्क की लालसा में चला आया हूँ । कल देखूंगा कि किस-किस से मिलना हो पाता है। उल्लू ने बताया कि वह तो दर्शन का आदमी है। यहाँ पंचगंगा घाट पर न्याय-दर्शन के एक बड़े आचार्य हैं । कल सुबह उन्होने बुलाया है। देखता हूँ कल कुछ हो पता है अथवा नहीं । सहधर्मिणी ने कहा-उठिए और चलिये । कौआ-उल्लू की बात मत सुनिए। घर पहुँच कर खाना बनाना है। मैंने कहा – अरे भामिनी ! विद्वानों की बात यदा-कदा  सुनने को मिलती है। अभी मैं माई को फोन कर देता हूँ कि रोटी बना लेगी और हमलोग रास्ते में बिंदास रेस्तरां से सब्जी ले लेंगे। नाक-भौं सिकोड़ते हुए किसी तरह वह शांत हुई।
अयोध्या और जनकपुर की अदावत पुरानी है। शक्ति,शील और सौंदर्य की लड़ाई त्रेता से चली आ रही है । संकटमोचन पर होने वाले रामायण में भी रामायणियों के बीच श्रेष्ठता को लेकर अक्सर तलवारें खींच जाती है। अयोध्या के पक्षधर जब यह कहते हैं कि राम को देखने के बाद तो जनकपुर वाले ऐसे दौड़े जैसे गरीब बच्चे सिक्के लूटने के लिए दौड़ते हैं- धाए धाम काम सब त्यागी।मनहुं रंक निधि लूटन लागी तो जनकपुर वाले भी ताल ठोंककर मैदान में उतर जाते हैं- जेहिं बर बाजि रामू असवारा। तेहि सारदउ न बरनै पारा। तो तुम्हारा राम श्रेष्ठ तब हुआ जब वह जनकपुर की धरती को माथे लगाया । संकटमोचन पर सुने गये प्रवचन का आज बहुत दिनों बाद चाक्षुष दर्शन हो रहा था। काक और उल्लू दोनों अपनी-2 बड़ाई खास तरीके से कर रहे थे। देश-विदेश की यात्रा और  दिल्ली के गलियारों में बढ़ते अपने सम्बन्धों का बखान भी वैसे ही शुरू था जैसे सुरसा-मुंह । कोई किसी से कम नहीं था। रात्रि बढ़ती जा रही थी । मूँगफली भी खत्म हो गई थी। मैं भी उठा और घर के लिए चल दिया।
अगले दिन एक निजी कार्य से मैं विवि के केंद्रीय कार्यालय जा रहा था । मैं पैदल ही था। रास्ते में प्राचीन इतिहास विभाग को देखकर इसके गौरवशाली इतिहास का स्मरण हो आया। । बताते हैं कि यहाँ कभी काशी प्रसाद जायसवाल ,वासुदेव शरण अग्रवाल और ए एस अल्तेकर जैसे मनीषी अपना योगदान दे चुके हैं। मैं अभी इन महापुरुषों को याद कर ही रहा था कि पीछे से किसी ने मुझे आवाज दी । मुड़कर देखा तो  एक सज्जन जो किसी जमाने में मेरे प्रिय कनिष्ठों में से एक हुआ करते थे,तेजी से मेरी तरफ बढ़ रहे थे।  हालचाल जानने के बाद मैंने पूछा कि इधर  कैसे आना हुआ? उन्होने बताया कि किसी की फाइल क्लीयर कराने आया हूँ । सड़क पर खड़े होकर हमलोग अभी  बात कर ही रहे थे कि जनकपुरी उल्लू हमलोगों के सामने से गुजरा । मैं अभी कुछ कहता उसके पहले ही हमारे कनिष्ठ ने बताया कि यह बड़ा विचित्र उल्लू है। मैंने पूछा-क्यों ? कनिष्ठ ने बताया कि कल दिन में इनसे मेरी भेंट हो चुकी है। मैं अपने कार्यालय में बैठ कर  फाइले वगैरह देख रहा था कि ये अपने गुमान में बिन बुलाये मेहमान की तरह आ धमके और अपने आका  के नजदीकी का धौंस दिखाकर अरदब में लेने की कोशिश करने लगे। मैं भी ठहरा गायत्री मंत्र के आदि गायकविश्वामित्र-खानदान का। मैं भला क्यों चुप रहता। मैंने उन्हे आँख तरेर कर देखा। वे नरम हो गए। फिर कभी आने की बात कहते हुए उठे और चले गए।उसने बताया कि देखिये भइया! कलयुग में अपनी बुद्धि घुटने में चली गई है। इसलिए हमलोग जब बुद्धि का प्रयोग करते हैं तो ........ । अच्छा! तो ये बात है। कुछ देर के गपशप के बाद हम दोनों अपने-2 रास्ते हो लिए। मैंने भी कुछ अन्य कार्यों को निपटाया और चल दिया अपने घर की तरफ । रास्ते में फिर भगत भाई की मूँगफली की दुकान पर रुक गया। देखा कि दोनों विद्वान अपनी-2 जगह पर धमक चुके हैं। चेहरे की प्रसन्नता बता रही थी कि दोनों अपने-2 उद्देश्य में कुछ-2 सफल हुए हैं। मैं भी पेड़ के नीचे बैठ गया और उनकी बात सुनने लगा । दोनों की एक खासियत तो तुरंत समझ में आ गई कि एक राजभाषा में निपुण था तो दूसरा राष्ट्रभाषा(?) में । पर बात दोनों हिन्दुस्तानी में ही कर रहे थे। बात पुन:  घूम-फिरकर वहीं पर आ गई जहां पर छूटी  थी। दोनों कई बार अपने देह-भाषा से एक दूसरे को पछाड़ने की कोशिश कर रहे थे। पर दोनों की मातृभूमि से इतिहास में भी कभी कोई मल्ल नहीं पैदा हुआ था। अत: अटल-मुशर्रफ वाली देह-भाषा से ही काम चल रहा था। पर मैं ठहरा शुद्ध मल्ल-भूमि निवासी । अपने ही गाँव के श्री राजनारायन ने विश्वविजयी मल्ल गामा के छोटे भाई इमामबख्श को पलक झपकते ही अपनी  टांग (एक प्रसिद्ध दाव) से आसमान दिखा दिया था। उसके बाद भी मल्लों की एक लम्बी परंपरा रही है। नगीना-मंगला की कुश्ती तो सिर्फ इसलिए टाल दी गई कि जीत-हार के बाद सनके-बौराये इन परशुराम-पुत्रों को संभालेगा कौन। मेरी अपनी ही धरती पर जन्मे  कुश्ती कला मर्मज्ञ श्री केशव प्रसाद राय  जी का नाम तो सदा अविस्मरणीय रहेगा जिनके बारे में कहा जाता है कि उनके जैसा दाव-पेंच शायद ही कोई  जानता था। मैं तो शुद्ध मल्ल की आस लगाए बैठा था। पर घोर कलि काल में आमने-सामने के मल्ल का जमाना कब का बीत चुका है। अब तो सबके हाथ में धारदार गुप्ती है। अत: धर्मयुद्ध अथवा चित्रकूट-संवाद की अपेक्षा करना युगधर्म के खिलाफ है । अब विद्वान मुंह-थेथरई ज्यादा करते हैं ठोस बातें कम । कुछ देर बाद ही दोनों स्वयंभू विद्वान तलवारबाजी पर उतर ही गए। एक से एक करतब दिखने लगे। अगल-बगल के छुटभैये भी छिटक कर गिरे समानों को अपने विद्वानों को संभलकर पकड़ा देते थे। जब दोनों वाकवीर थक जाते थे तो पानी मंगाकर पी लेते थे । अचानक वाकयुद्ध अपने-2 गुरु घंटालों की ओर बढ़ गया। फिर क्या था? दोनों कसीदे पढ़ने लगे-मो सम पुरुष....यह विचार विधि रचेउ बिचारी । अचानक एक छुटभैये ने अपनी निकटता दिखाने के चक्कर में एक अन्य फुदकती चिड़िया का नाम उछालते हुए  चिंचियाया – अरे सर ! उनके टक्कर का तो कोई है ही नहीं । गाँव के प्राथमिक विद्यालय से पढ़कर आज वे शिक्षा जगत के उच्चतम स्तर पर सुशोभित हो रहे हैं। कागभुशुंडि से रहा नहीं गया। उन्होने कहा- अरे महाराज कुछ-पढ़ लिख लो तब बोला करो। जिसको आप बता रहे हो उसे मैं भी जानता हूँ। एक नंबर का .............  है। इतना सुनना था कि उल्लू का चेहरा तमतमा गया । उसने कहा – देखिये सर! मैं जिसको पसंद करता हूँ अथवा मान-सम्मान देता हूँ उसके खिलाफ  कोई कुछ कहता है तो मैं उसकी जबान खींच लेता हूँ। काक कहाँ चूकने वाले थे। उनकी भी पढ़ाई अयोध्या के हुनरमंद पाठशाला में हुई थी। उन्होने बड़ी विनम्रतापूर्वक कहा- डाक साहब ! मैं अजानुबाहु नहीं हूँ । अत: मैं यहाँ पर आपसे एक कदम पीछे हूँ। उल्लू ने तुरन्त कहा–अरे भाई! वह तो त्रेता काल से ही है । काक ने कहा–पहले मेरी पूरी बात तो सुनिए। दरअसल एक कदम आपसे पीछे रहकर मेरी अपनी पहुँच गर्दन तक ही है। अत: मैं तो उसकी गर्दन ही दबोच देता हूँ। ज्ञान की बात होते-होते वाक-नाव अचानक चकोहमें फंसती दिखी । राजा गाधि के नगरी का यह कदर्य-मल्ल रहा प्रथम बल मम तनु नाहीं कहकर अपनी गर्दन  बचाने के लिए वहाँ से तुरंत निकल लेता है।     

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