Sunday, November 30, 2014


पतितों की शौर्य-गाथा

भारत में पतितों की एक लंबी परंपरा रही है । पर पतितों ने अपने पतित्व को बराबर छुपाए रखा । न केवल छुपाए रखा बल्कि इसके लिए बाकायदा लिखित/अलिखित संविधान भी रचा। कुछ ने देवदासी , नियोग प्रथा आदि का सहारा लिया तो कुछ ने कण्व ,गौतम आदि ऋषियों के आश्रमों का । जो भी हो वे अपने पतितपन को छुपाए रखने में सफल(?) रहे। 20वीं सदी के तमाम पतितों में  एक नाम और जुडते-जुड़ते  रह गया वह नाम था मोहनदास करमचंद गांधी का  । उन्होने अपनी आत्मकथा में पतित होने के कई अवसरों का उल्लेख किया है। पर हर बार वे बच गए और आगे उन पतित रास्तों से अपने को दूर भी करते गए। अब उन्होने अपने पतित होने के अवसरों का उल्लेख किया तो 21वीं सदी के लोग क्यों पीछे रहें । इस सरपट दौड़ में सभी अपनी –अपनी कलम को लेकर कूद पड़े। किसी ने गालिब का सहारा लिया तो किसी ने दक्षिणावर्त  का । कोई बस्तर के जंगलों में पतित होने गया तो कोई वर्धा  टेकरी’ के सराय में  औंधे मुंह  जा गिरा । कुछ लैप-टाप पर गिरे तो कुछ हंस  पर उड़े । कुछ अनभै साँचा पत्नी के लिए पतित हुए तो कुछ नवल धवल-दामाद के लिए ।  पर पतित हुए सब ।  पहले जहां पतित होने के बाद पावन होने की परंपरा थी वहीं अब पतित से पतितम होने की होड़ लग गई । इस होड़ में   किन्नर-छिन्नर सबने सुर में सुर मिलाया ।

पहले के लोगो को  अपने पतित होने की खबर  ध्यान-धारणा से मिल जाती थी वहीं अब इसके लिए फेसबुक का सहारा लेना पड़ता है। पर तकनीक तो तकनीक ही  ठहरा ।  वहाँ पावन होने की संभावना रहती थी और यहाँ फेस बुक से  आप  हटे  नहीं कि  पतितभाव  वेताल की तरह फिर आपके सिर  पर सवार  । पहले लोग राम का सहारा लेते थे पर अब राम पर हंसी आती है । तब रामत्व का आचरण जीवन का ध्येय था पर अब श्वेतदंडिका के साथ सहवास ध्येय हो गया। पहले लोग कुछ लिखते थे  तो उसे व्यास पीठ को समर्पित कर गौरवान्वित होते थे अब संस्करण की याद दिलाते नहीं थकते । तब लक्ष्मण बनकर सीता का अंगूठा देखना ही काफी होता  था पर अब के भाष्कराचार्य  सुरा का साथ पाकर सहयोगी आसन्न प्रसवा को भी अपने पतित भाव का शिकार बना लेते हैं ।  भाष्कराचार्य  यहीं नहीं रूकते हैं। वे अपने विषय को छोड़कर  कभी-कभी ज्योतिषी का रूप भी धर लेते हैं । वहाँ भी पतित होने के अवसर खूब हैं ।  पहले जहां पतित होने पर आत्मग्लानि का भाव पैदा  होता था वहीं  अब यह कहानी-कविता अथवा ड्राइंग रूम की शौर्य गाथा का रूप धर लेती है । कहते हैं कि  पतित होने में  स्पेस का भी खासा महत्व होता है। जब मनुष्य अपने अंदर भूमा की संकल्पना को साकार करना चाहता था तो वह अरावली पर्वत अथवा सागर की शरण में जाता था । वहाँ वह क्रिया-योग की साधना करता था । जाता वह अब भी है । साधना भी करता है। पर अब वह ईश आराधन अरावली के नाम पर बने अतिथि गृहों में, सागर विद्यापीठों में अथवा संगणक के कुंजी-पटलों  के मध्य बैठकर अपनी पतित होने का  गुटुर-गूं’ प्लाट तैयार करता है,जिस पर भविष्य में भोगा हुआ यथार्थ के नाम पर तैयारडालडा को  कविता-कहानी के रूप में प्रस्तुत करता है अथवा घूम-घूमकर कबीर बन व्याख्यान देता है।

आजकल पतित होने/बनने की होड़ सी लगी हुई है । पतित होना इनकी नियति है। अब कोई पुरानी कविता-कहानी-मित्रता आदि का सहारा लेकर पतित हो सकता है तो नई कविता-आलोचना-सांवादिकता का सहारा लेकर  क्यों नहीं। आखिर इ-मेल,दूरभाष किस दिन के लिए है। इसके सहारे पतित होना तो और भी आसान है। पत्र के सहारे पतित होना तो जग हँसाई कराना है। कौन जाने कब इसे कोई अस्सी-वांगमय के नाम से प्रकाशित कर दे । जमाना बदल गया है । अब तो मोबाइल उठाया और गिड़गिड़ाया कि सर मैं भी दिल्ली के प्राचीन मंदिरों  की तरह पुराना पतित हूँ। मुझे भी जगह दीजिये न । शपथ पूर्वक कहता हूँ कि मैं  इतना पतित हो जाऊंगा कि सभी पुराने पतित त्राहि-2 करते नजर आएंगे । मैं अपनी इस पतित गाथा को जन के माध्यम से सत्ता तक पहुंचा दूंगा । फिर देखिएगा कि चारो तरफ हमारी ही चर्चा होगी। लोग वाह-वाह,बाप-बाप चिल्लाएँगे । और हम मिले सुर हमारा तुम्हारा की तान पर ताक-धिना-धिन-ताक का लौह-मृदंग बजाते हुए ब्लू-स्टार के आगोश में चैन की नींद सोएँगे । 

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