Sunday, November 30, 2014


अप्रासंगिक होती कुलगुरु चयन की खोज समितियां
 
भारतीय विश्वविद्यालयों में कुलगुरु चयन की प्रक्रिया उस विवि के अधिनियम और यूजीसी के नियमों के आलोक में संपन्न होती  हैं। केंद्रीय विश्वविद्यालयों में प्राय: एक खोज समिति बनाई जाती है । यह खोज समिति विवि के अधिनियम के अनुसार गठित की जाती है। अधिकांश विश्वविद्यालयों  में खोज समिति कार्यपरिषद और विजिटर दोनों द्वारा नामित सदस्यों द्वारा बनाई जाती है।   कुछ विश्वविद्यालयों में अभी भी यह अधिकार सिर्फ विजिटर के पास ही सुरक्षित है। खोज समिति अपने विवेक से विद्वानों का एक पैनल तैयार कर शिक्षा मंत्री के पास भेज देती है । तदुपरान्त यह पैनल विवि के विजिटर यानी राष्ट्रपति के पास भेज दिया जाता है । इस पैनल (जिसकी संख्या कम से कम तीन होती है) में से किसी एक विद्वान(?) के नाम पर विजिटर अपनी सहमति देते हैं। तब यह विद्वान महोदय उस कथित विवि के कुलगुरु बन जाते हैं। यह परंपरा लंबे अरसे से प्रयोग में लायी जा रही है। इस परंपरा में कुछ अच्छाइयाँ हैं तो कुछ बुराइयां भी हैं। यह बुराई इधर दो-तीन दशकों से कुछ ज्यादा ही परिलक्षित हो रही है। यद्यपि इस पर अब तक ऐसा कोई समाजशास्त्रीय अध्ययन सामने नहीं आया है जिससे यह तय किया जा सके कि इसके पीछे  के ठोस कारण क्या –क्या हो सकते हैं।
 
कुछ दिनों पहले भारत के एक प्रधानमंत्री के नाम पर बने एक विवि की खोज समिति के कार्य पद्धति को नजदीक से देखने का अवसर मिला । इस खोज समिति में दो तत्कालीन कुलपति और एक पूर्व कुलपति थे । तीनों ने अपने विवेक का प्रयोग किया और कुछ लोगो को बातचीत के लिए बुलाया। बातचीत के बाद जो नाम तय किए गए उनमें एक ने अपनी जाति,दूसरे ने अपने सहपाठी और तीसरे ने ऊपर के संकेत अनुसार नाम डाल दिया। एक-दो नाम और भी जुड़े जो इनमे से दो के बेहद निकट के थे । तथ्यत: खोज समिति के दो सदस्य उस व्यक्ति विशेष का नाम पैनल में डालने के शर्त पर ही रखे गए थे। कहने के लिए सब ने पीपीटी- प्रजेंटेशन दिया था । पर यह सब तो छलावा था । क्योंकि सभी नाम जो विजिटर के पास भेजे गए थे उनका नाम मेरिट के आधार पर न होकर “जुगाड़” आधार पर था । दरअसल  नाम तो खोज समिति के चयन के साथ ही तय हो जाते हैं। खोज समिति के सदस्य भी मनुष्य ही होते हैं । मनुष्य की साधारण प्रतिज्ञा होती है बेईमानी की । अन्यथा वह  अरे उ देवता ह की श्रेणी में आ जाता है।   जो व्यक्ति कुलगुरु बने उन्हें उनके विवि के लोग दिन में ही लालटेन लेकर खोजते फिर रहें हैं । पर अब वह कहाँ हांथ आने वाले हैं। अकूत सुविधायुक्त पद पाने के बाद इच्छाएं और ज़ोर मारती हैं । इसलिए एक बार कुलगुरु बनने के बाद दुबारा जुगाड़ की प्रक्रिया में लिप्त हो जाते है। विवि बना है तो चलेगा ही।
 
11वीं पंचवर्षीय योजना में थोक के भाव केंद्रीय विश्वविद्यालयों में कुलगुरु बनाए गए थे। आज की तारीख में एक-दो कुलगुरु जेल की दहलीज पर पहुँचने वाले हैं तो कुछ जांच-वांच से बचने के लिए रात-दिन एक किए हुए हैं। कुछ अच्छे भी थे। पर वह अपवाद था। मुख्य प्रतिज्ञा नहीं । विश्वविद्यालयों के कुलगुरु बनने के लिए लालायित होने के पीछे बड़ा ही सहज कारण है। इसे एक स्वनामधन्य विद्वान के उस कथन से आसानी से समझा जा सकता है जिसे उन्होने अपने कनिष्ठ को एक  विश्वविद्यालय के कुलपति बनने पर कहा था। उन्होने उन्हें शाबाशी देते हुए कहा था- जाओ इकबाल जाओ! अब तक तो तुम नौकरी कर रहे थे। पर अब तुम राज करोगे राज। महज एक वाक्य में ही उन्होने कुलगुरु बनने के कारण को स्पष्ट शब्दों में बता दिया। यद्यपि कि उनके इस कथन में उनकी दमित वासना अर्थात कुलगुरु बनने के जन्मजुगी आह को भी आसानी से समझा जा सकता था।  
 
काशी जो सांस्कृतिक राजधानी के नाम से विख्यात रही है वहाँ स्थित तमाम विश्वविद्यालयों की दशा भी वैसी ही है जैसा अन्यत्र है। यहाँ के विवि अब अपने स्कालरशिपके लिए नहीं अपितु जुगाड़ के लिए जाने जाते हैं। अभी हाल में सर्वविद्या की राजधानी के नाम से ख्यात इस विवि के  लिए कुलगुरु की चयन प्रक्रिया शुरू की गई है । हाल-2 तक कुलगुरु रहे डीएनएविद्वान की स्वयं को दुबारा स्थापित करने की इच्छा थी। परंतु जांच-इन्क्वायरी में फँसने के कारण उन्हें वापस लौटना पड़ा। इस विवि के कुलगुरु चयन की खोज समिति में सिस्टम ने तीन नाम दिये हैं। इनमे एक पूर्व न्यायाधीश हैं,दूसरे प्रख्यात वैज्ञानिक हैं तथा तीसरे गणितज्ञ है। प्रथम द्रष्ट्या देखने पर यह समिति भली दिखती है। दिखे भी क्यो न? क्योंकि सभी नाम बड़े जो हैं ।पर प्रथम ग्रासे मच्छिकापाते की तर्ज पर तीनों सदस्य एक ही जाति से आते हैं। यह इस देश का कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि आज भी हमारे पास अन्य वर्णो तथा आधी आबादी से एक भी नाम खोज समिति के लिए  नहीं सूझते हैं। इस विवि पर अपनी नजर गड़ाई जनता दबे मुंह बहुत कुछ कह रही है ।डीएनए में गुलामी इस कदर बैठा है कि वह आज भी मुखर विरोध करने में असमर्थ है । इसलिए चुपचाप इस समिति की कार्यवाही को देख रही है। समिति ने बाल-दिवस के दिन आठ सदस्यों को बातचीत के लिए बुलाया है। अपुष्ट खबरों के अनुसार इस सूची में आधे ऐसे विद्वान हैं जो तीसरी-चौथी बार कुलगुरु बनने हेतु अपना नाम अंतिम सूची में डलवाने के लिए पण्य-क्रिया से लेकर अस्मिता तक को दांव पर लगा रहे हैं । झोला-बस्ता लेकर इन घूमन्तू लोगों से यह पूछा जाना चाहिए कि महोदय पिछले एक दशक से अधिक समय तक कुलगुरु रहने के बाद भी अभी संतोष नहीं हुआ है? आखिर अभी भी क्यों लालायित है? बतौर अध्यापक जो कि आपका मूल पेशा है,आपका अपने समाज अथवा उस अनुशासन को क्या योगदान  है? क्या एक बार कुलगुरु होना ही दुबारा कुलगुरु बनने का पैमाना होगा? यह तथ्य है कि कुलगुरु विवि से छुट्टी लेने से लेकर किसी को भी आमंत्रित करने अथवा विदेशी विवि से एमओयू  करने जैसे किसी भी कार्य के लिए पूर्णत: स्वतंत्र होता है।अब इतनी सुविधा मुफ्त में मिली हो तो कोई भी अपने सम्बन्धों को जहन्नुमतक आसानी से ले जा सकता है । यह इसलिए भी जरूरी होता है कि अमृत वर्षा इसी जहन्नुम से ही होता है। अब अगर प्रधानमंत्रीजी गाँव के अनुभवी लोगों से सीख रहे हों तो यह उनका रुचिबोध-संस्कार हो सकता है, खोज समिति अथवा कुलगुरु बनने की इच्छा रखने वालों की नहीं। वरना एक विवि के कुलगुरु एक ऐसे एमओयू को जगाने विदेश चले गए थे जो वस्तुत: मौज-शौक की लिए की गई थी। अब पिछला कुलगुरु मौज-शौक के ऋजु-रेखा पर जा सकता है तो मैं क्यो नहीं? तो वह भी चले गए । आने के बाद तो सबकुछ कार्यपरिषद के सदस्य ओके कर ही देंगे । आखिर उन्हें भी तो तमाम समितियों मे आना  है। अब समय आ गया है कि यह सवाल तो तमाम खोज समिति के सदस्यों से अवश्य पूछा ही जाना चाहिए-कारण कवन नाथ मोहिं मारा। एक से बढ़कर एक जीवन-वृत्त इस अतीव सुंदर विवि के लिए आये होंगे पर उनका नाम नहीं है। इस सूची में अधिकांश नाम ऐसे हैं जिनके पास शोध जैसा कोई कार्य नहीं है।एक तो ऐसे हैं कि  अपने विवि को छोड़कर एक बार किसी विवि के कुलपति क्या बने दुबारा अपने मूल विवि  लौटकर  नहीं आए। भले ही वे प्राइवेट आदि विश्वविद्यालयों में घूम-घूमकर श्रमिक-संस्कृति का झण्डा बुलंद करते रहे।अब समय आ गया है जब हमें काक-दांत-गवेषणा को ही चरमसिद्धि मानने वाले इन ठेकेदारों से मुक्ति पानी ही होगी। भारत का राजपत्र में कुलगुरु के चयन में मेधा,अकादमिक उत्कृष्टता,सत्यनिष्ठा और नैतिकता पर स्पष्ट तौर पर बल दिया गया है।जात-पात और कुनबा-धर्म से हम कब ऊपर उठेंगे। प्रधानमंत्री लगातार इस बात पर बल दे रहें हैं । पर हमारी खोज समितियां ऐसे बन/बनाई जा रही हैं कि प्रथम दृष्टि में ही इससे मुक्त नहीं युक्त दिखने लगती हैं । यह एक शुभ सूचना है कि इसे देश में ऐसा हो भी रहा है। उत्तराखंड के राज्यपाल श्री अजीज कुरैशी वहाँ के विश्वविद्यालयों को लेकर बेहद संजीदा है। वह साफ तौर पर कहते हैं कि व्यक्ति लायक हुआ तो ही नियुक्ति की जायेगी।  इससे सुंदर बात और क्या हो सकती है । यदि हम भारत को पुन: उसका पुराना गौरव दिलाना चाहते हैं तो हमें शुरुआत नीचे से ही करनी होगी। इसके लिए शिक्षा से बेहतर माध्यम और क्या हो सकता है? किसी विद्वान ने ठीक ही कहा है -मनुष्य वह है जो काम करते हुए निरंतर स्वयं का परिष्कार करता है और सुकून पाता है। यही उसके सुंसंस्कृत होने का लक्षण है । इसके लिए यह जरूरी नहीं है कि वह शिक्षित हो,अपितु जनता की बीच पुराने अर्थ में दार्शनिक हो। क्या हमारा सिस्टम भविष्य में खोज समितियों के लिए ऐसे दार्शनिकों को खोज पाएगा?

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