Sunday, November 30, 2014


दिल्ली का विश्वविद्यालय 

प्राचीन काल में पठन-पाठन के लिए गुरुकुल की परंपरा थी । गुरुकुल का मुखिया अपने समय का प्रख्यात ऋषि हुआ करता था ।  ऋषि यानि बीसवी सदी का कुलपति । भारतीय परंपरा में प्रारंभ से ही  ऋषि को पैगंबर और ईश्वरीयता से आविष्ट पुरुष माना गया है। आज विश्वविद्यालयों के कुलपति भी राजा अर्थात दैवी शक्तियों से युक्त माने जा रहे हैं । इसके पीछे कारण भी है । कथित कार्य-परिषद का  अध्यक्ष और स्वायत्त होने के नाते अपने परिक्षेत्र में हर निर्णय लेने के लिए लगभग वे स्वतंत्र हैं। इसीलिए मैं मानता हूँ कि कुलपति बड़े ताकतवर होते है। वे जो चाहें वह कर सकते हैं । वे यदि प्रसन्न हो जाएँ तो किसी सुरेश,उमेश,अनिल,अचिन,सूरज,अशोक,अमित,सुरेन्द्र,किशोर-प्रकाश की शोभा बढ़ा दें,सरस्वती के किसी जेठ-विनय को आचार्य बना दें अथवा उलूक-सवार नरेंद्र  को धन-कुबेर बना दें और मनोज जैसे नित्य निंदनीय की थाली में रोटी-दाल की कौन कहे डालर-दीनारतक परोस दें ।आजादी के बाद भारत में शिक्षा-सुधार के लिए दर्जनों समितियां गठित हुई। पर स्थिति में कोई सुधार मृग-मरीचिका ही रही, किताब-खरीद से लेकर चयन तक । कहीं किताब किलो से खरीदा जा रहा है तो कहीं चयन साक्षात्कार के पहले ही तय हो जाता है। ऐसे में भकुआ बनी जनता के पास सिवा दहाड़ मारकर  रोने के अलावा कोई रास्ता ही नहीं बचा है ।पिछले दिनों किसी कार्य बस  दिल्ली जाना पड़ा । यह यात्रा लंबे समय बाद हुई थी । अत:  अपने पुराने  यार-मित्रों से मिलने का लोभ-संवरण न कर सका । दिन भर की थकान के बाद जब मैं अपने अस्थाई निवास पर पहुंचा तो वहाँ सब लोग सो चुके थे । मैंने धीरे से दरवाजा खटखटाया और दरवाजा खुलते ही दबे पाँव अपने बिस्तर पर जा गिरा । थका होने के कारण तुरंत नींद भी आ गई । स्वप्न देखना मेरी दिनचर्या का एक महत्वपूर्ण अंग है । सो जल्दी ही मैं स्वप्नलोक जा पहुंचा । वहाँ भी विश्वविद्यालय ने मेरा पिंड नहीं छोड़ा । नहा-धोकर मैंने अत्याधुनिक लौह-पथगामिनी(मेट्रो) का सहारा लिया और पहुँच गया सीधे दिल्ली विश्वविद्यालय । शाम का समय हो चुका था ।  वहाँ मेरे मित्र अभी भी बाबूगिरी में लगे हुए थे। मैंने उनसे चलने को कहा । वहाँ एक विचित्र ही दृश्य उपस्थित था । भव्य -भवन पर साँय-2 की आवाज । मुंह पर अंगुली रखकर आगे बढ़ने का संकेत  मेरे मित्र ने किया । मैं समझ गया कि कुलपतिकक्ष भी अगल-बगल हे कहीं स्थित है। मैंने चुपचाप उनका अनुसरण किया । मित्र ने पिछले दरवाजे की तरफ बढ़ने का संकेत किया । मैं कुछ ही दूर आगे बढ़ा था कि उन्होने एक कमरे की तरफ इशारा किया । मैं ठिठक गया । मित्र ने बताया कि यहाँ कभी भगत सिंह को कैद किया गया था । मैंने उस शहीद को नमन किया और दूसरी तरफ मुड़ गया। अगले मोड़  पर पर एक नीम का पेड़ था।किसी जमाने मे हम लोग यहाँ आकर जिंदाबाद-मुर्दाबाद का नारा लगाया करते थे कहते हुए   मित्र ने अपने कंधे को एक झटका दिया और गुसलखाने की ओर बढ़ गए । मित्र के पीछे-2 सामने के गलियारे की तरफ बढ़ा । पता चला कि कुलपति अभी भी कार्यालय में बैठे हैं । हमलोग कक्ष के बगल से निकले  । मैंने देखा कि  कुलपति अनासक्त कर्मयोगी की तरह अपने टीम के सदस्यों से वार्तालाप कर रहे थे ।  धीर-गंभीर आवाज में कोई कह रहा था -अरे, शिक्षा कुछ और नहीं,सिर्फ अंतरात्मा की खोज है। माथा ठनका । यह आर्ष वचन तो  उपनिषदों  में उल्लिखित है ।इस घोर कलयुग के  गोधूलि वेला के कार्यालयी परिक्षेत्र में अध्यापकों के बीच  ऋषि वाणी कैसे सुनने को मिल रही है । लगा कि स्वप्न देख रहें हैं । स्वप्न मे स्वप्न को सतत बनाए रखने की विशेषता दैव कृपा से मुझे सहज ही प्राप्त है। फ्रायड-युंग की संतानें  इसे किस रूप में देखती हैं पता नहीं। पर मग्न-चैतन्य (unconscious-mind) में उदात्त क्रीड़ा की संभावना से इंकार नहीं कर सकता । मैंने अपने को सावधान किया । बातचीत के स्फुट स्वर ही कानों तक पहुँच पा रहे थे।  अभी कुछ ही दूर आगे गए होंगे कि मित्र ने  एक आधुनिक अश्व की ओर इशारा किया और बताया कि यह  कुलपति महोदय का अश्व है । कार्यालय से सटे ही  कुलपति का अस्तबल था । उनका अश्व  बिना मोर पंख (लाल बत्ती) के  दिखाई दिया । आज जब सभी कुलपति इस मोर-पंख के लिए 24*7 घंटे लालायित रहते हैं , वहीं यह कुलपतिसहज-समाधि भली का पथिक बना हुआ है।  अब हम  सड़क पर थे । मैंने मित्र से कहा कि आप जाएँ  मैं जरा टहलने का कोटा पूरा कर लूँ । उन्होने हामी भरते हुए बताया कि टहलने के लिए यहाँ तो लोग बाहर से भी आते हैं। आप इसका आनंद जरूर उठाएँ। मैं उन्हें वही छोड़कर आगे निकल लिया ।हरियाली के मामले में दिल्ली विवि पीछे नहीं है । सघन वृक्षो के बीच चौड़े रास्ते पर भले ही मैं चल रहा था,पर मन में धुकधुकी भी लगी हुई थी। प्रकृति-प्रेम के नाम पर शहीद होने की मन:स्थिति में कदम आगे बढ़ रहे थे । दूसरी तरफ मन भी अपनी गति से कुलांचा भरने लगा । आम-इमली-कटहल-महुआ कहीं नजर नहीं आ रहे थे । कृषि–संस्कृति में पला-बढ़ा मन  उदास हो गया। विशाल वृक्ष अचानक भयानक लगने लगे। लगा जैसे मैं किसी घोर सर्पारण्य में प्रवेश कर रहा हूँ । बीच-बीच में मयूर  की क्रेंकार ध्वनि मन को ढांढस दिलाने का असफल प्रयास करने में लगी हुईं थीं । सूर्य अस्ताचल की ओर बढ़ चुका था । मुझे याद आने लगा  बचपन की कहानी जिसे हमने सैकड़ों बार अपनी माँ के मुख से सुना होगा । उस कहानी का नायक एक राजकुमार होता था । वह अपनी माँ अथवा किसी नजदीकी की प्राण-रक्षा  के लिए  सुदूर किसी कठिन रास्ते पर बढ़ता चला जाता है । वहीं से  उसे बाघिन का दूध अथवा कोई खास जड़ी-बूटी लाना है जिसे पिलाने अथवा सूंघाने पर उसके प्रिय की जान बचायी जा सकती है । उसका अभीष्ट कई एक बाधाओं के पार करने पर ही मिल सकता है। रास्ते में  पर्वत,खाई,जंगल आदि-2 उसका रोड़ा बनते हैं । मैंने देखा कि  रूप-रंग में किसी राजकुमार सरीखे दिखने वाले कुलपति भी सरस्वती की वीणा को राक्षसों के चंगुल से निकालने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ हैं।  मन का जिद्दी यह सवार सभी बाधाओं को अपनी असिधारा व्रत से पार  करने के लिए कृतसंकल्प है । मैंने टहलते हुए देखा कि ज्यों-2 रात्रि गहराती जा रही थी विवि के भीमकाय भवनों से विकराल माणिधर निकलकर लंबे-चौड़े मैदानों में यत्र-तत्र मणि उगलकर ताल ठोंकते हुए ललकार मुद्रा में कह रहे हैं- आ जाने दो जरा हमारी पहुँच में । ऐसा धोबी-पाठ मारेंगे  कि जिंदगी भर याद रखेंगे । उन्हें क्या पता कि सिंधु सभ्यता से रामानुजन तक गणितीय विकास की अद्भूत समझ रखने वाला  साढ़े सत्रह मुट्ठी का मोहंजोदड़ी सांड कुश्ती कला में  भी पारंगत है । यह तो मानकर चलता है कि गणित के सवाल हल करने में वालीवाल और क्रिकेट भी  सहायक होते हैं। इसीलिए  कहानी के विपरीत यह घुड़सवार मौलिक कल्पना का धनी  है । यह रात्रि से डरता नहीं है। निर्मम और भयानक जंगलों-विभागों  में वर्षों से अपना अड्डा जमाये बैठे इन पवनभक्षियों से दो-दो हाथ करने पर तुला हुआ है । अजानुभूज अश्वारोही अपने घोड़े को पुचकारते हुए उसे अस्तबल में ही छोड़ देता है और निकल आता है खुले मैदान में । उसके  पद चाप को सुनकर अचानक सभी चौकन्ने हो गए । वे अपने-2 फण उठा-उठाकर देखने लगे कि यह किधर जा रहा है । पर वह तो वेपरवाह अपने गंतव्य की ओर बढ़ता जा रहा था । भूरे,चित्तीदार,दोमुंहे, धवल जटाधारी तक्षक किनारे हो गए । किसी ने  आगे बढ़कर उसका रास्ता रोकने का साहस नहीं किया । आँगन में ताल ठोककर भीम बने ये तक्षक- श्वापद रास्ता रोकने की बजाय  निर्निमेष उसके बढ़ते डग को निहारते ही रह गए । उस अश्वारोही की जय यात्रा की यथार्थ-कल्पना करते-करते  मेरे  टहलने का  समय भी खत्म हो चुका था ।घर लौटने के लिए मित्र को ज़ोर से आवाज लगाने की कोशिश की। पर कोशिश बेकार गई । क्योंकि मैं तो पश्चिम विहार के एक फ्लैट के कमरे में बिस्तर पर बेसुध पड़ा था और सूरज कनखियों से लगातार मुझे घूरे जा रहा था । 

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