किस्सा ए कुलगुरु : ब्रह्मांड विश्वविद्यालय
दसराज्ञ
युद्ध की समाप्ति पर विजय पक्ष के सेना नायक ने एक सवाल के जबाब में कहा –दुनिया
वालों से कह दो कि बूढ़ा अँग्रेजी भूल गया है।
कहने के पीछे आधार यह था कि किसी भी देश का उसका अपना झण्डा,अपनी
भाषा होनी चाहिए। तभी से उस देश में हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की प्रक्रिया
शुरू हुई। कुछ नेताओं की दृष्टि में हिन्दी में मौलिक चिंतन-लेखन का अभाव था । सो
इसकी महती ज़िम्मेदारी किसी विवि को सौंप देनी चाहिए। अचानक किसी के मन में यह
कौंधा कि क्यों न देश के ‘जीरो
माइल’ पर एक
ब्रह्मांड विश्वविद्यालय खोला जाय। दो दशकों की सहमति-असहमति के बाद ब्रह्मांड विश्वविद्यालय
खुलने की अनुमति मिल गई । कुलगुरु के चयन हेतु
खोज समिति बनी जिसमें मोदी-भय से देश छोड़कर जाने की चाहत रखने वाले एक
ख्यातिलब्ध साहित्यकार और ‘प्रव्रज्या-योग’
के साधक साहित्यकार का नाम था । नारद-यात्रा के दौरान रास्ते में इनकी निगाह
कटि प्रदेश के सागर किनारे जाकर अटक गई। उन्होने वहाँ देखा कि
रौबइंडिया का कुर्ता पहने एक सुकुमार बुजुर्ग वृक्ष के नीचे बैठकर कविता पाठ
कर रहा है। सदस्यों ने पूछ अरे तुम यहाँ क्या कर रहे हो ?
शोकाकुल ने जबाब दिया –क्या करूँ ?
हिन्दी वालों को जीवन भर सरकारी खर्चे पर यात्रा कराने के बावजूद मुझे कवि नहीं माना गया । उधर एक-दो पुरस्कार क्या
झटका कि प्रमोशन ही रोक दिया गया । खैराती जीवन जीने वाले साहित्यकारों ने इनकी हालत पर तरस खाते हुए ब्रह्मांड
विश्वविद्यालय के प्रथम कुलगुरु के लिए तैयार किए जाने वाले पैनल में
शोकाकुल का नाम डाल दिया । ‘शंकर’
का आशीर्वाद और चित्रगुप्त के दरबार में
अपनी पकड़ के चलते इन्होंने उस पद को प्राप्त किया । पुरानी सेवा के दौरान ‘भव्य-भारत’
के सहयोग से ये अपने को ‘कला-संस्कृति’
मर्मज्ञ के रूप में स्थापित करने में सफल हुए थे । कुलगुरु होते ही हिन्दी-साहित्य
के तमाम गिरे-पड़े साहित्यकारों को यात्रा और रसरंजन का सुख दिलाने के लिए धन की
गठरी खोल दी । हिन्दी साहित्य जगत वाह-वाह
कर उठा । पांडु-पुत्र के सहयोग से कार्य -परिषद भी मनमाफिक मिली । कोर्सडिजाइन को
लेकर लंबी-2 बैठके होने लगीं। पैसा पानी की तरह बहने लगा। अष्टछाप के कवि दोनों
हाथों से ‘मानदेय’
पकड़ने लगे। ताकत के गुमान में वाजिदअली शाह का यह पुरस्कर्ता दिल्ली के तख्त ताऊस
पर बैठकर विवि को चलाने की जिद कर बैठा। विवि की स्थापना ‘जीरो
माइल’ पर होनी थी । पर शोकाकुल ने ‘ऐयाश
केंद्र’ से 15 किमी की त्रिज्या के आधार पर एक वृत्त खींचा और वहीं
स्थापित करने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक दी। इस बीच इन्होने ‘सत्यवचन’
नामक एक पत्रिका का विमोचन भी पाताल में
कराया। कहते हैं कि लोग लौटते समय सत्यवचन की प्रतियों को वहीं पाताल लोक के हवाई
अड्डा पर ही छोड़ आए ।
कोर्स
एवं जमीन के चक्कर में 3-4 वर्ष गुजर गए । अब विवि है तो कुछ तो पठन-पाठन कराना ही
पड़ेगा । शोकाकुल ठहरे कवि। कवि को आलोचक की जरूरत होती है। उन्हें कविता के एक ‘किशोर’
आलोचक दिखे । किशोर ‘आनंद’
के लिए परेशान हाल थे। अशोक ने ब्रह्मांड विवि के लिए ‘अपूर्व-आनंद’
की व्यवस्था कर दी । विवि में आनंद तभी है जब वहाँ बेहतरीन ग्रंथालय
हो। इसके लिए शोकाकुल ने आनंद को इसकी ज़िम्मेदारी सौंपी। आजकल भारतीय विवि में एक बड़ी मजेदार व्यवस्था हो गई है। यहाँ जूता और पुस्तक खरीद में खास
अंतर नहीं रह गया है। प्रकाशकों ने अध्यापकों का बोझ न्यूनतम कर दिया है। वे स्वयं
तय कर देते हैं कि किन पुस्तकों की आपको जरूरत है। ब्रह्मांड विवि में भी यही हुआ
। यहाँ वाणी का साम्राज्य ऐसा फैला कि कमल भी शरमाने लगे। पाँच वर्ष बाद फिर नए कुलगुरु की खोज शुरू हुई।
इस बार खोज समिति में साहित्य-इतिहास का गठजोड़ था। द्विजद्वय ने अपने-अपने राम के
तर्ज पर वाक-सत्य का नाम आगे बढ़ाया । पर दो द्विजों की लड़ाई में प्रोफेसर मैराथन ने बाजी मारी। संत मैराथन ने आते ही
विवि को जीरोमाइल पर स्थापित करने का निर्णय किया । तख्तेताज को तय जगह पर लगाया।
विवि शनै:-2 आगे बढ़ना शुरू हुआ। पर शोकाकुल के आकाशमार्गी सहयात्रियों को यह पचा
नहीं। गतिशील कार्यपरिषद ने इसमे टांग अड़ाना शुरू कर दिया। डगरते-मगरते इनका
कार्यकाल भी खत्म हुआ। अब तीसरे कुलगुरु की खोज शुरू हुई। इस बार की खोज समिति
में शोकाकुल के एक जूनियर भी थे। खेल
खुलकर चला। पांडु-पुत्र की विशेष रूचि के
बावजूद बटेर भभूति के हाथ लगी। हाशिए पर बैठे
शशि-भास्कर ,नाग-करैत सब सक्रिय
हो गए । ‘समय’का
ज़ोर चला –हिन्दी समय,लोक समय ,विमर्श
समय,ब्लाग समय और न जाने कौन कौन
सा समय। समय ने भी अपने हाथ खड़े कर दिये ।
ब्रह्मांड विवि के चौथे कुलगुरु की चयन प्रक्रिया शुरू हो गई । इस बार की खोज समिति में
शोकाकुल बतौर एक सदस्य शामिल हैं । स्वप्नदर्शी शोकाकुल को पुन:एक बार अवसर
मिल गया अपने पुराने अरमानों को अमली जामा पहनाने का । खोज समिति ने कुछ लोगों का
नाम सुझाते हुए चित्रगुप्त के मातहतों को बंद लिफाफा दे दिया और अपने-अपने काम में जुट गए। । पर शोकाकुल को
चैन कहाँ? बैठक खत्म होते ही वे सक्रिय हो गए । शाम होते-2 उन्होने
अपनी कारस्तानी को जगजाहिर कर दिया ।
उन्होंने कुछ सूत्र पकड़े और उन्हें अपने काम पर लगा दिया। अखबार घरसत्ता ने उनका साथ दिया और देश की सबसे बड़ी
समस्या के रूप में ब्रह्मांड विवि उभर कर सामने आया । घरसत्ता के मुखपृष्ठ पर अंदर
की बात को खास तरीके से छापा गया । चित्रगुप्त के दरबारी हक्का-बक्का । लिफाफा उनके यहाँ खुलना था । पर मजमून पहले ही
बाहर । शोकाकुल के कारनामें यहीं नहीं
खत्म हुए । उन्होंन ब्रह्मांड विवि को बचाने के लिए तत्काल दो खत मजा फाउंडेशन के
लेटर पैड पर लिखे। एक विरोध में और दूसरा
पक्ष में । खोज समिति के इतिहास में यह पहली बार हुआ कि कोई सदस्य खुले तौर पर
अपनी व्यतिगत राग-द्वेष को अमली जामा पहना रहा हो । पहले पत्र में शोकाकुल ने अपनी
चाल को और मजबूती प्रदान करने के लिए खांग्रेसी अंदाज में संविधान को भी धता बताने
की कोशिश की । उधर ग्रेवाल त्रयी ने भी अपना काम शुरू कर दिया । उत्तम पुरुष के लिए ब्रह्मा के ‘अन्याय
मंत्रालय’ ने साफ तौर पर कह दिया है
कि विश्वविद्यालयों पर चित्रगुप्त मंत्रालय का कोई प्रशासनिक नियंत्रण नहीं है ।
शोकाकुल का दूसरा पत्र संवेदन लिए हुए हैं। कबीर मोदी अकादमी से पुरस्कृत शोकाकुल
को इस बात का दर्द है कि देश-विदेश की तमाम यात्राओं और कुछेक मानद उपाधि झटकने के
बावजूद उन्हें सांस्कृतिक प्रबंधक कहा जा रहा
है । ब्रह्मांड विश्वविद्यालय के कुलगुरु का खेल अपने अंतिम पड़ाव की ओर बढ़
चला है । इधर मनुष्य और देवता ,भाग्य
और पुरुषार्थ के बीच सूर्योदय के साथ ही वैभव-प्राप्ति के लिए संघर्ष शुरू हो जाता
है । उधर गोपी वल्लभ अपनी काव्योपम
बांसुरी पर राग नामवरी का तान छेड़े हुए हैं।
जनवरी 2013
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