प्रोफेसर डी के राय जिनका आज जन्मदिन है
अचानक
एक दिन मेरे मन में पता नहीं क्या सूझा कि
मैं रायसाहब से पूछ ही बैठा कि कितनी
सुंदर बात है कि आपका और सी वी रमन का जन्म दिन (7 नवंबर ) एक ही है। शायद इसीलिये
आपने रमन प्रभाव पर काम भी किया है। स्मित मुस्कान के साथ उन्होने कहा ‘यह
एक coincidence है’।
बात लगभग 27 वर्ष पुरानी है। गाँव से शहर मे आया
था। बिरला छात्रावास में रह रहा था। कहीं से प्रज्ञा पत्रिका देखने को मिली । प्रधान संपादक के रूप मे प्रो
देवेन्द्र कुमार राय का नाम दिखा। किसी ने बताया कि भौतिकी के आचार्य हैं। पर
रामायण आदि में भी गहरी रूचि है। विद्वानो से मिलना और उनको अपने तराजू पर तौलने
की खराब आदत बचपन में पड़ चुकी थी। अब इनको घेरना था। वि वि के ही एक अन्य विद्वान से बहुत पहले मेरी मुलाक़ात हो चुकी थी।रामचरितमानस –प्रवचन के
दौरान इन विद्वान से मैं टकराया भी था । तब
मैं कक्षा आठ का छात्र था। अपने चाचा के साथ मैं इनके घर गया था। वहीं मैंने डी के राय के बारे में पूछा। उन्होने बताया कि
अरे ये बड़े विद्वान है। अध्यात्म में भी गहरी रूचि है।नोबेल पुरस्कार की योग्यता
रखते हैं। सुनकर अच्छा लगा। पर निकट से
देखने की लालसा और तीव्र हो उठी। पड़ोसी गाँव के होने के नाते जल्दी ही मैं उनके
परिवार के संपर्क में आ गया।फिर तो मैं बहाना बनाकर उठने बैठने की कोशिश करने लगा।
पर यह अजानुभुज योगी हमसे कई कदम आगे का निकला। मैं भी कहाँ हार मानने वाला। मैंने
इनका पीछा किया। कई बार ये टहलते हुए मिले । अब तक मैं इनका दीवाना हो चुका था।
मैं इनकी तरह बनना चाहता था। विश्वास हो या न हो पर मुझे अच्छी तरह याद है कि मैं
रायसाहब के पदचिन्हों पर चलने की कोशिश में इनके पैरों के निशान पर भी चला।यह एक
पागलपन था। पर जो आनंद उस छाप पर चलने में मिलता था उसको शब्दों मे नहीं बांधा जा
सकता। ..लोग हैं लागि कवित्त
बनावत/ मोहिं तो मेरे कवित्त बनावत
। मूर्खतापूर्ण हरकतों से ही सही मैं उनके निकट आ ही गया। कभी –कभार मैं उनके
विभाग में उनके पास बैठने के लालच में चला जाता था। अक्सर कुछ लोग उनके चेम्बर में
बैठे मिलते थे। लोग विभिन्न विषयों पर अपनी बहस चला रहे होते थे और रायसाहब एक
सिद्ध योगी की नाईं अपने काम मे लगे रहते
थे।
51
वर्ष की अपनी विश्वविद्यालयी सेवा काल मे
रायसाहब ने कई उतार-चढ़ाव देखे,पर
सत्य से कभी डिगे नहीं। वि वि के
कार्य-परिषद सदस्य के दौरान कई विकट परिस्थितियाँ सामने आई पर उन्होने वि
वि हित से कभी समझौता नहीं किया। वि वि के
एक महत्वपूर्ण पद पर ‘इन अबसेंसिया’
एक व्यक्ति का चयन हुआ था। यह चयन गलत था । पर कुलपति अड़े हुए थे। कार्यपरिषद की
मीटिंग दिल्ली में होनी थी। मुझे वि वि के एक
वरिष्ठ सदस्य ने बताया कि इस चयन पर रोक लगनी चाहिए। मैं भागता हुआ उनके
कार्यालय पहुंचा । वे जाने की तैयारी कर
रहे थे । मैंने अपनी अपनी बात एक ही सांस में
कह डाली। उन्होने कहा- ‘जा
कुल ठीक होई’।
सत्य
के प्रति उनकी निष्ठा गहनतम थी। पर कटु सत्य कहने से बचते थे। किसी भी बात को बड़े
प्रेम से समझाते थे। एक दिन एक आचार्य अपने लोभ-दृष्टि से वहाँ अवतरित हुए। महोदय
ने अपनी बात जब कह ली तब उन्होने प्रेमपूर्वक
कहा – ‘एगो प्रोफेसर के कुलपति से का
चाही। आप काहे के लालच करतानी’।
प्राय: लोग उनको घेरे रहते
थे। शील-संकोच से वे कुछ कह नहीं पाते थे। पर सिद्ध पुरुष की तो अपनी दृष्टि होती
है। एक सज्जन जो अक्सर आकर अपनी विद्वत्ता हांक जाते थे एक दिन बुरे फंसे । अचानक रायसाहब
को पता नहीं क्या सूझा और एक जर्नल उनको पकड़ाते हुए कहा कि ‘तनि एके पढ़के बतइह कि ए मे का लिखल बा’।
स्वयंभू विद्वान महिनों दर्शन नहीं दिये।
रायसाहब
शील प्रधान गार्हस्थ्य जीवन के अप्रतिम
साधक थे।जीवन को वे संपूर्णता मे देखते थे । संयुक्त परिवार-पुत्र-दांपत्य-समाज और
शैक्षिक कर्तव्य सभी मोर्चों पर एक कुशल कलाकार की भाँति वे डटे रहे। अहर्निश
सतर्कता जैसे उनका सहज धर्म बन गया था। अद्वैत दर्शन के साधक रायसाहब यह मानते थे
कि कर्म को निरासक्त होने के साथ-2 ईश्वरीयता से भी जुड़ना होगा। जब भी इस तरह की
चर्चा उनसे होती थी लगता था जैसे मेरे समक्ष कोई ऋषि खड़ा हो । मंत्रमुग्ध होकर
उन्हें सुनने में बड़ा आनंद आता था। पर
इसके लिए थोड़ी मेहनत करनी पड़ती थी। मैं जब
गांधी के सौन्दर्य – बोध पर काम कर
रहा था तो उनसे इस विषय पर खूब चरचा होती थी। मैंने जब उनसे आग्रह किया कि वे
इस पुस्तक पर अपना आशीर्वचन दें तो बड़ी
विनम्रता से कहा , “ इसमें मेरी गति
नहीं है”।पर जब पाण्डुलिपि छोडकर आया तो उसमे बहुत से सुधार किए । उन्होने बताया
कि सी वी रमन ने भी अपने शोध द्वारा बताया है कि पाश्चात्य संगीत (ड्रम आदि )शोर पैदा करता है। आगे काव्य -कला के संदर्भ में उन्होने जोड़ा - ‘कीन्हें
प्राकृत जन गुन गाना । सिर धुनि गिरा लगत पछिताना’।
गांधी
के प्रति उनके मन में बड़ा आदर भाव था। अक्सर उनसे गांधी पर चर्चा होती थी। एक बार
प्रसिद्ध बाल चिकित्सक डा एस एन राय के
साथ उनके घर जाना हुआ । सेवा निवृत्ति के बाद अभी वे वि वि कैंपस मे ही रह रहे थे।
जब हम लोग उनसे मिलकर बाहर आ रहे थे तो मैंने उनसे पूछ कि अब आगे क्या विचार है ?
तो उन्होने कहा कि अरे इस semi –turmoil में
सब अच्छा से कट गया । यह क्या कम बड़ी बात
है। तुरंत मेरे मन में गांधी का कथन कौंधा – I
have to search my peace in semi turmoil । बाद में मैंने उनसे
पूछा कि आखिर यह कैसे हुआ कि गांधी और आप एक ही शब्द का प्रयोग कर रहें है। फिर
वही सहजता –Coincidence।
हालांकि बाद में इस पर गंभीर चर्चा भी हुई। पर इतना तो तुरंत ही अंदाज लग गया कि
मालवीय जी के इस कर्मभूमि में कुछ अच्छा नही हो रहा है।
मृत्यु
से कुछ वर्ष पूर्व अचानक तबीयत खराब होने के संदर्भ मे उनसे उनके आवास पर शाम को
एक बार चर्चा हो रही थी।जीवन में पहली बार उनके चेहरे पर नैराश्य – भाव दिखा। उस
दिन जीवन-मृत्यु को लेकर लंबी चर्चा हुयी । हमेशा उनको सुनना पसंद करने वाला मेरे
जैसा रजील व्यक्ति भी उस दिन वाचाल था। वे धैर्य-पूर्वक सुनते रहे और मैं .......
। अंत में मैंने पूछा तब! बोले –‘तब
का बचपन गंगा जी क किनारे गाय-गोरू के नहवावत-खेलत बीतल अब एइजो गंगाजी लगिए बाड़ी।
उनही क गोदी मे जाय क तैयारी बा’।
मेरा माथा ठनका ।रायसाहब जैसा अनासक्त-कर्मयोगी जो जीवन भर घर-परिवार-मित्र-समाज
की संरक्षा-सुरक्षा के लिए विषपान करता रहा वह ऐसा क्यों कह रहा है?
मन ने रास्ता तलाशना शुरू कर दिया। आखिर हर विपरीत परिस्थितियों में हम बचने की
जुगत तो खोजते ही हैं।याद आया । महाभारत
के अंत में कृष्ण और स्वतंत्रता की लड़ाई के अंतिम दिनो में गांधी ने कहा था –‘अब
मेरी कोई नहीं सुनता’। अर्थात जीवन रूपी
रंगमंच पर अब अपना समय समाप्त। गोधूलि की उस पावन वेला में मैं सिहर उठा। चुपचाप
उठा और चरण छूकर निकल आया।
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