कला,कलाकार,कोलाज और हमारा समय
कला के बारे में गांधी की कुछ पंक्तियों को देखें –
‘वैराग्य जीवन की सबसे बड़ी कला है’।
‘सर्वोत्तम कलाकार वह है जो सर्वोत्तम जीवन जीता है’।
‘कला और धर्म चिरकालीन साथी है’।
ढाई हजार वर्ष पूर्व बुद्ध काल में मनुष्यता गंभीर संकट में थी । कहते हैं कि उस समय समाज कामना-विकल था। समाज सिर्फ और सिर्फ रमण-तृषा और हिंसा को ही अपना चरम मूल्य मानता था। इसकी तृप्ति में मनुष्यअत्यंत अशांत-क्षमाहीन-विरामहीन हो चुका था। बताया जाता है कि बुद्ध की चचेरी बहन उत्पल्वर्णा के साथ बुद्ध के ही चचेरे भाई देवदत्त ने अरजावस्था में उसके साथ बलात्कार किया था। भागकर वह बुद्ध के शरण में आ गई। क्षेमा नामक एक लोहार कन्या का पीछा एक मनचला युवक लगातार करता रहा। थककर उसने पूछा, “क्यों पीछे पड़े हो?”युवक ने बेहूदगी पूर्वक जबाब दिया, “तेरी आंखे इतनी सुंदर क्यों हैं?” क्षेमा ने “ले जा इस पाप सौंदर्य को’ कहते हुए तुरंत अपनी आंख निकाल कर दे दिया । बुद्ध के शरण में वह भी चली आई । नर –हत्या का शौकीन अंगुलिमाल आपादमस्तक नरमुंड पहनने में अपनी शोभा देखता था। बुद्ध के पास वह भी आया। तात्पर्य यह कि उस काल में अनेक क्षेमाएं और उत्पल्वर्णाएं भागती-फिर रहीं थीं तो दूसरी तरफ अनेक देवदत्त और अंगुलिमाल ‘काशी के साँड़’ की तरह जहां-तहां मुंह मारते फिर रहे थे । पाखंडी बुद्धिजीवियों का भी खूब बोल-बाला था । अलग-2 मठ-संप्रदाय स्थापित हो रहे थे । आज का युग क्या इससे अलग है? सत्ता के शीर्ष पर पर बैठा ‘मोहन’ मौन है । बुद्धिजीवी अथवा उसका गाड फादर कविता-कहानी-पुरस्कार के फेर में ही अपनी क्रान्ति देख रहा है । (वैसे भी वह अपना सत्व तो आजादी के बाद ही खो बैठा था।) चापलूसों की फौज ने आह-उह से सुसज्जित शेरो-शायरी से उसे‘मुहम्मद शाह रंगीला’ बना दिया है।
कलाचिंतन राष्ट्र की सांस्कृतिक दाय का नवनीत होता है। इसका प्रभाव अदृश्य होता है। किसी ने लिखा है , “किसी भी काल में चाहे वह युद्ध-काल हो या रति काल हो, कला की भूमिका सदैव धारक की होती है। मनुष्य के अंदर अनेक शांत गुण हैं और उनके बिना उसका मनुष्यत्व पशुत्व से भिन्न नहीं किया जा सकता है। भयानक से भयानक परिस्थितियों मे भी कला मनुष्य के इन शांत-शिष्ट बीजों को बचा ले जाती है’। कला को भारतीय आर्य ने इसी रूप में देखा है, “पश्य देवस्य काव्यं,न मर्मार न जीर्यते”। हैवेल ने इस पर मुग्ध होकर कहा था, “भारतीय सौंदर्य धारणा असत से सत की ओर अग्रसर है।इसकी आंखे मात्र वाह्य रूप-रेखा का सौंदर्य न देखकर आंतरिक सौंदर्य देखती है। ......उसका प्रमुख उद्देश्य ऐसे वैचारिक स्तर कोप्राप्त कर लेना होता है,जहां वह सीमित के माध्यम से असीम को उपलब्ध कर सके ....’ ।
कला का कर्ता व्यक्ति है। परंतु यह व्यक्ति की तुष्टि या मौज शौक के लिए नहीं,समूह की तुष्टि-पुष्टि और शील-सरंक्षण के लिए रचा जाता है । सर्जक व्यक्ति किसी न किसी रूप में समूह,देश ,काल और शाश्वत जीवन से जुड़ा रहता है।इसलिए उसकी रचना में हमें दर्शन,सांस्कृतिक परंपरा,परात्म्परता,शाश्वतता आदि देखने को मिलता है । प्रत्येक कलाकार की अपनी पहचान हुआ करती है। ‘माइकल एंजिलों जब अपनी प्रसिद्ध कृति ‘मरियम’ की रचना –प्रक्रिया में छेनी-हथौड़ा लेकर भिड़ा हुआ था तब किसी ने उससे पूछा –‘बेटे की अपेक्षा मां क्यों इतनी कम उम्र और हसीन लगती है?’उसका उत्तर था-‘साधारण अनुभव की बात है कि जो नारियां चरित्रवान होती है उनका सौंदर्य दीर्घकालीन होता है। उनकी देह-छंद जल्दी विकृत नहीं होता । तो ऐसी अवस्था में में कल्पना करो कि ईश्वर की मां मरियम जो नारीत्व की चरम शुचिता (अवश्य ही ‘स्त्री विमर्श- अध्ययन’ की नहीं) का प्रतीक है,कितनी सुंदर और किशोरी रूप में अंकित होनी चाहिए’। तत्पश्चात उसने इस कृति की नीचे अपना हस्ताक्षर खोद दिया’ । कहते हैं कि यही प्रथम और अंतिम कृति है जिस पर एंजिलों के हस्ताक्षर हैं। बाद में उसे इसकी जरूरत ही नहीं पड़ी । कलाकार की शैली ही उसका अपना हस्ताक्षर होती है।
प्रत्येक सजीव प्राणी का ‘रूप-तीर्थ’ में स्नान करने उतरना उसके अंदर उपस्थित ‘कामबोध’की पूर्ति की एक सहज-स्वाभाविक क्रिया है जो उसकी रति-संवेदना के उत्थित होने में सहायक होती है और इसमें उसकी सहायता करता है उसका संस्कार-परिवेश-आवेष्टित समूह मन । युद्ध,कारबार,खेलकूद और भोजन सामूहिक हो सकता है । पर श्रंगार रस और करूण रस में साझा नहीं होता। अभिसार,रतिक्रिया और रुदन में समूह का दखल नहीं चलता है । ऐसा दखल दखलंदाजी होगा और यह दखलंदाज़ी ‘निर्भया-दामिनी’के ‘बलात्कार- कोलाज’ के रूप में हमारे सामने आती है। राम-चबूतरा हो,सिद्धार्थ- विहार हो या फिर गांधी–पुतला,प्रतिदिन इस ‘कोलाज-कला’ के विकृत स्वरूप से हमारा आमना-सामना हो रहा है। सच तो यह है कि आज का पढ़ा-लिखा पाठक यह समझने मे असमर्थ है कि इन नई प्रवृत्तियों में सौन्दर्य - बोध का पतन हुआ है और यदि इसे प्रचार या वाह-वाही मिली है तो इसलिए कि हम कला को कला के रूप में प्यार करने में असमर्थ हो चुके हैं। कला की यह आत्मक्षयी भूमिका है ।आज का कलाकार कला की रचना नहीं करता है अपितु कला के साथ रसपूर्वक ‘रेप’ करता है। और जब-जब ऐसा कुछ घटित होता है तो संकुल मे बैठा अपने मन का‘भूमिहार’ छोरा अंगूठा दिखाते हुए कहेगा- ‘कर्र-ही!’ और तभी कोई परिचित ‘बाँके नयन परोसे जो’प्रकृति का सहज मुक्त-हास्य बिखेरती हुए कहेगी अरे यह ‘कोढ़ में खाज’ वाली कला है रे ! चलो हम ‘शेरपुर’ चलें। वहाँ फिर से महाराग की खेती शुरू करें । यहां अब भी सृजन- क्षमता बाकी है।
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