गोधूलि वेला में सरस्वती पूजा
विश्वविद्यालयीय नौकरी से जुड़ने के साथ ही मेरा ‘कुबेर अनुभव’ समृद्ध से समृद्धतर होता चला गया । रही सही कसर के लिए गूगल महाराज 24 X7 घंटे तैयार रहते हैं । देश,काल और यथार्थ के बारे में कोई भी जानकारी चाहिए गूगल क्लिक कीजिये, ज्ञान हाजिर । मैंने भी एक दिन‘आदम-लोभ’ के प्रभाव में गूगल को क्लिक कर ही दिया । देखा कि यहाँ तो कृष्ण के विश्वरूप के समान अनंत ज्ञान फैला है । एक से बढकर एक योद्धा -‘मंदिर-2 प्रतिकर सोधा । देखे जंह तंह अगणित योद्धा ॥’ तभी मेरी नजर एक कोने में पड़ी । मेरी आंखे फटी की फटी रह गई । मैंने देखा कि ‘विद्या माई’ प्रेमचंद की बूढ़ी काकी की तरह अलग-थलग पड़ी हुई हैं । सहसा मुझे विश्वास नहीं हुआ । बचपन में पिताजी ने ‘विद्या माई’ की पवित्रता के बारे में ढ़ेरसारे श्लोक रटवा डाले थे । परिणाम यह कि ‘व्यये कृते एव वर्धते विद्याधनम सर्व धनम प्रधानम’ रूपी यथार्थ भाव आज तक मन मेरे मन में गहरे बैठा हुआ है । क्या मजाल कि कोई पुस्तक आदि पैर से छू जाय । यदि किंही परिस्थिति में छू भी गया तो तुरंत प्रणाम करते हुए क्षमा याचना के सहित प्रायश्चित करना पड़ता है कि कहीं ‘विद्या माई’ रूठकर दूसरे के घर न चली जाय । परंतु अब मुझे पता चला है कि ज्ञान अथवा किताब सब कुछ अन्य वस्तुओं की तरह एक ‘माल’ है जिस पर आयोग अथवा किसी बोर्ड/मंत्रालय का ही अधिकार/कब्जा है । वे जब जितना चाहें उतना ही आपको देंगे । उससे इतर होने पर अनुदान/मान्यता रद्द की जा सकती है।
हाल-हाल में ऐसा ही एक वाकया हुआ । एक विवि ने अपनी स्वायत्तता की परिधि में जंग खा रही बरसों पुराने पड़े कार्यक्रम में बदलाव की सोची । अध्यादेश/अधिनियम के अनुरूप‘सरस्वती- मूर्ति’ को संशोधित / परिवर्धित करते हुए महामहिम के दरबार में चित्रगुप्त रूपी समर्थ डाकिये के माध्यम से भेज दिया । पर यहाँ ‘सरस्वती- मूर्ति’ की आंतरिक संरचना भी ‘रजा-शुजा-हुसैन’की ही तरह अलग-2 किस्म की है यह बाद में पता चला । यह घोर कलियुग ‘विद्या माई’को भी सरकारी नजरिए से देखता है। जैसा युग वैसा मनु और वैसा विधान । सरकार बदलने के साथ ही ‘सरस्वती- मूर्ति’ को भी बदलने की तैयारी हो गई । टोपी-पैंट पहनकर बरसों से डंड-बैठक करने वाले मुकुटधारी सक्रिय हो गए । ‘सरस्वती- मूर्ति’ की पूजा तो हम करते हैं । ये‘कपिल-कामेडी’ के चाँद-सितारे कब से सरस्वती-पूजा करने लगे । फिर दरबार की क्या मजाल । उसने भी अपनी मौन सहमति दे दी । पर खेल इतना आसान नहीं था । उधर ‘दान-ज्ञान- अध्यक्ष’भी बदलते माहौल में अपने को स्थापित करने के फिराक में थे । दूर से ही ‘दान-ज्ञान- अध्यक्ष’ ने इस आहट को मनुष्य के सबसे पुराने और विश्वस्त साथी के घ्राण शक्ति को धता बताते हुए समझ लिया कि अब वंदना कहाँ करनी है । संध्या-वंदन में अध्यक्ष ने अंतर्मुखी होकर ‘अंतरध्वनि’ को सुनने का प्रयास किया । ध्यान की गहन स्थिति में अध्यक्ष को तीव्र ‘प्रकाश’ का बोध हुआ । उम्र के अंतिम पड़ाव पर पहुँच कर उम्र-विवाद का दंश झेल रहे दान-ज्ञान- अध्यक्ष की परमा स्मृति (racial memory) ने उसे सहारा दिया । वे तत्काल न्यूनकोण का आकार बनाते हुए चित्रगुप्त के दरबार पहुँच गए । त्राहिमाम-त्राहिमाम करते हुए राजदरबार में औधे मुंह गिर पड़े । दरबारी सकते में पड़ गए । दान-ज्ञान-अध्यक्ष ने जमीन पर पड़े- पड़े ही कनखियों से दरबार का अवलोकन किया और मानस की एक चौपाई का मधिम स्वर में पाठ किया – ‘सुनहि बिनय मम विटप असोका । सत्य नाम करु हरु मम सोका ॥’ दरबार में बैठे एक सज्जन ने अपने नाम की पुकार सुनकर चौकन्ने हो गए । चाचा चौधरी के दिमाग को मात देते हुए उन्होने मौके की नजाकत को समझ लिया और दौड़ कर ‘दान-ज्ञान- अध्यक्ष’ को सहारा दिया और आने का सबब पूछा । रूआंसे होते हुए उन्होने ‘सरस्वती-मूर्ति’ के साथ हो रही छेड़खानी को अपने खास अंदाज में प्रस्तुत किया । दरबारियों ने चित्रगुप्त के भाव को समझते हुए एक स्वर में ‘यह अन्याय है-यह अन्याय है’ का नारा बुलंद किया । दरबार के एक कोने में खड़े राणा प्रताप आवाक होकर दान-ज्ञान-अध्यक्ष का मुख देख रहे थे । दान-ज्ञान-अध्यक्ष ने अपनी बाईं आँख दबाई और बीती बातों से तौबा करने के अंदाज में दोनों हाथ से कान पकड़ा । मरता क्या न करता । राणा प्रताप ने भी समय की नजाकत को देखते हुए सिर हिलाया और अपने कमरे में आने का संकेत करते हुए वापस लौट आए । चित्रगुप्त के दरबार में सभी की हाजिरी लगी । उपस्थित बंधु-बांधव ने एक सुर में ‘सरस्वती-मूर्ति’ के साथ हो रही छेड़खानी को अक्षम्य बताया और कुलगुरु को सबक सिखाने पर मुहर लग गई। पर यह कार्य चित्रगुप्त के दरबारी अपने हाथों नहीं करना चाहते थे । उनकी इस समस्या का हल तुरंत निकल गया । दान-ज्ञान-अध्यक्ष ने अपनी CV दिखाई और कहा-सर मैंने इस तरह के कई कार्य पहले भी किए हैं। उत्साह मे अपनी पीठ स्वयम ठोंकते हुए कहा ‘सर ,रंग बदलने में गिरगिट भी शर्माएगे । रंग बदलना हमारे डी एन ए में है और इसकी जानकारी डा रेड जी ने हमको उनके फाउंडेशन में दान-दक्षिणा देने के बाद दी है । अत: इसकी ज़िम्मेदारी हमे सौंपा जाय और हम इसे निष्ठा पूर्वक संपादित करेंगे ।’
चित्रगुप्त के दरबार में हलचल हो और मीडिया शांत रहे । ऐसा हो नहीं सकता । मीडिया ने भी बहती गंगा में अपना हाथ धोने की कोशिश की । प्राय: सभी खबरियों ने अपने-2 तरीके से सरस्वती-मूर्ति के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी को जनता के सामने रखा । एक खबरी जो अपने स्टुडियो में ‘नेशन वांट्स टु नो’ का राग अलापते रहते हैं, ने बड़े ही विचित्र अंदाज में कहा कि यह कितना हास्यास्पद है कि सत्तानबे-अठानबे प्रतिशत अंक बटोरने वाला विद्यार्थी अपने स्नातक कोर्स में भौतिकी-रसायन के साथ ‘योग’ पढ़ेगा । मीडिया के बढ़ते प्रभाव के युग में भय वश खबरी महोदय से कोई यह भी पूछने की हिमाकत कैसे कर सकता है कि महोदय आप कौन होते हैं अर्थशास्त्र, राजनीति,रक्षा,पर्यटन,गंगा,अन् तरिक्ष आदि पर अकेले प्रश्न करने वाले । खबरी महोदय भी ‘नेशन-स्टेट’ में इतना फंस चुके हैं कि जमीनी हकीकत से उनका वास्ता ही खत्म हो चुका है । वह तो ‘स्टोरी’ करना जानते हैं । वरना यह जानना बड़ा दिलचस्प है कि सत्तानबे-अठानबे प्रतिशत अंक वाला विद्यार्थी ‘कोटा’ से सीधे जब किसी आई आई टी में प्रवेश पाता है तो वह परखनली-बीकर-वर्नियर कैलिपर्स जैसी सामान्य चीजों से भी अनभिज्ञ होता है । शिक्षा के साथ इससे बड़ा क्रूर मज़ाक और क्या हो सकता है? पर इससे किसी को क्या वास्ता ? यहाँ तो सभी को अपनी-अपनी ढपली और अपना-अपना राग अलापने के सिवा फुर्सत ही कहाँ है? है कोई ‘विद्या माई’ की मदद करने वाला ।
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