Monday, December 1, 2014

आलोचना का विचारधारा पर दबाब
गाजीपुर के प्रमुख साहित्यकार/समाजसेवी डा पी एन सिंह जो श्री राय के लगभग समकालीन रहें हैं, की  कुबेर नाथ राय पर कुबेरनाथ राय की साहित्यिक-सांस्कृतिक दृष्टि नामक एक बहुप्रतीक्षित पुस्तक को देखने का अवसर मिला । श्री राय का का कोई भी पाठक ऐसी पुस्तक को देखकर उसे पढ़े  बिना नहीं रह सकता । खासतौर से तब जब एक प्रखर और गंभीर मार्क्सवादी द्वारा लिखी गई हो। सिंह साहब एक सुधी और गंभीर लेखक होने के साथ-2 लिबरल मार्क्सवादी हैं। ऐसा उनका स्वयम और उनके मित्रों का कहना है।  
कुबेरनाथ राय की साहित्यिक-सांस्कृतिक दृष्टि पुस्तक पढ़ते समय कई सवाल मेरे मन में जल राशि- राशि-जल पर खाता पछाड़की तरह उमड़ने लगे । इसमें कोई दो राय नहीं है कि सिंह साहब ने श्री राय के करीब-करीब सभी संकलनों को गंभीरता से पढ़ा है । तभी तो उन्होने स्पष्ट तौर पर कहा है  ये गंभीर साहित्येतर सरोकार वाले साहित्यकार हैं। .... साहित्य को जिस गंभीरता से लिया,उस गंभीरता से शायद ही किसी ने लिया हो।(सिंह:पृ.81) लेकिन इसी पुस्तक में पी एन सिंह  श्री राय के संस्कृति-बोध पर धावा बोलते हुए सिंह गर्जना के साथ  लिखते हैं- भारतीय संदर्भ  में तो क्षेत्रीय राजनीतिक दलों ने संस्कृतिवादियों की तुलना में उन्नत एवं समझदार राष्ट्रवाद का परिचय दिया है।(सिंह:पृ.52) दर्जनों क्षेत्रीय राजनीतिक क्षत्रपों के घोटालों-घपलों,परिवारवाद की सर्वोपरिता और लिखाई-पढ़ाई से दूर-दूर  का नाता न रखने वालों के पास किस तरह का उन्नत एवं समझदार  राष्ट्रवाद का विजन है, इसे लेखक ही  बता सकता हैं । सिंह साहब व्यक्तिगत बातचीत से लेकर लेखन तक में  श्री राय के गंभीर प्रशंसक हैं । परंतु विवेच्य पुस्तक में यत्र-तत्र अनेकश: दुविधायुक्त टिप्पणियाँ दी गई हैं जो उनके वैचारिकी से मेल खाता है ।  श्री राय  पर स्वत: स्फूर्त बहुत कम है ... एक निबंध लिखने में चार-पाँच माह का समय लगाते थे ....भाषिक क्लिष्टता’,’संदर्भों एवं उद्धरण की बहुलता’, अतीत मोह और आधुनिकता की सम्पूर्ण अस्वीकृति है’…….‘आधुनिकता से परेशान........ आक्रोश एक स्थायी भाव.... आधुनिकता से आतंकित एवं पराजित ... अलग-थलग पड़े श्री राय..... सुकून पाते हैं...वैचारिक प्रतिद्वंधियों को लताड़ने में......... अतिरिक्त उग्रता है’, शालीनता का दावा अक्सर खंडित होता है’, यथार्थ से न टकराकर जीवन व साहित्य दोनों में सौंदर्य और आदर्श के मनोरम संसार में पलायन करते रहे (सिंह: पृ.17-19)आदि-आदि  जैसे  गंभीर आरोप लगाया गए  हैं । लेखन में स्वत:स्फूर्तता तो ठीक है । पर यह कहाँ लिखा है कि प्रयत्नसाध्य लेखन गड़बड़-सड़बड़ होता है। गांधी भी जन्मना सिद्ध नहीं थे । उन्होने भी जो अर्जित किया वह प्रयत्नसाध्य ही था । पर इससे उनका कद छोटा नहीं हो जाता । यह जरूरी नहीं कि सभी जन्मजात प्रतिभाशाली लेखक ही हों और सर्वोत्तम हों । यदि हम अपने अगल-बगल नजर दौड़ाए तो बहुत से प्रतिभाशाली और स्वत:स्फूर्त(?)के धनी विद्वान अपने लेखन और जीवन में  कौड़ी के तीन दिखते हैं । ये स्वत:स्फूर्त  विद्वान पब्लिक रिलेशन बनाने और प्रकाशन- पुरस्कार की गणेश परिक्रमा में ही अपना पूरा जीवन भी खपा देते हैं । पर श्री राय ने तो  कार्तिकेय-मार्ग का रास्ता अख़्तियार किया था । जिस दिल्ली के लिए आधुनिकतावादी रात-दिन एक किए रहते हैं वहाँ आने से  उन्होने मना कर दिया था । मना करने में कोई उग्रता अथवा ईगोइज़्म नहीं था वरन विशुद्ध गंवई सहजता और निजी संकोच थी ।
।श्री राय के ही जिले के एक ख्यातिलब्ध साहित्यकार हैं डा विवेकी राय । उन्होने साहित्य की कई विधाओं में अपनी कलम चलायी है । पर निबंधकार के रूप में उनकी पहचान न के बराबर है । फिर भी पी एन सिंह  की दृष्टि में  निबंधों में द्विवेदी जी के बाद केवल विवेकी राय के निबंधों में विट’, ह्यूमर और विडम्बना का सहज एवं मनोरम समायोजन हो पाया है। आगे लिखते हैं - श्री कुबेर नाथ राय हजारी प्रसाद द्विवेदी के बाद सबसे बड़े निबंधकार थे,लेकिन उनकी समस्या अवश्य है कि उनका पांडित्य रच-पच कर फूल की तरह सुगंध नहीं बन पाता । फिर भी उनकी श्रेष्ठता असंदिग्ध है।(सिंह: पृ.81)विरोधाभास का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है। इसी तरह की टिप्पणी प्रो शिवप्रसाद सिंह ने भी की है –‘न तो वे विवेकी राय बन सके... न तो विद्यानिवास मिस्र रह गए। शायद इसी अश्रेष्ठता के कारण ही हजारी प्रसाद द्विवेदी अथवा विद्यानिवास मिश्र आदि जैसे ललित निबंध के श्रेष्ठ साहित्यकारों ने भूलकर भी अपने पूरे जीवन काल में श्री राय की कहीं चर्चा नहीं की है। अस्सी  के दशक के अंत तक  श्री राय ने अपना श्रेष्ठतम लगभग दे दिया था । और तो और  एक ख्यातिलब्ध हिन्दी विद्वान की कृति है हिन्दी साहित्य  और संवेदना और विकास । इस पुस्तक में भी श्री राय पर एक चलताऊ टिप्पणी कर इतिश्री कर ली गई है ।  हिन्दी साहित्य में उठापटक से लेकर पीठ खुजलाने वाली परंपरा बहुत पुरानी है । इसकी झलफलाहट विवेच्य पुस्तक में सावधानी के बावजूद  भी यत्र-तत्र दिख ही जाती है।    
श्री राय के  लेखन  की खासियत रही है ईमानदारी से संदर्भ देने की । व्यक्तिगत बातचीत तक का भी  संदर्भ देने में  वे चूक नहीं करते हैं। इस साफ़गोई को  डा सिंह ने संदर्भों एवं उद्धरण की  बहुलताकहा है। श्री राय बहुपाठी थे। पढ़ने के बाद पचाते भी थे। फिर उसे आधुनिक संदर्भ में प्रस्तुत करते थे। ऐसा करते समय जब कभी उन्हे आवश्यकता महसूस हुई संदर्भ को स्पष्ट किया है । जैसा कि स्वयम उनका कहना है कि निबंध साहित्य का उद्देश्य ही है पाठक के मानसिक ऋद्धि का विस्तार । अर्थात उसकी चेतना-संस्कार का विकास करना जिससे वह वृहत्तर दायरे में सोच सके ।  सत्तर के दशक में सुदूर दुर्गम इलाके में बैठकर जब श्री राय एआइआर के हवाले से मार्क्सवाद पर उच्चतम न्यायालय की टिप्पणी को उद्धृत करते हैं तो एकबारगी मन चकरा जाता है कि कितनी ईमानदारी,सूक्ष्मता और स्पष्टता से वे चीजों को सामने लाते हैं । इसी टिप्पणी में उच्चतम न्यायालय ने विस्तारपूर्वक टिप्पणी करते हुए कहा है –‘हमे शंका है कि इन्होने (नम्बूदरीपाद) मार्क्सवादी साहित्य को ठीक से समझा है अथवा कभी भी पढ़ा है । ..... या तो मार्क्स के बारे में कुछ जानते नहीं , अन्यथा जानबूझकर मार्क्स एंगिल्स एवं लेनिन की रचनाओं की अपव्याख्या कर रहें हैं (विषाद योग: पृ. 249) यह श्री राय  की टिप्पणी नहीं है । फिर भी यह कहना कि चूंकि रायसाहब ने कार्ल मार्क्स के मूल ग्रन्थों को भी पढ़ने का पंडश्रम नहीं  किया था (सिंह:पृ.42)  इसीलिए  श्री राय की  सेक्यूलर मानवतावाद की समझ कमजोर है और मार्क्सवाद की पकड़ भी विश्वसनीय नहीं है। ..(सिंह:पृ.95) श्री राय ने तो अपने लेखन में मार्क्स को ऋषि कहा ही है कम्यूनिस्ट मैनीफेस्टो को गीता,धम्मपद,बाइबिल,कुरान की कोटि  की रचना मानते हुए  आदर के साथ ऋण को स्वीकार भी करते हैं- इस शताब्दी में कोई भी बुद्धिजीवी ,यदि वह किसी निहित स्वार्थ  से नहीं जुड़ा है, तो मार्क्सवादी प्रमूल्यों से थोड़ा-बहुत जुड़ा तो है ही। (सहजानन्द समग्र : भूमिका ,अप्रकाशित )  पर जो बात अपने देश-मन को न रूचे वे उसे कैसे स्वीकारें । सिंह साहब ने स्वयं स्वीकार किया है -यह सुखद है कि व्यवहृत मार्क्सवाद के प्रति अपनी गहरी असहमतियों के बावजूद श्री राय मार्क्सवाद की मूल दृष्टि और उसकी सात्विक चेतना के प्रशंसक हैं ।(सिंह: पृ.66) गांधी के प्रति श्री राय के मन में अपार श्रद्धा है। पर वह श्रद्धा अंधश्रद्धा नहीं है। जहाँ उन्हे फांक दिखायी दिया है वहाँ अपने विचार को स्पष्ट तौर पर रखा है -सत्य के प्रयोग करने वाले गांधीजी ने वणिक स्वभाव में सत्य के साथ बार-बार  राजनीतिक सौदेबाजी की है और इतिहास पुरुष ने क्रूरता पूर्वक इस सौदाबाजी की कीमत हिदुस्तानी जनता से वसूल की है।(विषाद योग : पृ. 180 )
श्री राय आधुनिकता से कत्तई परेशान नहीं है । आधुनिकता आखिर है क्या ? क्या यही आरोप हम गांधी पर भी लगा सकते हैं कि वे भी आधुनिकता से परेशान थे –‘और जहां-जहां यह चांडाल सभ्यता नहीं पहुंची है वहाँ हिंदुस्तान अब भी वैसा ही है।(हिन्द स्वराज)  श्री राय अतीत मोह से ग्रस्त नहीं हैं । अतीत का वे सम्मान करते हैं। उसमे जो अच्छा है उसे पाठक के सामने रखने का प्रयास करते है। जो विकृतियाँ थीं उस पर सही  ढंग से टिप्पणी करने से भी नहीं चूकते –‘चैत में खलिहान में दाँय कराते समय पशुओं के गोबर में उनके निरंतर अन्न खाते रहने से कुछ अन्न अनपचा रह जाता है । यह अन्न ये चमार गोबर में से बिन लेते हैं और इसे धो-सुखाकर गरमी के बेकारी के दिनों मे इसे खाते हैं। ... रस आखेटक जब यह सोचता है तो उसकी आत्मा में घाव हो जाता है,उसका घोडा तनकर खड़ा हो जाता है,उसके मन में क्रोध के पवित्र फूल फूटने लगते हैं।(रस आखेटक:  पृ.37) वे सावधान करते हुए कहते हैं-  जान लो अर्थव्यवस्था और  राज्यव्यवस्था  में बदलाव से कुछ नहीं होता जब तक हमारी चिंता शैली में आखिरी आदमी,अंत्यज या सीमांत-पुरुष को जगह नहीं मिलती । (पत्र मणिपुतुल के नाम : पृ.13) आधुनिक युग  में चल रहे लुका-छिपी खेल को वे अच्छी तरह समझते हैं-एन्द्रिक,सामाजिक,सांस्कृतिक,आर्थिक अनेक-अनेक  अवदमनों पर आधारित आधुनिक संस्कृति के सारे क्रिया कलाप विकसित हो रहें हैं, कभी वाम-भाषा में तो कभी दक्षिण-भाषा में। (पत्र मणिपुतुल के नाम: पृ. 9 ) अपनी जड़ों की तलाशके लिए तो मार्क्स भी परेशान थे।तो क्या वे अतीतजीवी थे । फिर पे एन सिंह का यह कहना कि इसी कारण वे आधुनिक साहित्य से नाराज है,जो किसी सीमा तक जायज भी है(सिंह: पृ.81) अथवा उनका यह रेखांकन कि योरोपीय व्यक्तिवाद,अतिमानव न पैदा कर अतिदानव एवं चींटी  पैदा कर रहा है,सही है। ....आधुनिक संस्कृति की रूग्णता का उन्होने सही ही रेखांकन किया है। (सिंह: पृ 59) उनके ऊहापोह को ही दर्शाता है।
सिंह साहब का कहना है कि श्री राय मुसलमानों और उर्दू के प्रति असहिष्णु है। (सिंह: पृ.16) मैं गणित का विद्यार्थी रहा हूँ । प्राचीन भारतीय गणितज्ञों के बारे में जानने-सुनने की जिज्ञासा भी रही है। पर उमर  ख़ैयाम भी गणितज्ञ थे यह मुझे श्री राय  के साहित्य से ही पता चला । इतनी बड़ी बात श्री राय जब कह रहें हैं तब वे उसके विरोधी कैसे हो सकते हैं? यह समझ से परे है। हाँ छद्म सेकुलरी की दुकान  अथवा संस्कृति को दारूलशफ़ा से लेकर चाँदनी चौक अथवा दुपलिया टोपी तक ही सीमित कर देने के वे  खिलाफ थे । श्री राय नूरूल हसन की दिमागी उपज नहीं थे । उन्होने तो अपनी उपस्थिति ही हुमायूँ कबीर जैसों की  संस्कृति की उलजुलूल समझ के खिलाफ खड़े होकर दर्ज कराई । उन्होने कभी आई सी एच आर से प्रोजेक्ट लेकर इतिहास का कबाड़ा भी नहीं किया जिसका खुलासा अरुण शौरी ने अपनी पुस्तक  में किया है। जो सच दिखा उसे अपने तईं  सामने रख दिया । गंगा-जमुनी तहजीब अथवा साझा-संस्कृति से उनका तौबा ही रहा ।
डा सिंह ने स्वीकार किया है कि उनसे एकांत कभी सध नहीं पाया और श्री राय इसमें कुशल हैं । दरअसल साधारणीकरण की स्थिति तक पहुँचने की एक महत्वपूर्ण शर्त है एकांत साधना । एकांत-साधना कठिन है ।यहाँ तीन का ही प्रवेश होता है- सिंह,कामी और योगी । पर जब साध्य ही महत हो तो साधन भी वैसा ही होगा।गाजीपुर में रहते हुए भी उनकी दिनचर्या नहीं बदली । महाविद्यालयीय राजनीति(सिंह साहब तो इस राजनीति की रसज्ञता से न केवल वाकिफ हैं अपितु डूबे भी हैं) से दूर वे योगी की नाई निरंतर साधना रत रहे । अपनी निष्ठा से कभी डिगे नहीं । दिल्ली -दौलताबाद अथवा समिति-सेमिनार से निरंतर दूरी बनाए रखा और पाठकों के ऋद्धि विस्तार में लगे रहे । इसीलिये कभी श्री राय  किसी को अलग-थलग पड़े दिखते हैं  तो कभी वैचारिक प्रतिद्वंधियों को लताड़ने में..... सुकून पाने वाले मालूम होते हैं। पर श्री राय तो ऋत-धर्मी थे । वे पाठकों के मानसिक ऋद्धि के साथ-साथ सौंदर्यबोध का भी विस्तार चाहते थे । लेकिन यह सब  सिंह साहब को अभिजातीय दर्प,औदात्य .... से मुखरित के रूप में  दिखाई देता है । उन्होने तो स्वीकार किया है-मेरा जन्म तो तुलसीदास की भूमि पर हुआ है । उनके द्वारा दिये गए उत्तराधिकार का मैं भी भागीदार हूँ । इसका मुझे औसत से ज्यादा घमंड रहता है हिंदुस्तान को बहुत से अक्ल देने वाले बहुतेरे आए और गए ’  हिंदस्वराज में गांधी का यह कथन भी उसी अभिजातीय दर्प का परिचायक है । गांधी हों अथवा कुबेरनाथ दोनों ने मर्यादा में रहकर ही इस बात को कहा है ।
दृष्टि धार्मिक अधिक साहित्यिक कम जैसे आरोप अनासक्त कर्मयोगी श्री राय पर चस्पा करने से भी सिंहजी नहीं चूके । धर्म अथवा साहित्य दोनों का मूल उद्देश्य तो जनता अथवा पाठक की अभिरूचि को उदात्त करना होता है । हो सकता है शब्द कुछ और प्रयुक्त किए जाएं । भाव तो एक ही है । पर प्रेत की तरह चढ़ बैठे  वाम’, दक्षिण प्रगतिशील प्रतिक्रियावादी वर्ग-शत्रु बुर्जूवा आदि शब्दों ने  हमारे मन-मस्तिष्क को ही विकृत कर दिया है । लिहाजा हम गरीब को जब तक सर्वहारा नहीं कहेंगे तब तक हम आधुनिकता की श्रेणी में’  नहीं आएंगे।  यह सब कितना बेमानी है इसका सहज ही अंदाज लगाया जा सकता है ।
 ‘आज के वाम और दक्षिण आदि को (श्री राय) एक ही थैली का चट्टा-बट्टा मानते हैं,क्योंकि सबकी सिद्धांतबाजी मौखिक है । श्री राय की यह टिप्पणी एकांगी है और यह राजनीति की प्रकृति को न समझ पाने के चलते हैं।(सिंह : 78) आज की राजनीति की क ख ग की समझ रखने वाला भी कह सकता है कि राजनीति कितने पायदान नीचे गिर चुकी है । लगता है जैसे पंक्ति-दर-पंक्ति आलोचना करने के लिए लेखक ने कई जगह सिर्फ जबर्दस्ती भर की है । वे श्री राय पर  आरोप लगाते नहीं थकते हैं। श्री राय सैद्धांतिक स्तर पर गांधीवादी-लोहियावादी थे लेकिन व्यावहारिक स्तर पर भाजपाई । कुछ एक सहकर्मी मित्रों ने ऐसा मुझे बताया है।(सिंह :पृ. 79) इस तरह का हास्यास्पद आरोप लगाना वह भी एक लिबरल मार्क्सवादी द्वारा कचोटता है । सहकर्मी मित्रों के आरोप से तो पूरा हिन्दी साहित्य ही भरा पड़ा है। पर कितनों को उद्धृत किया जा सकता है । अगर आरोपों को ठीक तरीके से सिंह साहब उद्धृत कर दें तो हिन्दी जगत का भला तो  होगा ही शीलनद्धता की चर्चा से भी वे बच जाएँगे। वैसे भी कम्यूनिस्ट/मार्क्सवादियों की यह पुरानी आदत है कि यदि आप उनके साथ नहीं हैं तो भाजपायी हैं अथवा संघी ।(हालांकि संघी तो सभी है) क्षेत्र साहित्य का  हो अथवा राजनीति का । यहाँ भी  सिंह साहब ने अपने वैचारिक आग्रह/धर्म का ही पालन किया है। 
मनुष्य के आपसी रिश्ते शीलऔर धर्म से अनुशासित है ।.....साहित्य मनोविलास मात्र नहीं, यह मानसिक चिकित्सा है,मानसिक भोजन पान है और मानसिक तेजस्विता भी है । (सिंह: पृ. 78) किसी भी सभ्य समाज के लिए श्री राय  का उपरोक्त कथन सौ फीसदी सच है। कुछ और आलोचकीय वक्तव्य देखिये -उनकी आलोचना में शुद्धतावादी उत्साह है जो अभिभूत तो करता है पर बहुत उपयोगी नहीं है । इसके बावजूद,उसमें बहुत कुछ है जो प्रकाश देता है और मानकों की खोज एवं व्याख्या के लिए प्रेरित करता है।(सिंह: पृ 73) सिंह साहब आगे गली से बाहर निकलते हैं-उनका लेखन विचारों की खान है,जिनके सहारे अनचाहे भी पाठक को बहुत कुछ सूझने लगता है । दरअसल किसी भी लेखन की सर्वाधिक सार्थकता इसी में है । (सिंह: पृ 68) अब इस पर क्या कहा जाय । लगता तो यही है सिंह राय से सहमत और अभिभूत है पर अपनी वैचारिकी से लाचार है । 
श्री राय की साहित्यिक दीप्ति का यह भी एक राज है।इसमें कुछ भाषिक पाखंड भी है । अतिरिक्त भावाकूलता,भाषिक अतिरिक्तता आदि’  । (सिंह; पृ. 61) पी एन  सिंह के यहाँ  समिधाएँ, रायसाहबी प्रमूल्य ,बहुत उपादेय,शहादती तेवर, बहुत उपयोगी नहीं,.. आदि जैसे कुछ खास शब्दावली है जिसे वे अपने खास अंदाज में गुगली बनाकर फेंकते है । वैयक्तिक चिंता को वैश्विक चिंता के रूप में देखने-दिखाने का अंदाज आदि साहित्य-यज्ञ की समिधाएँ, श्री राय के लेखन में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं जैसा आरोप लगाते समय लेखक यह भूल जाता है कि रामायण और महाभारत भी मूलत: स्वयं के अंदर की परिघटना है । यह तो व्यास-वाल्मीकि-तुलसी का रचनात्मक कौशल है जिसे उन्होने वैश्विक चिंता के रूप में  न केवल प्रस्तुत किया है अपितु कालजयी रचना बना दिया है । जिस आधुनिकता और कथा-साहित्य के पीछे सिंह साहब दीवाने हैं वहाँ भी जीवन के यथार्थ बोध को इसी तरह से दिखाया गया है । भोजपुरी पिच का खिलाड़ी मार्क्सवादी फिरकी गेंदबाजों को ठीक तरीके से खेलना जानता है और, श्री राय इसमें माहिर हैं ।  
आलोचना-समालोचना के बीच डा पी एन सिंह श्री राय के गंभीर प्रशंसक भी हैं । श्री राय  का यह कहना कि काव्य सामाजिक स्वास्थ्य या रूग्णता का विश्वसनीय सूचक है  और इस रूप में यह सर्वाधिक ईमानदार कला है’, उन्हें  श्री राय के निबंधों की एक विशेषता लगती है ।( सिंह: पृ.60)वे यहीं तक नहीं रूकते हैं । श्री राय का जादू सिंह जी पर जब हावी होता है तब वे चिल्ला कर कहते हैं - श्री राय की आस्थागत दृढ़ता ,भाषिक औदात्य,भास्वर स्वर एवं आक्रोशयुक्त निर्णायकता,यहूदी पैगंबरों तथा टामस कार्लाईल की याद ताजा कर देती हैं।(सिंह: पृ 60) लेकिन वे जल्दी ही सावधान हो जाते हैं और अक्सर दूसरों के तथ्यों को पुराना और घिसा-पिटा आरोप लगाने वाली पगडंडी पर स्वयं ही उतर जाते हैं -उनके लेखन में अनपेक्षित दृढ़ कथनों एवं निषेधात्मक टिप्पणियों की भरमार है, जो उनकी आस्थागत दृढ़ता,पांडित्य और भाषिक औदात्य से महिमामंडित है तथा उनकी रसमयता से सिक्त होकर विश्वसनीय बन जाती है...श्री राय का आशावाद किशोर है क्योकि यह परिस्थितियों की ठोस समझ से न निकलकर सनातनमूल्य परंपरा आदि पर आधारित है और इसी कारण अधिक यांत्रिक,वाचाल और रेटारिकलहै ।(सिंह :पृ 56) इस तरह के आभासी आरोपों की  पुस्तक मे भरमार है । पर वे टिकाऊ नहीं हैं। लेखक अगले पृष्ठों में स्वयम इसका निराकरण  भी कर देता है ।
दरअसल सिंह और राय की प्रकृति /बनावट ही अलग-अलग है । एक  को श्रमिक संस्कृति प्रिय है तो दूसरे  को कृषि संस्कृति प्रिय है । केवल श्रमिक संस्कृति को ही शिल्प और साहित्य सिसृक्षा का उपजीव्य और पाथेय बनाने की बात करना संस्कृति के स्थान पर अपसंस्कृति का आवाहन करना है। (विषाद योग: पृ - 30) इस बात के पक्षधर रसेल ,गांधी, सहजानंद ,शुमाखर आदि  भी हैं । सिंह साहब स्वयं  श्रमिक-संस्कृति के नास्टेल्जिया से ग्रस्त हैं पर आरोप दूसरों पर लगाते हैं। उदाहरण देखिये -  रसवाद जिसके गायक श्री राय हैं उससे द्विजता संपोषित, संवर्धित होती है। (सिंह: पृ 22) द्विजता को बिना स्पष्ट किए दूसरा गोला भी  श्री राय पर दे मारते हैं -उनका समूचा साहित्य इसी सांस्कृतिक नास्टेल्जिया से ग्रस्त है। (सिंह :  पृ 23) एक तरफा, बेतरतीब और निराधार आरोपों की झड़ी लगाते हुए गांधी और लोहिया को भी नहीं छोड़ते हैं- लोहिया अपनी राजनीतिक उत्तेजना और गतिशीलता के बावजूद अंतत: यथास्थितिवादी ठहरते हैं,और गांधी एक असंभव विकल्प के चक्कर में अप्रासंगिक सिद्ध  होते हैं। श्री राय में भी यह रोमैन्टिक स्ट्रेन कायम है। (सिंह : पृ 22) दुनियाँ जिस तरह से गांधी के पीछे दीवानी बनी हुई है वह इनके आरोपों को स्वयम खारिज कर देती है ।
रस आखेटक की  पंक्ति सृष्टि के सारे जोड़ों को देखकर यही फैसला करना पड़ता है की पुरूष सर्वत्र नारी से सुंदर और गुणवान है को  उद्धृत करते हुए वे आरोप लगाते हैं-श्री राय की नारी-दृष्टि भी उदात्त नहीं है। दूसरी तरफ वे कहते हैं कि यथार्थवादी साहित्य नारी की स्थापित साहित्यिक एवं शास्त्रीय रोमान से बाहर लाने की चेष्टा करता है।(सिंह: पृ 24) यथार्थवादी साहित्य के पैरोकारों द्वारा  प्रयाग में आयोजित एक सम्मान समारोह में मैं भी श्रोता था । वहाँ  सिंह साहब के एक विवेकधर्मी साहित्यकार ने एक महिला कथाकार की कहानी पर बोलते हुए कहा कि ये भोपाल से आती हैं और भोपाल में चड्ढी वालों का शासन है जिन्हे एक खास बीमारी होती है वह है समलैंगिकता की बीमारी।नये प्रतिमान गढ़ने की इस यथार्थता पर यदि सिंह जी फिदा हैं तो यह  इन श्रेष्ठ मार्क्सवादियों को ही मुबारक । श्री राय ने तो  नैसर्गिक सत्य की ओर सिर्फ अपनी अनामिका भर उठाई है ।   
भारतीय पारंपरिक मेधा की एक पहचान है ।  सीढ़ीगत विभाजन में उसका अटूट विश्वास । श्री राय के साहित्य में इसे निर्बाध अभिव्यक्ति मिली है। (सिंह : पृ 25) अध्ययन-अध्यापन के लिए विषय,जीवन से लेकर सेवाओं तक को अलग-2 रूप में देखा गया है । आज भी सरकारी तौर पर हम चार भागों यथा सामान्य,अन्य पिछड़े वर्ग,अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति में संवैधानिक रूप से बंटे हुए है । श्री राय जीवन की सच्चाई को स्वीकार करते हैं । विभाजन तो रहेगा ही। पर यह विभाजन सिर्फ जन्मना आधारित हो यह उन्हें स्वीकार्य नहीं । जन्म के आधार पर कोई 21वीं शती के मोनो रेल मे घूमे और कोई जड़ीभूत पत्थर की तरह अंधेरे में अपनी जिंदगी गुजार दे , यह  श्री राय को  मर्माहत कर देता है-  एक ही भौगोलिक खंड के भीतर एक ही देशकाल के मध्य कहीं  पर इतिहास रूककर जड़ीभूत अहल्या हो गया था ,तो कहीं पर प्रतिवेश में ही रथ पर चढ़कर श्लोक बोलता हँकड़ता चल रहा था, यों यह कोई अद्भूत बात नहीं। आज भी एक ही गाँव के अंदर किसी टोले में इतिहास जड़ीभूत प्रस्तर बनकर पर्णकुटी के अंदर छह हजार वर्षों से सूप बिन रहा है ...तो किसी अन्य टोले में वह 21वीं शती का नारा लगा रहा है। (विषाद योग : पृ.75) इससे कठोर टिप्पणी और क्या हो सकती है? सिर्फ टिप्पणी ही नहीं की वरन अपने जीवन में इसे जीने की कोशिश भी की और जब जब अवसर मिला उसकी जमकर खबर भी ली है । 
ऐसा नहीं है कि सिंह को राय का लेखन पसंद नहीं है श्री राय ने अपने पांडित्य एवं विराट सरोकारों के बल पर हिन्दी निबंध विधा को विशिष्ट व्यक्तित्व दिया और इसे विश्व के श्रेष्ठ निबंध साहित्य की कोटि  के लायक बनाया है। अगर लालित्य द्विवेदी जी के निबंधों को परिभाषित करता है तो दायित्ववबोध से कुबेर नाथ राय परिभाषित होते हैं,यद्यपि न द्विवेदी जी दायित्व-बोध से मुक्त हैं और न श्री राय लालित्य से।(सिंह: पृ  83)  पर जब मार्क्स का भूत उन्हें  धर दबोचता है तो  वे  आरोप लगाने में देरी नहीं  करते –‘ श्री राय यह नहीं समझ पाये कि आधुनिक बहुल अर्थात बहुसांस्कृतिक राष्ट्र-राज्यों में सेक्यूलरिज़्म ही व्यवहरित मार्क्सवाद है।(सिंह; पृ 64) सेक्यूलरिज़्म की परिभाषा तो आज तक तय नहीं हो पायी है । इस देश की राजनीति और साहित्य का जितना कबाड़ा इस सेक्यूलरिज़्म ने किया है उतना शायद ही किसी ने किया हो । पी एन सिंह स्वयम सेक्यूलरिज़्म के अमूर्त गौरवबोध से पीड़ित हैं पर निशाने पर कोई और है –‘श्री राय गौरवबोध से पीड़ित है। उनका साहित्यिक,सांस्कृतिक तेवर कुछ रोमैन्टिक है और इस कारण माक हीरोइक भी दिखता है ।(सिंह; पृ 25)इस तरह का आरोप तो गांधी पर भी लगाया जाता रहा है ।और यह आरोप गुरुदेव रवीन्द्र  का है । विस्तार में जानने के लिए गुरुदेव औ गांधी के बीच हुए पत्राचार को देखा जा सकता है । 
श्री राय कोई हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखने नहीं बैठे थे कि सभी कवि-कथाकार पर कलम चलाएं । जिस किसी को इतिहास अथवा दूसरा इतिहास लिखना हो  या संवेदना का विकास’  दिखाना हो, यह उनकी ज़िम्मेदारी है । श्री राय का इतिहासबोध प्रखर था । जो उनके साध्य में सहायक हुआ उसे उद्धृत किया वरना पंचाप्सर की मार कन्याओं से मुंह फेरकर अपनी आस्थागत दृढ़ता ,भाषिक औदात्य,भास्वर स्वर एवं आक्रोशयुक्त निर्णायकता को स्वर देते हुए आगे बढ़ते गए जो सिंह साहब की दृष्टि में यहूदी पैगंबरों तथा टामस कार्लाईल की याद ताजा कर देती हैं। श्री राय  आधुनिक साहित्यकारों की तरह भैंसे की तरह गंदले कामजल को पीना और ....की उपासना करने’(त्रेता का वृहत्साम: पृ.67 )से स्वयं को दूर किए रहे । अब जिसको उसमे डूबना हो वह पटियाला-नरेश(कालिंस और लापियर :बारह बजे रात के) की तरह डुबकी लगाए । उनका तो साफ कहना है अब मैं ललित की जवाकुसुम जैसी चटक लाल, उग्र और उत्तेजक भूमिका पर मुग्ध नहीं होता । सरल,तेजस्वी और निष्पाप मुझे ज्यादा आकर्षित करते हैं   
कविता अपने मूल्यांकन के लिए नए  प्रतिमानों की अपेक्षा रखती थी जिसकी शुरूआत ...  ने  कविता के नए प्रतिमान में आलोचना में व्याप्त छायावादी संस्कारों के विरुद्ध अभियान छेड़कर की थी।(सिंह: पृ 34) इतिहास में संक्रमणशील दौर की कविता इतनी जीवन संपृक्त और यथार्थग्राही होती है कि उसमे अभिव्यक्त सुषमा या उसके सौंदर्यबोध को नारी या प्रकृति के दायरे में नहीं समझा जा सकता । यह दौर सुषमा की अभिव्यक्ति का नहीं बल्कि मानव नियति ,इतिहास दशा और व्याप्त यथार्थ को समझने ,व्याख्यायित करने और उसे अभिव्यक्ति देने का हुआ करता है।(सिंह: पृ 34).श्री राय को नए प्रतिमानों से परहेज नहीं है पर रस और भूमा की अवस्थिति अनिवार्य मानते हैं। या वै भूमा तत: सुखम। किसी राष्ट्र के निर्माण में  केवल संक्रमणशील का काल ही महत्वपूर्ण नहीं होता है अपितु उसके पूर्व और बाद का काल और भी महत्वपूर्ण होता है । जो राष्ट्र अर्जुन के वीरासन’( भूत-भविष्य-वर्तमान) को साधता है वही महान होता है । केवल वर्तमान को ध्यान में रखकर बनाई गई योजना स्थायी नहीं होती है । इसलिए रायसाहब को फागुन डोम और रंगा मांझी भी उतना ही प्रिय है जितना कि गांधी-रवीन्द्र-कुमारस्वामी  ।   
सिंह जी के यहाँ मजेदार आरोपों की भरमार है । जैसे  श्री राय ....... के मार्क्सवाद पर लगाए गए आरोप पुराने हैं। ..... अगर श्री राय मार्क्स के दायरे में हुए विवादों एवं संवादों से बखूबी परिचित रहे होते तो इन पुराने आरोपों को दुहराने की आवश्यकता न पड़ी होती।( सिंह; पृ 40) अर्थात पुराने आरोप नहीं लगाना चाहिए । हर दशक में नया आरोप गढ़ना होगा । इतना ही नहीं जिस पर आरोप लगाया जा रहा है  उससे उसके दायरे में परिचित हों तब कदम आगे बढ़ाए । तब  सिंह का यह आरोप कि  वर्षों पूर्व जब मैंने रामायण पढ़ी थी ...... मुझे तो राम मुहम्मद जैसे दिखते हैं  ........पुष्यमित्र और शशांक ने बौद्धों के साथ जो किया वह मूर्ति-भंजक प्रारम्भिक इस्लाम के जेहादी तेवर से भिन्न नहीं थे(सिंह:पृ.46) अपने आप धराशायी हो जाता है। पर इसे और बल प्रदान करने के लिए जब वे समसामयिकता से जोड़कर यह लिखते  हैं -दलित बुद्धिजीवी मित्र डा तुलसी राम बताते है कि आदि शंकर की वैचारिक दिग्विजय में पीछे-2 शैव शासकों की सेनाएँ थीं......। तब क्या ऊपर के आरोप उनके मित्र पर सटीक नहीं बैठते है ? जिस मानक को एक के  लिए फिट समझते है वह दूसरे के लिए भी तो फिट हो । वरना यह तो चालाकी समझी जाएगी जिसके लिए मार्क्सवादी आलोचना’  सदा से बदनाम रहा है । अब प्रतिमानों को भी शाखामृग बनना होगा ।  यहाँ एक  बात रेखांकित करने योग्य और  है । पहला यह कि मित्र महोदय दलित होने के साथ-2 बुद्धिजीवी भी है ।  चूंकि शंकर ने बौद्ध धर्म को पराजित/निष्कासित(सच है या झूठ इसका कोई प्रमाण नहीं है ) किया था और आज बौद्ध धर्म एक दलित धर्म के रूप में परिणित होता जा रहा है तो अपनी बात को बल देने के लिए तुलसी राम का सहारा लिया गया है। इसी पृष्ठ पर सिंह जी ने एक प्राचार्य मित्र का सहारा लेकर लेखक श्री राय पर फिर वार करते है –‘दरअसल भक्त मन तथ्यता से नफरत करता है,उसे केवल भव्यता और दिव्यता चाहिए। (सिंह: पृ 47) जीवन में भव्यता और दिव्यता की आकांक्षा  किसे नहीं होती-रोटी-दाल से लेकर शयन कक्ष’  तक । लेकिन सर्वहारा कहने /कहलवाने वालों की यह खास आदत होती है कि जीवन में हर सुख-सुविधा का आनंद उठाओ पर देहात मे पाँच बीघे के काश्तकार को भी सामंत और बुर्जूवा से जरूर नवाज दो। क्योंकि इससे ग्रेटर कैलाश की अपनी आलीशान कोठी का सहज बचाव हो जाता है । 
 ‘क्या यह सच नहीं है कि वर्णाश्रम पारंपरिक शासक वर्ग सवर्ण के हितों की संपोषक रही है। (सिंह: पृ 48) अथवा दया,दान,कृतज्ञता,वफादारी जैसे मूल्य सामंती समाज के मूल्य  हैं।(सिंह: पृ 49) जैसे आरोप  बिना किसी आनुभविक अध्ययन के लगाना कहीं से भी तर्कसंगत नहीं है। यह तो रामशरण शर्मा जैसे इतिहासकारों का बनाया छद्म रास्ता है जिंहोने अपनी सुविधानुसार रामायण-महाभारत को कभी मिथक तो कभी इतिहास के रूप में देखा है ।   
 ‘राम के हिंसा को वे महाकरुणा मानते हैं,लेकिन लेनिन एवं माओ में  उन्हें उस महाकरुणा का कोई अंश नहीं दिखता ।(सिंह: पृ 51) यह रसियन जादू का असर है । दरअसल उन्होने रामायण को वर्षों पूर्व पढ़ा था। फिर समय नहीं मिला कि उसे दुबारा देख पाएँ । क्योंकि उनका जीवन विदेशी  विद्वानों ब्रेख्त,ग्रामसी,ल्योतार,पाउंड  आदि   में ऐसा डूबा कि इधर देखने का मौका ही नहीं मिला । मुझे नहीं पता कि  रामायण की इन पंक्तियो -काज हमार तासु हित  होई’, सौरज धीरज तेहिं रथ चाका’, हे खग मृग हे मधुकर श्रेणी की तरफ उनका कभी ध्यान गया अथवा नहीं । अब तो नए नए  अध्ययनों से यह पता चला चुका है कि सिर्फ कम्यूनिज़्म के आधार पर ही  दस करोड़ से अधिक हत्याएं की जा चुकी है । तो क्या इस नरबलि के अंगुलिमालों को महाकरूणा की अहिंसा कहा जा सकता है। रामकथा के मर्म को न समझ पाने का इससे सुंदर उदाहरण क्या हो सकता है । 
आज भी भारतीय का खुदा ईश्वर जाति-संप्रदाय आदि आदम वफादारियों का अवशिष्ट के रूप में भारतीय राजनीति का सिर दर्द बना हुआ है और राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया बाधित की है।(सिंह: पृ-68) साहित्य के तमाम मुखौटे जो सरकारी-गैर सरकारी पुरस्कारों से लैस हैं तथा जिन्होने अपनी रचनाओं में जाति  प्रथा पर चोट पर भी किया है अपने निजी जीवन में शायद सबसे अधिक जातिवादी रहें हैं । पर श्री राय भले ही अलग-थलग दिखते हों अपनी पूरी ताकत से इस जाति प्रथा पर चोट किया है और राष्ट्रीय एकता के लिए आर्य-द्रविड़-निषाद-किरात के संकर- रूप को  राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया के रूप में देखा है । ऐसा प्रयास  किसी ने इतनी शिद्दत से किया हो यह जानकारी मेरे पास तो नहीं है । इस प्रयास को भी सिंह साहब ... आश्चर्य नहीं,आज सांस्कृतिक राष्ट्रवाद,जिसके श्री राय पक्षधर हैं,बहुल समाजों में,राष्ट्रीयताओं के शत्रु के रूप में दिखाता है और राष्ट्रीय बेचैनी एवं अलगावादी राजनीति का कारण बना हुआ है के रूप में देखते हैं तो बड़ी निराशा होती है । और फिर यह कि  श्री राय की चिंता वास्तविक है लेकिन यह उपादेय सिद्ध  नहीं होती(सिंह; पृ 52) कोफ्त ही पैदा करती है । 
श्री राय का यह कथन कि नग्न सत्य और नग्न सौंदर्य को देखने की ताकत सबमें नहीं होती (रस आखेटक : पृ 77) कठोपनिषद की याद दिलाता है। गांधी ने इसे अपनी शैली मे कहा है –‘मैं  जानता हूँ कि  यह रास्ता संकरा है। इस पर चलना तलवार के धार पर चलने जैसा है।पर मुझे इस पर चलने में आनंद आता है। श्री राय भी इसी रास्ते के पथिक हैं। उन्हें भी यह रास्ता पसंद है। अब इसमे किसी को उनकी पंडिताऊ दुरूहता और जिद्दी पारंपरिकतादिखाई दे तो इसमे उनका क्या दोष ।गांधी  भी  जिद्द की हद तक गए थे । एक समय जब कांग्रेस ने उनका साथ देने से इंकार कर दिया था तब उन्होने कहा था कि इस देश के बालू से ही मैं कांग्रेस से बड़ा आंदोलन खड़ा कर दूंगा । श्री राय की जिद्दी पारंपरिकता गाजीपुर के बांण-भूमि की  पैदाइश हैं-मैं......अकेले ही सही चिल्लाऊंगा:मेघदूत,कामायनी,जिंदाबाद!मानव मन जिंदाबाद,मानव संस्कृति जिंदाबाद । जीवन में कई बार ऐसे जिद्द करने पड़ते हैं ।
पी एन सिंह का यह कथन कि कुल मिलाकर वे प्रगतिशील पारंपरिकता के एक विद्वान और निष्ठावान पुरस्कर्ता हैं और इसी रूप में एक अत्यंत महत्वपूर्ण साहित्यकार हैं(सिंह: पृ 76) कुबेर नाथ राय के प्रति उनके हृदय में अवस्थित प्रेम को दर्शाता है जिसके हकदार श्री राय हैं भी । वे इसी पुस्तक में लिखते हैं - उनका लेखन बहु -आयामी,अंतर्दृष्टि सम्पन्न एवं आकर्षक है,और ये ही उनके लेखक-व्यक्तित्व के आधार है(सिंह: पृ 58) और उनके जीवन में अर्नाल्ड जैसी जीवन की आलोचना है और इलियट जैसा सुगढ़ परंपरा विरोध भी है। (सिंह: पृ 82) इससे बेहतर समालोचना और क्या हो सकती है ? यह कहना अतियुक्ति नहीं होगी कि सिंह ने राय को पढ़ा तो खूब है पर वह अनपचा ही रह गया है । अंत में सिंह  साहब के ही शब्दों को उधार लेकर  कहें तो आश्चर्य नहीं, उनमे (पी.एन.सिंह) पंडिताउपन अधिक है, स्वतंत्र विवेचन बहुत कम । कुल मिलाकर वे परंपरापुष्ट (मार्क्सवाद)  एवं समाज-स्वीकृत आग्रहों और पूर्वाग्रहों(तथाकथित विमर्शों) को ही पुष्ट-परिपुष्ट और प्रभामंडित करते हैं

अक्टूबर 2014





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