Monday, December 1, 2014

विवेकानंद और गांधी : अध्यात्म और राजनीति का विरल संयोग
                                                                                
भारतीय आर्ष-चिंतन ऋषि-प्रसूत है । यही कारण  है कि इस देश में  हमेशा से ही ऋषियों/ संतों को सुना-गुना गया है। जब-2 इस देश पर संकट आया है भारतीय मनीषा ने अपने चिंतन से न केवल उसे समृद्ध किया बल्कि अभय होने में भी मदद की है। 19 वीं सदी भारत के लिए कई मायनों मे महत्वपूर्ण है । इस समय भारत पर एक खास किस्म का संकट था। भारतीय अस्मिता (व्यक्तित्व ) नदी में डूबते बच्चे की भांति अपनी अंतिम सांस ले रही थी। चारो तरफ गहरी हताशा छायी हुई थी। भारत जो कभी अपनी स्पंदनमान संस्कृति(vibrant culture) और धनी सभ्यता (Reach culture) के  कारण विश्वगुरु कहा जाता था, अपनी चमक खो चुका था । अब वह दया का पात्र बन चुका था ।  कभी वेद-उपनिषद और तर्क शास्त्र पर भरोसा  रखने वाला भारत अंधविश्वासों,रूढियों,जातियों,प्रतिबंधों,मुझे मत छूओ आदि  के भँवर में फंस चुका था ।  ईसाई मिशनरियाँ अपने खतरनाक इरादों के साथ भारतीय आकाश पर गिद्धों की भांति मंडरा रहीं थी। भारत विश्व-अदालत में अपना मुकदमा लगातार हारता जा रहा था। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण था उसका  आत्मविश्वास का खोना । ठीक  ऐसे समय पर उसके त्राण के लिए विश्व-अदालत में चार वकील उसका पक्ष रखने के लिए सामने आते हैं-विवेकानंद,रवीन्द्रनाथ,आनंद कुमारास्वामी और गांधी । पहले ने उसकी दार्शनिक महिमा को सामने रखा,दूसरे ने साहित्यिक महिमा को,तीसरे ने कलात्मक गरिमा को और चौथे ने भारत की आत्मा को।(पत्रमणिपुतुल के नाम:कुबेरनाथ राय,पृ. 34)अर्थात इन चारों ने मिलकर न  केवल भारतीय अस्मिता की रक्षा की अपितु उसे ऊंचे धरातल पर प्रतिष्ठित भी किया । परिणामत: भारत की एक बार पुन: धाक जमनी शुरू हुई ।
वर्ष 1893 भारतीय इतिहास का अद्भुत पन्ना है। अगर हम इसे पलटें तो हमें आश्चर्यजनक घटनाएँ दिखती हैं। एक तरफ  विवेकानंद ने शिकागो में अपना परचम लहराते हैं तो दूसरी तरफ एक 24 वर्षीय युवक समुद्री जहाज पर रोजी-रोटी की तलाश में समुद्र की अनंत दूरी को अपने में समेटने का प्रयास कर रहा था । एनी बिसेंट भारत पर मुग्ध होकर यहीं की होने आई  तो  अरविंदो  अपनी पढ़ाई-लिखाई पूरी कर अपने देश लौट आए । महान पुरुषों की यह विशेषता होती है कि वे प्राय:अपने जीवन के आध्यात्मिक प्रश्नों का समाधान प्राप्त होने पर ही जीवन के अन्य क्षेत्रों में पदार्पण करते हैं। ईसा ने शत्रु पर भी प्रेम की बात कही । बुद्ध ने बुद्धत्व प्राप्त होने पर मैत्री और करुणा की बात कही । गांधी ने अंतरात्मा की आवाज की बात कही और  विवेकानंद ने गुरु के अंतरंग वृत्त में प्रवेश करने के बाद अपनी बात सुनाई ।
विवेकानंद और गांधी के व्यक्तित्व में बड़ा मजेदार साम्य है। एक सन्यासी-योद्धा था तो दूसरा योद्धा-सन्यासी । एक राजसी व्यक्तित्व और ओजस्वी वक्तृता का धनी था जिसने दुनिया के समक्ष वेदान्त का परचम लहराया  तो  दूसरे  अधनंगे फकीर ने अपनी  शांत और निभृत आवाज के द्वारा एक अद्भुत सिद्धांत सत्याग्रह का आविष्कार किया और भारत को मुक्ति का रास्ता दिखाया । एक को दुनिया ने स्वामी नाम से पुकारा  तो दूसरे को बापू-महात्मा के नाम से ।
 दोनों मनीषियों का जन्म 19वीं सदी के छठे दशक में हुआ था । नरेन का जन्म एक उच्च शिक्षित शैव परिवार में हुआ था । पिता उच्च न्यायालय में कार्यरत थे। माता भी पढ़ी लिखी परंतु  धार्मिक महिला थीं। नरेन पर माता का प्रभाव ज्यादा पड़ा । माता ने शिव का मंत्र भी दिया । मजबूत कद-काठी के धनी नरेन को संगीत,अध्यात्म,विज्ञान,खेल-कूद आदि विषयो में गहरी रुचि थी । वे किशोरावस्था मे ही परिव्राजक सन्यासी बनने का सपना देखने लगे थे। दूसरी तरफ छह वर्ष छोटे मोहन को इन विषयों में कोई खास रुचि नहीं थी। पिता पढे लिखे  जरूर थे। माता धार्मिक महिला थीं । धाय माँ ने इन्हे राम का मंत्र दिया था । शरीर से दुबले-पतले मोहन स्कूल से मौका मिलते ही घर की तरफ दौड़ जाते थे। किसी खास विषय में रुचि कभी पैदा नहीं हुई। परीक्षा पास करना इनके लिए सदैव दु:साध्य कार्य बना रहा। पर पिता की ईमानदारी,निष्ठा आदि ने इन पर गहरा प्रभाव डाला । नरेन और मोहन दोनों माँ के निकट अधिक रहे । इनका प्रभाव भी  इन पर अधिक पड़ा । दोनों ने इसे मुक्तकंठ से स्वीकार भी किया है ।
19 वीं सदी में भारत की दुर्दशा को दोनों गहराई से महसूस कर रहे थे । वे अनुभव कर रहे थे कि सामाजिक,नैतिक और धार्मिक तीनों स्तर पर भारत अपने एकमात्र पैर पर बस खड़ा भर रह गया है। समाज में घोर अंधविश्वास,छूआछूत, जातीय विषमता आदि बुराई घर कर गई थी । यह ठीक है कि इनके पूर्व राजाराम आदि लोगों ने एक अलख जगाने की कोशिश की थी। पर वे पश्चिम से इतने आक्रांत थे कि अपनी ही जड़ों को भूल गए थे । पर स्वामी-महात्मा तो एक दूसरी ही मिट्टी के बने थे। प्रारम्भ में ये दोनों भी पश्चिम से अभिभूत हुए थे पर जल्दी ही ये उससे मुक्त हुए- समस्त पाश्चात्य जगत एक ज्वालामुखी पर बैठा है जो कल फूट सकता है और कल उसके टुकड़े-2 हो सकते हैं।  ...यदि आध्यात्मिक आधार नहीं बनाया गया तो समस्त यूरोपीय सभ्यता अगले पचास वर्ष में ध्वंस होकर चूर-2 हो जाएगी।(आधुनिक भारतीय चिंतन : नरवड़े पृ. 116) गांधी ने भी लिखा वह सभ्यता नुकसान देह है और उससे यूरोप की प्रजा पामाल होती जा रही है। इस सभ्यता की सच्ची पहचान तो यही है कि इसमें मनुष्य वाह्य खोजों में और शरीर के सुख में धन्यता सार्थकता और पुरुषार्थ मानते हैं-... शरीर सुख कैसे मिले यही आज की सभ्यता ढूंढती है, और यही देने की वह कोशिश करती है। परन्तु वह सुख भी उन्हें नहीं मिल पाता।(हिन्द स्वराज ) हाँ उनकी अच्छाइयों को स्वीकार करने में तनिक हिचक भी नहीं  दिखलाई। पर जो कुछ किया संग्रह-त्याग के विवेक के साथ। अपनी कमियों को हिमालयन-ब्लंडरकहने में कोई झिझक भी नहीं  हुई।  लालकिले से पालम तक सिमट चुके मुगल सल्तनत की भांति धर्म भी  मुझे मत छूओ तक ही सिमट चुका था। विवेकानंद ने इस पर गंभीर प्रहार किया और कहा-भारत के विनाश पर उसी दिन मुहर लग गई जिस दिन हमने म्लेच्छ शब्द का आविष्कार किया और दूसरों से संपर्क तोड़ लिया ।(आधुनिक भारतीय चिंतन : नरवड़े पृ. 116)  विवेकानंद ने छूआछूत को एक बुराई के रूप में स्वीकार किया तो गांधी ने अश्पृश्यताको एक आंदोलन में ही बदल दिया।
दोनों के मन में भारत के प्रति असीम प्यार था-निस्संदेह मुझे भारत से प्यार है,पर प्रत्येक दिन मेरी दृष्टि अधिक निर्मल होती जाती है। .......हम तो उस ईश्वर के सेवक हैं जिसे अज्ञानी मनुष्य कहते हैं।(आधुनिक भारतीय चिंतन : नरवड़े पृ. 112)  अफ्रीका से लौटते समय गांधी ने कहा – अब मैं कर्मभूमि से देवभूमि की तरफ लौट रहा हूँ। 
विवेकानंद ने एक बार अपने गुरु से निर्विकल्प  समाधि के अनुभव की बात कही। गुरु ने उन्हें झिड़कते हुए कहा-तुम्हें लज्जा नहीं आती। मेरे तो इच्छा थी कि तुम एक महान वृक्ष के समान बढ़ोगे। किन्तु मैं देखता हूँ कि तुम केवल अपनी ही मुक्ति के इच्छुक हो।(जीवन सत्य शोधनम:शिवकरन सिंह(अप्रकाशित)) गुरु-इच्छा की पूर्ति विवेकानंद ने पूरी भी की । विवेकानंद ने लिखा-मैंने तपस्या करके यही सार समझा है कि जीव जीव में वे अधिष्ठित है ;इसके अतिरिक्त ईश्वर कुछ भी नहीं है। जो जीवों के प्रति दया करता है,वही व्यक्ति ईश्वर की सेवा कर रहा है।(आधुनिक भारतीय चिंतन : नरवड़े पृ. 111)  इसमे कोई संदेह नहीं है कि विवेकानंद द्वरा शुरू किए गए प्रयास  को ही पूर्णता प्रदान करने के लिए गांधी ने जन्म लिया था। उन्होने स्पष्ट शब्दों में घोषित किया था-मैं मानव जाति की सेवा द्वारा ईश्वर दर्शन का प्रयत्न कर रहा हूँ,क्योंकि मैं  जानता हूँ कि ईश्वर न तो ऊपर स्वर्ग में है न नीचे किसी पाताल में। वह तो हर एक के हृदय में विराजमान है।(महात्मा गांधी की धर्मदृष्टि :मनोज कुमार राय पृ. 115)
 वस्तुत:विवेकानंद ने हिन्दुत्व  के उन मूलभूत तथ्यों  पर बल दिया था जिनका प्रतिपादन  वेदान्त/उपनिषद ने मनुष्य की अंतर्निहित  दिव्यता-भव्यता-एकता को बढ़ावा देने के लिए किया था।  सत्य-शांति-सामंजस्य मनुष्य का ध्येय होना चाहिए । संभव है कि  रास्ते अलग-2 हों । वे कहते हैं-सब-कुछ एक है। कोई अंतराय नहीं है,एकता ही नियम है। .....जीवन एक तरंग मात्र है। जो ईश्वर को तरंगित करता है वही तुम्हें भी तरंगित करता है।(आधुनिक भारतीय चिंतन : नरवड़े पृ. 101)   गांधी के मन में भी हिन्दू धर्म के लिए असीम श्रद्धा थी। पर यह अंधश्रद्धा नहीं थी। परंपरा उनके लिए बंदरिया का मृत शिशु न होकर देशज खाद की तरह थी जिस पर  भविष्य के रंग -बिरंगे फूल लहलहायेंगे। उन्होने जाति-प्रथा,कर्मकांड,अंधविश्वास आदि को सिरे से ही खारिज कर दिया।  दोनों ने अपने धर्म पर न केवल  पुनर्चिंतन किया अपितु इसे युगधर्म के समनुरूप बनाने  की कोशिश की।  किसी ने गांधी से पूछा कि उनका धर्म क्या है? उन्होने कहा-मेरा धर्म हिन्दू धर्म है जो मानवता का धर्म है और मेरे लेखे इसमे सभी धर्मो का समावेश हो जाता है। गांधी के लिए धर्म और नैतिकता एक दूसरे के पर्याय हैं। मैं  हिन्दू क्यो हूँ  का जबाब देते हुए गांधी ने कहा- मैंने इसे सबसे सहिष्णु पाया है। उसमे सैद्धांतिक कट्टरता नहीं है...इसके कारण इसके अनुयायी को आत्माभिव्यक्ति का अधिक से आधी अवसर मिलता है यह वर्जन शील नहीं है। अत: इसके अनुयायी न सिर्फ दूसरे धर्मो का आदर करते है,बल्कि सभी धर्मो की अच्छी बातों को पसंद कराते अहि । अहिंसा सभी धर्मो में है, मगर हिन्दू धर्म में इसकी उच्चतम अभिवक्ती हुई है। हिन्दू धर्म न सिर्फ मनुष्यो की अककतमकता में विश्वास करता है बल्कि सभी जीवधारियों की एकात्मकता मे विश्वास करता है। (महात्मा गांधी की धर्मदृष्टि :मनोज कुमार राय पृ. 115)  
प्रथम द्रष्टया तो देखने में लगता है कि दोनों अलग-2 मंच पर खड़े हैं। एक गेरुआ वस्त्र पहनकर शिकागो में वेदान्त के सूक्ष्म सिद्धांतों पर बात कर रहा है जो विशुद्ध धार्मिक है । तो दूसरी तरफ धवल भगई लपेटे सत्य-अहिंसा-कष्ट-सहन पर आधारित सत्याग्रह की आवाज बुलंद करता है जो पूर्णत:राजनीति का विषय है। स्वराज गांधी के लिए सिर्फ पराधीनता से मुक्ति का ही मार्ग नहीं था। अपितु यह असली रूप में आत्मानुशासन ही है जिसके जरिये वे सर्वविभु का साक्षात्कार करना चाहते थे। वे लिखते हैं-जिसे मैं प्राप्त करना चाहता हूँ वह आत्मसाक्षात्कार है....मेरा जीना भ्रमण करना ....या मेरे राजनीतिक जीवन के जो भी कार्य रहे हैं, उनके केंद्र में यही प्रयत्न निहित हैं। .....मेरी  राष्ट्र की सेवा भी मेरे आत्मा को मनोविकारों से मुक्त करने की शिक्षा का एक माध्यम है।  (महात्मा गांधी की धर्मदृष्टि :मनोज कुमार राय पृ. 114)  
 विवेकानंद राजनीति से परहेज करते थे। उन्होने साफ तौर पर कहा –मैं कोई राजनीतिज्ञ नहीं हूँ न ही राजनीतिक कार्यकर्ता । मुझे  केवल  स्पिरिट की परवाह है। ........मेरे लेखन अथवा भाषण से कोई राजनीतिक निष्कर्ष न निकाला जाय।(27 सित1894 को बोस्टन में दिया गया भाषण) इसके पीछे उनका क्या तर्क है,इस पर कभी उन्होने कुछ कहा नहीं। अत: हम सिर्फ यह कह सकते हैं कि इस तेजस्वी स्वामी ने अपने लिए देश-काल-परिस्थिति को ध्यान में रखकर एक लक्ष्मण रेखा खींच रखा था। हालांकि उन्होने एक अवसर पर कहा था- संसार में डूबकर कर्म का रहस्य सीखो। संसार-यंत्र के पहियों से भागो मत। उसके भीतर खड़े होकर देखो वह कैसे चलता है। (आधुनिक भारतीय चिंतन : नरवड़े पृ. 101)  और गांधी उनके इसी कथन को शिरोधार्य  करते हुए राजनीति में सदेह घुसकर उसके साँड-भैंसोंसे दो-दो हाथ किया।
भगवान बुद्ध ने किसी राजा से  कहा था –यदि किसी निरीह पशु के होम करने से तुम्हें स्वर्ग की प्राप्ति हो सकती है तो मनुष्य के होम से और किसी उच्च फल की प्राप्ति होगी। राजन उस पशु के पाश को काटकर मेरी आहुति  दे दो ,शायद तुम्हारा अधिक कल्याण हो सके। विवेकानंद और गांधी  दोनों के सामने The dumb  Indian masses’ का करुण चेहरा सदैव भासता रहता था। उन्होने देखा कि भारतीय आबादी सचमुच में एक गूंगी भीड़ मे बदल चुकी है। वह देश जो कभी अपनी सांस्कृतिक संपदा,अपनी परंपरा-शक्ति,ग्रहणशीलता और उसमे निहित आध्यात्मिक ऊर्जा के लिए जाना जाता है वह सामाजिक पिछड़ापन,गरीबी,अंधविश्वास और मानसिक जड़ता का शिकार हो चुका था।  उसे फिर से सक्रिय-तेजस्वी,गर्व से चलने लायक बनाने के लिए उनकी नसों में सिर्फ पांचजन्य  प्राण फूकने की जरूरत  है।  विवेकानंद ने कहा –उठो,जागो और लक्ष्य प्राप्ति तक मत रूको। जड़ता और भेद को दूर करने के लिए विवेकानंद और गांधी ने अथक प्रयास किया। गांधी एक कदम और आगे बढ़े- सारे देश के सामने एक ऐसी राष्ट्रीय उपासना होनी चाहिए जिसे देश का एक-2 बालक भी कर सके। धार्मिक और पांथिक उपासनाएं तो  हैं ।  लेकिन उनसे भेद पैदा होता है। देश में एक अभेद  उत्पन्न करने वाली उपासना चाहिए। सबको लगे कि मैं देश के लिए  कुछ कर रहा हूँ।  गजब का विचार है । कहाँ से चले थे और  कहाँ  आ गए- गांधी के मैजिक बैंड से मैं देश के लिए  कुछ कर रहा हूँ ,की धुन निकल रही है और यहाँ मैं अपने लिए कर रहा हूँ,अपने परिवार के लिए कर रहा  हूँकी मुनादी हो रही है।किसी ने कभी गांधी को हिमालय जाने की सलाह दे डाली। बापू ने कहा –मेरी तपस्या  का हिमालय वहीं है जहां अभी दरिद्रता पड़ी है। मुझे उसे मिटाना है, शोषण दूर करना है,दुख निवारण करना ही। देश मे एक भी आदमी जब तक जीवन की आवश्यकाताओं से वंचित है तब तक मुझे शांति नहीं मिलेगी और मैं पाँव सिकोडकर नहीं बैठूँगा।   (महात्मा गांधी की धर्मदृष्टि :मनोज कुमार राय पृ. 117) विवेकानंद ने भी निर्भ्रांत शब्दों में कहा – मैं समाधि जैसे देश में नहीं  रहना चाहता। मैं मनुष्यों की दुनिया में एक मनुष्य बन कर रहना चाहता हूँ।  (आधुनिक भारतीय चिंतन : नरवड़े पृ.99) । मैं ऐसे ईश्वर में विश्वास नहीं करता जो स्वर्ग में तो मुझे अनंत आनंद देगा, पर इस जगत में मुझे रोटी भी नहीं दे सकता का उद्घोष करने वाले विवेकानंद हों अथवा आत्मसाक्षात्कार चेतन जगत की निष्काम और शुद्ध सेवा के अतिरिक्त और कुछ नहीं हैको जीवन का लक्ष्य मानने वाले गांधी हों , दोनों के लिए सेवा ही सर्वोपरि है। तुलसी ने भी कहा है-सिर भर जाऊँ उचित अस मोरा। सबतें सेवक धरम कठोरा॥। धर्म इनके जीवन का केंद्रीय तत्व था। पर यह अपने उदात्त रूप में था-‘.....वह हाँ या ना की तिजोरी नहीं है,विधि-निषेध का भंडार नहीं है। जो धर्म का,अहिंसा का,नीति का पालन करना चाहता है उसे तलवार की धार पर चलाना । धर्मपालन ऐसी कुछ सही सलामत वस्तु नहीं । यह तो अनुभवों की खान में दबा हुआ रत्न है। उसे करोड़ो जीवों में ,कोई कोई ही खोज लाते हैं। जो सही सलामती रूक्का मांगता है उसके लिए धर्म नहीं है।   (महात्मा गांधी की धर्मदृष्टि :मनोज कुमार राय पृ. 71)
कह सकते हैं कि योद्धा- संन्यासी को  उनके धर्म का मार्ग मिल गया था। वे उस पर चले । धर्म के साथ दोनों की मुठभेड़ भी हुई। पर यह मुठभेड़ दुर्घटना नहीं एक दूसरे को जानने-समझने का सायास प्रयास था । धर्म ने इनको  रूपांतरित किया और इन दोनों ने धर्म के धूल-धक्कड़ को झाड़कर उसे वर्तमान काल की अपेक्षाओं के अनुरूप बनाया । महाकवि टैगोर ने भी कहा है -
भजन,पूजन,साधना ,आराधना सब छोड़ दो ।
वह वहाँ है जहां कठोर धरती पर किसान खेती करता है ।  
उन्हीं की भांति पवित्र वस्त्र त्याग कर धूल मे आ जाओ ।
पसीने से लथपथ कर्म में उनसे मिलो और एक हो जाओ ।   

आज जरूरत है इन सन्यासी-योद्धा के कर्म-वचन से  नि:सृत संदेश को अपने जीवन में उतारने की ।  और यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी । क्या हम ऐसा कर पायेंगे ?



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