गांधी का मृत्यु बोध
महात्मा गांधी की मृत्यु को लेकर एक सवाल मन में गूंजता रहता है कि वह किसी षडयन्त्र का परिणाम थी या प्रभु की लीला थी। प्रश्न चुनौतीपूर्ण और जटिल है । परिस्थितियां ऐसी है जिनमें इसका अनुत्तरित रह जाना स्वाभाविक है। मृत्यु के दस दिन पूर्व,जब उनकी सभा में बम फेंका गया था तो उन्होंने कहा था, 'मूर्ख तुम देखते नहीं कि इसके पीछे एक भयंकर और व्यापक षडयन्त्र है।' यह षडयन्त्र चलताऊ नहीं 'भयंकर और व्यापक' था । फिर भी गांधी उस घटना से विचलित नहीं हुए। उनके मन में बम फेंकने वाले व्यक्ति के प्रति किसी तरह का आक्रोश भी नहीं था। हो भी क्यों? उन्हें तो मनुष्य की अच्छाई और बुराई का सटीक ज्ञान था। वे तो मानते थे कि हर एक मनुष्य के अंदर सद- असद प्रवृत्तियां सदैव रहती हैं। इनका द्वन्द्व ही मनुष्य को गलत कार्य के लिए प्रेरित करता है। सद़वृत्ति को जागृत करने के लिए सतत अन्वीक्षण,परीक्षण एवं साधना की जरुरत पड़ती है। गांधी तो गीता-पुत्र थे। उन्होंने अपनी हर जरुरत के लिए गीता का ही सहारा लिया। गीता-माता ने उन्हें 'समता' का सूत्र दिया था। गांधी ने उसे साधा था। अपने इसी साधना के बल पर उन्होंने विकारों पर नियंत्रण किया था। समता की साधना ने ही उन्हें मृत्यु के उसी रुप को जानने में सहायता की थी। उन्होंने कहा, 'मृत्यु तो छुटकारा है और उसका स्वागत उसी तरह किया जाना चाहिए जैसे कि किसी मित्र का किया जाता है।' इतना ही नहीं उन्होंने तो 'मृत्यु के समय ब्रह्ममय स्थिति की संभावना' का भी जिक्र किया है। लेकिन यह बोध रातों-रात उनके मन में नहीं उपजा था। इसके लिए उन्हें अपने को निरंतर खपाना पड़ा था। इसकी शुरुआत मरित्जबर्ग स्टेशन के उस काली रात से हुई जब उन्हें बिना कारण केवल रंग के आधार पर ट्रेन के डिब्बे से किसी 'वस्तु' की भांति नीचे फेंक दिया गया था। एक तो अंधेरी रात,ऊपर से कड़ाके की ठंड और गरम कपड़े रेलवे वालों के पास ही रह गए थे। वे रात भर ठिठुरते रहे। उन्हें बोध हुआ, 'कैसे कोई दूसरों को दुख देकर आनंद व संतोष की अनुभूति करता है।' उन्होंने मानवता के विरुद्ध चलने वाले इस जघन्य कृत्य के विरोध का निश्चय किया। अगली सुबह गांधी परिवर्तित हो चुके थे। शर्मीला गांधी ‘जीवन के सत्व’ को पा चुका था। उन्होंने अपने अंदर निहित सदृप्रवृत्तियों को पहचान लिया था ।
दक्षिण अफ्रीका में गांधी ने सामने आने वाली हर बुराइयों को जमकर विरोध किया। इसके एवज में उन्हें कभी जेल की यात्रा करनी पड़ी तो कभी लात-घूसों का सामना करना पड़ा। परंतु गांधी हार मानने वाले नहीं थे। हर बार वे मजबूत होकर उभरे: 'जब-जब मुझ पर मार पड़ी है और मेरा अपमान हुआ है, तब-तब मुझे अपनी भूलों को ज्ञान हुआ है और नया ज्ञान मिला है’। उनकी हार न मानने की प्रवृत्ति ने वहां के लोगों को और बौखला दिया। उन पर प्राणघातक हमला हुआ। वे वहां से किसी तरह बच निकले। पर परिजनों चिंता बढ़ गयी। उन्होंने एक पत्र में लिखा,'यहां जो षडयन्त्र रचे जा रहे हैं उनको लेकर परेशान होने की जरुरत नहीं है। मेरी मृत्यु जिस दिन आनी है, उसी दिन आयेगी। कोई उसमें एक क्षण भी कम या ज्यादा नहीं कर सकता।' उन्होंने आगे कहा, 'मृत्यु से बचने का सर्वोत्तम मार्ग सदा मृत्यु के लिए तैयार रहना ही है।'
जिन षडयन्त्रों से गांधी दक्षिण अफ्रीका में गुजरे थे, वे भारत में और विकराल रुप में सामने आये। परंतु उन्हें तो अब इसमें आनंद मिल रहा था। वे जीवन में मृत्यु और मृत्यु में जीवन देखने के आदी हो चुके थे। कई बार तो उपवास के दौरान अंग्रेजों ने उनकी मृत्यु की कल्पना भी कर ली थी। परंतु गांधी की आस्था उन्हें हर बार उस विषम स्थिति से उबार लेती थी : 'जिसे राम बचता है, उसे कौन मार सकता है।' गांधी कभी मृत्यु से नहीं घबराते थे। वे जीवन में ही मरजीवा बनने के लिए प्रयत्नशील थे। यह बड़ी जटिल प्रक्रिया है। उसके लिए उन्हें स्थूल और सूक्ष्म जगत से संघर्ष करना पड़ा था। मनोविकारों को अनुशासित करने में उन्हें अपने जीवन को खपाना पड़ा था। उन्होंने जिस दृढ़ता और एकनिष्ठ समर्पण के साथ उसका सामना किया वह अद्वितीय है।
गांधी सही अर्थों में योगी थे। उन्होंने योग के तात्विक स्वरुप को समझा और साधा था। उसकी मूल चेतना में उनकी गहरी पैठ थी। उन्होंने अपने वक्तव्य से इसका परिचय भी दिया है: 'शास्त्रों के शब्दार्थ के पीछे पड़े रहकर हमें अपने धर्म की आत्मा का हनन नहीं करना चाहिए।' यह ठीक है कि 'शब्द निश्चय ही अर्थसूचक होते हैं, किंतु मानो वे सजीव हो, इस तरह उनके अर्थ में हृास और विकास होता रहता है,' इसलिए 'आदमी को केवल इन महान रचनाओं में निहित भगवान को ही पथप्रदर्शक के रुप में ग्रहण करना चाहिए। ' शास्त्र-मंथन और स्वानुभूति से जिस अनुशासन का नवनीत गांधी ने प्राप्त किया था, वह उनका पूरी तरह मार्ग-दर्शक था। उन्होंने कहा, 'जीवन को उसकी समग्रता में देखने और जीने का सफल प्रयास करना चाहिए । जीवन अविभक्त और अखंड इकाई है। उसे टुकड़ों में बांटकर देखना ठीक नहीं।' लेकिन यह तभी संभव होगा जब कथनी और करनी का भेद मिट जायेगा। भेद से प्रेरित दृष्टि जन्म-मरण के रहस्य को समझने में असमर्थ होती है। गांधी जैसे लोग तो इस दुनिया को एक रंग-मंच मात्र मानते हैं,और जागरुक ढंग से अभिनय-रत रहकर, अपनी भूमिका का सार्थक निर्वाह करते हैं। वे इस बात को जानते हैं कि 'जन्म और मृत्यु का चक्कर तो हमारे साथ हमेशा ही लगा रहता है और यदि जन्म से हमें हर्ष होता है तो उस हर्ष को आने वाली मृत्यु के ज्ञान के जरिए काट देना चाहिए, और यदि मृत्यु का शोक हो तो भावी जन्म के ज्ञान से उस दुख का निकारण कर देना चाहिए।' यही निराकरण विवेक उत्पन्न करता है और जीवन को मृत्यु के पचड़े से बचाता है।
महात्मा गांधी ने प्राणि-मात्र के अंदर ईश्वर से सजीव रुप को देखा। उन्होंने अपने में सबको और सबमें अपने को देखा। उन्हें अपने मानसिक और शारीरिक यातना के माध्यम से ही उन करोड़ो लोगों के अभिशप्त जीवन से एक अन्तर्दृष्टि प्राप्त हुई और उन्होंने अपनी वेदना को उनकी वेदना से जोड़कर जीवन और मृत्यु के एक लोकोन्मुख व्यापक दर्शन का निर्माण किया जो उनके सत्य, अंहिसा और सत्याग्रह के अभिनव दर्शन का प्रेरक तत्व सिद्ध हुआ। उन्होंने कहा, 'यदि हमें जीवन में भगवान का भय रहा है और हमने अपनी आत्मा की आवाज के खिलाफ कुछ नहीं किया है तो हमें मृत्यु का कोई भय नहीं होना चाहिए। उस स्थ्िाति में तो मृत्य एक बेहतर परिवर्तन मात्र है, इसलिए वह एक स्वागतयोग्य परिवर्तन है इससे कोई शोक नहीं होना चाहिए।'
इंसान के जीवन का सपना जितना स्पष्ट, मूर्त और लोक मंगलकारी होता है, उसकी मृत्यु की कल्पना भी उतनी ही उदात्त, भयमुक्त और लोकहितकारी होती है। अध्यात्म में जीवन और मृत्यु को लेकर पर्याप्त विचार किया गया है और दोनों को बड़ा कष्टमय माना गया है- ‘जनमत मरत दुसह दुख होई’। इससे जन-जीवन में मृत्यु को लेकर बड़ा भय व्याप्त रहता है। गीता के अध्ययन, सत्य के प्रति दृढ़ आस्था और अहिंसा में एकान्तिक निष्ठा के कारण गांधी ने अपने ढंग से मृत्यु का आदर्श दिया- 'मृत्यु से मानव के सब प्रयत्नों का अंत नहीं हो जाता। यदि मृत्यु से प्रयत्नों का अंत हो जाता तो यह शाश्वत विधान, जिसे हम ईश्वर कहते हैं, एक विडम्बना मात्र बन जाता ।' यह परम्परा से चले आ रहे विचारों पर आधारित है। फिर भी इसमें उनकी सत्याग्रह की अहिंसक भावना और लोक-हित के लिए कष्ट-सहन की तत्परता के कारणा गुणात्मक परिवर्तन आ गया है। वे कहते हैं, 'जो सत्याग्रही हैं, उन्हें तो न केवल मृत्यु के प्रति निर्भय रहना सीखना चाहिए, बल्कि उसका सामना करने को तैयार होना चाहिए और जब कर्तव्य को पालन करते हुए हमारे सामने मृत्यु आये तब उसका स्वागत करना चाहिए। ................ मैं ऐसी ही मौत की कामना करताहूँ’।
भगत सिंह और अन्य क्रान्तिकारियों को लेकर उनके प्रति उनके विरोधियों ने जमकर दुष्प्रचार किया। जनता के बीच उन्हें दोषी साबित करने की कोशिश की गयी। भगत सिंह की फांसी के बाद जब लोगों ने गांधी को पंजाब जाने से रोका तो उन्होंने उसे अस्वीकार कर दिया। यह प्रस्ताव उनके सिद्धांत के विरुद्ध था । वे तो सदैव यह मानते रहे हैं कि 'एक ओर तो आप मरने के लिए अवश्य तैयार रहें और दूसरी और अपने वर्तमान कर्तव्य को निभाने में इस तरह संलग्न रहे; मानों कि आप अमर हैं, आपको कभी मरना नहीं हैं।' इसी आदर्श को अपनाकर उन्होंने अपनी यात्रा पूरी की। वे तो जीवनभर अपनी आस्था के बल पर 'मृत्यु को केवल चिर-निद्रा व विस्मृति मात्र मानते रहे’।
वैयक्तिक और राष्ट्रीय जीवन में 'देवासुर संग्राम चलता ही रहता है। कब हमें असुर भरमाता है और कब देवता रास्ता बताता है,यह हम सदा नहीं जान सकते।'इसलिए सदा जागरुक रहने की जरुरत पड़ती है। परंतु यह पथ आसान नहीं है। गांधी ने स्वीकार भी किया है, 'मै मार्ग जानता हूँ। वह सीधा और संकरा है। वह तलवार की धार की तरह है। मुझे उस पर चलने में आनंद आता है।' इस आनंद की रसानुभूति के लिए गांधी को तप करना पड़ा है। आस्था को मजबूत बनाना पड़ा है। वे कहते हैं, 'भविष्य की सरदारी का इजारा, ईश्वर ने अपने ही हाथ में रखा है। हमें उसने विश्वास रुपी नौका दी है। यदि उसमें हम बैठें तो सहज ही शंका रुपी समुद्र को पार कर जायेंगे।'
गांधी की मृत्यु संबंधी अवधारणा के अनेक पक्ष हैं। उन्होंने इस पर लगातार चिंतन-मनन किया है। इसके रहस्य को उन्होंने अपने तरीके से उद्घाटित भी किया है। संत मृत्यु के माध्यम से क्षण-भंगुरता पर प्रकाश डालकर, व्यक्ति को भगवान की ओर लगाने का प्रयास करते हैं। गांधी को देश की आजादी के लिए संघर्ष करना था, वे कृष्ण की भूमिका में थे। उनके चतुर्दिक आक्रमण हो रहे थे। वे एक कुशल नर्तक की भांति सारे आक्रमणों को बखूबी झेल रहे थे। उन्होंने उदात्त उद्देश्य की रक्षा हेतु अंहिसक ढंग से शहीद होने के आदर्श को सामने रखा। उन्होंने कहा, 'शहीद होने की कामना नहीं करनी चाहिए। वह तो तब विशेष महत्वपूर्ण और आनंद पूर्ण होता है जब अनपेक्षित ढंग से प्राप्त हो।'
गांधी ने अपनी मृत्यु के बारे में आनंद हिंगोरानी से बातचीत के दौरान कहा था कि 'मेरी जन्मकुंडली में लिखा है कि मेरी मृत्यु वीरोचित होगी।' आगे वीरोचित को और स्पष्ट करते हुए गांधी ने कहा, 'मेरी मृत्यु या तो फॉंसी के तख्त पर होगी,या हत्यारे की गोली से।' वह बातचीत 1933 की है- अर्थात् मृत्यु से करीब पन्द्रह वर्ष पूर्व। कितनी सटीक भविष्यवाणी है अपने मृत्यु के बारे में। संतों के साथ यही होता है। वे सब कुछ जानते हुए भी अपने कर्तव्य-पथ पर पढ़ते रहते हैं। वे जीवन और मृत्यु में कोई भेद नहीं मानते। उनकी दृष्टि में तो 'जीवित रहने के लिए मरना आवश्यक है। गांधी मृत्यु को विश्राम की एक अवस्था मानते हैं। कन्फयूशियस को उद्धृत करते हुए उन्होंने लिखा है: मृत्यु के द्वारा प्रत्येक व्यक्ति उसी में लीन हो जाता है जहां से वह आया था। प्राचीन काल के लोग मृत्यु को अपने घर लौटना और जीवन को घर से बाहर रहना मानते थे’। गांधी तो ज्ञानी थे। वे घर लौटने और घर से बाहर होने के रहस्य से भली भांति परिचित थे। इसलिए उनकी दृष्टि में 'मृत्यु का अर्थ शरीर की समाप्ति है। उसके भीतर रहने वाली आत्मा की नहीं।'
आजादी के साथ ही मुल्क के बंटवारे का षड्यंत्र फिर अपने रौद्र रुप में मानवता के समक्ष प्रकट हुआ। अभूत पूर्व हिंसा और रक्तपात का नंगा नाच चला। गांधी को चैन कहां। वे चल पड़े उस घिनौने कृत्य से निबटने। इतिहास खूनी कलम से लिख जा रहा था। सरकारी मशीनरी असहाय थी। देश में आसुरी प्रवृत्तियां गतिशील थीं। मनुष्य दुष्कर्म और निरीह बच्चों की हत्या में समाधान खोज रहा था। यह सब गांधीके लिलए असहय था। सामूहिक विध्वंस के इस खेल में गांधी ने खुद को झोंक दिया। वे दंगाग्रस्त इलाकों में अकेले घूमने लगे - 'तेरे साथ कोई भी नहीं आता है, तो भी तू अकेला ही चलता जा। तेरे साथ ईश्वर तो है।'
उन्होंने अपने भोजन और विश्राम के लिए भी अपने को दुश्मनों के आश्रित कर दिया। यह उनके अंहिसा की अग्नि परीक्षा थी। इसका सामना करने लिए उनमें अंतर्निहित शक्ति उमड़ पड़ी। वातावरण सामान्य होने लगा। कत्ल और लूट करने वाले उन्हें अपना हथियार सौंपने लगे। प्रत्येक समुदाय के लोग उनके साथ हो गये। कई आश्चर्यजनक घटनाएं घटी। एक गांव में एक उन्मादग्रस्त व बदनाम व्यक्ति गांधी के समक्ष आ खड़ा हुआ। उसने गांधी की गर्दन पकड़ ली और उसे दबाकर उनकी हत्या करने का प्रयत्न करने लगा। गांधी ठहरे परम साधु । वे तो साधना की उस उच्चतम अवस्था में थे जहां बैर भाव का अस्तित्व नहीं होता। वे सहज भाव से अडि़ग आस्था के साथ चुपचाप खड़े रहे । अंततोगत्वा अंहिसा के इस बड़े साधक के समक्ष उसने खुद को असहाय पाया। वह रोते हुए उनके पैरों पर गिर पड़ा – अंहिसायां प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्याग:।
यह तो सर्वविदित है कि प्रकृति ही सर्वश्रेष्ठ वैद्य है। वही संपूर्ण है उसका विधान भी संपूर्ण है। गांधी को इसका भान था। अक्सर 125 वर्ष जीने की इच्छा व्यक्त करने वाले गांधी अब अपनी उस इच्छा की छोड़ चुके थे। कभी बालू से कांग्रेस से बड़ा आन्दोलन खड़ा करने की ताकत रखने वाले गांधी वह कहते सुने गये कि ‘अब उनकी कोई नहीं सुनता’। स्पष्ट था कि वे अपने अंतकाल को जान गये थे। वे कहा करते थे,'ईश्वर ही जानता है उसे मुझसे क्या काम लेना है। उसे अपने काम के लिए जब तक आवश्यकता है, उससे एक क्षण भी अधिक वह मुझे रहने नहीं देगा।' संत का हृदय तो पूर्ण पारदर्शी होता है। यह तो अपने बारे में सब कुछ जान लेता है- अपरिग्रह स्थैर्य जन्मकथन्तासंबोध:। अपने अंतिम समय को गांधी जान गये थे। पर वे उसे चिंतित नहीं थे। हो भी क्यों ? सभी को किसी न किसी दिन मरना है। मृत्यु से कोई बच नहीं सकता। फिर उससे डरना क्या? गीता से भी उन्हें यही ज्ञान मिला था- वासंसि जीर्णांनि यथा विहाय नवनि गृहृतिनरो पराणि और 'जातस्य हि ध्रवोमृत्युध्रुवं जन्म मृतस्य च'। रही बात षडयन्त्र की, तो गांधी इससे भी विचलित नहीं थे। उनकी दृष्टि में 'भय अंहिसा के सिध्दांत के खिलाफ होगा।' उनका मानना था कि 'बहादुर की अंहिसा-भावना का प्रमाण तो उनके मृत्यु के समय ही हो पायेगा। वह भी तब जब कोई हत्या कर दे और वे उस हत्यारे के लिए प्रार्थना करते हुए मरें।
कथनी को करनी में बदलने का समय भी नजदीक आता जा रहा था। गांधी अंदर ही अंदर उसका अनुभव करने करने लगे थे। दिसंबर 1947 में उन्होंने कहा, 'इस आलीशान भवन में मैं -मित्रों से घिरा हुआ हूँ। परंतु मेरे भीतर शांति नहीं है। मैंने 125 वर्ष जीने की अभिलाषा छोड़ दी है’। चारों तरफ घुप्प अंधकार छाया हुआ था । कल तक जो लोग गांधी के इशारे पर सर्वस्व लुटाने को तैयार रहते थे, अब वे ही उनसे कतराने लगे थे। जीवन भर जिस गांधी ने सत्य के साक्षात्कार को अपना ध्येय माना था, उसी से लोग 'सत्ता की लालच' में झूठ बोलने लगे थे। गांधी तो सब कुछ जानते थे। फिर भी वे शांत थे। 'कोलाहल के बीच शांति की,अंधकार के बीच प्रकाश की और निराशा के बीच आशा की खोज करना' उन्होंने दक्षिण अफ्रिका में ही सीख लिया था।
1930 में गांधी ने घोषणा की थी, ' मैं जानता हूँ कि यदि मैं स्वाधीनता' संग्राम के बाद भी जीवित रहा, तो शायद मुझे अपने देशवासियों से अंहिसक लड़ाइयां लड़नी पड़ें और वे उतनी ही उग्र हो सकती हैं जितनी उग्र मैं आज लड़ रहा हूँ’। जनता उन्हें महात्मा के रुप में पूजती थी। उन पर जनता का भरोसा था। परंतु दूसरी तरफ षडयंत्रकारी और सत्ता-लोलुपों को यह बात पसंद नहीं थी। उन्हें अब गांधी पसंद नहीं थे। गांधी अब उन्हीं के लिए बाधक सिद्ध होनेवाले थे। गांधी उनकी आखें की किरकिरी बने हुए थे। उन सबको लगता था कि किसी प्रकार गांधी से मुक्ति मिलनी चाहिए, तभी समाज में उनका वर्चस्व फिर से कायम हो सकेगा। गांधी ने भी जान लिया था कि अब समय आ गया है, जब इस पुराने मंदिर को छोड़ दिया जाय। उनकी भाषा बदल गयी अब तो मेरी यही प्रार्थना है कि वह मुझे समय आने पर बहादुरी से मृत्यु का सामना करने की शक्ति दे। अब मृत्यु रुपी विश्राम की प्रतीक्षा में थे गांधी - न दैन्यं न पलायनम । मृत्यु से कौन बचा है? गांधी स्वयं को कृष्ण का पुजारी कहते थे । बात पूरी तरह से स्पष्ट थी । पुजारी की मृत्यु भी अपने आराध्य के तईं ही होगी। पर दूसरे कैसे इसका अनुभव करें? इसमें दूसरे का अनुभव काम नहीं आता। इसमें तो स्वंय जलना पड़ता है। गांधी जल रहे थे। उन्होंने कहा, 'मै भट्ठी में पड़ा हूँ। चारों ओर आग धधक रही है।'
नोआखली के बाद अब दिल्ली की बारी थी। यहां भी सांम्प्रदायिक दंगा अपने पूरे शबाब पर था। क्लान्त और जर्जर गांधी ने पुन:शक्ति संजोयी ओर इस जघन्य कृत्य के खिलाफ उठ खड़े हुए। उन्होंने 'उपवास' शुरु कर दिया। लोग चिंता में पड़ गये। बापू ने यह क्या किया? वे कमजोर थे। अत: लोगों की चिंता बढ़ती जा रही थी। परंतु ब्रम्हचर्य की साधना करने वाले गांधी के पास अद्भूत ताकत आ गयी थी ‘ब्रम्हचर्य प्रतिष्ठायां वीर्यलाभ:’। अन्तत: शांति-स्थापना के साथ ही उनका उपवास टूटा। बापू बच गये। लोग प्रफुल्लित थे। पर बापू नहीं क्योंकि 'बचना सबको अच्छा लगता है, इसलिए बच जाते है तो ईश्वर का उपकार मानते हैं। किंतु सच पूछा जाये तो हर हालत में और हर समय उसका एहसान ही मानना चाहिए। इसी का नाम समत्व है।' और गांधी तो पचास वर्षों से इसी समत्व की साधना कर रहे थे। वे तो तुलसी के 'हानि-लाभ जीवन-मरन यश-अपयश विधि हाथ- मूलमंत्र को हृदयंगम कर चुके थे। इसलिए उन्हें मृत्यु से किसी प्रकार का भय नहीं था।उन्हें तो मृत्यु में शांति की दरकार थी। गांधी ने मोक्ष प्राप्ति की अभिलाषा की थी। वे जानते थे कि मोक्ष हेतु कर्म का सर्वथा क्षय होना भी आवश्यक है। अत: इस नश्वर शरीर का त्याग भी जरुरी है। उन्होंने कहा भी 'किसी-न किसी बहाने उन्हें पुराना मंदिर छोड़ना पडे़गा। फिर इच्छा हो तो नये मंदिर में जा बसें या यदि यह पिंजड़ा एकदम छोड़ना ही पडे़ तो वायु में वास करें और स्वतन्त्रता का सुख लूटें।'
जैसे-जैसे गांधी का अंतिम समय नजदीक आता जा रहा था, वे लोगों को संकेत करते जा रहे थे। मृत्यु से ठीक दो महीने पहले 'हरिजन' में उन्होंने लिखा, 'जब समय अयेगा-जिसकी कल्पना की जा सकती है- तो मैं अपना परामर्श सुस्पष्ट शब्दों में लिखकर छोड़ जाउंगा, किसी को उसका अनुमान लगाने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।' और,उन्होंने एक पत्रकार के यह पूछने पर कि 'आपका संदेश क्या है? 'एक कागज पर स्पष्ट शब्दों में गांधी ने लिखकर दिया : 'मेरा जीवन ही मेरा संदेश है।' परामर्श उन्होंने दे दिया। यह परामर्श (अथवा संदेश) सार्वकालिक और सार्वजनीन है। इस संदेश में ऋषियों की वाणी सन्निहित है। इससे संतों की जीवन-दृष्टि समझी जा सकती है। वह जीने की कला है। इस संदेश में सर्वोदय की अभीप्सा है। परंतु गांधी का थोड़ा-सा कार्य अभी भी शेष था- संगठन के ढांचा का प्रारुप। जिस कांग्रस को उन्होंने 'कुछ मुट्ठीभर जन' से जन-मानस तक पहुंचाया था उसके लिए भी परामर्श देना था। वक्त कम था। उधर अंतिम वेला भी सन्निकट थी। गांधी ने कभी कहा था कि 'सच्ची मित्रता में मिलने यहां तक कि पत्र-व्यवहार की भी कोई जरुरत नहीं होती’। उन्होंने मृत्यु को सदा मित्र ही माना था। अत: एक सच्चे मित्र की भांति मृत्यु ने उन्हें अपना मूक संदेश भेज दिया था। इसीलिए वे जल्दी-जल्दी सब काम निपटा रहे थे।
26 जनवरी 1948! मुलाकातियों का दौर जारी। सभी कार्य प्रतिदिन की भांति सुचारु रुप से किये जा रहे थे। दूसरों को क्या पता कि गांधी के मन में क्या चल रहा है। वे तो उन्हें रोज की ही भांति देख व सुन रहे थे। पर गांधी को तो जल्दी थी। कांग्रेस का मसौदा अभी भी पूरा नहीं हो पाया था। उन्होंने लिखा, 'मेरा सिर चकरा रहा है, फिर भी मुझे पूरा करना ही होगा। - मुझे भय है कि आज मुझे देर रात जागना होगा।' रात को जब वे सोने के लिए गये तो उन्होंने अपने सिर पर तेल मालिश करने वाले व्यक्ति से कहा, 'याद रखो कि अगर कोई आदमी गोली मार कर मेरे प्राण ले ले .... और मैं कराहे बिना उस गोली का सामना करूं और राम नाम लेते हुए मेरे प्राण निकल जाये तो ही मेरा दावा सच्चा साबित होगा’। दावा था सत्य के साक्षात्कार का । क्योंकि गांधी के दृष्टि में 'सच्ची बात का पता तो मरते समय ही लगता है।' ठीक ऐसी ही बात गांधी ने 28 जनवरी को राजकुमार अमृत कौर से कही थी। मृत्यु से दो दिन पहले की बात है यह। गांधी ने अपने मृत्यु के तरीके और व्यक्ति को बतला दिया। परंतु 'आवरण के कारण बुद्धि बेचारी का बस नहीं चलता।'अत: लोग उनके संकेत को नहीं समझ पाये।
30 जनवरी 1948! रोज की भांति गांधी सुबह 3.30 बजे उठ गये। प्रार्थना के बाद रात का बचा काम पूरा किया। फिर अपने दैनिक कार्य में व्यस्त। सुबह के एक पत्र में गांधी पुन: लिखते हैं:'मृत्यु हमारा सच्चा मित्र है। आत्मा कल भी थी आज भी है और कल भी रहेगी।....' वे सुबह की सैर के लिए न जा सके। अत: कमरे में ही टहलने लगे। मनु बहन उनके साथ नहीं थी। वह चूर्ण तैयार करने में लगी थी। गांधी ने मनु बहन को संकेत किया: 'कौन जानता है रात पड़ने से पहले क्या होगा अथवा मैं जीता भी रहूंगा कि नहीं’। टहलने के पश्चात् फिर से लोगों से मुलाकात में व्यस्त। लोगों की समस्याओं को सुन रहे थे, उसका निराकरण कर रहे थे। तीसरे पहर जब कुछ मौलाना बंधु उनसे निवेदन करने आये कि शायद गांधी सेवाग्रम से 14 फरवरी तक दिल्ली लौट सकेंगे। गांधी ने कहा, 'मुझे आशा तो जरुर है। परंतु मुझे भरोसा नहीं कि मैं परसों भी दिल्ली छोड़ सकूंगा।' वक्त के प्रति अत्यन्त पाबंद गांधी ऐसा क्यों कह रहे थे, लोग समझ नहीं पाये। इतना ही नहीं, पत्रकारों के यह पूछने पर कि अखबारों में खबर है कि आप एक फरवरी को सेवाग्राम जानेवाले हैं ? गांधी ने कहा,'हां अखबारों ने तो घोषणा की है।..... लेकिन मैं नहीं जानता कि वह गांधी कौन है?
वक्त तेजी से गुजर रहा था। गांधी लगभग सारे कार्यों को अंजाम दे चुके थे। उन्हें अपने मित्र (मृत्यु) की पदचाप स्पष्ट सुनायी दे रही थी। फिर भी वे शांत थे -'हममें श्रध्दा तो होनी ही चाहिए कि हम समझ लें कि जीवन को ठीक ढंग से बिताने के बाद आने वाली मृत्यु पहले से अच्छे और अधिक समृध्द जीवन का आरंभ होती है।'सरदार पटेल और नेहरु के बीच कुछ मतभिन्नता थी। उसी संदर्भ में पटेल गांधी से बात करने आये थे। बातचीत कुछ लंबी चली। प्रार्थना में दस मिनट देर हो चुकी थी। प्रार्थना में किसी तरह का देर गांधी को पसंद नहीं था -'प्रार्थना आत्मा का आहार होती है। अत: उसमें किसी भी तरह का देर नहीं होना चाहिए।' मनु बहन ने उनका ध्यान घड़ी की तरफ दिलाया।गांधी ने पटेल से विदा ली और अपने कदम फुर्ती से प्रार्थना स्थल की तरफ बढ़ा दिया। रास्ते में ही उनसे किसी ने कहा कि कठियावाड़ से आये दो कार्यकर्ता मुलाकात का समय मांग रहे है। गांधी ने अपने समानान्तर अपने अतुलनीय मित्र 'मृत्यु' को चलते देखा।उन्होंने कहला भेजा-उनसे कह दो कि प्रार्थना के बाद आ जायें। मै जीवित रहा तो उनसे उस समय मिलूंगा’। इसके बाद गांधी स्वभावानुकूल मौन हो गये।प्रार्थना स्थल में पहुँचने के बाद यही नियम था। ............... और जब गांधी के होंठ खुले तो उनके मुंह से शांत और मंद स्वर में 'राम-रा..... म' शब्द निकले ।
No comments:
Post a Comment