Thursday, February 19, 2015

चंद्रमा मनसो जात:
अंतत: प्रो कागभुशुंडि और उलूक ने आल इंडिया एल टी सी के तहत मध्य भारत में घूमने की योजना बनायी।  आकाश मार्ग से उड़ते हुए जब प्रो काक और उलूक जीरो माइल पर पहुंचे तो उन्होने विश्राम की योजना बनाई । इस बार दोनों का ठौर था किष्किंधा विवि । दोनों मित्रों ने जगह तलाशने के लिए किष्किंधा विवि की एक परिक्रमा की। घूमने-फिरने के बाद कुछ-एक वृक्ष दिखाई दिये । गोधूलि वेला का समय था। दोनों मित्र एक वृक्ष के आमने–सामने की डाली पर अपना डेरा जमाया। सदा की भाँति डाली पर बैठते ही दोनों के बीच अकबक शुरू हुआ।
काक ने कहा लगता है कि इस विवि में मोदी के स्वच्छता अभियान का कुछ ज्यादा ही असर पड़ा है। उलूक ने पूछा –वह कैसे? काक ने कहा – देखिये न ! काँट-छांट के नाम पर लगभग सभी पेड़ों को बेतरतीब ढंग से काट दिया गया है। इन पेड़ों का संतुलन बेढंगा हो गया है। हवा एक तेज झोंका भी इनके लिए काफी होगा। वह क्यों? उलूक ने पूछा । वह इसलिए कि इस पथरीली भूमि पर उगे वृक्षों की जड़ें बहुत गहरी नहीं होती। अत: खतरा सदा ही बना रहेगा - काक ने खखांरते हुए कहा । रात्रि घिर गई थी। उलूक को अब सब कुछ साफ-2 दिखने लगा था । उसने पूछा –मित्रवर विवि में तो रंग-रोगन हो रहा है। आखिर ये क्या बला है? काक गंभीर हो गया । उसने कहा कि विवि को अपनी नाक बचानी है । कुछ दिनों पहले ही  स्थापना दिवस मनाया गया था ।असल में  इस विवि के महत्वाकांक्षा के सत्रह वर्ष पूरा हो रहें है।  किष्किंधा विवि उत्सव-धर्मी विवि है। स्थापना काल से ही मुक्त-हस्त से आयोजनों पर खर्च करता रहा है। अब यह बालिग हो रहा है। इसका कैशोर्य जाता रहा। देखते नहीं कल तक जो पिछले दरवाजे से बाहर निकल जाते थे,उनको भी पाम्ही आ गई है।
इनकी पढ़ाई-लिखाई की बात सुनकर यहाँ के स्थायी निवासी डा गरुड़ भी उनके बगल में आ गये। दुआ-सलाम के बाद परिचय हुआ। श्येन सुपर्ण ने बताया कि कुछ दिनों पहले ही वह शिक्षा विभाग के कंक्रीट के जंगलों मे चक्कर खाकर गिर गया था। कुछ दयालु बंधुओ ने मेरे लिए दाना-पानी की व्यवस्था की और जंगल विभाग को सूचित कर दिया कि एक दुर्लभ प्रजाति का श्वेत उल्लू यहाँ पाया गया है । यह खबर विवि मे आग की तरह फैल गई। लोगबाग शुभ मानकर मेरे दर्शन के लिए उमड़ पड़े। मैं दर्द से कराह रहा था और ये तंत्र-मंत्र-ज्योतिष से मेरे शुभ दर्शन  के पक्ष में तर्क गढ़ रहे थे। खैर यह सब चल ही रहा था कि किसी ने खबर दिया कि  विवि प्रशासन ने आनन-फानन में स्ट्रांग रूम में एक बैठक बुलाई है । मेरे कान खड़े हो गए। मैंने अपना ध्यान उधर कर लिया।बैठक में तय हुआ कि इस बार स्थापना दिवस के अवसर पर किष्किंधा विवि  का मंथन कार्यक्रम प्रमुख  होगा । बैठक कक्ष में और जो कुछ हुआ वह तो वहाँ उपस्थित सज्जन ही जानें । पर बाहर निकलकर धुरंधरों ने एक दूसरे से आगे निकलने की योजना पर काम करना शुरू किया। एक बुजुर्ग आचार्य ने कंधे पर बैग संभालते हुए ज्ञान दिया-पूर्वजों ने कहा है कि तीन उड़ान के बाद तीतर पकड़ाई देता है।यह गूढ रहस्य है। अपन का फील्ड-अनुभव है। सच तो यह है भाई कि विवि में शिक्षण का काम तो बचा नहीं । रही सही कसर इन्टरनेट ने पूरा कर दिया। भारत के किसी भी विवि के ग्रंथालय रजिस्टर से इसकी पुष्टि की जा सकती है। प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्चशिक्षा तक हर जगह गैर शैक्षणिक कार्यों में रूचि बढ़ती गई। प्राथमिक शिक्षा मे  हेडमास्टर क्लर्क बन कर मिड-डे-मील (?) से लेकर पोशाक-टाट पट्टी-टेबल बेंच की दलाली शुरू कर दिया है । खंड शिक्षा अधिकारी /बेसिक शिक्षा अधिकारी  से निकटता उसका प्राथमिक ध्येय हो गया। उच्च शिक्षा  का मामला थोड़ा भिन्न किस्म का है। उधर जो कार्य रोंआ गिराकर करते/कराते हैं  उसे यहाँ कालर उठाकर करते/कराते हैं। केन्द्रीय विवि है तो और भी मजे हैं। यहाँ शिक्षकों का वजन ज्ञान से नहीं पद-पदभार-अतिरिक्त प्रभार से मांपा जाता है। सुबह से शाम तक यही जुगाड़-तिकड़म चलता रहता है कि किस-किस समिति में घुसा जाय। यदि आप समिति विहीन हैं तो इसका साफ संदेश है कि विवि प्रशासन में आपकी पैठ नहीं है।  अत: येन-केन-प्रकारेण कुलपति वंदना से दिन की शुरुआत करने की कोशिश होती है। मैं तो यहाँ यह सब देखकर हैरान हूँ कि गांधी के कर्मभूमि पर अवस्थित इस विवि को आखिर हो क्या गया है?गरूड़ के शांत होते ही दोनों एक साथ बोल उठे-राजन! चुप क्यों हो गए और भी कुछ बताइये। गरूड़ ने एक लंबी सांस लेते हुए कहा-अभी मुझे एक विद्वान द्वारा रचित  गद्य-मृदंग-वंदना याद आ रही है ।  मैंने यहाँ देखा है कि शिक्षक बंधु-बांधवी इसका पाठ कुल-गोत्र-स्थान-काल के हिसाब से करते रहते हैं। वह गद्य-मृदंग-वंदना इस प्रकार है - हे प्रधानमंत्री के सखा,मुख्यमंत्री के मीत,हे हमारे प्रभु,तुम्हारी दशमुख के ग्यारहवें मुख-जैसी मनोहर आकृति पर सरस्वती प्रेमासक्त है,लक्ष्मी तुमसे रात-दिन नजर लड़ाती है और पार्वती तुम्हें प्रेमपत्र भेजती है....”। तुलसीदास ने कहा भी है-मंत्र जाप मम दृढ़ विश्वासा/पंचम भजन सो वेद प्रकासा। जब यह मंत्रोच्चार समूह स्वर में उच्चरित होता है तो लगता है कि समस्त सृष्टि के पोर-पोर में रस भर गया है ।  तो जीना तो है उसी का जिसने ये राज जाना पर अमल करते हुए शिक्षक बंधुओं ने पहले तो समितियों में जगह बनाई फिर तमाम तरह के सुझाव आदि देने के लिए गणेश-परिक्रमा शुरू कर दिया। इसका भी एक अलग आनंद है । समिति के कर्णधारों ने सर्वप्रथम अपने वैचारिकी के लोगों के साथ बैठक की, पुनश्च मंथन के लिए कमर कसा।
काक ने कहा – राजन इस विवि की खासियत के बारे में कुछ बताइये। आप तो यहाँ के पुराने अखड़िए हैं । गरूड़ ने उन्हें आराम करने की सलाह दी और कहा कल सुबह बात होगी।
प्रो काकभुशुंडी ब्रह्ममुहूर्त में उठने के आग्रही हैं।वे सुबह उठकर  टहलने निकल गए । रास्ते में कुछ लोग टहलते हुए दिखे। गांधी हिल पर कुछ लोग आसन-प्राणायाम भी करते दिखे। विवि के पवित्र  सुबहे-वर्धा  से वह इतने प्रसन्न हुए कि इसके दोनों कैम्पसों का चक्कर लगा डाला। हालांकि उत्तरी कैंपस में विद्यार्थी लगभग नहीं के बराबर टहलते दिखे। इससे उनको कुछ निराशा भी हुई कि वर्तमान पीढ़ी को आखिर हो क्या गया है? मोबाइल-इन्टरनेट में युवा पीढ़ी अपनी ऊर्जा को इस कदर बर्बाद कर रहा है जैसे किसी  ने इन पुंगव-वृषभों के जड़ों में मट्ठा डाल दिया हो। घूम फिरकर जब वे वापस लौटे तो वहाँ गरूड़ महाराज पधार चुके थे। गप-शप के बाद पुन: विवि पर बात आ गई। काक ने स्थापना दिवस के बारे बताने को कहा। गरूड़ ने अपने पंख फड़फाड़ाए और सुखासन पर बैठते हुए कहा-मित्रवर! यहाँ का स्थापना दिवस वैसे ही विवादित है जैसे इस विवि का उद्देश्य। जब-जब सत्ता बदलती है और उसके गण सक्रिय होते हैं,तब-तब दिवस-उद्देश्य को लेकर एक बहस चलायी जाती है। हर एक का अपना निजी एजेंडा होता है । वह उसी के तहत समीकरण बनाता है और अपना काम करता है। यद्यपि कि कुछ लोग ऐसे भी हैं जो किसी के साथ अपने को एडजस्ट कर लेते हैं और उसका आनंद उठाते हैं। यही स्थापना दिवस पर भी हुआ । पंडाल से लेकर पुस्तक-भोजन-प्रदर्शनी तक में यही सब देखा गया । कुछ ऐसे थे जो प्रभारपाकर ऐसे प्रसन्न थे गोया उन्हें उच्चश्राइवा-ऐरावत की सवारी मिल गई हो। जो नहीं घुस पाये वह अपने तरीके से दुखी। पुस्तक प्रदर्शनी तो अद्भुत थी। अध्यापक-अधिकारी प्रकाशकों की चापलूसी कर रहे थे तो प्रकाशक इनकी। कुछ अध्यापक तो बाकायदा प्रकाशकों के भाषण सुनने के लिए लोगों सेमाहौल बनाने का आग्रह कर रहे थे। मजे की बात कि जो लोग सालभर में एक भी पुस्तक अपने पैसे से नहीं खरीदते है वह यहाँ लाखों रू की  पुस्तक खरीद-पन्ने पर हस्ताक्षर कर रहे थे।  ऐसा लग रहा था जैसे भारत के सभी  विद्वान किष्किंधा विवि में बरसाती मेढक की तरह उतरा गए हों ।   
भोजन-प्रदर्शनी से आपका क्या तात्पर्य है? उलूक ने जिज्ञासा प्रकट की। गरूड़ ने अपने टपकते लार को निगलते हुए कहा –बंधु! यहाँ भोजन-भट्टों  की कोई कमी नहीं है। वैसे इस विवि में भोजन-समिति का अध्यक्ष बनना सदैव ही लाभ का सौदा माना गया है। दावत से लेकर कूपन तक की इस दिव्य-यात्रा को मैंने बड़े नजदीक से देखा है। वर्धा के कई दुकानदार ऐसे मिलेगे जो यहाँ के लोगो को देखते ही बिल का मजमून समझ जाते हैं। यद्यपि कुछ ईमानदार ऐसे हैं जिनसे इनकी रूह भी काँपती है। तथ्य तो यह है कि किष्किंधा विवि इन्हीं शेषनागों के बल पर अभी तक खड़ा है।  
आप कल कुछ मंथन वगैरह का जिक्र कर रहे थे-काक ने कुरेदने की कोशिश की।
हाँ भाई! मंथन-चक्र तो जीवन मे चलता ही रहता है। विवि भी समय-समय पर अपने अंदर झाँकने की कोशिश करता रहता है। इसीलिए यह कार्यक्रम रखा गया था। पर हुआ क्या? यह तो बताइये-काक ने पुन: अपनी बात पर पर बल देते हुए कहा।  
गरुड़ वीरासन की मुद्रा में आ गए । उन्होने तनिक मुस्कान के साथ कहा- देख भाई ! किष्किंधा विवि  में संकाय सदस्य इसके अनुरूप ही हैं। यहाँ योद्धाओं की कमी नहीं हैं। एक से बढ़ाकर एक योद्धा-मंदिर-मंदिर प्रति कर सोधा/देखे जंह-तंह अगणित योद्धा। यहाँ का हर विभाग देवताओं से लैस है। यहाँ देवराज अनुवाद का जिम्मा लिए हैं तो पाणिनी पथ पर हनुमान व्याकरण-भाषा सिखाने में व्यस्त हैं। यहीं पर आपको चाँद-सूरज सोमरस और रमण-तृषा से परेशान दिखेंगे, मुरलीधर ठहाका के साथ प्रवेश से जूझते हुए नजर आएंगे। भयातुर गोविंद शोध को लेकर परेशान नजर आएंगे तो शंकर-शंभू वैर-प्रीति के दोराहे पर खड़े होकर समर्थन के लिए गुहार करते हुए नजर आएंगे । हिन्दी साहित्य के चारण युग की पैदाइश सुरेश सदा मंच को लेकर जूझते-हिलाते,हैरान-परेशान भागते नजर आएंगे तो दूसरी तरफ प्रो फेंकू पूरी कायनात को ही अपने अँकवार में लेने के लिए आतुर दिखाई देंगे । किसी भवन में दिव्य सुविधाओं से लैस सरदार शोकरहित हो चैन की  वंशी बजाते हुए एक बड़ी छलांग के लिए लंगोट पहन दंड-बैठक कर रहें है तो दूसरी तरफ शेर खाँ संतोष की रोटी तोड़ रहें हैं । किसी पर  निर्मल कृपा बरस रही है तो कोई केंद्र में बैठकर स्वच्छता अभियान चलवा रहा हैं। मारुतिनंदन भी राग-द्वेष के लोलक बन गणेश-परिक्रमा का कोई अवसर हाथ से नहीं जाने दे रहें हैं। लंबी फ़ेहरिश्त है। कहाँ तक कहें। 
पर उस दिन हुआ क्या? उलूक ने बीच में टोकते हुए कहा। धीरज रखने की सलाह देते हुए गरुड़ ने कहा-दरअसल इस विवि की एक खास परंपरा रही है मंच पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की । इसके पीछे मनोवैज्ञानिक कारण हैं। आदि-पुरुषों की अपनी समस्या है। वह यह सोचता है कि वृहस्पति और शुक्राचार्य से वे सीधे दीक्षित हुए हैं । तो ये सब जो छिटक कर बाहर से आए हैं उनकी क्या बिसात? उधर दूसरी तरफ कुछ शिक्षाशास्त्री योग-मनोविज्ञान को लेकर अवतरित हुएँ हैं। इनका मानना है कि विवि को सुधारने के लिए ही उन्हें यहाँ भेजा गया है। सो वे सुबह-सवेरे योग से लेकर दोपहर के स्व’-भोग तक का जिम्मा ले रखे हैं।
आप वीरासन पर क्यों बैठे हैं राजन! उलूक ने पूछा ।
गरूड़ ने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा- महोदय!युद्ध तो वीरासन पर बैठ कर ही लड़ा जा सकता है। इतिहास गवाह है कि विजयश्री उसी के हिस्से आई जिसने इस आसन को साधा। इस आसन को वही साध सकता है जिसके पास संयम-साहस-विद्या का त्रिक-बल हो। पटेल-नेहरू-राजगोपालाचारी आजादी की लड़ाई के दौरान कूटस्थ चैतन्य गांधी के इसी त्रिक-बल के प्रतीक हैं। इस विवि का दुर्भाग्य यह है कि यह हमेशा अपने अतीत रूपी कवच-कुंडल से मुक्ति की तलाश में भटकता रहता है। जो कोई भी मंच पाता है वह अपने को चारण-युग में धकेल कर अतीत-मुक्ति गान की टेर पकड़ लेता है। अतीत से ही न सीखते हैं प्रोफेसर साब । वरना इतिहास खुद को दुहराता है। कर्ण ने भी अहंकार वश अपने अतीत से मुक्ति पाने की कोशिश की थी । पर उसका हश्र क्या हुआ ? हम सब जानते हैं। और तो और इस विवि में सरस्वती भी परेशान हैं। वह अपने चीर को दोनों हाथों से लपेटते-खींचते दु:शासनों से परेशान हो कृष्ण की तलाश में इधर-उधर भटक रहीं हैं।
अरे!यह तो अनर्थ है। शासन-प्रशासन क्या कर रहा है?
क्या करेगा ? शासन-प्रशासन  तो धृतराष्ट्र.........तभी कुछ कुत्ते इनकी तरफ भौं-भौं करते हुए लपके ।   बचने के लिए ऊपर की डाली पर चढ़ गए। पर कुत्तों की संख्या बढ़ती ही जा रही थी और बढ़ती जा रही थी उनकी कर्कश ध्वनि। कुत्ते भी शातिर थे। वे टूटे पेड़ों की निचली डालियों पर गिरते-पड़ते चढ़ने की कोशिश करने लगे। खतरे को भाँपते हुए तीनों विद्वानों ने वहाँ से खिसकने में ही अपनी भलाई समझी और उड़ चले किसी और ठौर की तरफ ।  

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