Sunday, November 30, 2014


कलिकाल का विद्वत समाज
बिरला छात्रावास के दक्षिणी कोने पर स्थित अश्वथ वृक्ष के नीचे भगत जी अपनी दुकान लगाते हैं। वे बताते हैं कि  उनकी यह दुकान मालवीय जी के जमाने से चली आ रही है। उनके दुकान की दानेदार मूँगफली और अदरक युक्त नमक की कोई शानी नहीं है। एक दिन मैं अपने परिवार (बिना माता-पिता के ) के साथ उधर से गुजर रहा था तो मूँगफली खाने की इच्छा हुई । वाहन से उतरकर भगत से मूँगफली ली  और वहीं पेड़ के नीचे बैठ गया । बच्चे नाला पार कर फुटबाल का आनंद लेने आगे बढ़ गए। हम पति-पत्नी मूँगफली फोड़ने लगे। मूँगफली फोड़ना भी एक कला है। अक्सर लोग दाँत से अथवा हाथ से पूरी ताकत लगाकर फोड़ते है। परिणामस्वरूप दाने सही मात्रा मे हाथ नहीं आते हैं। मूँगफली के पेट वाले हिस्से की तरफ अगले हिस्से के पास अंगूठा से दबाने पर यह अपने आप दो भागों में  बंट जाता है और दाना साबुत निकलता है। इस कला को हम देहाती मटर छीलने के लिए भी प्रयोग करते है। बड़ी-2  महफ़िलों के लिए तैयार की जाने वाली मूँगफली की दास्तान तो अद्भुत है। गरीब और बेसहारा औरतें तो इसे अपने नाजुक होंठो से इसलिए छिलती है कि  कहीं दाने के किसी हिस्से में दरार न पड़  जाये। क्योंकि इससे उनकी मजदूरी पर असर पड़ सकता है। इस पर प्रो कृष्ण कुमार ने एक बेहद मार्मिक कहानी भी लिखी है-द्रौपदी के होंठ।   
अपनी सहधर्मिणी को मैं यह सब सुना रहा था। पर उनका ध्यान तो कहीं और था। मैंने उनसे पूछा आप यहीं हैं न! बोली हाँ। उन्होने कहा जरा ऊपर डाली पर तो देखिये। शाम का समय था । पक्षी अपने घोसलों की तरफ लौट रहे थे। जगह के लिए खींचतान जारी थी । तरह-तरह की आवाजें आ रहीं थीं। पक्षी-कलरव सुनकर बड़ा आनंद आ रहा था। तभी मेरी नजर  वृक्ष के एक मोटी डाल पर आमने-सामने बैठे दो पक्षियों पर पड़ी। उनके हाव-भाव से लग रहा था कि वे दोनों काशी विवि में कहीं और से बहक कर आ गए हैं। अन्य अधिकांश पक्षी अपनी-2 जगह पर बैठ गए थे । पर ये दोनों अभी भी बेचैन थे।  एक ने पूछा-मित्रवर काक ! किधर से आना हुआ है? काक ने कहा-यहीं अयोध्या से आना हुआ है। तुम कहाँ से आए हो उल्लू भाई? उल्लू ने कहा – जनकपुर से । दोनों की आँखों में अचानक खुशी की लहर दौड़ गई । गोया त्रेता की रिश्तेदारी याद आ गई हो। सुख-दुख के बाद दोनों अपने मूल विषय शिक्षा पर आ गए। काक ने बताया कि मैं तो साहित्य का अध्यापक हूँ । यहाँ काशी में कुछ पुराने विद्वानों से संपर्क की लालसा में चला आया हूँ । कल देखूंगा कि किस-किस से मिलना हो पाता है। उल्लू ने बताया कि वह तो दर्शन का आदमी है। यहाँ पंचगंगा घाट पर न्याय-दर्शन के एक बड़े आचार्य हैं । कल सुबह उन्होने बुलाया है। देखता हूँ कल कुछ हो पता है अथवा नहीं । सहधर्मिणी ने कहा-उठिए और चलिये । कौआ-उल्लू की बात मत सुनिए। घर पहुँच कर खाना बनाना है। मैंने कहा – अरे भामिनी ! विद्वानों की बात यदा-कदा  सुनने को मिलती है। अभी मैं माई को फोन कर देता हूँ कि रोटी बना लेगी और हमलोग रास्ते में बिंदास रेस्तरां से सब्जी ले लेंगे। नाक-भौं सिकोड़ते हुए किसी तरह वह शांत हुई।
अयोध्या और जनकपुर की अदावत पुरानी है। शक्ति,शील और सौंदर्य की लड़ाई त्रेता से चली आ रही है । संकटमोचन पर होने वाले रामायण में भी रामायणियों के बीच श्रेष्ठता को लेकर अक्सर तलवारें खींच जाती है। अयोध्या के पक्षधर जब यह कहते हैं कि राम को देखने के बाद तो जनकपुर वाले ऐसे दौड़े जैसे गरीब बच्चे सिक्के लूटने के लिए दौड़ते हैं- धाए धाम काम सब त्यागी।मनहुं रंक निधि लूटन लागी तो जनकपुर वाले भी ताल ठोंककर मैदान में उतर जाते हैं- जेहिं बर बाजि रामू असवारा। तेहि सारदउ न बरनै पारा। तो तुम्हारा राम श्रेष्ठ तब हुआ जब वह जनकपुर की धरती को माथे लगाया । संकटमोचन पर सुने गये प्रवचन का आज बहुत दिनों बाद चाक्षुष दर्शन हो रहा था। काक और उल्लू दोनों अपनी-2 बड़ाई खास तरीके से कर रहे थे। देश-विदेश की यात्रा और  दिल्ली के गलियारों में बढ़ते अपने सम्बन्धों का बखान भी वैसे ही शुरू था जैसे सुरसा-मुंह । कोई किसी से कम नहीं था। रात्रि बढ़ती जा रही थी । मूँगफली भी खत्म हो गई थी। मैं भी उठा और घर के लिए चल दिया।
अगले दिन एक निजी कार्य से मैं विवि के केंद्रीय कार्यालय जा रहा था । मैं पैदल ही था। रास्ते में प्राचीन इतिहास विभाग को देखकर इसके गौरवशाली इतिहास का स्मरण हो आया। । बताते हैं कि यहाँ कभी काशी प्रसाद जायसवाल ,वासुदेव शरण अग्रवाल और ए एस अल्तेकर जैसे मनीषी अपना योगदान दे चुके हैं। मैं अभी इन महापुरुषों को याद कर ही रहा था कि पीछे से किसी ने मुझे आवाज दी । मुड़कर देखा तो  एक सज्जन जो किसी जमाने में मेरे प्रिय कनिष्ठों में से एक हुआ करते थे,तेजी से मेरी तरफ बढ़ रहे थे।  हालचाल जानने के बाद मैंने पूछा कि इधर  कैसे आना हुआ? उन्होने बताया कि किसी की फाइल क्लीयर कराने आया हूँ । सड़क पर खड़े होकर हमलोग अभी  बात कर ही रहे थे कि जनकपुरी उल्लू हमलोगों के सामने से गुजरा । मैं अभी कुछ कहता उसके पहले ही हमारे कनिष्ठ ने बताया कि यह बड़ा विचित्र उल्लू है। मैंने पूछा-क्यों ? कनिष्ठ ने बताया कि कल दिन में इनसे मेरी भेंट हो चुकी है। मैं अपने कार्यालय में बैठ कर  फाइले वगैरह देख रहा था कि ये अपने गुमान में बिन बुलाये मेहमान की तरह आ धमके और अपने आका  के नजदीकी का धौंस दिखाकर अरदब में लेने की कोशिश करने लगे। मैं भी ठहरा गायत्री मंत्र के आदि गायकविश्वामित्र-खानदान का। मैं भला क्यों चुप रहता। मैंने उन्हे आँख तरेर कर देखा। वे नरम हो गए। फिर कभी आने की बात कहते हुए उठे और चले गए।उसने बताया कि देखिये भइया! कलयुग में अपनी बुद्धि घुटने में चली गई है। इसलिए हमलोग जब बुद्धि का प्रयोग करते हैं तो ........ । अच्छा! तो ये बात है। कुछ देर के गपशप के बाद हम दोनों अपने-2 रास्ते हो लिए। मैंने भी कुछ अन्य कार्यों को निपटाया और चल दिया अपने घर की तरफ । रास्ते में फिर भगत भाई की मूँगफली की दुकान पर रुक गया। देखा कि दोनों विद्वान अपनी-2 जगह पर धमक चुके हैं। चेहरे की प्रसन्नता बता रही थी कि दोनों अपने-2 उद्देश्य में कुछ-2 सफल हुए हैं। मैं भी पेड़ के नीचे बैठ गया और उनकी बात सुनने लगा । दोनों की एक खासियत तो तुरंत समझ में आ गई कि एक राजभाषा में निपुण था तो दूसरा राष्ट्रभाषा(?) में । पर बात दोनों हिन्दुस्तानी में ही कर रहे थे। बात पुन:  घूम-फिरकर वहीं पर आ गई जहां पर छूटी  थी। दोनों कई बार अपने देह-भाषा से एक दूसरे को पछाड़ने की कोशिश कर रहे थे। पर दोनों की मातृभूमि से इतिहास में भी कभी कोई मल्ल नहीं पैदा हुआ था। अत: अटल-मुशर्रफ वाली देह-भाषा से ही काम चल रहा था। पर मैं ठहरा शुद्ध मल्ल-भूमि निवासी । अपने ही गाँव के श्री राजनारायन ने विश्वविजयी मल्ल गामा के छोटे भाई इमामबख्श को पलक झपकते ही अपनी  टांग (एक प्रसिद्ध दाव) से आसमान दिखा दिया था। उसके बाद भी मल्लों की एक लम्बी परंपरा रही है। नगीना-मंगला की कुश्ती तो सिर्फ इसलिए टाल दी गई कि जीत-हार के बाद सनके-बौराये इन परशुराम-पुत्रों को संभालेगा कौन। मेरी अपनी ही धरती पर जन्मे  कुश्ती कला मर्मज्ञ श्री केशव प्रसाद राय  जी का नाम तो सदा अविस्मरणीय रहेगा जिनके बारे में कहा जाता है कि उनके जैसा दाव-पेंच शायद ही कोई  जानता था। मैं तो शुद्ध मल्ल की आस लगाए बैठा था। पर घोर कलि काल में आमने-सामने के मल्ल का जमाना कब का बीत चुका है। अब तो सबके हाथ में धारदार गुप्ती है। अत: धर्मयुद्ध अथवा चित्रकूट-संवाद की अपेक्षा करना युगधर्म के खिलाफ है । अब विद्वान मुंह-थेथरई ज्यादा करते हैं ठोस बातें कम । कुछ देर बाद ही दोनों स्वयंभू विद्वान तलवारबाजी पर उतर ही गए। एक से एक करतब दिखने लगे। अगल-बगल के छुटभैये भी छिटक कर गिरे समानों को अपने विद्वानों को संभलकर पकड़ा देते थे। जब दोनों वाकवीर थक जाते थे तो पानी मंगाकर पी लेते थे । अचानक वाकयुद्ध अपने-2 गुरु घंटालों की ओर बढ़ गया। फिर क्या था? दोनों कसीदे पढ़ने लगे-मो सम पुरुष....यह विचार विधि रचेउ बिचारी । अचानक एक छुटभैये ने अपनी निकटता दिखाने के चक्कर में एक अन्य फुदकती चिड़िया का नाम उछालते हुए  चिंचियाया – अरे सर ! उनके टक्कर का तो कोई है ही नहीं । गाँव के प्राथमिक विद्यालय से पढ़कर आज वे शिक्षा जगत के उच्चतम स्तर पर सुशोभित हो रहे हैं। कागभुशुंडि से रहा नहीं गया। उन्होने कहा- अरे महाराज कुछ-पढ़ लिख लो तब बोला करो। जिसको आप बता रहे हो उसे मैं भी जानता हूँ। एक नंबर का .............  है। इतना सुनना था कि उल्लू का चेहरा तमतमा गया । उसने कहा – देखिये सर! मैं जिसको पसंद करता हूँ अथवा मान-सम्मान देता हूँ उसके खिलाफ  कोई कुछ कहता है तो मैं उसकी जबान खींच लेता हूँ। काक कहाँ चूकने वाले थे। उनकी भी पढ़ाई अयोध्या के हुनरमंद पाठशाला में हुई थी। उन्होने बड़ी विनम्रतापूर्वक कहा- डाक साहब ! मैं अजानुबाहु नहीं हूँ । अत: मैं यहाँ पर आपसे एक कदम पीछे हूँ। उल्लू ने तुरन्त कहा–अरे भाई! वह तो त्रेता काल से ही है । काक ने कहा–पहले मेरी पूरी बात तो सुनिए। दरअसल एक कदम आपसे पीछे रहकर मेरी अपनी पहुँच गर्दन तक ही है। अत: मैं तो उसकी गर्दन ही दबोच देता हूँ। ज्ञान की बात होते-होते वाक-नाव अचानक चकोहमें फंसती दिखी । राजा गाधि के नगरी का यह कदर्य-मल्ल रहा प्रथम बल मम तनु नाहीं कहकर अपनी गर्दन  बचाने के लिए वहाँ से तुरंत निकल लेता है।     

             किस्सा ए कुलगुरु : ब्रह्मांड विश्वविद्यालय   
                                                                                                                 दसराज्ञ युद्ध की समाप्ति  पर विजय पक्ष  के सेना नायक ने एक सवाल के जबाब में कहा –दुनिया वालों से कह दो कि बूढ़ा अँग्रेजी भूल गया है।  कहने के पीछे आधार यह था कि किसी भी देश का उसका अपना झण्डा,अपनी भाषा होनी चाहिए। तभी से उस देश में हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की प्रक्रिया शुरू हुई। कुछ नेताओं की दृष्टि में हिन्दी में मौलिक चिंतन-लेखन का अभाव था । सो इसकी महती ज़िम्मेदारी किसी विवि को सौंप देनी चाहिए। अचानक किसी के मन में यह कौंधा कि क्यों न देश के जीरो माइल पर  एक  ब्रह्मांड विश्वविद्यालय खोला जाय। दो दशकों की  सहमति-असहमति के बाद ब्रह्मांड विश्वविद्यालय खुलने की अनुमति मिल गई । कुलगुरु के चयन हेतु  खोज समिति बनी जिसमें मोदी-भय से देश छोड़कर जाने की चाहत रखने वाले एक ख्यातिलब्ध  साहित्यकार और प्रव्रज्या-योग के साधक साहित्यकार का नाम था । नारद-यात्रा के दौरान रास्ते में इनकी निगाह कटि  प्रदेश के सागर  किनारे जाकर अटक गई। उन्होने वहाँ देखा कि रौबइंडिया का कुर्ता पहने  एक  सुकुमार बुजुर्ग वृक्ष के नीचे बैठकर कविता पाठ कर रहा है। सदस्यों ने पूछ अरे तुम यहाँ क्या कर रहे हो ? शोकाकुल  ने जबाब दिया –क्या करूँ ? हिन्दी वालों को जीवन भर सरकारी खर्चे पर यात्रा कराने के बावजूद मुझे  कवि नहीं माना गया । उधर एक-दो पुरस्कार क्या झटका कि प्रमोशन ही रोक दिया गया । खैराती जीवन जीने वाले साहित्यकारों ने  इनकी हालत पर तरस खाते हुए ब्रह्मांड विश्वविद्यालय के  प्रथम कुलगुरु  के लिए तैयार किए जाने वाले  पैनल में  शोकाकुल का नाम डाल दिया । शंकर का आशीर्वाद और चित्रगुप्त के दरबार  में अपनी पकड़ के चलते इन्होंने उस पद को प्राप्त किया । पुरानी सेवा के दौरान भव्य-भारत के सहयोग से ये अपने को  कला-संस्कृति मर्मज्ञ के रूप में स्थापित करने में सफल हुए थे । कुलगुरु होते ही हिन्दी-साहित्य के तमाम गिरे-पड़े साहित्यकारों को यात्रा और रसरंजन का सुख दिलाने के लिए धन की गठरी खोल दी ।  हिन्दी साहित्य जगत वाह-वाह कर उठा । पांडु-पुत्र के सहयोग से कार्य -परिषद भी मनमाफिक मिली । कोर्सडिजाइन को लेकर लंबी-2 बैठके होने लगीं। पैसा पानी की तरह बहने लगा। अष्टछाप के कवि दोनों हाथों से मानदेय पकड़ने लगे। ताकत के गुमान में वाजिदअली शाह का यह पुरस्कर्ता दिल्ली के तख्त ताऊस पर बैठकर विवि को चलाने की जिद कर बैठा। विवि की स्थापना जीरो माइल पर  होनी थी । पर शोकाकुल ने ऐयाश केंद्र से  15 किमी की  त्रिज्या के आधार पर एक वृत्त खींचा और वहीं स्थापित करने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक दी। इस बीच इन्होने सत्यवचन नामक एक पत्रिका का विमोचन भी पाताल  में कराया। कहते हैं कि लोग लौटते समय सत्यवचन की प्रतियों को वहीं पाताल लोक के हवाई अड्डा पर ही छोड़ आए ।  
कोर्स एवं जमीन के चक्कर में 3-4 वर्ष गुजर गए । अब विवि है तो कुछ तो पठन-पाठन कराना ही पड़ेगा । शोकाकुल ठहरे कवि। कवि को आलोचक की जरूरत होती है। उन्हें कविता के एक किशोर आलोचक दिखे । किशोर आनंद के लिए परेशान हाल थे। अशोक ने ब्रह्मांड विवि के लिए अपूर्व-आनंद की व्यवस्था  कर दी ।  विवि में आनंद तभी है जब वहाँ बेहतरीन ग्रंथालय हो। इसके लिए शोकाकुल ने आनंद को इसकी ज़िम्मेदारी सौंपी। आजकल भारतीय  विवि में एक बड़ी मजेदार व्यवस्था  हो गई है। यहाँ जूता और पुस्तक खरीद में खास अंतर नहीं रह गया है। प्रकाशकों ने अध्यापकों का बोझ न्यूनतम कर दिया है। वे स्वयं तय कर देते हैं कि किन पुस्तकों की आपको जरूरत है। ब्रह्मांड विवि में भी यही हुआ । यहाँ वाणी का साम्राज्य ऐसा फैला कि कमल भी शरमाने लगे।  पाँच वर्ष बाद फिर नए कुलगुरु की खोज शुरू हुई। इस बार खोज समिति में साहित्य-इतिहास का गठजोड़ था। द्विजद्वय ने अपने-अपने राम के तर्ज पर वाक-सत्य का नाम आगे बढ़ाया । पर दो द्विजों की लड़ाई में प्रोफेसर  मैराथन ने बाजी मारी। संत मैराथन ने आते ही विवि को जीरोमाइल पर स्थापित करने का निर्णय किया । तख्तेताज को तय जगह पर लगाया। विवि शनै:-2 आगे बढ़ना शुरू हुआ। पर शोकाकुल के आकाशमार्गी सहयात्रियों को यह पचा नहीं। गतिशील कार्यपरिषद ने इसमे टांग अड़ाना शुरू कर दिया। डगरते-मगरते इनका कार्यकाल भी खत्म हुआ। अब तीसरे कुलगुरु की खोज शुरू हुई। इस बार की खोज समिति में  शोकाकुल के एक जूनियर भी थे। खेल खुलकर चला। पांडु-पुत्र की  विशेष रूचि के बावजूद बटेर भभूति के हाथ लगी। हाशिए पर बैठे  शशि-भास्कर ,नाग-करैत सब सक्रिय हो गए । समयका ज़ोर चला –हिन्दी समय,लोक समय ,विमर्श समय,ब्लाग समय और न जाने कौन कौन सा  समय। समय ने भी अपने हाथ खड़े कर दिये । ब्रह्मांड विवि के चौथे  कुलगुरु की  चयन प्रक्रिया शुरू हो गई । इस बार की  खोज समिति में  शोकाकुल बतौर एक सदस्य शामिल हैं । स्वप्नदर्शी शोकाकुल को पुन:एक बार अवसर मिल गया अपने पुराने अरमानों को अमली जामा पहनाने का । खोज समिति ने कुछ लोगों का नाम सुझाते हुए चित्रगुप्त के मातहतों को बंद लिफाफा दे दिया  और अपने-अपने काम में जुट गए। । पर शोकाकुल को चैन कहाँ? बैठक खत्म  होते ही वे सक्रिय हो गए । शाम होते-2 उन्होने अपनी कारस्तानी को जगजाहिर कर दिया ।  उन्होंने कुछ सूत्र पकड़े और उन्हें अपने काम पर लगा दिया। अखबार  घरसत्ता ने उनका साथ दिया और देश की सबसे बड़ी समस्या के रूप में ब्रह्मांड विवि उभर कर सामने आया । घरसत्ता के मुखपृष्ठ पर अंदर की बात को खास तरीके से छापा गया । चित्रगुप्त के दरबारी हक्का-बक्का ।  लिफाफा उनके यहाँ खुलना था । पर मजमून पहले ही बाहर ।  शोकाकुल के कारनामें यहीं नहीं खत्म हुए । उन्होंन ब्रह्मांड विवि को बचाने के लिए तत्काल दो खत मजा फाउंडेशन के लेटर पैड पर  लिखे। एक विरोध में और दूसरा पक्ष में । खोज समिति के इतिहास में यह पहली बार हुआ कि कोई सदस्य खुले तौर पर अपनी व्यतिगत राग-द्वेष को अमली जामा पहना रहा हो । पहले पत्र में शोकाकुल ने अपनी चाल को और मजबूती प्रदान करने के लिए खांग्रेसी अंदाज में संविधान को भी धता बताने की कोशिश की । उधर ग्रेवाल त्रयी ने भी अपना काम शुरू कर दिया ।  उत्तम पुरुष के लिए ब्रह्मा के  अन्याय मंत्रालय ने साफ तौर पर कह दिया है कि विश्वविद्यालयों पर चित्रगुप्त मंत्रालय का कोई प्रशासनिक नियंत्रण नहीं है । शोकाकुल का दूसरा पत्र संवेदन लिए हुए हैं। कबीर मोदी अकादमी से पुरस्कृत शोकाकुल को इस बात का दर्द है कि देश-विदेश की तमाम यात्राओं और कुछेक मानद उपाधि झटकने के बावजूद उन्हें  सांस्कृतिक प्रबंधक  कहा जा रहा  है । ब्रह्मांड विश्वविद्यालय के कुलगुरु का खेल अपने अंतिम पड़ाव की ओर बढ़ चला है । इधर मनुष्य और देवता ,भाग्य और पुरुषार्थ के बीच सूर्योदय के साथ ही वैभव-प्राप्ति के लिए संघर्ष शुरू हो जाता है । उधर गोपी वल्लभ  अपनी काव्योपम बांसुरी पर राग नामवरी का तान छेड़े हुए हैं।   
 जनवरी 2013

प्रोफेसर डी  के राय जिनका  आज जन्मदिन है
अचानक एक दिन मेरे मन में  पता नहीं क्या सूझा कि मैं रायसाहब से पूछ ही बैठा  कि कितनी सुंदर बात है कि आपका और सी वी रमन का जन्म दिन (7 नवंबर ) एक ही है। शायद इसीलिये आपने रमन प्रभाव पर काम भी किया है। स्मित मुस्कान के साथ उन्होने कहा यह एक coincidence  है
  बात लगभग 27 वर्ष पुरानी है। गाँव से शहर मे आया था। बिरला छात्रावास में रह रहा था। कहीं से प्रज्ञा पत्रिका  देखने को मिली । प्रधान संपादक के रूप मे प्रो देवेन्द्र कुमार राय का नाम दिखा। किसी ने बताया कि भौतिकी के आचार्य हैं। पर रामायण आदि में भी गहरी रूचि है। विद्वानो से मिलना और उनको अपने तराजू पर तौलने की खराब  आदत बचपन में  पड़ चुकी थी। अब इनको घेरना था। वि वि के ही एक  अन्य विद्वान से बहुत पहले  मेरी मुलाक़ात हो चुकी थी।रामचरितमानस –प्रवचन के दौरान इन विद्वान से मैं टकराया भी  था । तब मैं कक्षा आठ का छात्र था। अपने चाचा के साथ मैं इनके घर गया था। वहीं मैंने  डी के राय के बारे में पूछा। उन्होने बताया कि अरे ये बड़े विद्वान है। अध्यात्म में भी गहरी रूचि है।नोबेल पुरस्कार की योग्यता रखते हैं।  सुनकर अच्छा लगा। पर निकट से देखने की लालसा और तीव्र हो उठी। पड़ोसी गाँव के होने के नाते जल्दी ही मैं उनके परिवार के संपर्क में आ गया।फिर तो मैं बहाना बनाकर उठने बैठने की कोशिश करने लगा। पर यह अजानुभुज योगी हमसे कई कदम आगे का निकला। मैं भी कहाँ हार मानने वाला। मैंने इनका पीछा किया। कई बार ये टहलते हुए मिले । अब तक मैं इनका दीवाना हो चुका था। मैं इनकी तरह बनना चाहता था। विश्वास हो या न हो पर मुझे अच्छी तरह याद है कि मैं रायसाहब के पदचिन्हों पर चलने की कोशिश में इनके पैरों के निशान पर भी चला।यह एक पागलपन था। पर जो आनंद उस छाप पर चलने में मिलता था उसको शब्दों मे नहीं बांधा जा सकता। ..लोग हैं लागि कवित्त बनावत/ मोहिं तो मेरे कवित्त बनावत । मूर्खतापूर्ण हरकतों से ही सही मैं उनके निकट आ ही गया। कभी –कभार मैं उनके विभाग में उनके पास बैठने के लालच में चला जाता था। अक्सर कुछ लोग उनके चेम्बर में बैठे मिलते थे। लोग विभिन्न विषयों पर अपनी बहस चला रहे होते थे और रायसाहब एक सिद्ध  योगी की नाईं अपने काम मे लगे रहते थे। 
51 वर्ष की अपनी विश्वविद्यालयी  सेवा काल मे रायसाहब ने कई उतार-चढ़ाव देखे,पर सत्य से कभी डिगे नहीं। वि वि के  कार्य-परिषद सदस्य के दौरान कई विकट परिस्थितियाँ सामने आई पर उन्होने वि वि हित  से कभी समझौता नहीं किया। वि वि के एक महत्वपूर्ण पद पर इन अबसेंसिया एक व्यक्ति का चयन हुआ था। यह चयन गलत था । पर कुलपति अड़े हुए थे। कार्यपरिषद की मीटिंग दिल्ली में होनी थी। मुझे वि वि के एक  वरिष्ठ सदस्य ने बताया कि इस चयन पर रोक लगनी चाहिए। मैं भागता हुआ उनके कार्यालय  पहुंचा । वे जाने की तैयारी कर रहे थे । मैंने अपनी अपनी बात एक ही सांस  में कह डाली। उन्होने कहा- जा कुल ठीक होई
सत्य के प्रति उनकी निष्ठा गहनतम थी। पर कटु सत्य कहने से बचते थे। किसी भी बात को बड़े प्रेम से समझाते थे। एक दिन एक आचार्य अपने लोभ-दृष्टि से वहाँ अवतरित हुए। महोदय ने अपनी बात जब कह ली तब उन्होने प्रेमपूर्वक  कहा – एगो प्रोफेसर के कुलपति से का चाही। आप काहे के लालच करतानी। प्राय: लोग उनको घेरे रहते थे। शील-संकोच से वे कुछ कह नहीं पाते थे। पर सिद्ध पुरुष की तो अपनी दृष्टि होती है। एक सज्जन जो अक्सर आकर अपनी विद्वत्ता हांक जाते थे एक दिन बुरे फंसे । अचानक रायसाहब को पता नहीं क्या सूझा और एक जर्नल उनको पकड़ाते हुए कहा कि तनि  एके पढ़के बतइह कि ए मे  का लिखल बा। स्वयंभू विद्वान  महिनों  दर्शन नहीं दिये।
रायसाहब  शील प्रधान गार्हस्थ्य जीवन के अप्रतिम साधक थे।जीवन को वे संपूर्णता मे देखते थे । संयुक्त परिवार-पुत्र-दांपत्य-समाज और शैक्षिक कर्तव्य सभी मोर्चों पर एक कुशल कलाकार की भाँति वे डटे रहे। अहर्निश सतर्कता जैसे उनका सहज धर्म बन गया था। अद्वैत दर्शन के साधक रायसाहब यह मानते थे कि कर्म को निरासक्त होने के साथ-2 ईश्वरीयता से भी जुड़ना होगा। जब भी इस तरह की चर्चा उनसे होती थी लगता था जैसे मेरे समक्ष कोई ऋषि खड़ा हो । मंत्रमुग्ध होकर उन्हें सुनने में  बड़ा आनंद आता था। पर इसके लिए थोड़ी मेहनत करनी पड़ती थी। मैं जब   गांधी के सौन्दर्य – बोध पर काम कर रहा था तो उनसे इस विषय पर खूब चरचा होती थी। मैंने जब उनसे आग्रह किया कि वे इस  पुस्तक पर अपना आशीर्वचन दें तो बड़ी विनम्रता से कहा , “ इसमें मेरी गति नहीं है”।पर जब पाण्डुलिपि छोडकर आया तो उसमे बहुत से सुधार किए । उन्होने बताया कि सी वी रमन ने भी अपने शोध द्वारा बताया है कि पाश्चात्य संगीत  (ड्रम आदि )शोर पैदा करता है। आगे  काव्य -कला के संदर्भ में  उन्होने जोड़ा -  कीन्हें प्राकृत जन गुन  गाना  । सिर धुनि गिरा लगत पछिताना
गांधी के प्रति उनके मन में बड़ा आदर भाव था। अक्सर उनसे गांधी पर चर्चा होती थी। एक बार प्रसिद्ध  बाल चिकित्सक डा एस एन राय के साथ उनके घर जाना हुआ । सेवा निवृत्ति के बाद अभी वे वि वि कैंपस मे ही रह रहे थे। जब हम लोग उनसे मिलकर बाहर आ रहे थे तो मैंने उनसे पूछ कि अब आगे क्या विचार है ? तो उन्होने कहा कि अरे इस semi –turmoil में सब अच्छा से कट गया । यह क्या कम  बड़ी बात है। तुरंत मेरे मन में गांधी का कथन कौंधा – I have to search my peace in semi turmoil । बाद में मैंने उनसे पूछा कि आखिर यह कैसे हुआ कि गांधी और आप एक ही शब्द का प्रयोग कर रहें है। फिर वही सहजता –Coincidence। हालांकि बाद में इस पर गंभीर चर्चा भी हुई। पर इतना तो तुरंत ही अंदाज लग गया कि मालवीय जी के इस कर्मभूमि में कुछ अच्छा नही हो रहा है।
मृत्यु से कुछ वर्ष पूर्व अचानक तबीयत खराब होने के संदर्भ मे उनसे उनके आवास पर शाम को एक बार चर्चा हो रही थी।जीवन में पहली बार उनके चेहरे पर नैराश्य – भाव दिखा। उस दिन जीवन-मृत्यु को लेकर लंबी चर्चा हुयी । हमेशा उनको सुनना पसंद करने वाला मेरे जैसा रजील व्यक्ति भी उस दिन वाचाल था। वे धैर्य-पूर्वक सुनते रहे और मैं ....... । अंत में मैंने पूछा तब! बोले –तब का बचपन गंगा जी क किनारे गाय-गोरू के नहवावत-खेलत बीतल अब एइजो गंगाजी लगिए बाड़ी। उनही क गोदी मे जाय क तैयारी बा। मेरा माथा ठनका ।रायसाहब जैसा अनासक्त-कर्मयोगी जो जीवन भर घर-परिवार-मित्र-समाज की संरक्षा-सुरक्षा के लिए विषपान करता रहा वह ऐसा क्यों कह रहा है? मन ने रास्ता तलाशना शुरू कर दिया। आखिर हर विपरीत परिस्थितियों में हम बचने की जुगत तो खोजते ही  हैं।याद आया । महाभारत के अंत में कृष्ण और स्वतंत्रता की लड़ाई के अंतिम दिनो में गांधी ने कहा था –अब मेरी कोई नहीं सुनता। अर्थात जीवन रूपी रंगमंच पर अब अपना समय समाप्त। गोधूलि की उस पावन वेला में मैं सिहर उठा। चुपचाप उठा और चरण छूकर निकल आया।                      

अप्रासंगिक होती कुलगुरु चयन की खोज समितियां
 
भारतीय विश्वविद्यालयों में कुलगुरु चयन की प्रक्रिया उस विवि के अधिनियम और यूजीसी के नियमों के आलोक में संपन्न होती  हैं। केंद्रीय विश्वविद्यालयों में प्राय: एक खोज समिति बनाई जाती है । यह खोज समिति विवि के अधिनियम के अनुसार गठित की जाती है। अधिकांश विश्वविद्यालयों  में खोज समिति कार्यपरिषद और विजिटर दोनों द्वारा नामित सदस्यों द्वारा बनाई जाती है।   कुछ विश्वविद्यालयों में अभी भी यह अधिकार सिर्फ विजिटर के पास ही सुरक्षित है। खोज समिति अपने विवेक से विद्वानों का एक पैनल तैयार कर शिक्षा मंत्री के पास भेज देती है । तदुपरान्त यह पैनल विवि के विजिटर यानी राष्ट्रपति के पास भेज दिया जाता है । इस पैनल (जिसकी संख्या कम से कम तीन होती है) में से किसी एक विद्वान(?) के नाम पर विजिटर अपनी सहमति देते हैं। तब यह विद्वान महोदय उस कथित विवि के कुलगुरु बन जाते हैं। यह परंपरा लंबे अरसे से प्रयोग में लायी जा रही है। इस परंपरा में कुछ अच्छाइयाँ हैं तो कुछ बुराइयां भी हैं। यह बुराई इधर दो-तीन दशकों से कुछ ज्यादा ही परिलक्षित हो रही है। यद्यपि इस पर अब तक ऐसा कोई समाजशास्त्रीय अध्ययन सामने नहीं आया है जिससे यह तय किया जा सके कि इसके पीछे  के ठोस कारण क्या –क्या हो सकते हैं।
 
कुछ दिनों पहले भारत के एक प्रधानमंत्री के नाम पर बने एक विवि की खोज समिति के कार्य पद्धति को नजदीक से देखने का अवसर मिला । इस खोज समिति में दो तत्कालीन कुलपति और एक पूर्व कुलपति थे । तीनों ने अपने विवेक का प्रयोग किया और कुछ लोगो को बातचीत के लिए बुलाया। बातचीत के बाद जो नाम तय किए गए उनमें एक ने अपनी जाति,दूसरे ने अपने सहपाठी और तीसरे ने ऊपर के संकेत अनुसार नाम डाल दिया। एक-दो नाम और भी जुड़े जो इनमे से दो के बेहद निकट के थे । तथ्यत: खोज समिति के दो सदस्य उस व्यक्ति विशेष का नाम पैनल में डालने के शर्त पर ही रखे गए थे। कहने के लिए सब ने पीपीटी- प्रजेंटेशन दिया था । पर यह सब तो छलावा था । क्योंकि सभी नाम जो विजिटर के पास भेजे गए थे उनका नाम मेरिट के आधार पर न होकर “जुगाड़” आधार पर था । दरअसल  नाम तो खोज समिति के चयन के साथ ही तय हो जाते हैं। खोज समिति के सदस्य भी मनुष्य ही होते हैं । मनुष्य की साधारण प्रतिज्ञा होती है बेईमानी की । अन्यथा वह  अरे उ देवता ह की श्रेणी में आ जाता है।   जो व्यक्ति कुलगुरु बने उन्हें उनके विवि के लोग दिन में ही लालटेन लेकर खोजते फिर रहें हैं । पर अब वह कहाँ हांथ आने वाले हैं। अकूत सुविधायुक्त पद पाने के बाद इच्छाएं और ज़ोर मारती हैं । इसलिए एक बार कुलगुरु बनने के बाद दुबारा जुगाड़ की प्रक्रिया में लिप्त हो जाते है। विवि बना है तो चलेगा ही।
 
11वीं पंचवर्षीय योजना में थोक के भाव केंद्रीय विश्वविद्यालयों में कुलगुरु बनाए गए थे। आज की तारीख में एक-दो कुलगुरु जेल की दहलीज पर पहुँचने वाले हैं तो कुछ जांच-वांच से बचने के लिए रात-दिन एक किए हुए हैं। कुछ अच्छे भी थे। पर वह अपवाद था। मुख्य प्रतिज्ञा नहीं । विश्वविद्यालयों के कुलगुरु बनने के लिए लालायित होने के पीछे बड़ा ही सहज कारण है। इसे एक स्वनामधन्य विद्वान के उस कथन से आसानी से समझा जा सकता है जिसे उन्होने अपने कनिष्ठ को एक  विश्वविद्यालय के कुलपति बनने पर कहा था। उन्होने उन्हें शाबाशी देते हुए कहा था- जाओ इकबाल जाओ! अब तक तो तुम नौकरी कर रहे थे। पर अब तुम राज करोगे राज। महज एक वाक्य में ही उन्होने कुलगुरु बनने के कारण को स्पष्ट शब्दों में बता दिया। यद्यपि कि उनके इस कथन में उनकी दमित वासना अर्थात कुलगुरु बनने के जन्मजुगी आह को भी आसानी से समझा जा सकता था।  
 
काशी जो सांस्कृतिक राजधानी के नाम से विख्यात रही है वहाँ स्थित तमाम विश्वविद्यालयों की दशा भी वैसी ही है जैसा अन्यत्र है। यहाँ के विवि अब अपने स्कालरशिपके लिए नहीं अपितु जुगाड़ के लिए जाने जाते हैं। अभी हाल में सर्वविद्या की राजधानी के नाम से ख्यात इस विवि के  लिए कुलगुरु की चयन प्रक्रिया शुरू की गई है । हाल-2 तक कुलगुरु रहे डीएनएविद्वान की स्वयं को दुबारा स्थापित करने की इच्छा थी। परंतु जांच-इन्क्वायरी में फँसने के कारण उन्हें वापस लौटना पड़ा। इस विवि के कुलगुरु चयन की खोज समिति में सिस्टम ने तीन नाम दिये हैं। इनमे एक पूर्व न्यायाधीश हैं,दूसरे प्रख्यात वैज्ञानिक हैं तथा तीसरे गणितज्ञ है। प्रथम द्रष्ट्या देखने पर यह समिति भली दिखती है। दिखे भी क्यो न? क्योंकि सभी नाम बड़े जो हैं ।पर प्रथम ग्रासे मच्छिकापाते की तर्ज पर तीनों सदस्य एक ही जाति से आते हैं। यह इस देश का कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि आज भी हमारे पास अन्य वर्णो तथा आधी आबादी से एक भी नाम खोज समिति के लिए  नहीं सूझते हैं। इस विवि पर अपनी नजर गड़ाई जनता दबे मुंह बहुत कुछ कह रही है ।डीएनए में गुलामी इस कदर बैठा है कि वह आज भी मुखर विरोध करने में असमर्थ है । इसलिए चुपचाप इस समिति की कार्यवाही को देख रही है। समिति ने बाल-दिवस के दिन आठ सदस्यों को बातचीत के लिए बुलाया है। अपुष्ट खबरों के अनुसार इस सूची में आधे ऐसे विद्वान हैं जो तीसरी-चौथी बार कुलगुरु बनने हेतु अपना नाम अंतिम सूची में डलवाने के लिए पण्य-क्रिया से लेकर अस्मिता तक को दांव पर लगा रहे हैं । झोला-बस्ता लेकर इन घूमन्तू लोगों से यह पूछा जाना चाहिए कि महोदय पिछले एक दशक से अधिक समय तक कुलगुरु रहने के बाद भी अभी संतोष नहीं हुआ है? आखिर अभी भी क्यों लालायित है? बतौर अध्यापक जो कि आपका मूल पेशा है,आपका अपने समाज अथवा उस अनुशासन को क्या योगदान  है? क्या एक बार कुलगुरु होना ही दुबारा कुलगुरु बनने का पैमाना होगा? यह तथ्य है कि कुलगुरु विवि से छुट्टी लेने से लेकर किसी को भी आमंत्रित करने अथवा विदेशी विवि से एमओयू  करने जैसे किसी भी कार्य के लिए पूर्णत: स्वतंत्र होता है।अब इतनी सुविधा मुफ्त में मिली हो तो कोई भी अपने सम्बन्धों को जहन्नुमतक आसानी से ले जा सकता है । यह इसलिए भी जरूरी होता है कि अमृत वर्षा इसी जहन्नुम से ही होता है। अब अगर प्रधानमंत्रीजी गाँव के अनुभवी लोगों से सीख रहे हों तो यह उनका रुचिबोध-संस्कार हो सकता है, खोज समिति अथवा कुलगुरु बनने की इच्छा रखने वालों की नहीं। वरना एक विवि के कुलगुरु एक ऐसे एमओयू को जगाने विदेश चले गए थे जो वस्तुत: मौज-शौक की लिए की गई थी। अब पिछला कुलगुरु मौज-शौक के ऋजु-रेखा पर जा सकता है तो मैं क्यो नहीं? तो वह भी चले गए । आने के बाद तो सबकुछ कार्यपरिषद के सदस्य ओके कर ही देंगे । आखिर उन्हें भी तो तमाम समितियों मे आना  है। अब समय आ गया है कि यह सवाल तो तमाम खोज समिति के सदस्यों से अवश्य पूछा ही जाना चाहिए-कारण कवन नाथ मोहिं मारा। एक से बढ़कर एक जीवन-वृत्त इस अतीव सुंदर विवि के लिए आये होंगे पर उनका नाम नहीं है। इस सूची में अधिकांश नाम ऐसे हैं जिनके पास शोध जैसा कोई कार्य नहीं है।एक तो ऐसे हैं कि  अपने विवि को छोड़कर एक बार किसी विवि के कुलपति क्या बने दुबारा अपने मूल विवि  लौटकर  नहीं आए। भले ही वे प्राइवेट आदि विश्वविद्यालयों में घूम-घूमकर श्रमिक-संस्कृति का झण्डा बुलंद करते रहे।अब समय आ गया है जब हमें काक-दांत-गवेषणा को ही चरमसिद्धि मानने वाले इन ठेकेदारों से मुक्ति पानी ही होगी। भारत का राजपत्र में कुलगुरु के चयन में मेधा,अकादमिक उत्कृष्टता,सत्यनिष्ठा और नैतिकता पर स्पष्ट तौर पर बल दिया गया है।जात-पात और कुनबा-धर्म से हम कब ऊपर उठेंगे। प्रधानमंत्री लगातार इस बात पर बल दे रहें हैं । पर हमारी खोज समितियां ऐसे बन/बनाई जा रही हैं कि प्रथम दृष्टि में ही इससे मुक्त नहीं युक्त दिखने लगती हैं । यह एक शुभ सूचना है कि इसे देश में ऐसा हो भी रहा है। उत्तराखंड के राज्यपाल श्री अजीज कुरैशी वहाँ के विश्वविद्यालयों को लेकर बेहद संजीदा है। वह साफ तौर पर कहते हैं कि व्यक्ति लायक हुआ तो ही नियुक्ति की जायेगी।  इससे सुंदर बात और क्या हो सकती है । यदि हम भारत को पुन: उसका पुराना गौरव दिलाना चाहते हैं तो हमें शुरुआत नीचे से ही करनी होगी। इसके लिए शिक्षा से बेहतर माध्यम और क्या हो सकता है? किसी विद्वान ने ठीक ही कहा है -मनुष्य वह है जो काम करते हुए निरंतर स्वयं का परिष्कार करता है और सुकून पाता है। यही उसके सुंसंस्कृत होने का लक्षण है । इसके लिए यह जरूरी नहीं है कि वह शिक्षित हो,अपितु जनता की बीच पुराने अर्थ में दार्शनिक हो। क्या हमारा सिस्टम भविष्य में खोज समितियों के लिए ऐसे दार्शनिकों को खोज पाएगा?

गोधूलि वेला में सरस्वती पूजा
 
विश्वविद्यालयीय नौकरी से जुड़ने के साथ ही मेरा कुबेर अनुभव समृद्ध से समृद्धतर होता चला गया । रही सही कसर के लिए गूगल महाराज 24 X7 घंटे तैयार रहते हैं । देश,काल और यथार्थ के बारे में कोई भी  जानकारी चाहिए गूगल क्लिक कीजिये, ज्ञान हाजिर । मैंने भी एक दिनआदम-लोभ के प्रभाव में गूगल को  क्लिक कर ही दिया । देखा कि यहाँ तो कृष्ण के विश्वरूप के समान अनंत ज्ञान फैला है । एक से बढकर  एक योद्धा -मंदिर-2 प्रतिकर  सोधा । देखे जंह तंह अगणित योद्धा ॥ तभी मेरी नजर एक कोने में पड़ी । मेरी आंखे फटी की फटी रह गई । मैंने  देखा कि विद्या माई प्रेमचंद की बूढ़ी काकी की तरह अलग-थलग पड़ी हुई हैं । सहसा मुझे विश्वास नहीं हुआ । बचपन में पिताजी ने विद्या माई की पवित्रता के बारे में ढ़ेरसारे श्लोक रटवा डाले थे । परिणाम यह कि व्यये कृते एव वर्धते विद्याधनम सर्व धनम प्रधानम रूपी यथार्थ भाव  आज तक मन मेरे मन  में गहरे बैठा हुआ है । क्या मजाल कि कोई पुस्तक आदि पैर से छू जाय । यदि किंही  परिस्थिति में छू भी गया तो तुरंत प्रणाम करते हुए क्षमा याचना के सहित प्रायश्चित करना पड़ता है कि कहीं विद्या माई रूठकर दूसरे के घर न  चली  जाय । परंतु अब मुझे पता चला है कि ज्ञान अथवा किताब सब कुछ  अन्य वस्तुओं की तरह एक माल है जिस पर आयोग अथवा किसी बोर्ड/मंत्रालय का ही अधिकार/कब्जा है । वे जब जितना चाहें उतना ही आपको देंगे । उससे इतर होने पर अनुदान/मान्यता रद्द की जा सकती है।
हाल-हाल में ऐसा ही एक वाकया हुआ । एक विवि ने अपनी स्वायत्तता की परिधि में जंग खा रही बरसों पुराने पड़े कार्यक्रम में बदलाव की सोची । अध्यादेश/अधिनियम के अनुरूपसरस्वती- मूर्ति को  संशोधित / परिवर्धित करते हुए महामहिम के दरबार में चित्रगुप्त रूपी समर्थ डाकिये के माध्यम से भेज दिया । पर यहाँ सरस्वती- मूर्ति की आंतरिक संरचना भी रजा-शुजा-हुसैनकी ही तरह  अलग-2 किस्म की है यह बाद में पता चला । यह घोर कलियुग विद्या माईको भी सरकारी नजरिए से देखता है। जैसा युग वैसा मनु और वैसा विधान । सरकार बदलने के साथ ही सरस्वती- मूर्ति को भी  बदलने की तैयारी हो गई । टोपी-पैंट पहनकर बरसों से डंड-बैठक करने वाले मुकुटधारी सक्रिय हो गए । सरस्वती- मूर्ति की पूजा तो हम करते हैं । येकपिल-कामेडी के चाँद-सितारे कब से सरस्वती-पूजा करने लगे । फिर दरबार की क्या मजाल । उसने भी अपनी मौन सहमति दे दी । पर खेल इतना आसान नहीं था । उधर दान-ज्ञान- अध्यक्षभी बदलते माहौल में अपने को स्थापित करने के फिराक में थे । दूर से ही दान-ज्ञान- अध्यक्ष’ ने इस आहट को मनुष्य के सबसे पुराने और विश्वस्त साथी के घ्राण शक्ति को धता बताते हुए समझ लिया कि अब वंदना कहाँ करनी है । संध्या-वंदन में अध्यक्ष ने अंतर्मुखी होकर अंतरध्वनि को सुनने का प्रयास किया । ध्यान की गहन स्थिति में अध्यक्ष  को तीव्र प्रकाश का बोध हुआ ।  उम्र के अंतिम पड़ाव पर पहुँच कर उम्र-विवाद का दंश झेल रहे  दान-ज्ञान- अध्यक्ष की परमा स्मृति (racial memory) ने उसे  सहारा दिया । वे तत्काल न्यूनकोण का आकार बनाते हुए चित्रगुप्त के दरबार पहुँच गए । त्राहिमाम-त्राहिमाम करते हुए राजदरबार में औधे मुंह गिर पड़े । दरबारी सकते में पड़ गए । दान-ज्ञान-अध्यक्ष ने जमीन पर पड़े- पड़े ही कनखियों से दरबार का अवलोकन किया और मानस की एक चौपाई का मधिम स्वर में  पाठ किया – सुनहि बिनय मम  विटप असोका । सत्य नाम करु हरु मम  सोका ॥ दरबार में बैठे एक सज्जन ने अपने नाम की पुकार सुनकर चौकन्ने हो गए । चाचा चौधरी के दिमाग को मात देते हुए उन्होने मौके की नजाकत को समझ लिया और  दौड़ कर दान-ज्ञान- अध्यक्ष’ को सहारा दिया और  आने का सबब पूछा । रूआंसे  होते हुए उन्होने सरस्वती-मूर्ति के साथ हो रही छेड़खानी को अपने खास  अंदाज में  प्रस्तुत किया । दरबारियों ने चित्रगुप्त के भाव को समझते हुए एक स्वर में यह अन्याय है-यह अन्याय है का नारा बुलंद किया । दरबार के एक कोने में खड़े राणा प्रताप आवाक होकर दान-ज्ञान-अध्यक्ष का मुख देख रहे थे । दान-ज्ञान-अध्यक्ष ने अपनी बाईं आँख दबाई और बीती  बातों से तौबा करने के अंदाज में दोनों हाथ से कान पकड़ा । मरता क्या न करता । राणा प्रताप ने भी समय की नजाकत को देखते हुए सिर हिलाया और अपने कमरे में आने  का संकेत करते हुए  वापस लौट आए । चित्रगुप्त के दरबार में सभी की हाजिरी लगी । उपस्थित बंधु-बांधव ने एक सुर में सरस्वती-मूर्ति के साथ हो रही छेड़खानी को अक्षम्य बताया और कुलगुरु को सबक सिखाने पर मुहर लग गई। पर यह कार्य चित्रगुप्त के दरबारी अपने हाथों नहीं करना चाहते थे । उनकी इस समस्या का हल तुरंत निकल गया । दान-ज्ञान-अध्यक्ष ने अपनी CV दिखाई और कहा-सर मैंने इस तरह के कई कार्य पहले भी किए हैं। उत्साह मे अपनी पीठ स्वयम  ठोंकते हुए कहा सर ,रंग बदलने में गिरगिट भी शर्माएगे । रंग बदलना हमारे डी एन ए में है और इसकी जानकारी डा रेड जी  ने हमको उनके फाउंडेशन में दान-दक्षिणा देने के बाद दी है । अत: इसकी ज़िम्मेदारी हमे सौंपा जाय और हम इसे निष्ठा पूर्वक संपादित करेंगे । 
चित्रगुप्त के दरबार में हलचल हो और मीडिया शांत रहे । ऐसा हो नहीं सकता । मीडिया ने भी बहती गंगा में अपना हाथ धोने की कोशिश की । प्राय: सभी खबरियों ने अपने-2 तरीके से सरस्वती-मूर्ति के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी को जनता के सामने रखा । एक खबरी जो अपने स्टुडियो में नेशन वांट्स टु नो का राग अलापते रहते हैं, ने बड़े ही विचित्र अंदाज में कहा कि  यह कितना हास्यास्पद है कि सत्तानबे-अठानबे प्रतिशत अंक बटोरने वाला विद्यार्थी अपने स्नातक कोर्स में भौतिकी-रसायन के साथ  योग पढ़ेगा । मीडिया के बढ़ते प्रभाव के युग में भय वश खबरी महोदय से कोई यह भी पूछने की हिमाकत कैसे कर सकता है कि महोदय आप कौन होते हैं अर्थशास्त्र, राजनीति,रक्षा,पर्यटन,गंगा,अन्तरिक्ष आदि पर  अकेले प्रश्न करने वाले । खबरी महोदय भी नेशन-स्टेट में इतना फंस चुके हैं कि जमीनी हकीकत से उनका वास्ता ही खत्म हो चुका है । वह तो स्टोरी करना जानते हैं ।  वरना यह जानना बड़ा दिलचस्प है कि  सत्तानबे-अठानबे प्रतिशत अंक वाला विद्यार्थी ‘कोटा’ से सीधे जब किसी आई आई टी में प्रवेश पाता है तो वह परखनली-बीकर-वर्नियर कैलिपर्स जैसी सामान्य चीजों से भी अनभिज्ञ होता है । शिक्षा के साथ इससे बड़ा क्रूर मज़ाक और क्या हो सकता है? पर इससे किसी को क्या वास्ता ? यहाँ तो सभी को अपनी-अपनी  ढपली और अपना-अपना राग अलापने के सिवा फुर्सत ही कहाँ है? है कोई विद्या माई की मदद करने वाला । 

पतितों की शौर्य-गाथा

भारत में पतितों की एक लंबी परंपरा रही है । पर पतितों ने अपने पतित्व को बराबर छुपाए रखा । न केवल छुपाए रखा बल्कि इसके लिए बाकायदा लिखित/अलिखित संविधान भी रचा। कुछ ने देवदासी , नियोग प्रथा आदि का सहारा लिया तो कुछ ने कण्व ,गौतम आदि ऋषियों के आश्रमों का । जो भी हो वे अपने पतितपन को छुपाए रखने में सफल(?) रहे। 20वीं सदी के तमाम पतितों में  एक नाम और जुडते-जुड़ते  रह गया वह नाम था मोहनदास करमचंद गांधी का  । उन्होने अपनी आत्मकथा में पतित होने के कई अवसरों का उल्लेख किया है। पर हर बार वे बच गए और आगे उन पतित रास्तों से अपने को दूर भी करते गए। अब उन्होने अपने पतित होने के अवसरों का उल्लेख किया तो 21वीं सदी के लोग क्यों पीछे रहें । इस सरपट दौड़ में सभी अपनी –अपनी कलम को लेकर कूद पड़े। किसी ने गालिब का सहारा लिया तो किसी ने दक्षिणावर्त  का । कोई बस्तर के जंगलों में पतित होने गया तो कोई वर्धा  टेकरी’ के सराय में  औंधे मुंह  जा गिरा । कुछ लैप-टाप पर गिरे तो कुछ हंस  पर उड़े । कुछ अनभै साँचा पत्नी के लिए पतित हुए तो कुछ नवल धवल-दामाद के लिए ।  पर पतित हुए सब ।  पहले जहां पतित होने के बाद पावन होने की परंपरा थी वहीं अब पतित से पतितम होने की होड़ लग गई । इस होड़ में   किन्नर-छिन्नर सबने सुर में सुर मिलाया ।

पहले के लोगो को  अपने पतित होने की खबर  ध्यान-धारणा से मिल जाती थी वहीं अब इसके लिए फेसबुक का सहारा लेना पड़ता है। पर तकनीक तो तकनीक ही  ठहरा ।  वहाँ पावन होने की संभावना रहती थी और यहाँ फेस बुक से  आप  हटे  नहीं कि  पतितभाव  वेताल की तरह फिर आपके सिर  पर सवार  । पहले लोग राम का सहारा लेते थे पर अब राम पर हंसी आती है । तब रामत्व का आचरण जीवन का ध्येय था पर अब श्वेतदंडिका के साथ सहवास ध्येय हो गया। पहले लोग कुछ लिखते थे  तो उसे व्यास पीठ को समर्पित कर गौरवान्वित होते थे अब संस्करण की याद दिलाते नहीं थकते । तब लक्ष्मण बनकर सीता का अंगूठा देखना ही काफी होता  था पर अब के भाष्कराचार्य  सुरा का साथ पाकर सहयोगी आसन्न प्रसवा को भी अपने पतित भाव का शिकार बना लेते हैं ।  भाष्कराचार्य  यहीं नहीं रूकते हैं। वे अपने विषय को छोड़कर  कभी-कभी ज्योतिषी का रूप भी धर लेते हैं । वहाँ भी पतित होने के अवसर खूब हैं ।  पहले जहां पतित होने पर आत्मग्लानि का भाव पैदा  होता था वहीं  अब यह कहानी-कविता अथवा ड्राइंग रूम की शौर्य गाथा का रूप धर लेती है । कहते हैं कि  पतित होने में  स्पेस का भी खासा महत्व होता है। जब मनुष्य अपने अंदर भूमा की संकल्पना को साकार करना चाहता था तो वह अरावली पर्वत अथवा सागर की शरण में जाता था । वहाँ वह क्रिया-योग की साधना करता था । जाता वह अब भी है । साधना भी करता है। पर अब वह ईश आराधन अरावली के नाम पर बने अतिथि गृहों में, सागर विद्यापीठों में अथवा संगणक के कुंजी-पटलों  के मध्य बैठकर अपनी पतित होने का  गुटुर-गूं’ प्लाट तैयार करता है,जिस पर भविष्य में भोगा हुआ यथार्थ के नाम पर तैयारडालडा को  कविता-कहानी के रूप में प्रस्तुत करता है अथवा घूम-घूमकर कबीर बन व्याख्यान देता है।

आजकल पतित होने/बनने की होड़ सी लगी हुई है । पतित होना इनकी नियति है। अब कोई पुरानी कविता-कहानी-मित्रता आदि का सहारा लेकर पतित हो सकता है तो नई कविता-आलोचना-सांवादिकता का सहारा लेकर  क्यों नहीं। आखिर इ-मेल,दूरभाष किस दिन के लिए है। इसके सहारे पतित होना तो और भी आसान है। पत्र के सहारे पतित होना तो जग हँसाई कराना है। कौन जाने कब इसे कोई अस्सी-वांगमय के नाम से प्रकाशित कर दे । जमाना बदल गया है । अब तो मोबाइल उठाया और गिड़गिड़ाया कि सर मैं भी दिल्ली के प्राचीन मंदिरों  की तरह पुराना पतित हूँ। मुझे भी जगह दीजिये न । शपथ पूर्वक कहता हूँ कि मैं  इतना पतित हो जाऊंगा कि सभी पुराने पतित त्राहि-2 करते नजर आएंगे । मैं अपनी इस पतित गाथा को जन के माध्यम से सत्ता तक पहुंचा दूंगा । फिर देखिएगा कि चारो तरफ हमारी ही चर्चा होगी। लोग वाह-वाह,बाप-बाप चिल्लाएँगे । और हम मिले सुर हमारा तुम्हारा की तान पर ताक-धिना-धिन-ताक का लौह-मृदंग बजाते हुए ब्लू-स्टार के आगोश में चैन की नींद सोएँगे ।