Sunday, April 20, 2025

जेहिं राखे रघुवीर सो उबरे यहि काल मँह “साहित्य ही संत्रास के युग में वराभय दे जाता है। साहित्य किसी भी जाति की अमावस्या में बड़ा भारी और एकमात्र भरोसा बनकर काम आता है।” ------------------कुबेरनाथ राय बीसवीं शती के उत्तरार्द्ध के प्रथम अर्धांश में जब भारतीय साहित्येतिहास के आकाश पर संस्कृति तथा इतिहास-संशोधन के सरकारी विधाता-व्याख्याता, मनसबदार तथा नव्य-पुरातन वामपंथियों का अश्वमेध यज्ञ चालू था और वे ‘सांस्कृतिक-स्वातन्त्र्य' और 'बुद्धि-स्वातन्त्र्य’ के नाम पर न केवल ‘लोलिता’ का चंग बनाकर उड़ा रहे थे अपितु ‘रामकथा/मानस’ को ही प्रश्नांकित कर रहे थे, तब उस संक्रमण काल में श्री कुबेरनाथ राय को त्रेताकालीन मृदंग-ध्वनि सुनाई देती है । उनके मन में सवाल कौंधता है- “मैं ही क्यों इस मृदंग के मधुर-मधुर-गंभीर रव को सुन रहा हूँ और मेरा ही मन क्यों रामाकार हुआ जा रहा है, और ये सारे आसपास के लोग जो माथे पर बोरियाँ लादे चल रहे हैं, या जो रथों पर बैठे धुँधुआते हुए सुलग रहे हैं, या जो अंगना-अंग से भांज-दर-भांज सर्पों की तरह लिपटे हैं, ये आसपास के सारे लोग भी क्यों नहीं इस मृदंग की मधुर-मधुर ध्वनि को सुन पा रहे हैं?” यह एक तथ्य है कि ‘मनुष्य जब घोर चिंता में पड़ जाता है, तो अपने से ही बातें करता है, उत्तर-प्रत्युत्तर देता है, और मान-मनुहार झिड़की और विवाद करता है। चरम क्षण में हम स्वयं ही अपने साथी रह जाते हैं, शेष सभी कोई दूर चले जाते हैं ।’ श्री राय जब कभी ध्यान-लोक में “जगती के शिखर पर जा खड़े होते हैं .... तब-तब हाथ उठाकर कोई दिव्य चतुर्मुख पुरुष आशीर्वाद देते ज्ञात होते हैं, “वत्स, ऋषि, रामचंद्र के रसरूप के जनक तुम्हीं बन सकते हो ।” उस परमादेश को स्वीकार करते हुए श्री राय ‘इतिहास के रामचंद्र को यही रसरूप प्रदान करने’ के लिए रामकथा-लेखन में उतरते हैं और लिखते हैं-“नेताओं में गांधीजी, किताबों में रामचरितमानस, वनस्पतियों में हरी-हरी दूब, पशुओं में गाय, रसों में करुण रस, ये सब मुझे एक ही किस्म के भाव-संकुल या बोध प्रदान करते हैं। इन सबमें शांति है, निष्कपटता है, विनय है और सेवा धर्म है, साथ-ही-साथ महिमा और त्याग भी है।” श्री कुबेरनाथ भारतीय साहित्य जगत में निबंधकार के रूप में प्रख्यात हैं। उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के मतसा गाँव में जन्मे श्री राय का ‘जीवन घटना विहीन रहा [है]। जैसा कि मध्यवर्गीय भोजपुरी युवा का जीवन प्राय: होता है।...... वैसे कहने को भी अपने पास है ही क्या? जो है सो किताबों में ही है।’ स्पष्ट है कि रचना प्रक्रिया में एक कवि-लेखक के रूप में जितनी अनिवार्य उपस्थिति आवश्यक है उतने भर ही वे हैं। रचना-पात्रों में जबर्दस्ती उपस्थिति को वे अनावश्यक मानते हैं। गो कि उनके अनेक निबंध बातचीत की शैली में हैं और वहां उनका अदृश्य-उदात्त व्यक्तित्व सदैव विद्यमान रहता है। पैरा-दर पैरा हम उनके स्पर्श का अनुभव भी करते हैं, लेकिन निजी दुःख-सुख की बात करते हुए वे शायद ही दिखते हैं । अपवाद स्वरूप एक-दो निजी पत्रों में यदि वह व्यथा दिखाई भी देती है तो वहाँ उसका स्वर मार्मिक ही है-“... हम लोगों की तो कोई बड़ी महत्वाकांक्षा नहीं। इसीलिए कोई मंच मिले या न मिले, कोई फोरम मिले या न मिले मैं ज्यादा परेशान नहीं होता... तब भी मन में कभी-कभी होता है कि उचित परिवेश और अवसर मिलने पर कुछ पराक्रम दिखाने का मौका मिलता।” निजी जीवन के प्रति इतनी निस्संगता दुर्लभ है। कुबेरनाथ राय पर उनकी अत्यल्प शिक्षिता माँ का बहुत प्रभाव है । उनकी ‘माँ पौराणिक कथाओं और लोककथाओं का भण्डार थीं । माँ जिस गद्य भंगिमा में कहानी कहती थीं उसकी तर्ज [पर बाद में उन्होने] 'पाकड़ बोली रात भर’ निबंध भी लिखा।’ मानस-महाभारत आदि के संस्कार-बीज घर के आँगन में ही पनपे। ‘माधुरी’ और ‘विशाल भारत’ के संपर्क ने उनके बौद्धिक क्षितिज का विस्तार किया । फलस्वरूप माँ के पल्लू से चिपककर कहानी सुनते समय ‘हाँ,कहारी हाँ’ के टेक से मुक्त हुए और “निश्चय किया...कि एक दिन पूज्य पिताजी जब सोये रहेंगे, तो उनके सिरहाने से...फटी दीमक लगी किताब निकाल लाऊँगा और आग लगाकर फूँक दूंगा। ...तब हिन्दू धर्म के लिए एक नई पोथी लिखनी पड़ेगी...उस नई किताब को मैं लिखूंगा, और जो-जो मन में आयेगा,सो लिखूंगा। आखिर मेरी बात भी तो कभी आनी चाहिए कि आजीवन मैं ‘हाँ,कहारी हाँ’ का ठेका ही पीछे से भरता रहूँगा ।” मजे कि बात यह है कि कक्षा आठ में पढ़ते हुए उन्होंने जो पहला लेख लिखा उसका शीर्षक था- ‘साहित्य में मेरा वादा’ । कौन जानता था कि यह किशोर भविष्य में अपना वादा निभाते हुए सच में ही ‘नई पोथी’ लिखेगा और कहेगा कि ‘रस, शील और अध्यात्म पर अपनी चरम पूर्णता के साथ प्रतिष्ठित’ ‘राम ही पूर्णावतार हैं।’ ‘नई पोथी’ लिखने के वादे की शुरुआत में ही वे इतिहास की तरफ मुड़ जाते हैं और लिखते हैं- “रामायण या ‘मानस’ हमारे सामने दृढ़ता और संघर्षशील चरित्र का सूत्र प्रस्तुत करता है। बख्तियार खिलजी जब गौड देश पर चढ़ आया तो राजा लक्ष्मण सेन को गीतगोविन्दकार जयदेव ने यही उपदेश दिया- “महाराज, भगवान् की इच्छा! आप यवन को पराजित नहीं कर पायेंगे, अतः लोहा लेना व्यर्थ है। परम शान्ति के आश्रय भगवान् की शरण में जाइये!” पता नहीं यह किंवदन्ती कितनी सत्य है। पर जयदेव की जगह तुलसीदास होते तो कहते “महाराज, रामचन्द्र का स्मरण करके मैदान में उतरिये ! आपका समर रामचन्द्र स्वयं करेंगे।” श्रद्धा और विश्वास के इसी सूत्र का गांठ बांधकर वे अपने लेखकीय द्विजत्व द्वारा पकड़ाये गए धनुष-बाण को लेकर विश्व साहित्य के क्लासिकल काव्यों/महाकाव्यों के महाकांतार में प्रवेश कर गए। इस कार्तिकेय-यात्रा में भी क्या मजाल कि कोई ‘अप्सरा-नायिका’ की बाँकी चितवन उन्हें घायल कर सके। अगर किसी मोड़ पर कोई ‘तीरे-नजर’ या ‘पंचाप्सर की मार कन्याएं’ दिखी भी तो उसे गुडाकेश भाव में ‘माते प्रणाम’{ 'वात्सल्य' (Mother instinct)} कहकर तीर-वेग से लक्ष्य की ओर मुड़ जाते थे। आखिर ‘रन में, वन में सदैव साथ-साथ अभय की गदा लेकर चलने वाले’ बजरंगबली जो उनके साथ थे। श्री राय को बचपन से ही ‘मानस पढ़ने की आदत’ थी। समय के साथ उनकी यह रुचि और परिष्कृत होती गई । ‘क्रिया-योग’ की साधना में रमे श्री राय को ‘आसाम ट्रिब्यून’ के 1961 के दुर्गापूजा अंक में हुमायूँ कबीर का एक आलेख पढ़ने को मिला । वे इस आलेख की अनेक स्थापनाओं से सहमत नहीं थे । उन्होने असहमति के सुपर्ण-स्वर युक्त आलेख ‘इतिहास अथवा शुकसारिका कथा’ शीर्षक से ‘सरस्वती’ पत्रिका को लेख क्या भेजा उन्हें लेखन में ही उतर जाना पड़ा - “सन 1962 में प्रो हुमायूँ कबीर की इतिहास संबंधी ऊलजलूल मान्यताओं पर मेरे एक तर्कपूर्ण और क्रोधपूर्ण निबंध को पढ़कर पं. श्रीनारायन चतुर्वेदी ने मुझे घसीट कर मैदान में खड़ा कर दिया और हाथ में धनुष-बाण पकड़ा दिया ।” अब श्री राय के हाथ में धनुष-बाण आ चुका था--–“तीर जब तक तरकस में पड़ा रहा बेकार रहा। कौड़ी का तीन। वही धनुष की प्रत्यंचा पर चढ़ा तो सर्प की तरह फुफकार उठा। अंतर्मुखी खिंचाव ने गति भर दी, तो काल गरुड़ की तरह झपटकर उड़ चला।” वे अब ‘अपने राष्ट्रीय और साहित्यिक उत्तरदायित्व के प्रति सजग’ थे। समय और समाज के प्रति सजग श्री राय जैसे ‘तमोगुणी वैष्णव के लिए शुद्ध बारह बानी ललित-ललाम बन उठना-बैठना-चलना कठिन’ तो था ही कृषि-संस्कृति में पले-बढ़े होने के कारण यथा स्थिति स्वीकारना भी कठिन था। वे लिखते हैं-“यह मेरे स्वभाव के प्रतिकूल होगा, यह मेरी धरती और मेरे युग के स्वभाव के प्रतिकूल होगा। इस तथ्य का साक्ष्य मेरी प्रत्येक रचना देती है। सच तो यह है कि मेरा सम्पूर्ण साहित्य या तो क्रोध है, नहीं तो अन्तर का हाहाकार।। पर इस क्रोध और इस आर्तनाद को मैंने सारे हिन्दुस्तान के क्रोध और आर्तनाद के रूप में देखा है। इन निबन्धों को लिखते समय मुझे सदैव अनुभव होता रहा ‘अहं भारतोऽस्मि’।” 1974 में जब भारतवर्ष द्वारा ‘मानस चतुःशती महोत्सव’ के प्रचार-प्रसार की तैयारी चल रही थी तो उस निमित्त लेख लिखवाने के लिए सरस्वती के संपादक श्री नारायण चतुर्वेदी श्री राय को याद किया - “मेरे अपने लेखकीय द्विजत्व के पुरोहित पं॰ श्रीनारायण चतुर्वेदी ने मुझसे ‘मानस- चतुःशती-समारोह’ पर जिसे भारतवर्ष में 1974 ई॰ में बड़ी धूमधाम से मनाने जा रहा है, कुछ लिखने को कहा तो मैं बड़ी चिन्ता में पड़ गया, क्योंकि सारी समस्या एक वृहत्तर सांस्कृतिक-नैतिक और आध्यात्मिक समस्या के अन्दर अन्तर्भुक्त-सी लगती है और मानस-समारोह को उस वृहत्तर समस्या-वृत्त के मध्य रखकर ही देखना होगा अन्यथा विगत टैगोर शतवार्षिकी और गालिब शताब्दी समारोह की तरह यह भी बिल-तमाशा लूट-खसोट बनकर रह जायगा।” इस बात से कौन इनकार कर सकता है कि पाँच दशक बाद भी आज पूर्वजों की जयंती-समारोह हाथी-दाँत ही हैं। चतुर्वेदी जी के आग्रह को शिरोधार्य करते हुए उन्होंने ‘सरस्वती’ के लिए एक बड़ा आलेख ‘मानस- चतुःशती-समारोह’ शीर्षक से लिखकर भेज दिया। यह आलेख इस बात का प्रमाण है कि धारा के विपरीत जाकर ‘नयी पोथी’ लिखने का जो उनका वादा था, उससे वे विरत नहीं हुए थे। इस आलेख में उन्होंने अनेक सुझाव भी दिये थे । इन सुझावों से सहमत/असहमत हुआ जा सकता है । पर इससे श्री राय के साहस और उनकी मुख्य प्रतिज्ञा ‘नयी पोथी’ लिखने का पता तो चल ही जाता है। श्री राय का मानना है कि किसी भी ‘राष्ट्र की कस्तूरी उसके साहित्य में होती है। यह कस्तूरी दुर्गन्धमयी न हो’ इसके लिए साहित्य को सरल-स्वच्छ-उच्चगामी होना होगा जिसके लिए विषय का उच्चाशय होना जरूरी है। इसलिए वे सबसे बड़े उदाहरण के रूप में तीन महाकाव्यों – रामायण, महाभारत और श्रीमद्भागवत- में उपस्थित सार्वभौम मूल्यों को हमारे सामने अनेकश: रखते हैं, क्योंकि ये हमारी ‘परमा स्मृति’ का हृदय रचते हैं। इनमें भी वे अनेक कारणों से- अच्छे नागरिक, अच्छे गृहस्थ, अच्छे पिता-पुत्र-भाई आदि बनने का आदर्श जनमानस में प्रतिष्ठित करने में समर्थ ग्रंथ के रूप में 'मानस' को ही सर्वोत्तम ग्रंथ मानते हैं। कहीं कोई चूक न हो जाये इसलिए ध्यान भी दिलाते हैं-‘स्मरण रहे कि 'रामायण' की नहीं, 'रामचरितमानस' की बात कर रहा हूँ।’ श्री राय एक सजग निबंधकार हैं। रामकथा के रूप में ‘रामायण’ और ‘रामचरितमानस’ दोनों के प्रति उनकी श्रद्धा है और दोनों महाकाव्यों का उन्होने गंभीर अध्ययन किया है। दोनों महाकाव्यों को केंद्र में रखकर उन्होने अनेक निबंध भी लिखे हैं। लेकिन जब बात जन सामान्य की आती है तो उनका मन ‘मानस’ में ही रमता है। वे ‘मानस’ के नामकरण से लेकर, उसके उद्देश्य,सार्थकता,पढ़ने की जरूरत और आलोचकों के सवालों के जबाव के साथ-साथ वर्णों और शब्दों की महत्ता पर भी विचार प्रकट किया है। मानस को संस्कार-महीरुह के रूप में देखने के आग्रही श्री राय उसके मंगलाचरण को बेजोड़ मानते हैं। मंगलाचरण के श्लोकों की विवेचना करते हुए उसमें कर्म-इच्छा-ज्ञान तत्वों की खोज की है। तुलसी द्वारा मंगलाचरण के श्लोकों द्वारा एक तरफ तो स्थूल अथवा सामाजिक अर्थ में शैव-वैष्णव के समन्वय की ओर संकेत किया गया है तो दूसरी तरफ सूक्ष्म स्तर पर इसमें सन्निहित तुलसी के पौरुष प्रधान रूप और तत्कालीन पराजित जाति की इच्छाशक्ति को कर्मोन्मुख करने के रूप में देखा है। महाकाव्य का उद्देश्य ही होता है –‘शील,करुणा और सौंदर्य का उद्घाटन’ जो ‘पराक्रम’ से भी शक्तिशाली तत्व हैं। इतिहास भी इस बात का गवाह है कि अपनी तमाम कुटिल शक्तियों के बावजूद गोरी-खिलजी-मुगल की इस्लामिक शक्तियां पराजित हुई और जीत हुई इसी त्रिविक्रम पराक्रम ‘शील,करुणा और सौंदर्य’ के रचनाकार भक्त कवियों की। इनमें भी ‘तुलसी कृत मानस’ अप्रतिम है। इसीलिए श्री राय ने उसे अपना कंठहार बनाया है और उसके पढ़ने-पढ़ाने पर सवाल खड़ा करने वालों को तर्कपूर्ण जबाव भी दिया है। मानस का विरोध करने वाली युवा पीढ़ी को वे दो वर्गों में विभक्त करते हैं-‘प्रथम है नास्तिवादी और निहिलिस्ट; द्वितीय है वामपंथी, विशेषत: नव्य वामपंथी।’ पहले ने जहां किसी यूरोप के दार्शनिक के इस कथन को कि ‘“आइडिया पर आधारित इतिहास और सभ्यता के दिन लद गए। यह युग आइडिया का सूर्यास्त है”, को ब्रह्म सत्य मान बैठा तो दूसरे ने न केवल “‘हिंदुत्व का उन्मूलन और इस्लाम के साथ सहअस्तित्व’ जैसा दुराग्रह पाला अपितु ‘हिंदू-मन में एक संस्कारगत ‘शून्य स्थान’ (Vacuum) रच देना [की कोशिश में लगे हैं ] जहां वे अपना रोड़ा पत्थर फेंक सकें और जहां वे मानवता का मार्क्सवादी मकबरा उठा सकें।” श्री राय इनके कपटाचार को ठीक से समझते हैं। इसलिए वे उनका प्रति उत्तर उचित ढंग से देते हैं। हालांकि प्रत्येक प्रश्न कर्ता को वे खारिज नहीं करते हैं। वे विचारक जो तुलसी और मानस का विरोध तुलसी की सामाजिक चिंता के संदर्भ में करते हैं, उनके विरोध को विचारपूर्ण मानते हैं। यद्यपि इस विरोध के पीछे भी मानस की ‘मूल ‘थीसिस’ को दृष्टिच्युत कर देने के कारण को ही मानते हैं । दरअसल ‘गोस्वामी तुलसीदास के महाकाव्य ‘रामचरितमानस’ की ‘मूल थीसिस’ है सनातन धर्म और रामचन्द्र ही मूर्तिमान सनातन धर्म हैं, जो जाति-पाँत के बंधन तोड़कर निषाद का आलिंगन करते हैं और शबरी के जूठे बेर खाते हैं। ‘मानस’ मूर्तिमान सनातन धर्म श्रीरामचन्द्र के चरित्र का मानस-सर है।’ इतना ही नहीं भाषा के स्तर पर भी तुलसी के विद्रोह को भी रेखांकित किया है जिसके लिए कर्मकाण्डी पुरोहितों द्वारा अत्यन्त सताये भी गये। श्री राय तुलसी के व्यावहारिक दिक्कत को भी ध्यान में रखते हैं और काल गत मजबूरी की ओर इशारा करने से नहीं चूकते हैं- “ऊपर से और नया विद्रोह वर्णाश्रम के विरुद्ध करते, तो उनकी वही गति होती, जो कबीर की हुई। कबीर 20वीं शती के उपयुक्त थे। वे अपने युग में खप नहीं सके। फलतः कबीर की सारी सच्चाई काम नहीं आयी उनकी चली नहीं। कबीर की जैसी ही गति तुलसी की भी होती या उससे खराब भी हो सकती थी क्योंकि उनका तो कोई भी मठ नहीं था, शिष्य-परम्परा भी नहीं थी। सत्ताधारी वर्ग पुस्तक नष्ट कर देता।” इसलिए तुलसी ने सत्ताधारी पुरोहित वर्ग से सीधे संघर्ष न ठान कर उनके समर्थन में कुछ चौपाई लिखकर या (प्रक्षिप्त अंश मानना भी उचित ही होगा) मानस की ‘मूल थीसिस’ को जनता तक पहुँचाना जरूरी समझा । वे निर्भ्रांत शब्दों में घोषित करते हैं-“तुलसीदास सनातन धर्म के कवि हैं, वर्णाश्रम-धर्म के नहीं।” बतौर रचनाकार वे यह स्वीकार करते हैं कि “प्रत्येक रचनात्मक कृति के भीतर होती है एक तो सनातन भूमि जो कृति की मूल थीसिस रचती है, दूसरी होती है प्रासंगिक और युग-सापेक्ष भूमि जिसका महत्त्व अगले युगों में चुक जाता है।” इसलिए वह खतरा उठाते हुए सलाह देते हैं-“यदि मानस को बचाना है, तो पुनः उसकी व्याख्या करनी होगी, उसके आंतरिक मर्म को उद्घाटित करना होगा और इस उद्घाटन की युगानुरूप रचनात्मक व्याख्या (Constructive interpretation) देना होगा जैसी कि ‘गीता’ के संदर्भ में लोकमान्य तिलक ने दी है। यदि हम इसकी मूल थीसिस को पुराण पंथी एवं युग प्रतिकूल पूर्वग्रहों से मुक्त नहीं करेंगे तो ‘पगहे’ के लोभ में बेचारी ‘गाय’ भी जल मरेगी। यह सीधी-सी बात है, तो भी लोग इसे समझ नहीं पाते। यह गाय अब भी दुधारू है, अतः इसकी रक्षा पर ध्यान देना चाहिए।” श्री राय के सामने दो प्रश्न प्राय: सामने आते हैं-पहला यह कि ‘इस युग में ‘रामचरितमानस’ पढ़कर क्या मिलेगा’ और दूसरा यह कि ‘रामचरितमानस’ क्यों पढ़े’। वे प्रश्न को अन्यथा नहीं लेते है। प्रश्न अनुचित भी नहीं है । पाठक को श्रम-फल मिलना ही चाहिए। वे इस सनातन समस्या को एक कथा के माध्यम से सुलझाते हैं। मगध सम्राट अजातशत्रु ने भगवान बुद्ध प्रश्न करते हुए पूछा कि जिस प्रकार और पेशों में यथा खेती-शिल्प आदि में लोग अपने परिश्रम या कर्म का प्रत्यक्ष फल इसी जीवन में पा जाते हैं, उसी प्रकार वैसा ही कुछ या कोई फल संन्यास (श्रामण्य) द्वारा भी इसी शरीर के रहते हुए लब्ध होता है? उसने बुद्ध से यह भी कहा कि भगवान, इस सवाल को मैंने इस युग के अन्य छह बड़े-बड़े दार्शनिकों से भी इस प्रश्न को पूछ चुका है , पर उत्तर नहीं मिला। बुद्ध ने प्रश्न का विस्तार से उत्तर दिया और कहा कि इसी जीवन में देह के रहते हुए जो फल मिलेगा वह है एक सुख, एक तृप्ति एवं एक निरुजता। वह फल है भय से मुक्त हो जाने का सुख, रोग से मुक्त हो जाने का सुख, तृप्तकाम हो जाने का सुख, वेदना की पहुंच से परे हो जाने का सुख आदि-आदि, अर्थात प्रत्येक प्रकार का श्रम-फल रुपया-पैसा या भौतिक उपलब्धि ही हो, यह कोई जरूरी नहीं । हम ‘मानस’ को पढ़ेंगे ‘स्वान्तस्तमः शान्तये’ अर्थात् मानसिक निरुजता और आभ्यंतर ऋद्धि के लिए। रामचरितमानस पढ़कर जो उपलब्धि होगी वह होगी शुद्धतः मानसिक-आत्मिक बौद्धिक उपलब्धि। उसके भीतर आर्थिक या राजनीतिक लाभ या उपयोगिता ढूँढ़ना पण्ड श्रम है । श्री राय सचेत भी करते हुए कहते हैं कि ‘यदि कोई कहे कि मानसिक निरुजता और मानसिक समृद्धि कौड़ी की तीन चीजें हैं, तो फिर उस मनोविकार ग्रस्त ‘प्राणी’ से (हां ‘प्राणी’ ही ‘मनुष्य’ नहीं, क्योंकि निरुजताहीन मन वाला मनुष्य ‘मनुष्य’ नहीं रह जाता) मुझे कोई तर्क नहीं करना है।’ इस सनातन समस्या के निदान के बहाने वे ईश्वर और मनुष्य के लिए उसकी आवश्यकता को हमारे सामने रखते हैं। ‘ईश्वर मर गया की घोषणा’ को विशाल जनता के लिए अनावश्यक मानते हैं । इसके पीछे के कारणों पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए कहते भी हैं- “दो-एक नरेंद्र देव-राहुल आदि भले ही इसे पा जाएं, परंतु पूरा-पूरा जनसमूह इस क्षमता को अर्जित नहीं कर सकता। अतः जनसमूह से उसका ईश्वर छीनने का अर्थ होता है उसे घृणित जड़वादी अधिनायक तंत्र की ओर ढकेल देना, फासिज्म के गर्त में ठेल देना । मनुष्य जाति के प्रति इससे बढ़कर अपराध और क्या हो सकता है ?” आज की वैश्विक परिस्थिति और भकुआ बनी जनता के व्यवहार को देखकर श्री राय की बात बावन तोले पाव रत्ती सही लगती है। 'मानस' में समाजवाद की तलाश करने वालों की भी वे खबर ले ही लेते हैं- “समाजवाद मूलतः एक आर्थिक दर्शन है। इसे एक प्राचीन काव्य ग्रंथ में ढूंढ़ना एक मूर्खता है, विशेषतः उस महाकाव्य में जिसका संबंध धर्म और काम से ही है। जहां काम और धर्म परस्पर समन्वित होते हैं, वहीं गार्हस्थ्य का जन्म होता है।” रवीन्द्र नाथ की यह उक्ति कि ‘रामायण गार्हस्थ्य का महाकाव्य है’ 'मानस' की सनातन सामाजिक भूमिका स्पष्ट कर देती है। श्री राय थोड़ा तल्ख सवाल उछलते हैं और पूछते हैं – “घोर से घोर समाजवाद में भी अच्छे नागरिकों और सद्गृहस्थों की आवश्यकता होगी या नहीं ?... और यदि समाजवादी समाज में भी सुयोग्य नागरिक तथा सद् गृहस्थ की, अर्थात् उत्तम पिता की, उत्तम पुत्र की, उत्तम पति की, उत्तम पत्नी की, उत्तम भाई की, उत्तम बंधु की आवश्यकता रहेगी तो समग्र विश्व-साहित्य में, गीता-बाइबिल-कुरान-दास कैपिटल को समेटते हुए समूचे के समूचे विश्व-साहित्य में वह कौन-सी पुस्तक सर्वाधिक उपयुक्त होगी जो अच्छे नागरिक, अच्छे गृहस्थ, अच्छे पिता-पुत्र-भाई आदि बनने का आदर्श जनमानस में प्रतिष्ठित कर सके ?” फिर उसका सहज उत्तर देते हैं- “गीता-कुरान-बाइबिल-दास कैपिटल में और-और बातें हैं, ऐसी बड़ी-बड़ी हैं जो 'मानस' में नहीं भी हो सकती हैं। परंतु मात्र उपर्युक्त कार्य के लिए समग्र विश्व-साहित्य में 'मानस' ही सर्वोत्तम ग्रंथ है। यह मैं दावे के साथ कहता हूँ।” श्री राय के लिए “रामकथा का काठ तो वह दिव्य काष्ठ है जो 'हजार' नहीं, 'शाश्वत' आयु वाला है। कथा-तरु हमारी 'परमा स्मृति' (racial memory) की जमीन पर उगा है और इसकी जड़ें हमारी सत्ता के पाताल तक खिली हैं।” इसलिए वे अपने पाठकों के लिए रामकथा की ‘धरती का चप्पा-चप्पा छानते हैं कि कहीं विधाता की भूल से कोई रस की बूँद छूट गयी हो, तो उसका आहरण कर लें ।’ निष्कर्षत: हम कह सकते हैं कि ‘मानस’ पर श्री राय द्वारा रचित सुचिंतित निबंध हमारे सामने ऐसा अनुपम दर्पण प्रस्तुत करता है कि ‘जिनमें जितनी ही गहराई से चिन्तन करेंगे उतने ही नये-नये अर्थ सगुण रूप धारण करके सामने उभरते जायेंगे।’ दुर्भाग्य से आज आत्म-क्षय और रमण-तृषा की दबाव-तकनीक से 21वीं शती के वाम-दक्षिण के मायावी शैवाल में भारतीयता का प्रतीक ‘रामत्व’ का मुख कमल उलझ गया है। आक्रमण की रीति,नीति और हथियार बदल गये हैं और नये योद्धा, नये सेनापति मैदान में उतर आये हैं। ऐसे में श्री राय के इस सनातन कथन को कि ‘ईश्वर अस्त हो गया, तो हो जाने दो, पर ग्रंथ तो जीवित है, जो बताता है कि “वाङ्मनसा अगोचर ईश्वर” हो या न हो, परंतु मानवी आकृति का, मानव रूप धरकर कोई जनमा था और वे सारे मूल्य “सत्यं शौचं दया...” आदि उसके जीवन में युक्तियुक्त हुए थे और उसके आगमन से धरती स्वर्ग बन गई थी, तो फिर उन मूल्यों को हम असत्य क्यों और कैसे मानें ? उपनिषद् कहते हैं कि जब सूर्य अस्त हो जाए, चंद्र अस्त हो जाए, अग्नि शांत हो जाए तो उस घोर तमसा में पुरुष वाणी का आश्रय लेकर, बोलकर, पुकारकर ढाढ़स पाता है और बच निकलता है। ‘रामचरितमानस’ इसी प्रकार का एक आश्रय है” , को ईमानदारी से आत्मसात करने की जरूरत है। मनोज कुमार राय

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