Saturday, April 26, 2025

*अनुत्तर योगी: स्वतंत्र सत्य संधानी कवि का अतलगामी धँसान* *मनोज कुमार राय* विश्वविद्यालय में मनाये जा रहे ‘साहित्य महोत्सव’ के लिए जब उपन्यासों का चयन किया जा रहा था तो संयोजकों की निर्मल कृपा से मेरे हिस्से में ‘अनुत्तर योगी’ उपन्यास आया जिसका नाम इसके पहले मैंने कभी नहीं सुना था। (उत्तर योगी का नाम जरूर सुना था) एक-दो दिन बाद मेरे पड़ोसी और साहित्य के ‘नारायण गुरु’ ने मुस्कराते हुए अपनी खास भंगिमा में सवाल दागा- ‘क्यों कौन सा उपन्यास लिए हो’? मैंने उत्तर दिया -‘अनुत्तर योगी’ । वे भी इस उपन्यास का कभी नाम नहीं सुने थे। दो-तीन दिन बीतने पर उन्होंने पुन: ‘रचना’ के बारे में मेरी राय जाननी चाही। मैं उनसे क्या बताता कि यह ‘भीमकाय और पिष्टपेषण प्रधान साहित्य जो मेरे चांदी जैसे शुभ्र मन को अपने शब्द-गदा से प्रताड़ित कर रहा है’, उसे पढ़ जाना मेरी क्षमता और रुचि के बाहर की बात है। मेरे यह बताने पर कि चार खंडों में फैला1400 पृष्ठों का उपन्यास है, वे थोड़ा चौंके और चैन के सांस ली कि उनके जिम्मे इसका ‘एक बटा दस’ पृष्ठों का ही उपन्यास मिला है। ‘अनुत्तर योगी’ एक ऐतिहासिक उपन्यास है जिसके नायक हैं चरम तीर्थंकर महावीर । ऐतिहासिक उपन्यास की साधारण प्रतिज्ञायें भी होती है। इसकी आधारभूमि अर्थात विषय-वस्तु इतिहास पर आधारित होती हैं । चित्रपट बुनने तथा कथा के निर्वाह एवं विकास के लिए यह आवश्यक शर्त है कि उपन्यासकार इतिहास के जिस युग से सूत्र ले रहा हो, उस युग की पृष्ठभूमि और वातावरण का ठीक-ठाक परिचित हो । ऐसे उपन्यासों में ‘इतिहास और वर्तमान का’ तथा ‘यथार्थ और कल्पना’ का संतुलन होना चाहिए । ऐतिहासिक उपन्यासों के मुख्य पात्रों का इतिहास सिद्ध होना आवश्यक शर्त है । उन पात्रों के कार्यकलाप का अधिकांश भाग ऐतिहासिक दृष्टि से प्रामाणिक होना चाहिए । नायकों के सम्बन्ध में यथार्थ और कल्पना का प्रश्न सदैव सामने रहना चाहिए। ऐतिहासिक उपन्यास में लेखक किसी पात्र को इतिहास में मिलने वाले विवरण के आधार पर प्रस्तुत करने की कोशिश करता है । अत: प्रस्तुति में नीर- क्षीर विवेक आवश्यक हो जाता है। पाठक प्राय: भोला होता है। वह अपने अतीत से जुड़ने की कोशिश में इस तरह के लेखन से जुड़ता है और जब उसका जुड़ाव गहरा हो जाता है तब वह उसे यथार्थ मान लेता है । साहित्य की दुनिया में प्राय: कृति और कृतिकार के बीच भेद कर पढ़ने की गुजारिश की जाती है। लेकिन मेरा मन इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं होता है। यह एक खास किस्म का दुर्गुण है जो कवच-कुंडल की तरह जन्म-लब्ध है। अनेक मित्रों ने इसे छील कर अलग करने की कोशिश की पर वे असफल रहे। साहित्य एक मानसिक कारबार है। इसका सृजन और आस्वादन दोनों मानसिक क्रियाएँ हैं। अर्थात पाठक को मानसिक खुराक और उपचार तो मिलना ही चाहिए। निजी तौर मैं किसी भी कृति में इसकी तलाश करता ही हूँ। स्वाभाविक है कि इस कृति को भी इस खराद पर कसने की कोशिश की। यह तो मानी हुई बात है कि अहिंसा के अप्रतिम महावीर हिन्दू परिवार के एक ‘रेडिकल ब्वाय’ थे जिन्होंने उस कालखंड की विकृतियों को दूर करने की कोशिश की और एक नए पंथ -धर्म की स्थापना की। वे हमारे इतिहास के एक बड़े नायक और अगुआ हैं। ऐसे पवित्र और उदात्त व्यक्तित्व को केंद्र में रखकर लिखा गया उपन्यास अपने इस अप्रतिम नायक के साथ लेखक तथ्य, कल्पना,भाषा-शैली आदि स्तरों पर न्याय करने में कितना सफल रहा है इसे जानने के लिए आप सबको इस उपन्यास के पृष्ठों से गुजरना ही चाहिए। लेकिन यहाँ पाठक को सावधानी भी बरतनी होगी। क्योंकि ढाई हजार वर्ष पूर्व धरा पर अवतरित इस धीरोदात्त नायक के साथ न्याय करने के लिए हमारा इतिहास बोध भी समृद्ध होना चाहिए। उपन्यास को हाथ में लेते समय सबसे पहला सवाल मन में आया कि इस उपन्यास में क्या है और इसे क्यों पढ़ा जाना चाहिए। तीर्थंकर को कितनी ईमानदारी से लेखक प्रस्तुत करने में सफल रहा है। अर्थात पाठक और लेखक की पहली मुठभेड़ यहीं से शुरू हुई। चार खंडों में पसरे भीमकाय ग्रंथ को देखते ही मैं सिहर गया। मोटे-मोटे ग्रन्थों को पढ़ने की आदत नहीं है। तो यह एक प्रकार की यातना जैसी लगी । पर इससे गुजरना तो था ही। परमादेश जो था। अत: उलटने पलटने की कोशिश की और तीसरे खंड पर नजर टिक गई। मैंने तीसरा खंड ही क्यों लिया? दरअसल इसके एक अध्याय ‘इतिहास का अग्नि स्नान’ का नाम देखकर लालसा हुई कि इसे ही पढ़ा जाय। पुस्तक हाथ में आई तो देखा कि लेखक ने परिशिष्टि में लिखा है कि ‘पहले कृति को पढ़ा जाय फिर संभावित प्रश्नों और शंकाओं के उत्तर इस ‘संयोजिका’ में खोजे जा सकते हैं’। अब मनुष्य तो आदम-हव्वा के जमाने से सेब खाने का अभ्यासी है । अत: मैंने भी ‘इतिहास का अग्नि स्नान’ ही पहले देखा। इस अध्याय में एक सार्थवाह आनंद-गृहपति का जिक्र है जिसके पास 12 करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं नकद हैं। जिसमें कुछ घर में है, कुछ व्यापार में लगाया है और कुछ चक्रवृद्धि व्याज पर लगाया है। अब जब उस जमाने में स्वर्ण मुद्राएं थी ही नहीं, या थीं तो बड़े पैमाने पर प्रचलन में नहीं थीं, तो ऐसा उपन्यासकार ने लिखा क्यों? उत्तर भी वह देता है- ‘छठी सदी के सटीक ऐतिहासिक ढांचे में मेरे महावीर को फिट करके जाँचना चाहेंगे तो उनके पल्ले भी निराशा ही पड़ सकती है’। अर्थात इतिहास की तरफ पाठक की नजर नहीं जानी चाहिए। लेखक सगर्व कहता है कि कुछ मित्रों ने ‘शास्त्रों में वर्णित अलौकिक तत्त्वों,चमत्कारिक अतिशय-प्रसंगों आदि को छांट देने की सलाह दी, लेकिन उन्होने “इन आउट-मोडेड’ मित्रों की सलाह नहीं मानी” । तो यहाँ लेखक ने स्पष्ट कर दिया कि उसे इतिहास से कुछ खास लेना देना नहीं है। हालांकि एक स्वीकृति जरूर है कि ‘इतिहास में उपलब्ध तथ्यों का चुनाव मैंने नितांत अपनी सृजनात्मक आवश्यकता के अनुसार किया है।’ सृजन की आवश्यकता ऐसी पड़ी कि लेखक ने ‘मौर्यपुत्र काश्यप’, बुद्ध और उनके शिष्य आनंद तथा आश्रम में स्त्री प्रवेश की चर्चा’ कर डाली। तब जबकि ये सारे पात्र महावीर की मृत्यु के बाद के हैं। मन में तथ्य और कथ्य को लेकर शंका पैदा हुई। एक सवाल मन में आया कि आखिर इस रचना का प्रेरणा-स्रोत क्या है? छानबीन करने पर पता चला कि महावीर की 2500 वीं निर्वाण शती की गुंजायमान वातावरण ने इन्हें प्रेरित किया। सही बात है । निर्मल वर्मा अपने एक निबंध में लिखते हैं-‘स्वप्न की तरह हर स्मृति की अपनी बिम्ब-भाषा होती है-वह कहीं से भी उत्प्रेरित हो सकती है; वैदिक ऋचाओं,पौराणिक कथाओं अथवा महाकाव्यों से।” तो वीरेंद्र जैन का महावीर के प्रति उत्प्रेरित होना स्वाभाविक है। यहीं से उपन्यासकार ‘मेरे चांदी जैसे शुभ्र मन को अपने शब्द-गदा से प्रताड़ित करना शुरू कर देता है’ और मैं पंड श्रम का शिकार हो जाता हूँ। लेखक लिखता है कि “एक व्यक्तित्व प्रधान वैचारिक महा गाथा बनी है तो उसके निर्णायक और विधायक महावीर ही रहे हैं मैं नहीं’ । यह लेखक की विनम्रता है। होनी भी चाहिए। लेकिन अगले ही वाक्य में यह कहना कि ‘मैं महावीर के जीवन सृजन में सफल हो सका या नहीं, यह महावीर खुद जानें’। यहाँ अपना पल्ला सीधे झाड़ लेते हैं। लेकिन ‘पिक्चर अभी बाकी है दोस्त’ की तर्ज पर फिर अवतरित होते हैं और कहते हैं-“यहाँ प्रस्तुत महावीर अंतत: एक कलाकार के अंत: साक्षात्कार (विजन) में से ही प्रतिफलित और प्रकाशित हुए हैं।” (विजन को परा दृष्टि कहते हैं)-‘यह कृति मेरा कर्तृत्व नहीं मेरे माध्यम से स्वयं उन भगवान का स्वैच्छिक प्रकटीकरण है। -‘ महावीर को रचने वाला मैं कोई नहीं होता । तो ‘हाँ’ ‘ना’ का खेल रचते हुए उपन्यासकार फिर कहता है-‘सृजन के इस बेमुद्दत लंबे रियाज के दौरान, मैंने कला-संभावना के कई अद्भुत द्वीप खोज निकाले,और कथ्य तथा शिल्प के कई अज्ञात और अकूत खज़ानों की कुंजिया मेरे हाथ लग गई’। और घोषणा भी कर देता है कि ‘पूरे अर्वाचीन भारतीय वांगमय में यह किताब अपनी तरह की बहुत अलग साबित हुई है।’ तो इस उपन्यास को समझना इतना आसान नहीं है। कुबेरनाथ राय अपने एक निबंध ‘विपथगा’ में लिखते हैं कि “किसी भी कृति को पढ़ने पर कोई ‘तीव्र बोध’ या 'क्षुरधार सजग दृष्टि' प्राप्त होनी चाहिए।” अर्थात बोध और दृष्टि और साफ होनी चाहिए। यह बात एकदम सही है। अनुत्तर योगी का लेखक इस बात से परिचित भी है। तभी तो उन्होने अपनी तीव्रता क्षुरधारता का दावा तूर्यकण्ठ से घोषित किया है- “मेरी संवेदना और कल्पना स्वभाव से ही पारान्तर-वेधी है। अपनी स्वभावगत तीव्रता,वेधकता और विदग्धता के चलते महावीर के रचना में मुझे काफी सुविधा हुई। एक स्वतंत्र सत्य संधानी कवि हूँ। वे अपने को ‘महावीर का आत्मज कवि वीरेंद्र’ भी घोषित करते हैं। और बड़ी विनम्रता से कहते हैं- कोई भी मौलिक प्रतिभा का सर्जक कलाकार, अपने भीतर मौलिकता का यत्किंचित प्रकाश लेकर जन्म लेता है। वह योग्य और तीर्थंकर का ही एक सारस्वत सूर्यपुत्र होता है । इसी से वह शास्त्र और इतिहास पढ़ कर रचना नहीं करता वह सिंह नूतन शास्त्रों इतिहास का निर्माता होता है।” तो ‘इतिहास निर्माता’ से मुलाक़ात की इच्छा रखने वाले पाठक चाहे तो इस पुस्तक के पृष्ठों से गुजर सकते हैं। ‘कथ्य तथा शिल्प के कई अज्ञात और अकूत खज़ानों’ से भरपूर यह उपन्यास अद्भुत है। इसके कुछ नमूनों से परिचित होना आवश्यक है। वे लिखते है- ‘मेरे चिरकाल की सत्यान्वेषी दृष्टि, महाभाव चेतना और सौंदर्य बोध में जो तथ्य अनायास आत्मसात हो गए, उन्हीं का उपयोग मैंने किया है’। यहाँ भी लेखक एकदम सहज है। 1400 पृष्ठ का उपन्यास लिखना सामान्य बात नहीं है। इस बात का स्पष्ट संकेत भी मिलता है जब वे कहते हैं कि ‘विषय की असाधारणता के अनुरूप,अपना विलक्षण शिल्प-विधान, मेरी रचना प्रक्रिया में आपो आप प्रस्फुटित होता चला गया है’। बिना अनुग्रह के ऐसी रचना संभव नहीं है। वे हमारे लिए इसका एक उपाय भी सुझाते हैं- ‘भूत,वर्तमान भविष्य की किसी भी सत्ता को लक्ष्य कर यदि एक सतेज संकल्प,शक्ति से हम उसे खींचे, तो वह सत्ता यथावत हमारी मानसिक चेतना में मूर्तिमान हो सकती है’। इसलिए उनके लिए महावीर एक जीवित मनुष्य की तरह चलते दिखे हैं और वे फ़ाइन आर्ट के विद्यार्थी की तरह ‘अनिमेष नासाग्र पर टिकी उनकी दृष्टि’ महावीर की ‘रोमानी भूमा’ का स्केच बनाते चले गए हैं। जैन दर्शन के त्रिभंगी तत्व से निर्मित इस उपन्यास के तीसरे खंड के अंतिम पृष्ठ का एक वाक्यांश उद्धृत कर रहा हूँ- “आश्चर्यों का आश्चर्य है कि प्रशिष्ट पाठक इस किताब को अक्सर दुरूह और सामान्य पाठक की पहुँच के बाहर कहते सुने जाते हैं।” आपको जानकार आश्चर्य होगा कि जितनी बार मैंने इस खंड को अपने हाथ से उठाया हर बार मुझे अपने प्रिय लेखक की याद आती रही । उन्होने लिखा है -मैं पठन-श्रम के पुरस्कार से वंचित हो रहा हूँ जो पाठक का मौलिक अधिकार है और जो साहित्य का प्रथम दायित्व है और मुझे खाली हरारत हो महसूस होती है। 'रस' मत दो, आनन्द मत दो, व्यथा मत दो ; परन्तु कुछ तो मिलना चाहिए, कोई अन्य 'तीव्र' बोध या 'क्षुरधार' संवेदना ही सही, कोई तीक्ष्ण व्यंग या विडम्बना ही नहीं।” लेकिन इस उपन्यास को पढ़ते हुए जो भी मिलता है वह है 80 प्रतिशत चौंकाने वाली भंगिमा और 20 प्रतिशत ऊब और हरारत । कुछ उदाहरण देखिये- उनके भीतर उज्ज्वल पानियों में शुद्ध परिणमन की गहन सारंगी बज रही है। गाय के स्तनों की दूध भरी उष्मा में। सर्वज्ञ की दिव्य ध्वनि झेलें, आत्मसात करें। श्वेत कमलों के पावड़े रचाए। । अपने एक भ्रूभंग मात्र से समवशरण की मायापुरी को भ्रूसात कर देंगे । कोई बलात्कारी बाहुबल उन्हें कस रहा है । सारा ब्रह्मांड जैसे एक प्रकांड मृदंग की तरह बजने लगा । मैं इतिहास की पूरी सड़ांध को आरपार स्पष्ट देख रहा हूं । अनाहत रक्तदान । एक विचित्र खूनी मृत्यु गंध से राजा मोहित और मत्त हो उठा । मुनीश्वर के अंगों से लिपटकर रभस करने लगा। सलोनी बाहों के तकियों में सिलवटें पड़ जाती हैं। दिगंबर से परे तुम चिदम्बर हो आए । उनका सौंदर्य और यौवन पूर्णिमा के समुद्र की तरह कल्लोलित और हिल्लोलित दिखाई पड़ा। मामा की बेटी को भाजा न ब्याहे तो कौन ब्याहे। “Poetry blossoms out of Anger” “क्रोध से ही कविता के फूल जन्मते हैं।” सच्चा क्रोध किसी अमूर्तन की तलाश नहीं करता है। साहित्य सच्चे क्रोध को व्यक्त करने का माध्यम है। अभिव्यक्ति के लिए उदात्त भाषा की जरूरत है। यह तभी संभव है जब हम सचमुच में अपने प्रति ईमानदार हों। जब ‘हम रामायण, महाभारत, 'रघुवंशम्', ‘रामायण महातीर्थम’ आदि का एक पन्ना भी पढ़ते हैं, तब लगता है कि मन समृद्ध हुआ है, हमें कुछ प्राप्त हुआ है’ और मन उदात्त कुचालें भरने लगता है। एक ताजी हवा का झोंका जैसे छू जाता है। भीतर-ही भीतर ‘तेज: प्रचंड’ जैसा अनुभव होने लगता है। इस उपन्यास को पढ़ते समय इस तरह का कोई अनुभव नहीं होता है। एक और बात । जब जीवन के पाँच दशक बीत गए हों और औसत आयु के हिसाब से बमुश्किल से डेढ़ या दो दशक का जीवन शेष है। तो ऐसी अवस्था में 'रामचरित मानस' सहित आधा दर्जन से भी कम प्रिय लेखकों को पढ़कर ‘शाप-ताप से कुछ मुक्ति का अनुभव कर लूं और अपने भीतर निरन्तर पोषित मानवीय मुमुक्षा को पराजित करूं’, या अथवा ‘लिखने के लिए लिखे’ गए उपन्यास को पढ़कर शेष बची उम्र को व्यर्थ करूँ ? यहाँ तो न तो 'राम' है, न 'माया' है। उपन्यास में ऐसा कुछ है नहीं जिसको साधारणीकरण के स्तर पर लाकर 'रस' या 'बोध' कुछ भी कहा जा सके। बोध के नाम पर निजी 'अति व्यक्तिगत' मानस-भोग है जिसमें किसी 'सार्वजनीन' साधारणीकृत 'बोध' का नितान्त अभाव है। सच तो यह है कि इस उपन्यास को पढ़ने पर सिर्फ हरारत,थकावट,झुंझलाहट के साथ-2 ऐसा उपन्यास क्यों लिखा आदि का ही अनुभव होता है। एक कहावत है ‘खोदा पहाड़ निकली चुहिया’ । यहाँ भी ‘आपको चुहिया मिलेगी। वह है तकनीक,भंगिमा या शब्दों का चमत्कार’। किसी ने लिखा है -“प्रत्येक अनुभव सार्थक होने के लिए शब्द पाना चाहता है। शब्द न पाना, नाम न पाना, अनाम रह जाना एक बहुत बड़ी व्यथा है’। भाषा की सार्थकता शब्द के सन्दर्भगत प्रयोग में होती है। शब्द तो निष्क्रिय घटक समान हैं। प्रयोग के द्वारा ही उनमें सचेतनता का संचार किया जाता है। बोध-अनुभूति-स्मृति को अपनी सार्थकता सिद्ध करने के लिए शब्द और वाक्य रूप से जुड़ना पड़ता है। उपमर्द की यह व्यथा/क्रिया बड़ी जटिल होती है। अंदर की अनुभूति जितनी साधारणीकृत होती है, उसकी अभिव्यक्ति उतनी ही प्रभावोत्पादक होती है। कुबेरनाथ राय का लिखा गया यह आर्ष वाक्य कि ‘आलोचना लिखने और ट्यूशन करने का अर्थ होता है अपनी ही आत्मा की दुर्दशा करना । इससे धृति और मति कुंठित होती है’, यह कथन सटीक बैठता है जब आपके हाथ में एक पवित्र-पुरुष को केंद्र में रखकर लिखा गया उपन्यास ‘अनुत्तर योगी’ हो।

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