Sunday, April 20, 2025

*खोज गाँधी की* *नो ! आई हैवन्ट डाइड येट!* लगभग 26-27 वर्ष पुरानी बात है। जीवन के 29वें-30वें वर्ष में अचानक बिना किसी प्रसंग के एक दिन स्वप्न में गांधी सीधे चले आए। काहिविवि,वाराणसी से कुछ ही दूरी पर गंगा नदी का ‘सामने घाट’ है। उसी घाट पर गांधी धवल वस्त्र और लाठी के साथ गंगा नदी में लाठी के साथ खड़े हैं और मुझे बुला रहे थे। और मैं उनसे कह रहा था कि ‘आप मर चुके हैं’। मुझे क्यों बुला रहे हैं? वे कहते हैं ‘नहीं, मैं जिंदा हूँ’। नो ! आई हैवन्ट डाइड येट! नींद खुल जाती है और गांधी का कुछ अता-पता नहीं। दो-चार दिन बाद फिर वही दृश्य। वही बुलावा और ‘जीवित हूँ’, तुम आ जाओ’। अबकी बार जगा तो सोच में पड़ गया कि प्रकृति यह कौन सा खेला खेल रही है। लेकिन मन में यह भाव तो आ ही गया कि बात तो कुछ है। ‘हे राम’ मंत्रोच्चार के साथ जीवन मुक्त हुए गांधी-शहादत वर्ष के लगभग तीन दशक बाद मेरा गांधी शब्द से वास्ता पड़ा था। मेरा बचपन निम्न मध्यवर्गीय भोजपुरी युवा की तरह ही रहा है । भोजपुरी बच्चों की दिनचर्या को कुबेरनाथ राय ने बड़े सुंदर शब्दों में कुछ यूं बयां किया है। वे लिखते हैं- ये ‘बच्चे जंगल-जंगल, बाग-बाग, खेत-खेत कोई जड़ी, कोई गाँठ, कोई कन्द, चाहे खाद्य हो या कुखाद्य ढूँढते-खोदते-खाते फिरते हैं ; मीठी भटकोंई हो या काषाय जड़­, दोनों को चाव से खाते हैं; ज्वार-बाजरे का डण्ठल चूसते हैं और बाजरे का ‘सीका’ (नये गुम्फ) जानवरों की तरह भरपेट खा जाते हैं । ये धरती का चप्पा-चप्पा छानते हैं कि कहीं विधाता की भूल से कोई रस की बूँद छूट गयी हो, तो उसका आहरण कर लें ।’ (कुबेरनाथ राय : रस आखेटक,पृ.129) तो मेरे बचपन के भी प्रारम्भिक 7-8 वर्ष कुछ ऐसे ही गुजरे । लेकिन यह सब कब तक चलता! मेरे पिताजी अपने गाँव से सवा सौ किमी दूर एक इंटर कालेज में अध्यापक थे। कुछ बदली परिस्थितियों में पढ़ने लिखने के लिए पिताजी के पास जाना पड़ा। वहाँ मेरी पढ़ाई सीधे कक्षा 3 से ही शुरू हुई, क्योंकि ‘खाद्य-कुखाद्य’ की खोज में 2-3 वर्ष पीछे हो गया था। हमारे होश संभालने तक या कह सकते हैं कि स्कूल-प्रवेश के पहले मेरे आसपास गाँधी किसी खास आकर्षण के रूप में मुझे नहीं दिखे थे । ‘स्मृति’ पर ज़ोर देने से दो जगह गांधी का नाम सुनाई देने की याद है। स्थानीय बस्ती में पिताजी की लोकप्रियता बहुत थी। लोकप्रियता के ‘डॉक-पते’ के मामले में पिताजी गांधी के नजदीक थे। मेरे घर का पता था-‘रायसाहब सिंधोरा वाराणसी’। और गांधी का पता होता था-‘महात्मा गांधी भारत में जहां कहीं भी हों’। तो पिताजी की लोकप्रियता का लाभ उठाने के लिए चुनावी नेता गण आते थे । 1977 का आम चुनाव था। एक मँझले कद के नेता कुछ हल्के रंग का कुर्ता पहने हुए दिखे थे । पिताजी भी उनके साथ थे। नारा लगाया जाता था –‘गांधी लोहिया जयप्रकाश । भारत के तीन प्रकाश।।’ बड़े होने पर पता चला कि उस चुनाव में राजाराम शास्त्री हार गए थे। राजाराम शास्त्री एक बड़े शिक्षाविद थे। काशी विद्यापीठ के कुलपति भी रह चुके थे। दूसरी बार गांधी से पाला पड़ा अपने प्राथमिक विद्यालय में। कक्षा 5 का विद्यार्थी था। तब वहाँ एक नए-नए अध्यापक आए थे। उन्हें हम सब ‘दुबे पंडीजी’ कहते थे। उन्होने प्रार्थना के बाद एक नई और सुंदर प्रथा शुरू की- प्रार्थना के बाद भारतमाता,महात्मा गांधी, नेहरू,सुभाष,आजाद भगत सिंह आदि के जय-जयकार लगवाकर। वक्त ने मुझे भी प्रार्थना कराने का अवसर प्रदान किया। मुझे वह दिन अच्छी तरह से याद है जब मैं ‘भारतमाता’ की जय के बाद गांधी-नेहरू को लांघते हुए सीधे ‘सुभाष-आजाद’ पर चला गया और मैं प्रतिदिन ऐसा करता था। गांधी-नेहरू के उच्चारण के समय मुंह से आवाज नहीं निकालता था। साथ वाला लड़का गला फाड़कर चिल्लाता था। क्योंकि उसे दूनी मेहनत करनी होती थी। क्यों आगे बढ़ जाता था? यह रहस्य बहुत बाद में समझा आया। पाठ्यक्रम में भी गांधी पर अध्याय थे। एक कविता आज भी स्नायु-मण्डल में स्थायी रूप से अंकित है जिसके रचयिता सियारामशरण गुप्त थे-‘हम सब के थे प्यारे बापू/सारे जग से न्यारे बापू।‘। पढ़ा और याद भी किया था । पर था यंत्रवत ही । फिर आया समय विश्व विद्यालय में पढ़ने का । बीएचयू आ गया था । विषय था- अर्थशास्त्र,गणित और सांख्यिकी । वहाँ सभी दलों/संगठनों के नेताओं से मित्रता थी। पढ़ाई और नौकरी के बीच समानुपाती रिश्ता से हम सब परिचित हैं। प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के समय गांधी-नेहरू-टैगोर को एक अनिवार्य पाठ्यक्रम के अंतर्गत पढ़ने का अवसर मिला। पढ़ा और फेल-पास हुआ। पर गांधी से यहाँ भी जुड़ नहीं पाया था। उसी दौरान हमारे एक सीनियर थे दिलीप त्रिगुणायत जी। उन्होने आचार्य जे बी कृपलानी की पुस्तक – Gandhi : His Life And Thought पढ़ने को दिया। सहमति-असहमति के साथ पढ़ गया। आकर्षण या बंध जाने वाली स्थिति अब भी नहीं बन पाई थी। समय अपनी गति से चल रहा था। दुनियादारी और सामाजिकता का दायरा बढ़ता जा रहा था। इसी बीच एक किताब हाथ में आई ‘गांधी दि मैन’। लेखक थे-एकनाथ ईश्वरन। शानदार किताब है । पहले अध्याय का नाम है – ‘व्‍यक्त्विान्‍तरण’। भाषा अद्भुत है। साहित्य की शब्दावली में ‘पोएटिक लैंग्वेज’। भीतर तक प्रवेश कर गई थीं उसकी बातें। पुस्तक के माध्यम से दबा बीज अंकुराने लगा था। एक और मजेदार घटना घटी। एक दिन बैंक में पैसा निकालने के लिए लाइन में लगा था। 5-7 लोग आगे थे। तभी एक 18-20 वर्ष का नवयुवक आया और सीधे खिड़की में हाथ डाल दिया। मैंने उसे टोका। उसने रोष भारी नजरों से देखा और कहा-‘मैं जानता हूँ कि आप कितने बड़े गांधी है’? माथा ठनका! लाइन में खड़े होकर अपनी बारी का इंतजार करने के लिए कहना या खड़ा होना भी गांधी है। गांधी की खोज शुरू ही थी । इस बार दो पतली-2 पुस्तकें हाथ में आईं। वे थीं -‘पत्र मणिपुतुल के नाम’ लेखक कुबेरनाथ राय और दूसरी Gandhi: A Very Short Introduction लेखक भीखू पारेख । दोनों के प्रकाशन वर्ष में लगभग 17 वर्ष का अंतर है। श्री राय की पुस्तक गांधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली से 1980 में प्रकाशित हुई थी और भीखू पारेख की पुस्तक ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से 1997 में । भीखू पारेख का लेखन सुंदर और सुग्राह्य था। हालांकि इस पुस्तक में भीखू पारेख एक जगह लिखते हैं- He either ignored or took a dim view of the intellectual, scientific, aesthetic, sensuous, and other aspects of life. He rarely saw a film, read a book of poetry, visited an art gallery, watched a game, or took any interest in history, archaeology, modern science, wildlife, unspoilt nature, and India’s natural beauty. (भीखू पारेख, Gandhi: A Very Short Introduction, पृ. 97-99) मन थोड़ा खिन्न हुआ यह सब पढ़कर । श्री राय की पुस्तक ‘पत्र मणिपुतुल के नाम’ को पर पढ़ने में जो आनंद आया वह अद्भुत था । वैसे पुस्तक-शीर्षक से पता नहीं लगता है कि यह पुस्तक गांधी-चिंतन को केंद्र में रखकर लिखी गई है। पत्र शैली में लिखे गए इसके निबंध अद्वितीय हैं। इस पुस्तक का असर यह हुआ कि कुबेरनाथ राय और गांधी एक ही साथ प्रेत की तरह चढ़ बैठे। कुबेरनाथ राय ‘पत्र मणिपुतुल के नाम’ में लिखते हैं-“विश्व-इतिहास में 19वीं शती तक आते-आते भारतवर्ष अपनी प्रतिष्ठा का मुकदमा हार चुका था। परन्तु उसे अन्तिम पराजय से बचाने वाले भारतीयों में तीन नाम विशेष रूप से आते हैं : विवेकानन्द, रवीन्द्रनाथ और तीसरा एक अपेक्षाकृत अल्पज्ञात नाम है सर आनन्द कुमारस्वामी। पहले ने उसकी दार्शनिक महिमा को विश्व-इतिहास की अदालत में उपस्थित किया, दूसरे ने साहित्यिक महिमा को और तीसरे ने उसकी कलात्मक गरिमा को। इन तीनों ने मिलकर भारतीय अस्मिता को पश्चिम के मुकाबले में खड़ा ही नहीं किया, प्रतिष्ठित किया। अस्मिता का अर्थ व्यक्तित्व होता है। परन्तु भारत की आत्मा को, जो अस्मिता से भी सूक्ष्मतर-गम्भीरतर सत्ता है, विश्व-इतिहास की अदालत में उपस्थित करना शेष था और यह काम किया था महात्मा गांधी ने अपने व्यापक और सहज जीवन के द्वारा। विश्व-इतिहास के आधुनिक दौर में यही चार हमारे वकील हैं : विवेकानन्द, रवीन्द्रनाथ, कुमारस्वामी और गांधी । इन्हीं के बल पर हम अपनी फिर खोयी हुई प्रतिष्ठा पा गये।” (कुबेरनाथ राय : पत्र मणिपुतुल के नाम,पृ.36) अहसास हुआ कि 'अरे! गाँधीजी ऐसे थे '! विद्यार्थी जीवन में भी लाइब्रेरी के ‘टीचर्स-रूम’ में बैठने की आदत पड़ चुकी थी । वहाँ चर्चा और नई-नई किताबों से रूबरू होने का शानदार अवसर था। वहाँ गांधी के पक्ष-विपक्ष दोनों तरह के लोग बैठते थे। पारिभाषिक शब्दों पर गांधी-कथन की तलाश और उसकी मीमांसा रोज का शगल बन गया। इन्हीं दिनों 'सत्य का प्रयोग' से परिचय हुआ। भाषा की सहजता, मनुष्य की सरलता, उन्मुक्तता और अपनी खोज के साथ असीम धैर्य से सत्य के प्रयोग करते हुए 'हिमालय जैसी भूलों' को अत्यन्त सहजता से कबूल करने का साहस दिखाने वाले इस 'सत्य के प्रयोग' ने बांध ही लिया । तो ग्रंथालय के माध्यम से ‘Half naked fakir’-‘अधनंगा फकीर' ही प्रत्यक्ष जीवन में अधिक-अधिक आता गया। इसी पढ़ने लिखने के क्रम तीन व्यक्ति और मिले। प्रो नागेश्वर प्रसाद, डॉ एस एन राय और अमरनाथ भाई। प्रो नागेश्वर प्रसाद ने किताबें उपलब्ध कराईं। डॉ एस एन राय ने दिल्ली की यात्रा कराई । अमरनाथ भाई ने श्री ठाकुरदास बंग और श्री सिद्धराज ढड्ढा को चिट्ठी लिखने के लिए कहा। मैंने इन दोनों लोगों को चिट्ठी लिखी। जवाब आया और कहा गया कि कभी इधर आना हो तो आप आश्रम में जरूर आए। इस दौरान मैंने जो कुछ लिखा पढ़ा था , वह भी उन लोगों को भेज दिया । उन लोगों को काफी पसंद आया। वे लोग बार-बार बुलाते भी रहे। सिद्धराज ढड्ढा से मेरी भेंट नहीं हुई और उनका देहांत भी हो गया। ठाकुरदास बंग से मेरी निकटता थोड़ी ज्यादा हो गई थी और वर्धा में मैं जहां रहता था उधर ही उनका पुश्तैनी घर था । तो आते जाते उनसे प्राय: भेंट हो जाती थी। आश्रम में ही मैंने एक दिन उनसे गांधी से मुलाक़ात के बारे में पूछा । उन्होने बताया कि वे पहली बार आश्रम में 1936-37 में आए थे और उन्होंने गांधी जी से मिलने का समय मांगा । गांधी जी ने दूसरे दिन शाम को 6:45 बजे का उनको समय दिया था। वे वहां आश्रम में साइकिल से पहुंचे। गांधी जी ने नियत समय अपना दरवाजा खोला और अंग्रेजी में बोला ‘हू इज ठाकुरदास’। मिलते ही उन्होने पहला सवाल किया कि बापू आप अंग्रेजी क्यों बोल रहे हैं। तो गांधी ने कहा कि अरे तुम्हारा नाम से मुझे कंफ्यूजन हो गया था। मुझे लगा कि तुम बंगाली हो और बंगालियों का हाथ हिंदी में थोड़ा तंग होता है। इसलिए मैंने सोचा कि तुमको कोई कष्ट न हो। मुझे तुरंत वह दृष्टांत याद आ गया कि किस तरह से ईश्वर अपने भक्तों के प्रति या कोई गुरु अपने शिष्य के प्रति कितना सतर्क और सावधान रहता था । एक दूसरा सवाल भी ठाकुरदास से मैंने पूछा। गांधी तो अपरिग्रह के पालक थे और उसे पर जोर भी देते थे । तो मुझे लगता है कि वह उन चीजों को जरूर आश्रम में नहीं रखते थे जिनका वह प्रयोग नहीं करते थे। उन्होने हामी भरी। आश्रम में एक बक्सा है। बक्से में बहुत सारी चीज रखी हुई है। उन वस्तुओं में एक माला भी है। तो मैंने उनसे पूछा –‘यदि यहाँ माला रखा हुआ है तो क्या कभी आप लोगों ने माला फेरते हुए उनको कभी देखा है? उन्होने कहा-‘यह तो नहीं देखा और न ही मेरा ध्यान ही कभी उधर गया। लेकिन मैं तो आश्रम में बहुत दिनों तक उनके साथ रहा। आश्रम में किसी ने किसी रूप में जुड़ा हुआ था। लेकिन वे मुझे माला फेरते हुए कभी नहीं दिखे’। (निजी बातचीत के आधार पर) तो अब गांधी धीरे-2 समझ में आने लगे थे। बचपन में गांधी से बनी दूरी भी स्पष्ट होने लगी थी । वही झूठे आरोप –‘देश विभाजन, पाकिस्तान को रूपये देना, नेहरू को उत्तराधिकारी बनाना,भगत सिंह को फांसी से बचाने की कोशिश नहीं करना, सुभाष चंद्र बोस को कांग्रेस से बाहर करना देना’ आदि-आदि। आरोपों की लंबी फेहरिश्त है ।समझ में आ गया कि गांधी की खोज इससे आगे बढ़कर करनी होगी। फिल्मकार रिचर्ड एटनबरो के नाम से हम सब परिचित हैं। वे भी गांधी से प्रभावित लोगों में से थे। गांधी की मृत्यु के बाद उनपर एक फ़िल्म बनाना चाहते थे। 1960 के दशक में इसके लिए जवाहरलाल नेहरू से बात भी की थी । नेहरू ने न सिर्फ स्वीकृति दी, समर्थन का भी वादा किया। मगर फ़िल्म तब न बन सकी। दो दशक बाद अंततः एटनबरो की यह फ़िल्म 1982 में बनकर तैयार हुई। यह ऑस्कर के लिए 11 श्रेणियों में नामांकित हुई, और 8 अवार्ड जीत भी लिए। यह एक अनूठा इतिहास है। आप सबको जानकर आश्चर्य होगा कि इस फिल्म को मैंने बहुत बाद में देखा। पर पूरा नहीं देख पाया। क्योंकि तब तक फिल्मों में मेरी गहरी अरुचि हो गई थी। आज भी वही स्थिति है। इस प्रकार ‘खोज गांधी की’ मेरे लिए किताबों के माध्यम से ही होती रही। गांधी गीता के बारे में लिखते हैं-“सन 1889 में मैं गीता से परिचित हुआ तब से वह मेरी माता है। मैं हर कठिनाई में मार्गदर्शन के लिए उसकी ओर देखता हूँ, और मुझे उससे अपेक्षित सहायता प्राप्त होती है।... यह आध्यात्मिक माँ अपने भक्त को उसके जीवन में सदैव अभिनव ज्ञान,आशा और शक्ति प्रदान करती है।” (एकनाथ ईश्वरन,गांधी दि मैन, पृ. 44) आत्मकथा में गांधी ने गीता (2.62-63) के जिन दो श्लोकों को उद्धृत किया है उनमें काम से क्रोध, क्रोध से सम्मोह, सम्मोह से स्मृति भ्रंश, स्मृति भ्रंश से बुद्धि नाश और बुद्धि नाश से सर्वनाश की बात कही गयी है। गीता से मैं भी परिचित था । बचपन में पढ़ा भी था। कुछ असर जरूर हुआ होगा। लेकिन जब मैंने गांधी-पथ पर चलते हुए गीता को समझने की कोशिश की तो कुछ चीजें स्पष्ट हुईं। स्थिति-प्रज्ञ से संबन्धित श्लोकों का मर्म भी समझ में आया। पर श्मशान वैराग्य से आगे मामला बढ़ नहीं पाता है। फिसलता ही रहा हूँ। इस पुस्तक को पढ़ते समय एक बात और ध्यान में आती है। वह यह कि गांधी के उभार के समय भारत में एक से बढ़कर एक वयोवृद्ध दिग्गज नेता, महान साधक और संत, कवि और कलाकार, वैज्ञानिक, दार्शनिक और पूंजीपति समकालीन भारतीय रंगमंच पर थे भी और उभर रहे थे । फिर भी उन्होंने कभी भी इन्द्र-ग्रंथि को, किसी के प्रति ईर्ष्या-भाव को, अपने मन में कोई जगह नहीं दी। सबको मान-सम्मान दिया। दुख की घड़ी में उन्हें आवश्यकतानुरूप सेवा की, सबको अपनी प्रतिभा के अनुरूप आगे बढ़ाने का समुचित अवसर प्रदान किया। पर ऐसा करते हुए उन्होंने सत्य शोधक की अपनी मर्यादा-रेखा का कभी विस्मरण नहीं किया। गांधी के जीवन में जब-जब ईर्ष्या की महाशक्ति झांकने को हुई कि एक वैष्णव की विनम्रता से उन्होंने नमन किया और अपने गंतव्य की ओर आगे बढ़ते गये। काम को उन्होंने ब्रह्मचर्य की लगाम लगा दी; ईर्ष्या की अग्नि उन्हें दग्ध न करे, इसके लिए उन्होंने अहंकार का त्याग कर शून्यवत होने की साधना की। 'सेवक की प्रार्थना’ नामक एक कविता भी गांधी ने लिखी है – "हे नम्रता के सम्राट! दीन भंगी की हीन कुटिया के निवासी। ...... हे भगवन्! तू तभी मदद के लिए आता है जब मनुष्य शून्य बनकर तेरी शरण लेता है।” समय के साथ जीवन में जैसे-2 विभिन्न प्रकार के अवसर मिलते गए और गांधी से निकटता भी बढ़ती गयी । अब मेरे समक्ष हँसते-बोलते गाँधीजी आ गए थे। पर्दे पर ही नहीं विशुद्ध उनकी आवाज़ सुनी । शांत,स्थिर और मद्धिम स्वर, जो सीधे मन में प्रवेश कर गयी। धीरे-2 यह बात भी धीरे-समझ में भी आने लगी थी कि बाहर से अत्यन्त खुरदरा और अनाकर्षक दिखने वाले इस सनातनी बूढ़े ने चार्ली चैप्लिन, जॉन स्मट्स, , रोमा रोला और अल्बर्ट आइंस्टीन जैसे विभिन्न क्षेत्रों के प्रतिभा शाली लोगों को कैसे आकर्षित किया होगा। रेहाना तैयब आजादी की लड़ाई में भाग लेने वाली मशहूर शख्सियत थीं। उन्होने गांधी से प्रथम मुलाक़ात पर जो साक्षात्कार दिया है उसे हम सबको पढ़ना/जानना चाहिए। वे बताती हैं -“उस दरवाजे से दो व्यक्ति दाखिल हुए, एक तो कवि ठाकुर, ऊँचे और क्या हसीन, जैसे पुराने जमाने के कोई ऋषि, सफेद दाढ़ी, सफेद बाल, वैसी ही मखमल की लम्बी टोपी और रेशमी चोगा। दूसरा उनके साथ था छोटा सा, पतला सा बदसूरत आदमी जो मोटे गाढ़े का कुर्ता, गाढ़े की टोपी, पजिया और छोटी सी धोती पहने हुए था। ... कवि ठाकुर तो मेरे देवता थे । उस वक्त दिल के उपर कुछ असर पड़ा बापू की शख्सियत का और यही ख्याल आया कि यह छोटा सा आदमी ज्यादा बड़ा आदमी है ।” ( पीएमएमएल, नई दिल्ली, मौखिक इतिहास इंटरव्यू , 5/9/1967) जीवित रहते हुए तो इन प्रतिभाशाली लोगों को तो आकर्षित किया ही, परन्तु धरा से जाने के बाद भी मार्टिन लूथर किंग, नेलसन मंडेला,ओबामा,लेक वॉलेसा, पेट्रा केली आदि तक यह गाँधी पहुंचे कैसे? कौन-सी शक्ति है यह?' आइंस्टीन का यह कथन कि ‘हाड़-मांस का बना एक ऐसा मनुष्य इस पृथ्वी पर जन्मा था, इस पर आने वाली पीढ़ियाँ विश्वास नहीं कर पायेंगी’... विश्वसनीय लगने लगा था। इसलिए आइंस्टीन ने अपने अध्ययन कक्ष में चार चित्र टंगे थे- न्यूटन,फैराडे,मैक्सवेल और गांधी । (भीखू पारेख, डिबेटिंग इंडिया,पृ .233) समय के साथ मानसिक हलचल जैसे-जैसे समझ में आती गयी, वैसे-वैसे इस वाक्य पर विश्वास होने लगा। कानों से टकरायी वही शांत और गंभीर आवाज : I have to search my peace in semi turmoil'; अर्थात् 'मुझे अपनी शांति आँधी में से ही ढूँढ़नी है।' सेवा रूपी जीवन को मोक्ष का साधन मानने वाले महात्मा। आध्यात्म प्रवण । परन्तु उनकी आध्यात्मिकता मात्र शब्द-जाल न थी। एक बार किसी ने उनसे कहा भी कि इतना धर्म-अध्यात्म आदि की चर्चा करते रहते हैं तो हिमालय क्यों नहीं चले जाते। उन्होने जो जबाव दिया वह बड़ा ही मजेदार है। उन्होने कहा मैं हिमालय को अपने पॉकेट में लेकर घूमता हूँ। तो उनका अध्यात्म जीवन से दूर, गिरि-कंदराओं में ध्यान लगाकर बैठने वाली न थी अपितु श्रीमद भागवत और मानस से प्रेरित थी-‘सिर भर जाऊँ उचित अस मोरा......’ । यहीं, इस संसार में रहकर, मनुष्य की तरह जीवन जीकर मुझे अपनी शांति प्राप्त करनी है: यह कर्मप्रवण आध्यात्मिकता थी। कह सकते हैं कि मन में दयानंद-विवेकानंद से महात्मा जी तक का एक महामार्ग निर्मित हो गया था । इस महा मार्ग पर कदम तेजी से बढ़ने लगे। दांडी मार्च के समय काका कालेलकर से किसी प्रसंग में कहे गए गांधी के इस कथन को कि ‘जिस तरह एक गर्भवती महिला अपने गर्भ में पल रहे बच्चे की खातिर अपने स्वास्थ्य की देखभाल करती है, मैं भी अपना ख्याल उस स्वराज के लिए रखता हूं जो मेरे गर्भ में है’, और ‘मैं इस दुष्ट सरकार को नष्ट करने के लिए पैदा हुआ हूँ।’ इस बात की पुष्टि करती है। हमें उनके जीवन का इस पक्ष को समझने में कई बार कठिनाई भी होती है। कारण यह कि उन्हें हम खंड-2 में देखने/समझने की कोशिश करते हैं, जबकि वे प्राय: कहा करते थे कि “मेरा जीवन एक अविभाज्य इकाई है। .... खण्ड-पद्धति पर उसका निर्माण नहीं हुआ है। सत्याग्रह, सविनय अवज्ञा, अस्पृश्यता, हिन्दू-मुस्लिम एकता और अन्य कई चीजें ... एक ही पूर्ण वस्तु, सत्य के अविभाज्य अंग हैं।” (सम्पूर्ण गांधी वांगमय,खंड 61,पृ.163-64) पठन-पाठन और संग-साथ से यह बात समझ में आ गई थी कि गांधी के पास असाधारण सर्जनात्मकता थी-जीवन निर्माण से लेकर व्यक्ति और व्यक्तित्व निर्माण तक। वे केवल भारतीय स्वाधीनता संग्राम के प्रेरणा पुरुष के रूप में भारतीय राजनीति ही नहीं बल्कि लेखन समेत समग्र रचनात्मक कार्यक्रमों के प्रेरणा-पुरुष भी थे। गांधी के काल में सेवाग्राम वस्तुत: एक लोकधानी के रूप में विकसित हो चुकी थी। वायसराय से लेकर गाँव के किसान तक आश्रम पहुँच रहे थे। गांधी के पास सबके लिए कुछ-न कुछ रहता ही था । हर झोली में प्रसाद मिलता था। फलस्वरूप संपूर्ण भारतीय साहित्य, कला, दर्शन,कृषि,उद्योग आदि भी उनके रचनात्मक प्रभाव क्षेत्र में आ गये। कुबेरनाथ राय सही लिखते हैं-“गांधी की शब्दावली देशी थी और उसका मर्म बहुत गंभीर होता था। परंतु आज का बुद्धिजीवी सतही और राजनीति आरोपित अर्थ से ज्यादा समझने में असमर्थ है। फलतः गांधी-चिंतन की बारीकी को वह समझ नहीं सका। जब ‘हिन्द स्वराज्य’ पहले पहल प्रकाशित हुआ, तो इन लोगों ने, देश के भीतर और देश के बाहर भी, इसका उद्देश्य न समझ कर खिल्ली उड़ाई थी। गोखले ने इसे पढ़कर कहा था “मिस्टर गांधी स्वयं साल भर बाद इस किताब को नष्ट कर देंगे।’ ( कुबेर नाथ राय,चिन्मय भारत,पृ.187-88)पर हुआ क्या? गांधी एक शब्द के अलावा किसी भी प्रकार के परिवर्तन के लिए तैयार नहीं थे। गुरु गोविन्द सिंह के नाम से हम सब परिचित हैं। उन्होंने भी गांधी की तरह ‘अभय’ का उपदेश दिया था। याद कीजिये । एक ओर एशिया की सबसे बड़ी विकराल वाहिनी, मुगल सेना और दूसरी ओर गरीब और कुचले हुए मुट्ठी भर सिख! तो भी उन्होंने कहा था ‘बाज बटेर एक लड़ाऊँ। तब गुरु गोविन्द नाम धराऊँ।’ आत्मशक्ति से सम्पन्न होने पर बटेर भी बाज से भिड़ सकता है और सिख गुरु के दिये ‘अभय’ के पीछे यही राज है। यही राज है गांधी की शक्ति का भी कि अंग्रेज-शासन के मुकाबले में ‘दब्बू भारतीय’ भी तनकर खड़ा हो गया।” लेकिन यह सब एक दिन में नहीं हुआ था। इसकी तैयारी वे अपने अफ्रीका-प्रवास के दिनों से कर रहे थे। अपने देश से दूर, प्रवास के कर्म संकुल जीवन में भी वे भीतर-भीतर एकान्त होने की चेष्टा में रहते थे। कुबेरनाथ राय लिखते हैं-“उनके जीवन में आत्मचिन्तन का वह पूर्वपक्ष बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है। एक दफे की बात है, पुतुल, जब गांधी ‘तोलस्टोय फार्म’ में थे। एक संध्या को वे शान्त तल्लीन बैठे थे, उनकी दृष्टि एक विषाक्त गेहूँअन साँप पर टिकी थी जो धीरे-धीरे उनके नंगे घुटने तक चढ़ आया था, पर काट नहीं रहा था। उसी समय उनके सहयोगी एक अंग्रेज सज्जन आये और यह तमाशा देखकर स्तब्ध रह गये। वे चौंक कर बोले, “मिस्टर गांधी, क्या मृत्यु के साथ जुआ खेल रहे हो?” गांधी नजर उठाकर मुस्करा दिये। इसी बीच साँप स्वयं नीचे उतरकर चला गया। यह दृश्य उपस्थित करता है गांधी को ‘भय’ के साथ एक अहिंसक युद्ध में रत। गांधी अपने मनोबल की परीक्षा और प्रशिक्षण दोनों साथ-साथ कर रहे थे। यह छोटी-सी घटना बहुत-सी बातों का इशारा कर देती है जो उनके अन्तर में घटित होती रहीं, पूरे अफ्रीकी-प्रवास में।” (कुबेरनाथ राय : पत्र मणिपुतुल के नाम,पृ.53) किसी दूसरे को नीचा दिखाकर खुद सम्मानित होनेवाले भाव को देख गाँधीजी ताज्जुब करते थे। अफ्रीका में जब उन्हें उठाकर फेंका गया था तभी उनके मन में यह भाव उत्पन्न हुआ था “मुझे जो कष्ट सहना पड़ा है, सो तो ऊपरी कष्ट है। वह गहराई तक पैठे हुए महारोग का लक्षण है। यह महारोग हैं रंग-द्वेष । यदि मुझमें में इस गहरे रोग को मिटाने की शक्ति हो, तो उस शक्ति का उपयोग मुझे करना चाहिए । ऐसा करते हुए स्वयं जो कष्ट सहने पड़ें सो सब सहने चाहिए और उनका विरोध रंग-द्वेष को मिटाने की दृष्टि से ही करना चाहिए।' (सत्य के प्रयोग, पृ.126)यहीं से बाजी पलट गयी । वे जानते थे कि प्रतिक्रिया से जन्म लेने वाला व्यक्ति, समाज और देश भी द्वेष मूलक और प्रतिक्रियावादी होगा। गांधी ने जातिगत भेदभाव के खिलाफ न केवल लड़ाई लड़ी अपितु पत्नी और रिश्तेदारों को भी उनकी अनिच्छा के बावजूद इस पवित्र युद्ध में झोंक दिया। उनका यह प्रस्ताव कि एक दलित महिला को स्वतंत्र भारत के पहले राष्ट्रपति के रूप में नियुक्त किया जाए और जवाहर,पटेल और राजेन्द्र बाबू उसके मंत्री के रूप में काम करेंगे, उनके साहस और आखिरी आदमी की चिंता को हमारे सामने रखते हैं। सहज ही कल्पना की जा सकती है कि गांधी के समक्ष एक तरफ ‘अंग्रेज़ भारतीय गिरमिटियों को अपने हाथ से ढेर कर सकते हैं’ का मुगालता पाले दंभी चर्चिल खड़े हैं तो दूसरी तरफ ‘मुस्लिम राज्य के लिए अपनी जान भी दे सकता हूँ’ का उद्घोष करने वाले जिन्ना और केवल दलित को केंद्र में रखकर राजनीति की नब्ज पर अंगुली रखने वाले अंबेडकर थे। लेकिन गांधी का इनमें किसी से कोई द्वेष नहीं था। गांधी सदैव बड़ी-2 बात करने की अपेक्षा जमीन पर नजर गड़ाए हुए थे। एक बार किसी प्रवास में किसी का सवाल आया : मुझे क्या करना चाहिए? गांधी ने जो नुस्खा समझाया वह हमारी किताबों में कैद है। दरअसल इस स्वतंत्र देश के लिए उन्होंने एक कसौटी प्रदान की थी जिस पर अपने मन के प्रश्नों को कसना आवश्यक है। वे कहते हैं-'मैं आपको एक नुस्खा बताता हूँ । जब कभी कोई योजना बनाते हुए या उसको कार्यान्वित करते हुए आपके मन में प्रश्न उठे कि 'क्या करें?', तब अपनी आँखों के समक्ष समाज की अंतिम सीढ़ी पर खड़े सबसे आखिरी आदमी को लाइए। जिससे उसका हित हो, वही करना चाहिए, वही योजना अमल में लानी चाहिए।' इससे सरल शब्द और क्या हो सकता है? अर्थशास्त्र के लिए इससे बढ़िया सिद्धांत और क्या हो सकता है? गांधी ने ऐसे ही नहीं दांडी यात्रा में स्वयं सीकर एक कमीज भेंट देने वाली लड़की से तीस कोटि शर्ट मांगते है। बुद्ध की महाकरुणा का सगुण रूप हैं गांधी। गांधी ने हमारे भीतर की ताकत को महसूस कराया । हमारी-आपकी करुणा को जगाया, संवेदनशील बनाया और फिर कभी चरखा कातने को कहते है, तो कभी कपड़ों की होली जलवाते हैं, नमक बनवाते हैं। मामूली कामों को प्रतिरोध का प्रतीक, और क्रांति का हथियार बनाकर हाथ में थमा देते हैं और आगे बढ़ने की ललक पैदा कर देते हैं। लंदन में विलायती बाबू के इस सवाल पर कि ‘आप अर्धनग्न क्यों हैं?, का जबाव कि ‘मेरे हिस्से के कपड़े आपकी रानी ने पहन लिए हैं, इसलिए मैं अर्ध नग्न हूँ।,' अद्भुत गूढ़ार्थ जबाव है। ‘पांत के आखिरी आदमी', जो आज भी अभिशप्त जीवन जी रहा है उसको ध्यान में रखकर, उसे जगाते हुए ही गाँधीजी ने स्वतंत्रता संग्राम लड़ा। महज एक वाक्य में अर्थव्यवस्था के दुष्चक्र को बड़े सलीके से विलायती बाबू के सामने रख दिया। धीरे-धीरे समझ में आता गया कि गांधी, दरअसल भीरुओं की ताकत है। हम अपने जीवनानुभव से जानते हैं कि प्राय: आम व्यक्ति, शांति चाहने वाला व्यक्ति, विरोध से डरता है, क्रांति से डरता है, हथियार उठाकर बढ़ने से डरता है। वह कानून, पुलिस, जेल, सरकार के पचड़े में पड़ने से बचता है। और मौत से तो हम सब ही डरते हैं। गांधी उसको वहीं से उठाते हैं और निरभ्र आकाश में उछाल देते हैं। अब वह चरखा कातता है,तकली चलाता है, रचनात्मक कार्यक्रमों में अपने को झोंक देता है। इनका कोई न रंग है, न मजहब है, न भाषा है। बस लय और संगीत है जो एकीकृत प्रतिरोध के रूप में सामने प्रकट हो जाती है, और ये काम तो कोई गुनाह नहीं । इसके लिए यदि जेल भी जाएं, तो भीतर कोई अपराध बोध नहीं उल्टे गर्व होगा। और जब जेल जाना गर्व की बात बन जाये… तो उस कौम को भला कब तक दबाया जा सकता है? यही बूंद-बूंद प्रतिरोध की नदी सागर में परिवर्तित उस साम्राज्य को भी बहा ले गया जिसका सूर्य अस्त नहीं होता था। गाँधी की एक अन्यतम विशेषता समझ में आई वह है-'अन्दर की आवाज़'। यह 'अंदर की आवाज़' हम सबके पास है। बस जरा अंदर झाँकने की जरूरत है- ‘दिल के आईने में है तस्वीरे यार, जब जरा गर्दन झुकाई देख ली’। आज हम बाहर की आवाजों में इतना व्यस्त हो चुके हैं वहाँ झाँकने में डर लगता है। गांधी ने अपने जीवन में जितने भी आंदोलन किए सबके पीछे यही ‘Still small voice within’ है। लेकिन इस आवाज को सुनने के लिए लंबी तपस्या की जरूरत होती है, जिसका सूत्र हमें पतंजलि के योग सूत्र में मिलता है। गांधी ने यम-नियम को साध लिया था। गांधी का सर्जन शील व्यक्तित्व अद्भुत है। हम कई बार गलती से उनसे रेडीमेड-फ़ैन्सी उत्तर, फॉर्मूला या सिद्धांत की अपेक्षा कर बैठते हैं। ठीक वैसे ही जैसे हम सब बचपन में राम शलाका से पास-फेल का उत्तर जानने के लिए प्रयास करते थे। तथ्य यह है कि गांधी ने सदैव अपने तर्जनी से सही दिशा की ओर बढ़ने का संकेत दिया है । सही दिशा की तलाश कैसे की जानी चाहिए यह स्वयं जी कर दिखा गए हैं। इसलिए भागते-हाँफते पत्रकार को, जो गांधी से किसी संदेश का गुजारिश कर रहा था, पर्ची पर लिखकर दिया- 'मेरा जीवन ही मेरा संदेश है' । पार्लियामेंट स्क्वायर लंदन में गांधी के साथ उनके दो मित्रों जॉन स्मट्स और चर्चिल की भी मूर्ति है। इन दोनों से गांधी का परिचय अफ्रीका में हो चुका था। ये वही जॉन स्मट्स हैं जिसने गांधी को जेल में डाल दिया था और जब गांधी जेल गए तो वहाँ से स्मट्स के लिए अपने हाथ से बनाया एक जोड़ी चप्पल भेजा। स्मट्स ने पहना तो जरूर पर उसे अपनी अयोग्यता पर शर्म भी आई। दूसरे मित्र चर्चिल ‘साहित्य और राजनीति’ के शानदार कॉकटेल हैं और नोबेल पुरस्कार भी झटका है । उन्होने अपने जीवन काल में खूब जमकर युद्ध लड़ा और साम्राज्य बचाया भी । ये वही चर्चिल हैं जिंहोने ऐतिहासिक दुर्भिक्ष काल में भी बंगाल का सारा चावल ब्रिटेन मंगाकर, चार लाख लोगों को भूखा मर जाने को विवश कर दिया। और जब इन मौतों की सूचना लंदन आई, तो फाइल नोटिंग पर साहित्य के नोबेल पुरस्कार विजेता चर्चिल पूछते हैं- ‘व्हाय हैवन्ट गांधी डाइड येट’ ? गांधी अपनी शाश्वत और निर्दोष मुस्कान के शांत-मद्धिम-गम्भीर स्वर में कहते हैं- ‘यस,आई हैवन्ट डाइड येट चर्चिल! मैं तुम्हारे सामने खड़ा हूँ ।’ फिर वही मौन, जिसका जादू आज भी सिर चढ़कर बोल रहा है।

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