Sunday, April 20, 2025
‘नयी सरस्वती’ का आह्वान और कुबेरनाथ राय
मनोज कुमार राय*
एस. के. रागी**
श्री कुबेरनाथ राय भारतीय साहित्य के लब्ध-प्रतिष्ठ निबंधकार हैं। पाठकों से संवाद करने के लिए उन्होने अपने समय की सबसे कम लोकप्रिय विधा 'निबंध' को माध्यम बनाया था और जीवन-पर्यंत एकनिष्ठ भाव से इसके प्रति समर्पित रहे। उनकी दृष्टि में ‘किसी भी जाति की मूल प्रकृति का सच्चा थर्मामीटर है उस जाति का काव्य-साहित्य और उसकी बौद्धिक गंभीरता तथा उदात्तता का परिचायक है निबंध-साहित्य।’1 अत: ‘निबंध ही किसी जाति के ब्रह्मतेज को व्यक्त करता है।’2 इसलिए वे अनुभव-समुद्र से याचना करते हुए कहते हैं कि ‘यदि देना ही है तो एक पवित्र शंख फेंक दो....मात्र एक शंख। ...मुझे तो चाहिए शुचिस्वेत आवाहनमय एक गद्य शंख ..... । दोगे तो दे दो।’3 श्री राय इसी लब्ध-गद्य शंख से नशे में प्रमत्त भारतीय महाजाति को निरंतर जागृत करने की चेष्टा करते रहे और कहा ‘कि मेरा सम्पूर्ण साहित्य या तो क्रोध है,नहीं तो अंतर का हाहाकार ।’4
कुबेरनाथ राय की दृष्टि में साहित्य व्यक्ति की तुष्टि या मौज शौक के लिए नहीं,समूह की तुष्टि-पुष्टि और शील-संरक्षण के लिए रचा जाता है।5 उनका उद्देश्य अपने पाठकों को रसबोध कराने के साथ उनकी मानसिक ऋद्धि और बौद्धिक क्षितिज का विस्तार6 करना रहा है। अपने इस उद्देश्य को, मनुष्य की मनुष्यता के प्रति अपनी बुनियादी प्रतिबद्धता को, अपने लेखन में उन्होंने अनेकशः दुहराया है। इस प्रतिबद्धता के मूल में उनकी यह निर्भ्रांत समझ है- “मनुष्य की सार्थकता उसकी 'देह' में नहीं, उसके 'चित्त' में है। उसके चित्त-गुण को, उसकी सोचने-समझने और अनुभव करने की क्षमता को विस्तीर्ण करते चलना ही 'मानविकी' के शास्त्रों का, विशेषतः साहित्य का, मूलधर्म है।”7
कुबेरनाथ राय का लेखन बहुआयामी और विविधतापूर्ण है जिसका आदर्श है -“‘सत्यं परम धीमहि’-सत्य क्या है? ‘आत्मा’ । दर्शन में यह ‘आत्मा’ ‘ब्रह्म’ का रूप लेती है, साहित्य में ‘पुरुष’ रूप । पुरुष के अंदर निहित पुरुषोत्तम (परम सत्य) का आविष्कार साहित्य का प्रधान लक्ष्य है।”8 श्री राय एक सजग,सतर्क और अपने समय के सवालों से मुठभेड़ करने वाले लेखक रहे हैं। उनका मानना था कि “साहित्यकार’ न केवल ‘सत्य के प्रति ईमानदार रहे और सत्य के लिए ही एक सांस्कारिक, मानसिक वातावरण तैयार करे’ अपितु “यदि आत्मा द्वारा उपलब्ध सत्य ‘बहुमत’ के खिलाफ जाता है, तो साहित्यकार का धर्म है बहुमत के विरुद्ध खड़ा होना,अकेले खड़ा हो जाना,समूची ऐतिहासिक शक्तियों के विरुद्ध अकेली उठी हुई तर्जनी का रोष व्यक्त कर देना।” 9 मनुष्य,प्रकृति और ईश्वर से लेकर भोजन तक अनेक विषयों पर उन्होने बड़ी ईमानदारी से कलम चलाई है। शिक्षा को लेकर कभी कोई विशिष्ट अकादमिक लेखन उनके द्वारा नहीं किया गया है। लेकिन शिक्षा से जुड़े होने के कारण शिक्षा संबन्धित चिंताएँ उनके लेखन में स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। प्रस्तुत पर्चे में शिक्षा पर उनके विचार-सूत्रों की परिधि में चर्चा की गई है।
आधुनिक शिक्षा की बात करते समय हमारी नई/पुरानी पीढ़ी के पूर्वजों के स्नायुमंडल में मैकाले का प्रेत सदैव अठखेलिया करता रहता है। मैकाले-नीति के 185 वर्ष बाद ज़ोर-शोर से बनी राष्ट्रीय शिक्षा नीति के कर्णधारों सहित विश्वविद्यालयों के कर्ता-धर्ता आज भी मैकाले के बिना अपनी रोटी नहीं सेंक पा रहे हैं। गांधी ने भी हिंद-स्वराज में मैकाले को याद किया है-“मैकाले ने शिक्षा की जो बुनियाद डाली, वह सचमुच गुलामी की बुनियाद थी। उसने इसी इरादे से अपनी योजना बनायी थी, ऐसा मैं नहीं सुझाना चाहता। लेकिन उसके काम का नतीजा यही निकला है। यह कितने दुख की बात है कि हम स्वराज्य की बात भी परायी भाषा में करते हैं?”10 प्रख्यात कला-इतिहासविद आनन्द कुमारस्वामी भी 1909 में प्रकाशित पुस्तक ‘एसेज इन नेशनल आइडियलिज़्म’ में ब्रिटिश शिक्षकों को झकझोरते हुए कहते हैं कि तुम्हारे आडंबर पूर्ण अहंवादी सोच -“लॉर्ड मैकाले को सोचने पर विवश करती है कि एक अच्छे यूरोपीय पुस्तकालय की एक शेल्फ में पड़ी पुस्तकें भारत, अरब और फारस के सभी साहित्य के बराबर है।”11 इसके साथ-साथ वे एक अन्य यूरोपीय स्कॉलर अब्बे डुबोइस (1765-1848) के कथन को भी उद्धृत करते हैं जिसमें उसने कहा था , “हिंदुओं की एक नई जाति बनाने के लिए, उनकी सभ्यता, धर्म और राजनीति की नींव को कमजोर करके और उन्हें नास्तिक और बर्बर बनाकर शुरुआत करनी होगी।”12
पूर्वजों के दाय को समृद्ध करने के लिए संकल्पित श्री राय ने भी शिक्षा के संदर्भ में बात करते हुए मैकाले को याद किया है, लेकिन जरा रचनात्मक ढंग से- “प्रत्येक नवशिक्षित को मूल विच्छिन्न (rootless) करके इस देश के लिए स्थानीय अजनबियों (local outsiders) के समाज की रचना ही उसका(मैकाले) निहित उद्देश्य था। वह पूरा-पूरा असफल नहीं हुआ। सबूत हैं स्वतंत्र भारत के अंग्रेजी पत्रकार और नौकरशाह भौगोलिक दृष्टि से स्वदेशी रहते हुए भी बौद्धिक मानसिक स्तर पर अजनबी कर देना और इस अजनबी होने का दम्भ भर देना, भारतीय नव-शिक्षा के जागरण का उद्देश्य था। भारत छोड़कर ऐसा वाक्य शायद ही कहीं सुनने को मिलेगा, "ये इतनी अच्छी अंग्रेजी जानते हैं कि हिंदी बोल ही नहीं पाते।”13 ध्यान देने की बात है कि 1909 तक गांधी यही मानकर चल रहे थे कि “हिन्दुस्तानी सागर के किनारे पर ही मैल जमा है। उस मैल से जो गंदे हो गये हैं उन्हें साफ होना है।”14 गांधी के इस कथन के आठ दशक बाद श्री राय बतौर एक शिक्षक यह महसूस कर रहे हैं कि “मैकाले द्वारा डेढ़ सदी पूर्व जिस विष बीज को बोया गया, वह अब विष वृक्ष होकर अपना असली फल देने लगा है।”15 श्री राय को दुख इस बात का है कि भारत में “शिक्षित का मतलब होता है अंग्रेजी पढ़ा-लिखा आदमी और शिक्षा का उद्देश्य 'Career' यानी नौकरी ।”16 इसे ही अकबर इलाहाबादी ने व्यंजना में कुछ यूं कहा है , “हम क्या कहें अहबाब क्या कार-ए-नुमायाँ कर गए । बी-ए हुए, नौकर हुए, पेंशन मिली, फिर मर गये !”17 उनकी चिंता और आगे तक जाती है –“ऐसी Career-Oriented और आदर्शहीन, Secular शिक्षा पद्धति का सूत्रपात हुआ था लॉर्ड मैकाले के द्वारा डेढ़ सौ वर्ष पहले। इसका उद्देश्य था हमें अंग्रेजी पढ़ाना, अंग्रेज़ियत देना और हमारे हिन्दुस्तानीपन को धीरे-धीरे खत्म कर देना, हमें पश्चिम के भौतिक ज्ञान-विज्ञान से समृद्ध कर देना और हमारे अन्तर्निहित मनुष्यत्व को, हमारी निजी पहचान को, हमारे 'ताहन्नूद' को, हमारे देशीपन को धीरे-धीरे समाप्त कर देना, और इस तरह कर देना कि हम आत्म-विस्मृत हो जायें और अपनी इस हानि का अहसास करने में ही असमर्थ हो जाय। जो चिन्तामणि खो गयी है उसके लिए अफसोस करने की क्षमता ही हमारे अन्दर नहीं रह जाय।”18 राय बताते हैं कि ‘श्री अरविंद के पिता भी इसी दम्भ के शिकार थे और उन्होंने श्री अरविंद को इंग्लैण्ड भेजकर 'प्रवासी' से 'अजनबी' बना डालने में कुछ उठा नहीं रखा। परंतु हुआ कुछ और ही श्री अरविंद भारत लौटकर इस अजनबी के निर्मोक को तोड़कर न केवल मुक्त हो गये, बल्कि स्वदेशी स्मृति और प्रज्ञा में बड़ी गहराई से अपने को उतारकर प्रतिष्ठित कर लिया।’19 आनंद कुमारस्वामी भी इस बात पर चकित हैं कि ‘भारतीय विश्वविद्यालय का एक साधारण स्नातक शेक्सपियर को महाभारत से अधिक जानता होगा और उसे भारतीय संगीत, धार्मिक दर्शन, कला, पोशाक या आभूषण के बारे में बहुत कम जानकारी होगी।’20 श्री राय इसी अजनबीपन के निर्मोक को तोड़ने के लिए ही कलम उठाते हैं- “आज भारत की सारी व्यवस्था अर्थ, राजनीति, शिक्षा, संस्कृति और साहित्य, प्रत्येक क्षेत्र में ‘छिन्नमूल’ नवशिक्षित बुद्धिजीवियों के हाथ में आ गयी है और वे जन्मतः भारतीय होते हुए भी मानसिक बौद्धिक रूप से ‘आउटसाइडर’ हैं । इसी से चालू हवा के खिलाफ़ जाकर मैं भारतवर्ष से घनिष्ठ रूप से जुड़ा हूँ ।”21
श्री राय अपने जीवनानुभव से इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि आधुनिक शिक्षा प्रणाली हमारे आन्तरिक जीवन को और अधिक विखण्डित, असहज और जटिल करती है। महानगरीय संस्कृति से जुड़ी अंग्रेजी/अमेरिकन पैटर्न पर आधारित आधुनिक शिक्षा जो आज कथित स्मार्ट सिटी/महानगरों के विशाल मधु-छत्तों जैसे विद्यालयों में पल-बढ़ रही है, ने इस आन्तरिक बिखराव को बढ़ाने में सहायक रही है।22 श्री राय कहते हैं कि ‘गांधीजी और रवीन्द्रनाथ दोनों का मौलिक उद्देश्य था जीवन को बढ़ती हुई यांत्रिक जटिलता, असहजता और अऋजुता से मुक्त करके उसे पुनः सहज, सरल और निर्मल रूप में प्रतिष्ठित करना।’23 श्री राय ललित-भंगिमा के साथ लिखते हैं-“गांधीजी और रवीन्द्रनाथ दोनों ‘दो’ होते हुए भी एक ही तरह का जीवन ‘आश्रम जीवन’ जिये और जीने का उपदेश दे गये। ... दोनों ने न केवल विश्वविद्यालय-मुक्त शिक्षा की कल्पना की अपितु ‘श्री निकेतन’ और ‘बुनियादी तालीम तथा राष्ट्रभाषा प्रचार समिति’ जैसे प्रयोग भी किए।24 दोनों के प्रति अपनी गहरी निष्ठा प्रदर्शित करते हुए वे रवीन्द्र को ‘महाकवि’ और गांधी को ‘महामनुष्य’ की संज्ञा से नवाजते हैं । श्री राय को “नेताओं में गांधीजी, किताबों में रामचरितमानस, वनस्पतियों में हरी-हरी दूब, पशुओं में गाय, रसों में करुण रस,’ इसलिए पसंद हैं कि ये सब ‘एक ही किस्म के भाव-संकुल या बोध प्रदान करते हैं।... इन सबमें शांति है, निष्कपटता है, विनय है और सेवा धर्म है, साथ-ही-साथ महिमा और त्याग भी है।’25 इसी भाव-संकुल को वे राष्ट्रीय शिक्षा के पाठ्यक्रम में अंतर्भुक्त होते हुए देखना चाहते हैं। दरअसल इस भाव-संकुल से हीन वर्तमान शिक्षा प्रणाली हमारे आन्तरिक जीवन को असहज, विखंडित और जटिल बनाती है । आधुनिक शिक्षा जिसे श्री राय ‘आत्मिक ट्रेजडी की जननी’ कहते हैं, वह ऊपर से हमारे जीवन को बहुरूपी, बहुवर्णी और सम्मानपूर्ण जरूर करती है पर हमारे भीतर-भीतर बहुत कुछ जो सहज कोमल और शुचि है, उसे बिगाड़ देती है ।26 फलस्वरूप परिश्रम, सादगी, सच्चाई हमें मूर्खता के पर्याय लगने लगे हैं। अब जीवन कर्म नहीं, कर्म का स्वांग बन कर रह गया है। तो फिर इससे मुक्ति का रास्ता क्या है? श्री राय के शब्दों में रास्ता है जीवन में 'कर्मसु कौशलम्' (Efficiency) और संस्कार-साधना/ शील (Culture) की प्रतिष्ठा। यही शिक्षा के मौलिक उद्देश्य हैं। अफलातून और अरस्तू से लेकर गांधी-रवीन्द्र-अरविंद तक सबने इसको स्वीकार किया है। शब्दावली भले ही भिन्न हो। 'कर्मसु कौशलम्'/योग्यता (Efficiency) में छात्र को 3r’s (reading, writing, reckoning) अर्थात् पढ़ना-लिखना और अंक विद्या में पारंगत होने से लेकर मानविकी और विज्ञान के विविध विषयों का सम्यक् ज्ञान कराया जाता है । संस्कार-साधना/ शील (Culture) में ऊपर के 3r’s के बाद चौथा R (the biggest R, Capital R) बच जाता है। यह चौथा R है (Religion) धर्म।27 धर्म शब्द को लेकर श्री राय सावधान हैं। इसलिए उसकी सही व्याख्या प्रस्तुत करते हुए कहते हैं-“यह पुराना शब्द है और पुरोहित तंत्र से जुड़ कर आज अपना आकर्षण खो चुका है। परन्तु है यह एक मूलभूत तत्त्व। इसी को संस्कार, शील, चरित्र, आचरण या वृहत्तर अर्थ में 'संस्कृति' भी कहते हैं। हमारा तात्पर्य इसी वृहत्तर अर्थ से है, संप्रदायवादी अर्थ से नहीं। व्यवहार में धर्म, शील और संस्कृति-तीनों शब्दों का अर्थ एक ही होता है। ये हमारे चाल-चलन, अभिरुचि, और चिन्तन में एक दिव्यता भर देते हैं। इस दिव्यता के लिए प्रशिक्षण और संस्कार देना ही संस्कार-साधना/ शील (Culture) का उद्देश्य है।”28
मद्रास के गवर्नर ट्रेवलिन ने 1838 में प्रकाशित अपनी पुस्तक 'आन एजुकेशन ऑफ पीपल इन इण्डिया’ में स्पष्ट तौर पर कहा था कि अंग्रेजी शिक्षा देकर हम अपना एक बहुत बड़ा सहायक वर्ग तैयार कर रहे हैं-"भारतीय हमारे विरुद्ध कभी भी क्रांति नहीं करेंगे... क्योंकि शिक्षित भारतीय समाज, यह सोचकर कि हमारी शिक्षा प्रणाली पर आधारित भारतीय समाज की उन्नति हमारे संरक्षण के बिना संभव नहीं, सदैव हमसे चिपका रहेगा।"29 श्री राय इससे बखूबी परिचित हैं । इसीलिए वे कहते हैं कि ‘आज़ादी आसमान से गिरी और इसी नये वर्ग ने बीच में उसे पकड़ लिया। आज़ादी के बाद हमारी सारी नीतियाँ, सारी परिकल्पनाएँ इसी नए वर्ग (New Class) के द्वारा संचालित हुईं। आज इसी वर्ग के हाथ में भारतीय प्रेस' है, Mass-Media के सारे साधन हैं। अतः यह अपने वर्ग-स्वार्थ (Vested Interest) को ही बार-बार दुहरा कर उसे राष्ट्रीय स्वार्थ (National Interest) का रूप दे देता है।’30 भकुआई जनता इसे सही माने बैठी है। 1986 में ज़ोर-शोर से प्रचारित -प्रसारित ‘नयी शिक्षा नीति’ को श्री राय ‘मैकाले द्वारा स्थापित मानसिकता का नया संस्करण’ और ‘एक नयी वर्ण-व्यवस्था की स्थापना के प्रयास’ के रूप में देखते हैं । वे एकदम सही लक्ष्य करते हैं कि यह शिक्षा नीति भारतीय भाषाओं और शिक्षा के माध्यम के सम्बन्ध में बिलकुल मौन है।31 श्री राय के लिए भाषा सरस्वती रूपा है। इसके साथ दुर्व्यवहार जातीय संस्कारों को विकृत करना है। इस बात से कौन इनकार कर सकता है कि ‘नारी के बाद भाषा ही एक ऐसी चीज़ है जिसे 20-21वीं शताब्दी में सर्वाधिक दुर्गति का शिकार बनाया गया है।’32 यह कटु सत्य है कि ‘साहित्य में और साधारण बोलचाल में भी नैतिक दृष्टि से भाषा दिन पर दिन या तो अश्लील होती जा रही है अथवा लट्ठमार, और खूबी तो यह कि ये दोनों बातें आधुनिक बुद्धिवाद के नाम पर या आधुनिक राजनीति के नाम पर वाहवाही पा रही हैं। कहीं पर Modernism के नाम पर कहीं पर यथार्थवाद के नाम पर तो कहीं पर प्रतिबद्धता (Commitment) के नाम पर अश्लीलता ही नया नारा है। परन्तु है यह एक प्रकार की मानसिक विकृति का लक्षण। व्याकरण की दृष्टि से दिन पर दिन गलत भाषा लिखने-बोलने का रिवाज बढ़ता जा रहा है भारत में भी और भारत से बाहर भी।’33 यह एक गंभीर चिंता की बात है। श्री राय इस बात से दुखी हैं। वे मानते हैं कि ‘शुद्ध और शालीन भाषा का प्रभाव आसपास के वातावरण और बोलने-सुनने वाले के चाल-चलन पर पड़ता है। अतः हमारा कर्तव्य है कि हम अपने छात्रों में भाषा के प्रति एक पवित्रता का भाव जगायें।’34 इसी के साथ-साथ वे लोक मानस के वैज्ञानिक संस्कार के लिए हिन्दी या भारतीय भाषाओं को विज्ञान और तकनीकी शिक्षा का माध्यम बनाने पर भी ज़ोर देते हैं । बिना इसके भारत जो ‘भविष्य के साथ-साथ अतीत का भी नेता [रहा] है’35 विश्व राष्ट्रों के बीच अपना उचित स्थान बना पाने में असफल ही रहेगा और ‘इसके लिए जिम्मेवार हैं [होंगे] अंग्रेजीपरस्त दिल्ली वासी, भूरे अफसर, निकम्मे शिक्षक,शिखंडी साहित्यकार,शुतुरमुर्ग वैज्ञानिक और गाय-बैल जैसी भारतीय जनता।’36 सौभाग्य से वर्तमान राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में भारतीय भाषा/मातृभाषा/शिक्षा माध्यम पर सूत्र रूप में ही सही चर्चा तो जरूर हुई है । हालांकि परिणाम तो अभी दूर ही है।
शिक्षाविदों ने प्राय: शिक्षा के तीन स्तर गिनाएं हैं : प्राथमिक,माध्यमिक और उच्च शिक्षा । श्री राय इससे सहमत होते हुए माध्यमिक शिक्षा को सर्वाधिक मान दिया है। इसके पीछे का कारण यह है कि छात्र के नागरिक बनने की मानसिक प्रक्रिया माध्यमिक स्तर से ही शुरू होती है। हर एक छात्र अपनी निजी विशेषता और निजी सामाजिक पृष्ठभूमि के साथ आता है। इसलिए कॅरियर/नौकरी के साथ-साथ उसके अंदर सर्वांग सामाजिक दायित्व के बोध-बीज का कर्षण माध्यमिक शिक्षा के स्तर पर ही करना होगा जब मन और बुद्धि की ज़मीन अभी नरम रहती है। राष्ट्रीयता के स्वरूप को विकृति से बचाने के लिए इस स्तर पर ही मजबूती से काम करना होगा। माध्यमिक शिक्षा ‘प्रत्येक छात्र को उसकी किशोरावस्था में 'उपनयन' देता है। उपनयन अर्थात् अतिरिक्त नयन, बुद्धि और संस्कार के नयन।’37 रवीन्द्रनाथ ने अपनी कविता में जिस हिंदुस्तान के 'ज्ञान जेथा मुक्त उच्च जेथा शिर' जहाँ ज्ञान मुक्त हो और जहाँ ऊँचा सिर उठा हुआ हो (Where heed is held high where Knowledge is free)- की चर्चा की है उसका असल द्वार शिक्षा के इसी स्तर पर खुलता है।
श्री राय मानते हैं कि ‘शिक्षा का उद्देश्य है व्यक्ति के अन्दर अन्तर्निहित मनुष्यत्व को विकसित करना और पूर्णांग बनाना, व्यक्ति की बीज रूप प्रतिभा को प्रस्फुटित करके उसे पुनर्जन्म देना, द्विजत्व देना’। गांधी और कुमारस्वामी के साथ-साथ प्रसिद्ध कला-समालोचक और शिक्षाविद् Herbert Read भी इसी बात पर ज़ोर देते हैं - The true aim of Education is to reconcile the individual uniqueness with the Social unity." शिक्षा का असली उद्देश्य है व्यक्ति की अन्तर्निहित अद्वितीयता अर्थात् विशिष्टता को सामाजिक पूर्णांगता के साथ जोड़ना’। किसी भी ‘स्वस्थ और पूर्ण समाज में ... किसान, बढ़ई, लोहार, चमार से लेकर कारीगर, क्लर्क, व्यापारी, डॉक्टर, इंजीनियर, कवि, लेखक, पत्रकार तक की आवश्यकता होती है। इन हज़ार-हज़ार सिरों के मिलने से एक शेषनाग बनता है जिसे समाज कहते हैं- 'सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात' समाज। इसके सारे सिरों की सही-सही संरचना के लिए एक आधारभूत प्रशिक्षण चाहिए। उस प्रशिक्षण को पाने के बाद ही वे सिर अपनी अलग-अलग आकृति को सही-सही बना पायेंगे।’38 आनंद कुमारस्वामी ने ‘कला और स्वदेशी’ सहित अन्य रचनाओं में इस पर विशद प्रकाश डाला है और हिंदुस्तान की अवनति में कला और शिल्प की अवनति को विशेष रूप से रेखांकित किया है। पर दुर्भाग्य से आधुनिक हिंदुस्तान में इस पर गंभीरता से कभी सोचा ही नहीं गया। अपने एक निबंध में वे भारतीय समाज के कड़वे यथार्थ का मार्मिक विवेचना करते हुए लिखते हैं-“देखा है न, अपने ही गाँव के दक्षिण सीमान्त में बाँस के वनों में बसी हुई डोमबस्ती को देखा है, दूर से ही सही। ... उसी बस्ती की लड़की महुआ ... जो तुम्हें सुन्दर बाँसशिल्प के नमूने दिखा जाती है। बाँस के बने हुए बैग, अलंकृत टोकरे और दरवाजे के पर्दे। ... इस कुशल बाँसशिल्पी कन्या को क्या अवसर मिला? यदि यही श्री निकेतन या जापान में प्रशिक्षण के लिए भेजी जाती तो क्या नहीं कर सकती थी?”39 ज्ञात-अज्ञात कारणों से आधुनिक शिक्षा का न तो मनुष्यत्व से कोई सरोकार बना न ही 'शील' या चरित्र से कोई सम्बन्ध । अंतत: श्री राय इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि ‘इस शिक्षा का 'भलमनसाहत' से कोई ताल्लुक नहीं।’40 इस बात से कौन इनकार कर सकता है स्वस्थ समाज के निर्माण की पहली और आखिरी सीधी है ‘भलमनसाहत’ । गांधी जीवन भर इसी की वकालत करते रहे। भले ही उनकी शब्दावली भिन्न हो।
हिन्द स्वराज में गांधी ने एक बड़ी मार्के की बात कही है कि ‘हिन्दुस्तान को असली रास्ते पर लाने के लिए हमें ही असली रास्ते पर आना होगा, बाकी करोड़ों लोग तो असली रास्ते पर ही हैं।’41 श्री राय भी इस बात की ताईद करते हैं कि ‘अशिक्षितों में 'भलेमानुस' मिल सकते हैं, परन्तु इन Careerist शिक्षितों के अन्दर नहीं।’42 स्पष्ट है कि आधुनिक शिक्षा/सभ्यता की आंच जहां तक नहीं पहुंची है वहाँ तक हिंदुस्तान में भलमनसाहत बची हुई है अपनी अनेक विकृतियों के साथ। गांधी मानते हैं कि ‘उसमें सुधार-बिगाड़, उन्नति अवनति समय के अनुसार होते ही रहेंगे। पश्चिम की सभ्यता को निकाल बाहर करने की ही हमें कोशिश करनी चाहिये। दूसरा सब अपने आप ठीक हो जायगा।’43 कुमारस्वामी भी अंग्रेजों को चेताते हैं कि “इंग्लैंड अब भारतीय शिक्षा के हित में केवल एक ही सच्ची सेवा कर सकता है, शिक्षा बजट और शिक्षा का संपूर्ण नियंत्रण भारतीय हाथों में सौंपकर।’44 लेकिन यह केवल मुंह जुबानी जमा खर्च से नहीं होने वाला है। विगत दो सदी से छंद हीन ‘राष्ट्रीय-जीवन की पुनर्रचना में राष्ट्रीय शिक्षा के क्षेत्र में वर्षों के धैर्य और श्रम की आवश्यकता होगी।’ यह दायित्व कितनी बड़ी यंत्रणा है इसे शिक्षा जगत से जुड़े बंधु समझ सकते हैं।45 श्री राय शिक्षा जगत से जुड़े हुए थे इसलिए इसके मर्म को ठीक से समझते थे तभी तो कहते हैं-“गृह विज्ञान की प्रयोगशाला सुसज्जित रखकर क्या होगा जब गृह ही असुन्दर, विसंगत, उदास और छन्दविहीन रह गया।”46 श्री राय की इच्छा है कि भारत रूपी गृह लय-छंद युक्त ‘शान्तम्, सरलम्, सुन्दरम्’ देश बने। कहने की जरूरत नहीं है कि इन ‘भोर के तारों’ के विचार-सूत्रों को पाठ्यक्रमों में उचित स्थान देने की जरूरत तो है ही उससे भी अधिक जरूरी होगा आचरण में उतारने की ।
1- कुबेरनाथ राय, मराल, पृ. 158
2- वही
3- कुबेरनाथ राय, रस आखेटक, पृ 55
4- वही, पृ. 195
5- कुबेरनाथ राय, दृष्टि अभिसार, पृ. 158
6- कुबेरनाथ राय, मराल, पृ. 158
7- कुबेरनाथ राय, कामधेनु, भूमिका, पृ. VII
8- कुबेरनाथ राय संकलित निबंध (सं. मनोज कुमार राय), पृ बारह
9- कुबेरनाथ राय, वाणी का क्षीर सागर, पृ. 36
10- हिन्द-स्वराज, पृ. 93
11- आनंद कुमारस्वामी, एसेज इन नेशनल आइडियलिज़्म, पृ 97
12- वही
13- कुबेरनाथ राय, गहि न जाई अस अद्भुत बानी, पृ 295
14- हिन्द-स्वराज, पृ. 53
15- कुबेरनाथ राय, सोमरस, गाजीपुर विशेषांक अंक 38 वर्ष 1989-90, पृ 194
16- वही
17- वही
18- वही, पृ. 194-95
19- कुबेरनाथ राय, गहि न जाई अस अद्भुत बानी, पृ 295
20- आनंद कुमारस्वामी, एसेज इन नेशनल आइडियलिज़्म, 113
21- कुबेरनाथ राय, मराल, पृ. 162
22- पत्र मणिपुतुल के नाम, पृ. 62-63
23- वही
24- वही
25- कामधेनु, कुबेरनाथ राय, पृ. 16
26- कुबेरनाथ राय, पत्र मणिपुतुल के नाम, पृ. 26
27- कुबेरनाथ राय, सोमरस, गाजीपुर विशेषांक अंक 38, वर्ष 1989-90, पृ 196
28- वही
29- ट्रेवलिन, 'आन एजूकेशन ऑफ पीपुल इन इण्डिया', सन 1838; पृष्ठ 189)
30- कुबेरनाथ राय, सोमरस, गाजीपुर विशेषांक अंक 38, वर्ष 1989-90, 195
31- वही
32- वही, पृ. 199
33- वही
34- वही
35- आनंद कुमारस्वामी, एसेज इन नेशनल आइडियलिज़्म, पृ. 109
36- कुबेरनाथ राय, धर्मयुग, 10 अक्तूबर 1965
37- कुबेरनाथ राय, सोमरस, गाजीपुर विशेषांक अंक 38, वर्ष 1989-90, 198
38- कुबेरनाथ राय, सोमरस, गाजीपुर विशेषांक अंक 38, वर्ष 1989-90, 198
39- कुबेरनाथ राय, पत्र मणिपुतुल के नाम, पू. 13
40- कुबेरनाथ राय, सोमरस, गाजीपुर विशेषांक अंक 38, वर्ष 1989-90, पृ 194
41- हिन्द स्वराज, पृ.93
42- कुबेरनाथ राय, सोमरस, गाजीपुर विशेषांक अंक 38, वर्ष 1989-90, पृ-194
43- हिन्द स्वराज पृ 93
44- आनंद कुमारस्वामी, एसेज इन नेशनल आइडियलिज्म, पृ.97
45- हिन्द स्वराज, पृ 93
46- कुबेरनाथ राय,मराल, पृ. 158
* एसोसिएट प्रोफेसर ,गांधी एवं शांति अध्ययन विभाग,महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय ,वर्धा,महाराष्ट्र
Email-manojkumarrai@hindivishwa.ac.in ,मो-9404822608
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