Saturday, April 19, 2025

प्रगतिशील ‘इंतजाम’ और ‘ग्वाले का तबेला’ : एक आत्मचिंतन *चिन्मय-भारत* कुछ दिन पहले हमारे एक सहकर्मी ने किसी संदर्भ में ‘तद्भव’ पत्रिका (अंक-49) में प्रकाशित सिद्धार्थ सिंह के काशी-संस्मरण की चर्चा की थी । वे बनारस से पढ़े हैं और अपने को ‘काशी-शिष्य’ कहते हुए अपना सीना 56 तक ले जाने की कोशिश भी करते हैं। मैंने भी बचपन में ढेरों नाटक,कहानी,उपन्यास और संस्मरण आदि पढ़े हैं । पर समय के साथ अदृश्य कारणों से कथा-साहित्य में रुचि घटती गई। इस प्रकार हिन्दी साहित्य से बादरायण संबंध ही बन पाया। लेकिन जब कभी कोई बढ़िया सामग्री कहीं से भी उपलब्ध करा देता है तो आज भी पढ़ने से गुरेज नहीं है । सहकर्मी ने गुरु-पुत्र द्वारा अपने पिता पर लिखा संस्मरण-‘ले दे के अपने पास फकत इक नजर तो है’ को पढ़ने को कहा और ‘तद्भव’ का वह अंक मुझे थमा गए। पत्रिका को मैंने झोले में रखा और घर चला आया। दूसरे दिन चाय पर चर्चा के दौरान एक और पत्रिका–‘इंडिया टुडे साहित्य वार्षिकी-2022’-एक दूसरे मित्र ने पकड़ा दी । संयोग देखिये कि इस अंक में भी सिद्धार्थ सिंह के नायक द्वय-‘नामवर-काशी’ पर अशोक वाजपेयी का एक संस्मरण (इंडिया टुडे साहित्य वार्षिकी-2022, पृ.58) और व्योमकेश शुक्ल और चंद्राली के साथ एक बातचीत ((इंडिया टुडे साहित्य वार्षिकी-2022, पृ.116) प्रकाशित है । हिंदी साहित्य के सगे ‘हीरा-मोती’ एक ही साथ मेरे समक्ष । तीव्र-क्षिप्र गति से दोनों लेखों/संस्मरणों को उलटने-पुलटने लगा। जब मैं इन लेखों/संस्मरणों को उलट/पुलट रहा था तो मेरे सामने हिन्दी साहित्य के एक भारी-भरकम आचार्य ‘लेटे हुए हनुमान आसन’ में थे। यह दृश्य लगभग प्रतिदिन का है। जब कभी कोई अर्थ-संदर्भ मुझे समझ में नहीं आता है तो उनसे पूछ लेता हूँ और वे शंका का मुंहजबानी या कोश के माध्यम से समाधान कर देते हैं। यह सिलसिला पिछले डेढ़ दशक से चलता आ रहा है बिना भाषाई मर्यादा को तोड़े। तद्भव के संस्मरण-लेख ‘ले दे के अपने पास फकत इक नजर तो है’ के ‘ग्वाले का तबेला’ पैरा पर जाकर मेरी नजर टिक गई और मैंने उसे ज़ोर से पढ़ते हुए सामने सोफ़े पर लेटे हुए हिन्दी साहित्य के आचार्य को सुनाया। उनकी स्मृति आज भी बहुत शानदार है। स्मृति के सहारे तलाश हुई उस आचार्य की जिसके घर को संस्मरण में ‘ग्वाले का तबेला... ’ संज्ञा से नवाजा गया है। थोड़ी मेहनत के बाद हम-दोनों फ्लैश-बैक के सहारे उस प्रोफेसर के घर पहुँच ही गए जहां उन्होंने तीन दशक पहले अपना ‘ग्वाले का तबेला...’ बसाया था- केंद्रीय विद्यालय, बीएचयू से सटे ‘तुलसीदास कालोनी,क्वार्टर नं -20’ । अब तो उस कालोनी का ढांचा ही बदल गया है। ‘ग्वाले का तबेला...’ से सदा की मुक्ति के लिए मैदान में मल्टी स्टोरी बना दी गई है। आजू-बाजू के सड़कों पर कई दशकों से सीना तानकर खड़े सागौन के वृक्षों को बीएचयू के कुलपति सुधीर जैन के आदेश से काट दिया गया है। कुलपति के इस कृत्य पर किसी विद्वान के मुंह से कोई आवाज आई हो,ऐसा सुनने में भी नहीं आया। अश्वथ-वृक्ष तले ज्ञान प्राप्त करने वाले सनातन/हिन्दू धर्म के ‘रेडिकल ब्वाय’ भगवान बुद्ध के नाम पर संचालित विभाग के किसी आचार्य ने कभी कोई आलेख आदि लिखा हो तो नहीं कह सकता। वर्ष तो मुझे याद नहीं है। शायद 1984-86 के आसपास का समय रहा होगा। तब भाभा हॉस्टल के नजदीक बने वार्डेन फ्लैट में ही डॉ काशीनाथ सिंह रहते थे। मुझे किसी का घर पूछने के लिए उनके घर का दरवाजा खटखटाना पड़ा था। दरवाजा तो नहीं खुला,पर अंदर से एक बच्चे की आवाज सुनाई दी जो अपनी माँ के यह पूछने पर कि कौन है, का जबाव यह कहकर दे रहा था कि कोई पागल (या बेवकूफ जैसा कोई शब्द रहा होगा) था। आधा दर्जन भाई-बहनों में से ही कोई रहा होगा। उसके बाद फिर उनके ‘किसी घर’ में जाना नहीं हुआ । जरूरत भी नहीं थी। बिरला छात्रावास में हिन्दी के शोधार्थियों से प्राप्त विभागीय सूचना ही पर्याप्त थी। वैसे भी ‘आचार्यों’ के बारे में कोई नई जानकारी होती भी नहीं थी। लगभग सभी एक ही जैसे होते थे। शेड्स का अंतर जरूर होता था/है । सिद्धार्थ सिंह पालि/बौद्ध साहित्य के विद्वान हैं। बौद्ध साहित्य में ‘सम्यक दृष्टि’ की बात की गई है। संस्मरण-लेखक की सम्यक दृष्टि की एक बानगी देखने लायक है। वे लिखते हैं -“दूसरे थे बी. एच. यू के हिंदी विभाग के एक प्रोफेसर। सुना था कि विद्वान थे और अच्छे अध्यापक भी । उनका घर देखिए तो प्रोफेसर का घर कम, ग्वाले का तबेला ज्यादा लगता था, गाय, भैंस, सानी भूसा तथा गोबर से परिपूर्ण।” (तद्भव,अंक 49,पृ.203) संस्मरण-लेखक जब इतने ‘बल/ज़ोर’ देकर लिख/कह रहे हैं तो जाहिर है कि वे उनके घर अवश्य ही गए होंगे। पता नहीं संस्मरण-लेखक को याद है या नहीं कि उस दौर में अनेक ऐसे आचार्य थे जो गाय पालते थे।(पालि/बौद्ध विभाग के एक आचार्य हरिशंकर शुक्ल भी गाय रखते थे। जिनका आवास पोस्ट ऑफिस के पास ही था और आजकल संस्मरण लेखक भी उसी के सामने के मल्टी स्टोरी किसी के तल्ले पर रह रहे हैं।) दरअसल उस समय के आचार्य गण गाँव-घर की पहली पीढ़ी से थे जो शहरों में पढ़ने और नौकरी/चाकरी करने आए थे। कृषि-संस्कार में दीक्षित होने के कारण दूध-दही का शौक तो था ही गोपालन उनके लिए पुण्य का भी कार्य था। कुबेरनाथ राय का मानना है कि ‘भारतीयों की गौ-उपासना सूर्योपासना की तरह उनकी प्राग्-भारतीय आनुवंशिकता या उत्तराधिकार का अंग है और यह उन दिनों की स्मृति वहन करती है’ जब आर्य कवि, धनुर्धर और घुमक्कड़ थे। कृषि-क्रान्ति में गाय के अपूर्व योगदान से हम सब परिचित हैं । राजा दिलीप से लेकर गांधी और ‘उस’ हिन्दी के प्रोफेसर तक यह परंपरा चलती रही है। यहाँ मैं एक भारतीय मनीषी के कथन को उद्धृत करना चाहूँगा जिसके बारे में डॉ नामवर की टिप्पणी मानीखेज है- ‘ज्ञानपीठ उसे छाप रहा है, धर्मयुग प्रसारित कर रहा है और सबसे बड़े निबंधकार ... हो गये हैं। (हमारा समय संवाद,आडियो ,इन्दिरा गांधी मानव संग्रहालय, भोपाल) वे लिखते हैं-“नेताओं में गांधीजी, किताबों में रामचरितमानस, वनस्पतियों में हरी-हरी दूब, पशुओं में गाय, रसों में करुण रस, ये सब मुझे एक ही किस्म के भाव-संकुल या बोध प्रदान करते हैं। इन सबमें शांति है, निष्कपटता है, विनय और सेवा धर्म है, साथ-ही-साथ महिमा और त्याग भी है।” (कुनारा,कामधेनु, पृ.6) ध्यान दीजिये कि ‘इन सबमें’ वह सब कुछ (शांति, निष्कपटता, विनय,सेवा धर्म,महिमा और त्याग) है जो एक स्वस्थ समाज के निर्माण के लिए आवश्यक है। लेकिन सिद्धार्थ सिंह की टिप्पणी/भाषा से तो ‘गोपालन’ हिकारत भरा कार्य जैसा लगता है। अब तो सिद्धार्थ सिंह स्वयं बीएचयू में अध्यापक हैं और मल्टी स्टोरी के किसी तल्ले पर रहते भी हैं। वहाँ गोपालन की सुविधा अवश्य नहीं होगी, लेकिन जो गोपालन करे उसके घर को ‘गाय, भैंस, सानी भूसा तथा गोबर से परिपूर्ण’ कहना तो कहीं से भी बौद्धिक/सांस्कृतिक ईमानदारी नहीं है। जिस ‘उस प्रोफेसर’ की सिद्धार्थ सिंह अपने पिता-संस्मरण में चर्चा कर रहे हैं, उनके घर के पीछे गाय बंधी रहती थी । हाँ कभी कोई आधुनिक दिलीप गाय देखने को कहता होगा तो अवश्य ही पीछे ले जाते होंगे। पर उसे तबेला कहना तो न केवल जातीय अहंकार है अपितु संस्कृति की अवहेलना का परिचायक है। ऋग्वेद में यहाँ तक कहा गया है कि ‘जहां गायें है वहीं विष्णु का परम-पद है’। हम सब चरणामृत/पंचामृत पीकर ही बड़े हुए हैं और इसे बनाने में प्रयुक्त होने वाले पांच द्रव्यों में से तीन द्रव्य -‘दूध-दही और घृत’-तो गाय से ही प्राप्त होते हैं। । कितनी मजेदार बात है कि घर में घुसकर उसके ‘तबेला’ के रूप को पहचान लिया पर गुण के बारे में ‘सुना था कि विद्वान थे और अच्छे अध्यापक भी ।’ जो चीज जानने लायक थी उसे नहीं जान पाये पर जो नहीं देखना था उसे देख लिए। आचार्य बुद्ध ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि कोई अध्येता उनकी ‘सम्यक दृष्टि’ के साथ ऐसा न्याय करेगा। कुबेरनाथ राय ने सच ही लिखा है-“व्यक्ति हो, पुस्तक हो अथवा कोई जनसमूह हो, उसे समझने के लिए प्रथम उसकी परंपरा और तत्कालीन परिपार्श्व को समझना होता है, तब उसके मर्म में उतरकर उसकी सार्थकता या निरर्थकता का उद्घाटन किया जाता है।” संस्मरण-लेखक को पढ़ते किसी का कथन याद आ रहा है- कैसे कैसे ऐसे वैसे हो गए ऐसे वैसे कैसे कैसे हो गए। हम सबने अपने बचपन में गाय पर निबंध अवश्य ही लिखा है । मेरा मानना है कि जिन लोगों ने गाय पर निबंध नहीं लिखा होगा वह शर्तिया ही भैंस,बकरी या ‘मदर-फादर’ डेयरी का दूध पीकर बड़े हुए होंगे । यह बात मैं इसलिए कह रहा हूँ कि भारतीय परंपरा और संस्कृति से परिचित अथवा आस्थावान व्यक्ति इस तरह की टिप्पणी कत्तई नहीं कर सकता है। मालवीय जी भी गोपालन पर ज़ोर देते थे। हम सब उनकी गाय के साथ फोटो और कविता-‘दूध पियो कसरत करो... ’ से परिचित हैं । कुबेरनाथ जी लिखते हैं-“दुनिया में बड़े-बड़े मंदिर-मस्जिद उठा देने वाले धनी-मानी पड़े हैं। परंतु स्वयं में मंदिर बन जाने की क्षमता उन्हीं में होती है जो गाय जैसे हैं। गांधीजी एक ऐसे पुरुष थे जिनकी अनेक अंतर्निहित क्षमताओं का प्रतीक गाय हो सकती है। इसी से गांधी जी स्वयं एक मंदिर बन गये,उनके जीवन का प्रत्येक क्षण एक दिव्य अस्तित्व बन गया ।” (कामधेनु,पृ. 6)अपनी परंपरा में तो यह भी मान्यता है कि घर पर आने वाली विपत्ति को सबसे पहले गाय ही अपने ऊपर ओढ़ लेती है। मेरा वैज्ञानिक मन भी इसे अस्वीकार कर पाने में असमर्थ है। दरअसल यह हम सबका अपना दोष है। हम सब हैं असली वाले शुतुरमुर्ग जो अपनी गर्दन बालू में घुसाकर सोचता है कि उसे कोई देख नहीं रहा है। लेकिन सच तो कुछ और ही होता है। संस्मरण एक अच्छी विधा है। लेकिन तब जब उसमें ईमानदारी हो। गलती से ही मनुष्य सीखता है। पर अपने को आदर्श रूप में दिखाना किसी भी संस्मरण के लिए आत्मघाती होता है। खासतौर से सोशल मीडिया के युग में जब सब कुछ अनावृत्त है । इसलिए लिखते समय सावधान रहना चाहिये। इस बात से तो हम सब वाकिफ ही हैं कि डॉ नामवर प्रतिभाशाली होने के बावजूद वाचिक परंपरा में ही भरोसा करते रहे। बक़ौल अशोक वाजपेयी-‘वे एक वर्ष में पाँच-सात अवसर [को] ऐतिहासिक बता देते थे।’(इंडिया टुडे साहित्य वार्षिकी-2022,पृ 65 ) जब ऐसी स्थिति हो तो डॉ नामवर के इस कथन से कि -‘बोलने से जबान नहीं कटती लेकिन लिखने से हाथ कटता है,’ (तद्भव, अंक 43,पृ 214 ) जैसे बावन तोले पाव रत्ती सही बात को कौन अस्वीकार करेगा ! सूचना-विस्फोट के युग में किसके पास इतना समय है कि वह तथ्यों की जांच करे। ताली बजी और जनता फिर किसी दूसरे कार्यक्रम की ओर बढ़ गई। श्री अशोक वाजपेयी ने एक साहित्यकार के बारे में डॉ नामवर का एक कथन उद्धृत किया है-"गद्य का पतन जिनके कारण हुआ है वे इतने गंभीर आदमी हैं। अज्ञेय चिड़ियाघर के किसी चिम्पांजी के समान गंभीर व मनहूस दिखायी देते हैं। अज्ञेय,निर्मल,रमेशचंद्र शाह जिन्हें सही गद्य तो लिखना आता नहीं पर भारी चिंतन की बात करते हैं।” (इंडिया टुडे साहित्य वार्षिकी-2022,पृ 62) जब साहित्य जगत के एक खास दौर के शीर्षस्थ सिंह का यह विचार हो (हालांकि अवसर पाकर बदल जाने की कला में माहिर शीर्षस्थ सिंह बहुत बाद में बदल भी गए जिसके कारणों से हिंदी जगत भलीभाँति परिचित है ) तो ‘कलमी आम’ में भी यदि वैसा ही कुछ – ‘ग्वाले का तबेला’- दिखे तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। संस्मरण-लेखक के सम्यक दृष्टि-वाक्य -“हिंदी विभाग के एक प्रोफेसर । ... साहित्य से ज्यादा दूध, दही, राबड़ी और दंड-बैठक के महत्व पर चर्चा करना उनको प्रिय था,” (तद्भव अंक-49, पृ. 203) पर तो मुझे भी एक शेर याद आ रहा है-‘इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ ख़ुदा’। मुकेश-स्वर में एक गाना है जिसका बदला रूप कुछ इस प्रकार का है -‘जो हमको है पसंद वही बात करेंगे’। तो संस्मरण-लेखक को जो पसंद है वैसी ही बात करेंगे,लिखेंगे और तर्क रखेंगे। ममता कालिया की कुछ चटपटी बातें ‘वृत्तांत’ के रूप में ‘तद्भव’ (अंक-40) में छपा है। वह भी ‘जिन’ की शौकीन हैं। ऐसा उनके लेखन से लगता है। (नहीं होंगी तो और अच्छी बात) खैर ! उन्होंने लिखा है किसी समय उनके प्रयाग आवास पर हिन्दी साहित्य के सगे ‘दो भाई’ पहुंचे। ‘दिन ढल जाये हाय शाम न जाये’ वाली स्थिति बन रही थी। काशीनाथ सिंह बड़े भोले मन से मेजबान से पूछते हैं-‘कालिया कुछ इंतजाम रखे हो कि नहीं’। (तद्भव अंक-40, पृ. 189) ‘इंतजाम’ तो था ही। ‘ग्वाले का तबेला’ रूपी पवित्र रसाल पर उगी वंध्या मंजरी ‘इंतजाम’ के बिना भारतीय प्रगतिशील कैसे रह सकते हैं । सगे भाइयों ने मेजबान कालिया दंपति के साथ ‘इंतजाम’ को अनुशासित ढंग से तहस-नहस किया । इंतजाम-ध्वंस के बाद की शाश्वत दशा-दिशा को समझने के लिए टॉलस्टाय की कहानी पढ़नी होगी जिसमें उन्होने बताया है कि ‘इंतजाम’ के फलस्वरूप व्यक्ति के खून में सोई लोमड़ी, भेड़िया और वाराह बारी-बारी कैसे प्रकट होते हैं। गांधीजी कहते थे कि ‘संचय नहीं अपरिग्रह करो; क्योंकि संचय में ही मद है। जो जरूरत से ज्यादा लेता है, वह संचित करता है। संचित तत्त्व सड़कर मद का खमीर उठाता है, लोभ का खमीर या अहंकार का खमीर या वासना का खमीर’। (कुबेरनाथ राय,पत्र मणि पुतुल के नाम,पृ. 89-90) तो गांधी से प्रभावित ‘हिंदी विभाग के उस एक प्रोफेसर’ के घर में कभी शुद्ध चावल या गेहूँ आदि को सड़ाकर तैयार होने वाली वस्तु विशेष जिसे प्रगतिशील ‘इंतजाम’ या ‘रस-रंजन’ कहते हैं, रहता ही नहीं था। (किसी ने बताया एक दो बार काशी-शुक ने उनके व्रत को तोड़ने की कोशिश की थी, पर शुद्ध वैष्णव प्रोफेसर ने अपने घर में बाहर से लाये गए ‘इंतजाम’ की भी इजाजत नहीं दी।) उस प्रोफेसर के घर ‘इंतजाम’ के नाम पर वही ‘दूध, दही, राबड़ी’ मिलती थी जिसके दीवाने सिद्धार्थ के शब्दों में ‘नागार्जुन’ जैसे लोग होते थे। हालांकि हिन्दी विभाग से पढ़े लिखे और बाद में किसी कॉलेज से अवकाश प्राप्त एक-दो अध्यापकों ने पूछने पर बताया कि हिंदी विभाग का ‘वह पढ़ाकू प्रोफेसर’ सिंह-द्वय से वायवीय निकटता को असली निकटता मानते हुए उनकी सेवा में ‘तबेले’ से निकले ‘दूध, दही, राबड़ी’ के साथ अतिथि गृह तक दौड़ जाते थे। मुझे लगता है कि इसमें उनकी सदाशयता के साथ-साथ हिन्दी साहित्य जगत में चतुर्दिक फैले अदृश्य भय का भी कुछ योग अवश्य ही रहता होगा। क्योंकि, बक़ौल श्री अशोक वाजपेयी ‘डॉ नामवर जी ... कई संस्थानों में निर्णायक रूप से काबिज या दाखिल हुए ... और उसका उपयोग उन्होंने साहित्य की राजनीति में अपने वर्चस्व को पुष्ट और सशक्त करने के लिए किया।’(इंडिया टुडे साहित्य वार्षिकी-2022, पृ.64) तो नौकरी,तरक्की,पुरस्कार के लिए लोग यथाशक्ति और श्रद्धा अनुसार ‘इंतजाम’ लिए गणेश परिक्रमा करते ही थे- ‘बहुरि बंदि खल गन सति भाएं। जे बिनु काज दाहिनेहु बाएं॥’ ‘दशकों का इंतजामी इश्क’ कैसे ‘तबेले के ग्वाले’ को या ‘एकांत सेवी’ लोगों को अलग-थलग कर सकता है, इसका उदाहरण है अशोक वाजपेयी का यह कथन कि डॉ नामवर ‘साहित्य अकादेमी के वार्षिक पुरस्कारों में गहरी दिलचस्पी लेते थे और उनके वहां रहते मुझे [अशोक वाजपेयी को] छोड़कर किसी गैर प्रगतिशील को शायद पुरस्कार नहीं दिया गया।’(इंडिया टुडे साहित्य वार्षिकी-2022, पृ.65) अशोक वाजपेयी को भी पुरस्कार इसलिए मिला कि उन्होंने पूर्व में डॉ नामवर को आरआरएलएफ़,कोलकाता का अध्यक्ष बनवाया था। होगी प्रतिभा लोगों के पास । लेकिन उनका गिरिधर गोपाल तो प्रगतिशील ‘इंतजाम’ ही था। इस पर बहुत कुछ कहा-सुना गया है। यहाँ दुहराने की कोई जरूरत नहीं है। ‘ग्वाले का तबेला’ वाले प्रोफेसर भी अद्भुत व्यक्तित्व के धनी थे। पुराने छात्रों का कहना है कि पढ़ने/पढ़ाने में उनकी कोई सानी नहीं थी। कुश्ती-कला का प्रेमी वह ‘तबेले वाला प्रोफेसर’ निराला की ‘राम की शक्ति पूजा’ का कायल था। लोग बताते हैं कि यदि कभी-कभार बनारसी गाली उनके जिह्वा पर तबीयत से आ जाती थी तो वे दानवीर भी कम नहीं थे। यदि कभी कोई ‘तीरे-नजर’ या ‘मार कन्याएं’ दिखी भी तो उसे गुडाकेश भाव में ‘माते प्रणाम’ कहकर तीर-वेग से अपने घर की ओर साइकिल मोड़ देते थे। जबकि ‘इंतजामी’ जन तो महा ‘गुहा’ के संगम पर आवेष्टित ‘रोहित मछली’ को फाँसने के लिए कभी ‘वंशी’ फेंकते थे तो कभी अजय-‘व्याल’ के ‘चुन-मुने खरगोशों’ की आशा में देर शाम तक मैदान में दौड़ते-हाँफते रहते थे। उधर ‘ग्वाले का तबेला’ वाला प्रोफेसर जिसने उच्छिष्ट अपावन भोग की धूलि मात्र को भी अपने शरीर में कभी लिपटने नहीं दिया था, जाँघों पर ताल ठोंककर साइकिल पर सवार हो जाता था ; क्योंकि उसे केवल भौतिक रूप में ही नहीं अपितु अपने मानसलोक में भी रँभाती हुई ‘कामधेनु’ का स्वर सुनाई दे जाता था और वह सब कुछ छोड़कर ऋतबद्ध अपने घर पहुंच जाते थे। वहाँ ‘सानी-भूसा’ के लिये कामधेनु अपने गौ-वत्स का इंतजार कर रही होती थी । निजी तौर पर मैंने भी जीवन में कभी गो-पूजा नहीं की है । गाँव पर एक-दो गायें और बैल सदैव दरवाजे की शोभा बढ़ाते रहे हैं। बचपन में तो उनका गोबर भी उठाना पड़ा है। गोबर उठाना मुझे कभी गर्हित कर्म नहीं लगा। कृषक संतान और कृषि-संस्कृति में पला-बढ़ा होने के कारण मैं भी ‘गाय को सर्वदा ही सौम्य और उपकारी जीव मानता हूँ ।’(कामधेनु, पृ.6) संस्कार वश ही सही, मैं भी इसके प्रति की जाने वाली हिंसा चाहे वह वाक हिंसा हो या किसी और प्रकार का, उसका विरोधी हूँ और रहूँगा भी । महाभारत के भीष्म-चरित्र से हम सब परिचित हैं । अन्न और मन के आपसी रिश्ते को अब तो वैज्ञानिक भी मानने लगे हैं। जब हम ग्वाल-बाल रहते हैं या बड़े होकर ‘ग्वाले का तबेला’ का गो-दुग्ध पान करते हैं तो हमारा मन और शरीर दोनों पुष्ट होता है और हम सब संयुक्त परिवार के आग्रही होते हैं । माता-पिता, बहू-बेटा, नाती-पोता आदि सब एक साथ रहते हैं। घर भले ही छोटा हो,दिल बड़ा होता था । इसलिए सब कुछ सहज ही रहता था। जबसे ‘मदर-फादर डेयरी’ या ‘अमूल’ का चलन बढ़ा, परिवार बंटे और ‘तुझे सूरज कहूँ या चंदा’ गाने वाला वृद्ध पिता कुछ ही दूरी पर अकेला रहने के लिए बाध्य हो जाता है। जबकि ‘ग्वाले का तबेला’ वाले राम मड़ैया में आज भी एक साथ रह रहे हैं। न केवल साथ रहते हैं अपितु मूसलाधार वर्षा के समय भी अपनी टूटी मड़ैया में उसका पूरा परिवार समवेत स्वर में गा उठता है: "सावन गरजै, भादों बरसै, पवन चलै पुरवाई। कौन बिरिछ तर भींगत होइ हैं, राम-लखन दोऊ भाई?" आधुनिकता को ‘फैशन या मौज-शौक’ मानने वाले तथा गो पालन को “प्रोफेसर का घर कम, ग्वाले का तबेला ज्यादा लगता था, गाय, भैंस, सानी भूसा तथा गोबर से परिपूर्ण” मानने वाले आचार्य हिन्दुस्तानी मन को भला कैसे समझ पाएंगे! तैत्तरीय उपनिषद् में आया है-“हम अन्न खा रहे हैं और अन्न हमें खा रहा है।” गांधीजी इससे बखूबी परिचित थे। उनकी भोजन दृष्टि भी उनके शील दर्शन का एक अंग थी। गांधीजी स्वाद के लिए नहीं, जीवन-शक्ति की आराधना के लिए खाने के पक्षपाती थे। स्वाद पर उनका अद्भुत नियंत्रण था। इसका जिक्र योगी परमहंस योगानंद ने अपनी पुस्तक ‘योगी कथामृत : एक योगी की आत्मकथा’ में विस्तार से बताया है। ऐसा कहा जाता है कि ‘रोमन सभ्यता के अन्तिम दिनों में भोजन, पान और स्नान एक सर्वग्रासी विलास के रूप में परिणत हो गये।’ ‘ग्वाले का तबेला’ से जब-जब हम विरत हो तथाकथित प्रगतिशील ‘इंतजाम’ की ओर बढ़ेंगे गार्हस्थ्य जीवन की सुघड़ता खत्म होती जाएगी। महाभारत को टुकड़ों में ही सही, हम सबने पढ़ा है। उसके पीछे के अनेक कारणों से भी हम परिचित हैं। पर एक महत्वपूर्ण ‘कारण’ ‘ग्वाले का तबेला’ भी है, प्राय: इससे हम सब अपरिचित हैं। जबकि यह एक भारी और प्रामाणिक तथ्य है। हम सब जानते हैं कि जब अश्वत्थामा दूध के लिए रोता था तो उसकी माँ उसे क्या पिलाती थी? और उसका फल क्या हुआ ? काश राजा द्रुपद ने अपने क्लास फ़ेलो द्रोणाचार्य के लिये ‘ग्वाले का तबेला’ की व्यवस्था कर दिये होते तो जो ‘भारत व्यापी रुधिर और रुदन की सरिता बही थी’ वह न बहती। पर होनी को कौन टाल सकता है। धरती के श्रेष्ठ महाकाव्य ‘महाभारत’ की रचना जो होनी थी और इसके मूल में वही था ‘ग्वाले का तबेला’ का ‘ग्वाला’ । पुनश्च: एक सवाल यह उठ सकता है कि आखिर मुझे यह सब लिखने की जरूरत क्यों पड़ी? एक गुमनाम मनीषी के शब्दों में कहूँ तो उनके/इनके या ऐसे/वैसों के ‘विकट बांसुरी की अनुगूंज को मैं महत्त्वपूर्ण इसलिए मानता हूं कि वे संयोगवश 'माइक' के पास हैं।’ आजकल बाजार में अनेक ऐसी पत्रिकायें ‘इंतजाम’ के प्लेटफॉर्म के रूप में उपलब्ध हैं जहां विकट बांसुरी वाले क्रमचय-संचय सिद्धान्त का पालन करते हुए मनमानी चीजों को बेसुरा-स्वर देते रहते हैं । यदि किसी को विश्वास न हो तो बाजार में उपलब्ध पत्रिकाओं के पुराने अंकों को उठाकर देख सकता है। ध्यान रहे कि यहाँ किसी के निजी जीवन पर प्रकाश डालना मेरा उद्देश्य नहीं है। (ये पब्लिक है सब जानती है।) तो मैं क्यों उसके जीवन के स्याह पक्ष को अनावृत्त करने का पंड श्रम करूँ। लेकिन किसी गलत टिप्पणी को बरदाश्त करना मेरे स्वभाव का अंग नहीं है। जब जो चीज सही लगी उसे वहीं उसी प्लेटफॉर्म पर सुना देने में विश्वास रखता/करता हूँ। तद्भव के इस संस्मरण-लेख के एक पैरा में एक ऐसे अध्यापक पर अनावश्यक टिप्पणी की गई है जिसने ‘पठन-पाठन’ और ‘नोट-लंगोट’ के मामले में लगभग आदर्श मानदंड स्थापित किया था। मैंने अपने लेख में यह कोशिश की है कि तथ्यों के साथ कोई छेड़छाड़ न हो। इसके लिए कुछ पुराने लोगों से दूरभाष पर संपर्क कर जानकारी भी ली। आप भी पढ़िये और आनंद लीजिये।

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