Saturday, April 19, 2025
कुबेरनाथ राय के राम/भूमिका
मनोज कुमार राय*
रामचर्चा इस देश में सदियों से चली आ रही है । भारतीय जन का जीवन राम के बिना अधूरा है। यह एक तथ्य है। लेकिन वह इसके लिए किसी दिखावे को पसंद नहीं करता है। उसके लिए तो वह (राम) सुबह के राम-राम से लेकर शैया पर जाने तक की एक जीवन-पद्धति है। सैकड़ों-हजारों वर्षों से इतिहास और भूगोल के पार लाखों-करोड़ों लोगों के लिए राम का नाम और राम की कहानी आस्था की एक खिड़की रही है जहां से वह परमात्मा के आँगन में झांकता रहा है। श्री राय के निबंध भी हमारे सामने एक गवाक्ष खोलते हैं राम-रस की अनुभूति के लिए। राम-रस को और भाव-प्रवण तथा ज्ञान-सज्ज करने के लिए वे विश्व-साहित्य के साथ-साथ जंबूद्वीप में पसरी अनेक रामकथाओं/रचनाओं के भीतर खूब आवाजाही करते हैं। फलस्वरूप शोध-तर्क-विवेक और लालित्य के सम्मिश्रण से तैयार एक उत्तम ‘राम-रसायन’ हमारे समक्ष आता है। इन निबंधों को पढ़ते हुए पाठक यह महसूस करते हैं कि श्री राय के ‘राम’ सबके ‘राम’ होते हुए भी कुछ अलग किस्म के हैं। उनके राम अपने जैसे लगते हैं । एकदम सगे भाई-बंधु की तरह । अलौकिक शक्तियों से दूर विशुद्ध मृत्तिका-पुतुल की तरह मानुषी-चर्या की मर्यादा-पालक की तरह ।
उनके निबंधों की सबसे बड़ी खूबी यह है कि उन्होने अपने समय में रामकथा पर उपलब्ध लगभग सभी महत्वपूर्ण स्रोतों को खंगाल कर उसके ‘मधु’ को हमारे सामने रखा है जो शायद एक साथ कहीं और उपलब्ध नहीं है। श्री राय के निबंध पाठकों को एक ही छत के नीचे राम की पौराणिकता, उसकी वैज्ञानिकता, उसके उत्स और उसमें सन्निहित रस, गार्हस्थ्य जीवन का महत्व, साहित्य की उपयोगिता से लेकर मनुष्य-प्रकृति-ईश्वर के बीच के सहज संबंधों का उद्घाटन करते हैं ।
रामकथा मंदाकिनी, चित्रकूट चित चारु ।
तुलसी सुभग सनेह बन, सिय रघुबीर बिहारु ॥
लब्ध-प्रतिष्ठ निबंधकार श्री कुबेरनाथ राय ने पाठकों से संवाद करने के लिए अपने समय की (बाद की भी) सबसे कम लोकप्रिय विधा ‘निबंध’ को माध्यम बनाया था और जीवन-पर्यंत एकनिष्ठ भाव से इसके प्रति समर्पित रहे। उनकी दृष्टि में ‘किसी भी जाति की मूल प्रकृति का सच्चा थर्मामीटर है उस जाति का काव्य-साहित्य और उसकी बौद्धिक गंभीरता तथा उदात्तता का परिचायक है निबंध-साहित्य।’ अत: “निबंध ही किसी जाति के ब्रह्मतेज को व्यक्त करता है।” ‘भारतीय जाति’ के ब्रह्मतेज को व्यक्त करने के लिए ही उन्होंने निबंध-विधा को अपनाया था-“ललित निबंध भी गद्य में काव्यधर्मी होने के बावजूद इस दायित्व से छुट्टी नहीं पा सकता।” इसलिए वे अनुभव-समुद्र से याचना करते हुए कहते हैं कि “यदि देना ही है तो एक पवित्र शंख फेंक दो....मात्र एक शंख। ...मुझे तो चाहिए शुचिस्वेत आवाहनमय एक गद्य शंख ..... । दोगे तो दे दो।” श्री राय के इसी लब्ध-गद्य शंख से उनके लेखन में ‘अहं भारतोऽस्मि’ का क्रुद्ध-लालित्य स्वर निरंतर गूँजता रहता है। फलस्वरूप उनके लेखन का परास (रेंज) अपनी अंतर्वस्तु और चेतना में अखिल भारतीय रूप ग्रहण कर लेता है। हताशा,भय और क्रोध के त्रिकोण से आक्रांत अपने समय को उन्होंने न केवल 'प्रजागर पर्व' की संज्ञा दी है अपितु नशे में प्रमत्त भारतीय महाजाति को गद्य-शंख से निरंतर जागृत करने की चेष्टा करते रहे और कहा कि ‘मेरा सम्पूर्ण साहित्य या तो क्रोध है,नहीं तो अंतर का हाहाकार ।’
कुबेरनाथ राय का जन्म गंगा तटवर्ती गाजीपुर (मतसा) में हुआ था। जीवन का एक बड़ा हिस्सा (लगभग 27 वर्ष) अध्यापन करते हुए ब्रह्मपुत्र के किनारे नलबारी (असम) में बीता और अंत में जीवन के आखिरी दस वर्ष भी गंगा की छाया में बिता जहां बचपन गुजरा था। इसलिए ‘गंगातीरी लोकजीवन और संस्कृति न केवल उनकी आत्मीयता की भाजन है; बल्कि उनके समूचे लेखन के देशज संस्कार की कारक और सर्जन का आधार भी है।’ अनंत सिसृक्षा और तितिक्षा के साथ अथक श्रमशीलता और गहरा दायित्वबोध के पीछे है उनकी कृषक पारिवारिक पृष्ठभूमि । देशात्मबोध या भारतबोध के विकास और उसे जीने की शक्ति उनको घर-परिवेश से ही प्राप्त हुआ था । उनके छोटे पितामह पं. बटुकदेव शर्मा नैष्ठिक व्रतधारी थे। विवाह के सवाल पर उन्होंने अपने घर वालों से कह दिया था कि वे ‘गुलाम संतान’ नहीं पैदा करना चाहते और ‘गृह कारज नाना जंजाला’ को आत्मसात करते हुए स्वाधीनता की लड़ाई में अपने को झोंक दिया। श्री राय पर उनका बड़ा स्नेह रहता था। उनका प्रभाव कुछ ऐसा पड़ा था कि बचपन में पिताजी के यह पूछने पर कि ‘बड़े होकर क्या बनोगे?’ के जबाव में श्री राय ने ‘संन्यासी बनने’ का इरादा व्यक्त कर दिया था । हालांकि उसी समय पिताजी के ‘क्रुद्ध-लालित्य’ को देखते हुए थोड़ा सुधार किया और ‘प्रोफेसर’ बनने की बात भी कही। लेकिन पिता तो आखिर पिता ही होता है। श्री राय की शादी महात्मा गांधी की शादी के वय से भी कम वय में कर दी गयी। लेकिन जिसकी जन्मकुंडली के चतुर्थ भाव में ही ‘नभ मंडल की खल-मण्डली दरबार लगा कर’ बैठे हों उसे कौन बांध सकता है –“मैं अपनी जन्मभूमि गंगा तट से प्राय: दूर रहने को बाध्य हूँ और जीविकोपार्जन के लिए इस किरातारण्य से घिरे आर्यों के बीच,लौहित्य तट पर,निवास कर रहा हूँ।”
श्री राय का लेखन बहुआयामी और विविधतापूर्ण है जिसका आदर्श है “‘सत्यं परम धीमहि’-सत्य क्या है? ‘आत्मा’। दर्शन में यह ‘आत्मा’ ‘ब्रह्म’ का रूप लेती है, साहित्य में ‘पुरुष’ रूप । पुरुष के अंदर निहित पुरुषोत्तम (परम सत्य) का आविष्कार साहित्य का प्रधान लक्ष्य है।” उनका मानना है कि-“मनुष्य की सार्थकता उसकी ‘देह’ में नहीं,उसके ‘चित्त’ में है। उसके चित्त-गुण को उसकी सोचने-समझने और अनुभव करने की क्षमता को विस्तीर्ण करते चलना ही ‘मानविकी’ के शास्त्रों का,विशेषतः साहित्य का मूलधर्म है।” किसी भी ‘राष्ट्र की कस्तूरी उसके साहित्य में होती है। यह कस्तूरी दुर्गन्धमयी न हो’ इसके लिए साहित्य को सरल-स्वच्छ-उच्चगामी होना होगा जिसके लिए विषय का उच्चाशय होना जरूरी है। इसलिए वे सबसे बड़े उदाहरण के रूप में तीन महाकाव्यों-– रामायण, महाभारत और श्रीमद्भागवत- में उपस्थित सार्वभौम मूल्यों को हमारे सामने अनेकश: रखते हैं, क्योंकि ये हमारी ‘परमा स्मृति’ का हृदय रचते हैं।
विषय वस्तु की दृष्टि से ‘रामकथा’ श्री राय के लेखन की एक प्रमुख दिशा है। श्री राय मानते हैं कि स्वस्थ समाज के लिए जिस उदात्त सामाजिक व्यवस्था की आवश्यकता है/होगी वह ‘रामकथा’ में पर्याप्त रूप से मौजूद है। बतौर लेखक वे अपने नागरिक-धर्म से भलीभाँति परिचित हैं-“मेरे मन के भीतर स्थित प्रजापति बार-बार मुझे आदेश दे रहे हैं कि त्रेतायुग के इस इतिहास खंड को मनुष्य जाति की चेतना का शाश्वत अंग बना डालूँ ।” स्पष्ट है कि रामकथा को हृदयंगम-करना और उसे अपने लेखन का विषय-वस्तु बनाना वस्तुत: एक अदृश्य परमादेश ही है। वे लिखते हैं कि “राम शब्द के मर्म को पहचानने का अर्थ है भारतीयता के सारे स्तरों के आदर्श रूप को पहचानना। मेरे लेखन की एक दूसरी प्रमुख दिशा इसी 'राम' की महागाथा से संयुक्त है। राम मनुष्यत्व के आदर्श की चरम-सीमा हैं। सही भारतीयता क्षुद्र, संकीर्ण राष्ट्रीयता के दंभ से बिलकुल अलग तथ्य है। यह सर्वोत्तम मनुष्यत्व है। पूर्ण 'भारतीय' बनने का अर्थ है 'राम' जैसा बनना। वेदांत 'ब्रह्म जिज्ञासा' है तो काव्य 'पुरुष जिज्ञासा’। मेरा लेखन इसी 'पुरुष जिज्ञासा' से जुड़ा है।” इसी पुरुष-जिज्ञासा के गर्भ में छिपे ‘तम: शांतए’ के बीज की तलाश है राम-कथा।
श्री राय के निबंध-कांतार से गुजरते समय विषय और वर्ष/समय के साथ-साथ उस काल खंड की घटनाओं तथा आगे-पीछे के वैचारिक आंदोलनों और उसकी पृष्ठभूमि से परिचय होना जरूरी है। अन्यथा चिंतन के ‘शांत-बिन्दु’ पर बैठे श्री राय द्वारा उद्घाटित ‘परमा-स्मृति’ की निर्मिति के ताने-बाने की बुनावट को समझना कठिन होगा। रामकथा पर कुबेरनाथ राय द्वारा लिखा गया पहला निबंध 23 अक्तूबर 1966 के धर्मयुग में प्रकाशित हुआ था,जिसका शीर्षक था ‘राम... निर्वासन और निर्माण : एक चिर पुरातन आधुनिक समस्या’। बाद में यह निबंध ‘गंधमादन’ संग्रह में ‘राघव: करुणो रस:’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ। इस निबंध में श्री राय राम के निर्वासन को वैश्विक समस्या के रूप में देखते हुए उसकी जड़ तक जाते हैं और बताते हैं “नया मनुष्य अकारण निर्वासित है, ऐतिहासिक शक्तियों (नाजीवाद, कम्यूनिज्म, महायुद्ध और विभाजन) द्वारा । इस पीढ़ी का कोई अपराध नहीं। ऐसे अकारण निर्वासन का उदाहरण ‘रामायण’ में भी है। राम उसी तरह अकारण निर्वासित हुए थे, जैसे आज का नया मनुष्य ।” लेकिन दोनों में भेद है। नया मनुष्य जहां ‘स्व’ के कोटर में अपने को बंद कर अजनबीपन का शिकार होने दिया है वहीं राम ‘स्व’ के प्रति तटस्थ होकर “बे-पहचान से भी पहचान करते हैं, प्रीति करते हैं और ऐसी प्रीति कि ‘कीन्ह प्रीति कछु बीच न राखा।’ निशिचर कामरूप होता है। स्वभाव से मायावी होता है। पर तो भी कोई हर्ज नहीं। वह भी अपना है। और यदि “भेद लेन पठवा दशशीशा । तबहुँ कछु नहिं हानि कपीशा।” वे ‘नया मनुष्य’ का आह्वान करते हैं राम-पथ पर चलने के लिए। लेकिन यह पथ जरा दुष्कर है। राम को देवता मानकर ‘नया मनुष्य’ ‘उंह’ उच्चारण कर मुंह फेरने की कला में माहिर है। इसलिए उन्होंने अपने निबंधों में राम को एक मनुष्य के रूप प्रस्तुत करने और उसके विकसित होने की प्रक्रिया को दर्शाया है। इस प्रक्रिया/रहस्य की कथा को सरस,सरल,सहज और तथ्य आधारित ढंग से प्रस्तुत करने के लिए वे रामकथा के उत्स ‘महाकाव्य का जन्म’ से विषय को उठाते हैं और ‘युग संदर्भ में मानस’ की आवश्यकता पर ज़ोर देते हुए इतिहासकारों के लिए नव्य-पथ का निर्माण ‘भारतीय इतिहास-दृष्टि और रामकथा’ करते हुए बोध के कैलाश शिखर ‘राम ही पूर्णावतार थे’ पर पहुँचकर विश्राम करते हैं। श्री राय की यह यात्रा गांधी-पथ है -‘मैं मार्ग जनता हूँ । वह सीधा और संकरा है। वह तलवार की धार की तरह है। मुझे उस पर चलने में आनंद आता है।’
राम कथा से बचपन से ही प्रभावित श्री राय जैसे-जैसे रामकथा के मर्म में अनुप्रवेश करते गए उन्होंने अनुभव किया कि ‘क्रांतिकारी और रचनात्मक दोनों स्थितियों में इसकी सार्थक और कालजयी भूमिका है’। फिर क्या था, वे रामत्व के सौंदर्य का उद्घाटन करने के लिए ‘मन पवन की नौका’ पर सवार होकर विश्व साहित्य के क्लासिकल काव्यों/महाकाव्यों के महाकांतार में प्रवेश कर गए। इस कार्तिकेय-यात्रा में भी क्या मजाल कि कोई ‘अप्सरा-नायिका’ की बाँकी चितवन उन्हें घायल कर सके। अगर किसी मोड़ पर कोई ‘तीरे-नजर’ या ‘पंचाप्सर की मार कन्याएं’ दिखी भी तो उसे गुडाकेश भाव में ‘माते प्रणाम’{ 'वात्सल्य' (Mother instinct)} कहकर तीर-वेग से लक्ष्य की ओर मुड़ जाते थे। आखिर ‘रन में, वन में सदैव साथ-साथ अभय की गदा लेकर चलने वाले’ बजरंगबली जो उनके साथ थे।
राम/रामकथा को लेकर वाल्मीकि से लेकर कामिल बुल्के जैसे अनेक श्रद्धेय विद्वान पंडितों द्वारा प्रभूत मात्रा में लेखन कार्य हुआ है। लेकिन श्री राय की निर्मिति तो कुछ अलग ही किस्म की है। मानस-महाभारत के संस्कार-बीज घर के आँगन में ही पनपे। उनकी माँ के पास पौराणिक कहानियों का खजाना था। ‘माधुरी’ और ‘विशाल भारत’ के संपर्क ने उनके बौद्धिक क्षितिज का विस्तार किया । फलस्वरूप माँ के पल्लू से चिपककर कहानी सुनते समय ‘हाँ,कहारी हाँ’ के टेक से मुक्त हुए और “निश्चय किया...कि एक दिन पूज्य पिताजी जब सोये रहेंगे, तो उनके सिरहाने से...फटी दीमक लगी किताब निकाल लाऊँगा और आग लगाकर फूँक दूंगा। ...तब हिन्दू धर्म के लिए एक नई पोथी लिखनी पड़ेगी...उस नई किताब को मैं लिखूंगा, और जो-जो मन में आयेगा,सो लिखूंगा। आखिर मेरी बात भी तो कभी आनी चाहिए कि आजीवन मैं ‘हाँ,कहारी हाँ’ का ठेका ही पीछे से भरता रहूँगा ।” मजे कि बात यह है कक्षा 8 में पढ़ते हुए उन्होंने जो पहला लेख लिखा उसका शीर्षक था- ‘साहित्य में मेरा वादा’ । कौन जानता था कि यह किशोर भविष्य में अपना वादा निभाते हुए सच में ही ‘नयी पोथी’ लिखेगा और कहेगा कि ‘रस, शील और अध्यात्म पर अपनी चरम पूर्णता के साथ प्रतिष्ठित’ ‘राम ही पूर्णावतार हैं।’
बीसवीं शती के उत्तरार्द्ध के प्रथम अर्धांश में जब भारतीय साहित्येतिहास के आकाश पर संस्कृति तथा इतिहास-संशोधन के सरकारी विधाता-व्याख्याता, मनसबदार तथा नव्य-पुरातन वामपंथियों का अश्वमेध यज्ञ चालू था और वे ‘सांस्कृतिक-स्वातन्त्र्य' और 'बुद्धि-स्वातन्त्र्य’ के नाम पर न केवल ‘लोलिता’ का चंग बनाकर उड़ा रहे थे अपितु ‘रामकथा/मानस’ को ही प्रश्नांकित कर रहे थे, तब उस संक्रमण काल में श्री राय को त्रेताकालीन मृदंग-ध्वनि सुनाई देती है । उनके मन में सवाल कौंधता है- “मैं ही क्यों इस मृदंग के मधुर-मधुर-गंभीर रव को सुन रहा हूँ और मेरा ही मन क्यों रामाकार हुआ जा रहा है, और ये सारे आसपास के लोग जो माथे पर बोरियाँ लादे चल रहे हैं, या जो रथों पर बैठे धुँधुआते हुए सुलग रहे हैं, या जो अंगना-अंग से भांज-दर-भांज सर्पों की तरह लिपटे हैं, ये आसपास के सारे लोग भी क्यों नहीं इस मृदंग की मधुर-मधुर ध्वनि को सुन पा रहे हैं?” यह एक तथ्य है कि ‘मनुष्य जब घोर चिंता में पड़ जाता है, तो अपने से ही बातें करता है, उत्तर-प्रत्युत्तर देता है, और मान-मनुहार झिड़की और विवाद करता है। चरम क्षण में हम स्वयं ही अपने साथी रह जाते हैं, शेष सभी कोई दूर चले जाते हैं ।’ श्री राय लगभग ऐसी ही भूमिका में हैं । वे जब कभी ध्यान-लोक में “जगती के शिखर पर जा खड़े होते हैं .... तब-तब हाथ उठाकर कोई दिव्य चतुर्मुख पुरुष आशीर्वाद देते ज्ञात होते हैं, ‘वत्स, ऋषि, रामचंद्र के रसरूप के जनक तुम्हीं बन सकते हो ।” उस परमादेश को स्वीकार करते हुए श्री राय ‘इतिहास के रामचंद्र को यही रसरूप प्रदान करने’ के लिए ‘त्वं साक्षात् भारतोऽसि’/‘अहं भारतोऽस्मि’ का नारा बुलंद करते हुए रामकथा-लेखन में उतरते हैं और लिखते हैं-“नेताओं में गांधीजी, किताबों में रामचरितमानस, वनस्पतियों में हरी-हरी दूब, पशुओं में गाय, रसों में करुण रस, ये सब मुझे एक ही किस्म के भाव-संकुल या बोध प्रदान करते हैं। इन सबमें शांति है, निष्कपटता है, विनय है और सेवा धर्म है, साथ-ही-साथ महिमा और त्याग भी है।” 1966 से शुरू हुई यह रामकथा जीवनपर्यंत (1996 तक) चलती रही । 32-34 वर्षों की इस लेखकीय यात्रा में रामकथा के विभिन्न आयामों को लेकर उन्होंने लगभग 72 निबंध लिखे । श्री राय द्वारा ‘राम’ को केंद्र में रखकर लिखा गया प्रत्येक निबंध वस्तुत: किसी भी शोध-प्रबंध पर भारी है। सच तो यह है कि शोध,तथ्य,इतिहास और ललित भंगिमा से तैयार यह ‘रामकथा-रसायन’ विश्व-साहित्य जगत का दुर्लभ दस्तावेज़ है।
1974 में श्री नारायण चतुर्वेदी ने बंधु-बांधवों के नैतिक आग्रह-दबाव पर ‘सरस्वती’ का एक मानस-विशेषांक निकालने की योजना बनाई। इस अंक के लिए उन्होंने जिन सात लोगों को पत्र लिखा था, उनमें एक कुबेरनाथ राय भी थे। लेकिन इसके दो वर्ष पूर्व जब भारतवर्ष द्वारा ‘मानस चतुःशती महोत्सव’ के प्रचार-प्रसार की तैयारी चल रही थी तो उस निमित्त लेख लिखवाने के लिए उन्होंने शायद श्री राय को ही याद किया; गो कि निवेदन उनका सबसे रहा होगा- “मेरे अपने लेखकीय द्विजत्व के पुरोहित पं॰ श्रीनारायण चतुर्वेदी ने मुझसे ‘मानस- चतुःशती-समारोह’ पर जिसे भारतवर्ष में 1974 ई॰ में बड़ी धूमधाम से मनाने जा रहा है, कुछ लिखने को कहा तो मैं बड़ी चिन्ता में पड़ गया, क्योंकि सारी समस्या एक वृहत्तर सांस्कृतिक-नैतिक और आध्यात्मिक समस्या के अन्दर अन्तर्भुक्त-सी लगती है और मानस-समारोह को उस वृहत्तर समस्या-वृत्त के मध्य रखकर ही देखना होगा अन्यथा विगत टैगोर शतवार्षिकी और गालिब शताब्दी समारोह की तरह यह भी बिल-तमाशा लूट-खसोट बनकर रह जायगा।” चतुर्वेदी जी के आग्रह को शिरोधार्य करते हुए उन्होंने ‘सरस्वती’ के लिए एक बड़ा आलेख ‘मानस-दृढ़ता और संघर्षशील चरित्र का सूत्र’ शीर्षक से लिखकर भेज दिया। यह आलेख इस बात का प्रमाण है कि धारा के विपरीत जाकर ‘नयी पोथी’ लिखने का जो उनका वादा था, उससे वे विरत नहीं हुए थे। इस आलेख में उन्होंने अनेक सुझाव भी दिये थे । इन सुझावों से सहमत/असहमत हुआ जा सकता है । पर इससे श्री राय के साहस और उनकी मुख्य प्रतिज्ञा ‘नयी पोथी’ लिखने का पता तो चल ही जाता है।
श्री राय के निबंधों को पढ़ते समय कथा-रस की अनुभूति होती है। प्राय: निबंध ऐसे शुरू होते हैं जैसे सामने बैठकर वे स्वयं ही कथा कह रहे हों-‘ऐसे थे रामचंद्र । उनका रूप दूर्वादल श्याम था,’ ‘मुझे लगता है कि हनुमान भी चंडिका और गणपति की तरह आदिम भारत के देवता हैं,’ ‘मैं इस नदी के तट पर प्रतिदिन ही आ बैठता हूँ;’ लेकिन यह तो केवल ‘रामा हो रामा’ ही है, क्योंकि उनके लिए लेखन कोई मौज-शौक की वस्तु नहीं है। लेखन को तो सोद्देश्य होना चाहिए और वह उद्देश्य है पाठक के ‘मानसिक ऋद्धि और बौद्धिक क्षितिज का विस्तार ।’ कविता के प्रति गहरा आकर्षण होने के बावजूद उनका ‘मैदान गद्य का ही था’ और इसमें भी वे निबंध-विधा को सर्वोत्तम विधा मानते हैं और इसके पक्ष में मजबूती से खड़ा होते हुए कहते भी हैं-‘निबंध ही किसी जाति के ब्रह्मतेज को व्यक्त करता है।’ भारतीय महाजाति के ‘ब्रह्मतेज’ को व्यक्त करने वाले राष्ट्रीय काव्य रामायण के नायक मर्यादापुरुषोत्तम राम को उन्होंने अपने जीवन का कंठहार बनाया है। लेकिन वे राम के चरित्र को अलौकिक रूप में प्रस्तुत करने के आग्रही नहीं रहे हैं-“आखिर राम भी तो मृत्तिका पुतुल ही हैं । वे इतिहास की मांटी में जन्म लेते हैं।” अब यदि “उन्होंने इतिहास की मृत्तिका में जन्म धारण किया है तो मृत्तिका का मटमैला रजोगुण उनमें होगा ही... गंधवती मृत्तिका के सारे गुण-अवगुण उनमें होंगे ही, क्रोध-रोष-काम तृषा और कूट बुद्धि सभी कमोबेश असली राम में, इतिहास में जीने वाले राम में होंगे ही। जरा-सा ही सही। चंद्रमा में जितना कलंक है, उतना सा ही सही । अथवा, उससे भी कम। परंतु कलंक शून्य ‘विरजं विशुद्धं’ वे हो नहीं सकते।” इस प्रकार वे ‘पर्याप्त के चिंता बाद ... इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि इतिहास के साक्ष्य को कल्पना के साथ जोड़ना आवश्यक है।’
श्री राय को लगता है कि आजादी के श्रेष्ठ नायकों द्वारा तैयार पवित्र ‘संविधान के मौलिक आदर्शों की विवेचना करते समय भारतीय जाति के कुल-शील की जड़ ही काट दी गयी है ‘धर्म’ को अस्वीकृत करके।’ यहाँ वे सावधान भी करते हैं- “स्मरण रहे, मैं संप्रदाय की बात नहीं करता। मैं धर्म की बात कर रहा हूँ।” जिस काल-खंड में वे यह बात लिख रहे थे उस समय देश एक खास किस्म की वैचारिकी में उलझा पड़ा था। श्री राय की पैनी नजर उनके कर्तृत्व-वाकपटुता को ठीक तरीके से समझ रही थी-“आधुनिक समाजवादी के लिए धर्म दीन-ईमान की कोई जरूरत नहीं और, इस प्रकार नये किस्म के चरित्र-निरपेक्ष, शील-निरपेक्ष समाजवादियों के मिथ्या भाषण और अनाचार से भारतीय धरती काँप उठी है। गाँधीजी इस ‘कुल- शील’ की बात को लेकर चिंतित थे और इसी से रामराज्य की बात करते थे। धर्म के प्रति उनकी दृष्टि नकारमूलक नहीं थी।” श्री राय निर्भ्रांत शब्दों में कहते हैं-“राष्ट्रीय कुल-शील या मूल प्रकृति को पहचानने के सर्वाधिक सुगत साधन हैं राष्ट्रीय मिथक और महाकाव्य। रामायण और महाभारत ऐसे ही काव्य हैं।”
श्री राय का मानना है कि किसी काल खण्ड के समाज की सामाजिक चेतना की सही उपलब्धि लिए 'मर्म' में प्रवेश करना पहली शर्त है । उनके निबंधों से गुजरते समय यह बात स्फटिक की तरफ साफ दिखती है कि उन्होंने अपने समय और समाज के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक आयामों में ‘भीतरी आदमी’ (Insider) की तरह प्रवेश कर जाते हैं। वहाँ वे ठहरते हैं,सुस्ताते हैं और लोगों से उनकी/अपनी शैली में बातें करते हैं । बातचीत के इस क्रम में वे ‘इतिहास और काव्य’ के बीच चलने वाले शाश्वत संवाद के मर्म को पहचानते हैं। फिर वे लौट आते हैं उस संवाद-कथा को शब्द और भाव का रूप देने- “मैं वस्तुतः रामकथा से इसलिए जुड़ा हूँ कि यह कथा हाँ-धर्मी भाव-त्रिभुज यानी जिजीविषा, करुणा और अभय की कथा है। यही कारण है कि यह मुझे आश्वासन और सांत्वना का स्रोत जान पड़ती है, आधुनिक संदर्भ में भी।” इसलिए जब उनसे कोई यह पूछता है कि हम ‘रामचरितमानस’ क्यों पढ़ें? तो वे उसका उत्तर देते हैं कि किसी भी “समाज में भी सुयोग्य नागरिक तथा सद् गृहस्थ की, अर्थात् उत्तम पिता की, उत्तम पुत्र की, उत्तम पति की, उत्तम पत्नी की, उत्तम भाई की, उत्तम बंधु की आवश्यकता रहेगी तो समग्र विश्व-साहित्य में, ... वह कौन-सी पुस्तक सर्वाधिक उपयुक्त होगी जो अच्छे नागरिक, अच्छे गृहस्थ, अच्छे पिता-पुत्र-भाई आदि बनने का आदर्श जनमानस में प्रतिष्ठित कर सके ? ... मात्र उपर्युक्त कार्य के लिए समग्र विश्व-साहित्य में 'मानस' ही सर्वोत्तम ग्रंथ है।”
निबंध-लेखन की श्री राय की अपनी शैली है। उनके हर निबंध में इतिहास-भूगोल-दर्शन-भाषा की चतुरंगिणी भी साथ-साथ चलती रहती है। रामकथा के मर्म और महाकाव्य के उत्स की तलाश में एक तरफ तो वे समाज और गाँव के उस छोर/टोले की यात्रा भी करते हैं जहां इतिहास रुक कर जड़ीभूत अहल्या हो गया है तो दूसरी तरफ विश्व-साहित्य के श्रेष्ठ पंडितों की रचनाओं को भी अपने मीमांसा का विषय बनाते हैं। वे ऐसा सोद्देश्य करते हैं-“मेरा उद्देश्य है रामकथा के भावात्मक और बौद्धिक सौन्दर्य का उद्घाटन । मैं ललित निबन्धों के माध्यम से रामकथा को एक नये बौद्धिक सम्मोहन से मण्डित करना चाहता हूँ ।” इसलिए उनके निबंध पाठकों से अतिरिक्त सजगता और अध्ययन की मांग करते हैं। ये निबंध के केवल साहित्य की निधि नहीं हैं। कला, साहित्य, इतिहास, नृतत्वशास्त्र, धर्मशास्त्र, आधुनिकता बोध से अनुप्राणित ये निबंध वस्तुत: बहुविषयक (Multidisciplinary) अध्ययन के शानदार उदाहरण हैं।
रामकथा/रामायण को श्री राय ने ‘ऋत और मधु का महाकाव्य’ माना है। देशी-विदेशी पंडितों द्वारा ‘ऋत’ शब्द की गई व्याख्या का विस्तृत और गहन विश्लेषण करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि ‘रामायण में किसी के क्रिया-कलापों की कसौटी व्यक्ति का सुख-दुःख या औचित्य-अनौचित्य नहीं। वह कसौटी हैं ‘ऋत’, जिस पर व्यक्ति, समाज और इतिहास का भावी जीवन और वर्तमान दोनों आश्रित हैं। इस ऋत का ही एक अन्य नाम हैं ‘मर्यादा’ और रामायण के नायक की एक उपाधि हैं ‘मर्यादापुरुषोत्तम’। महाकवि रवीन्द्रनाथ की दृष्टि में "रामायण गार्हस्थ्य का महाकाव्य है।" श्री राय इस कथन से सहमत हैं और सदा की तरह पूर्वजों के दाय को समृद्ध करते हुए कहते हैं कि ‘रामायण में ऋतचक्र का नैसर्गिक प्रवाह भी देखा जा सकता है।’ उनकी दृष्टि में ‘रामायण व्यक्तिगत शील, राष्ट्रीय आदर्श, सामाजिक धर्म और प्राकृतिक ऋत-विधान का महाकाव्य है।’ इसका प्रमाण यह है कि ‘इसका विषय नीतिशास्त्रीय (ethical) होते हुए भी इसमें नौ रसों की स्थापना की गई है।’ श्री राय अपनी विवेचना में यह स्पष्ट करते हैं कि ‘रामायण करुण रस का 'स्वस्थतम' और 'श्रेष्ठतम' महाकाव्य है। इसमें करुणा का अस्वस्थ विलाप नहीं है। इसमें रस भी ऋत का सगोत्र बन गया है।’
श्री राय के मन में वाल्मीकि-भवभूति से लेकर कुमारस्वामी-कामू तक के विचारों के प्रति ‘श्रद्धा-विश्वास’ तो है पर ‘गांधारी श्रद्धा’ नहीं है- “माननीय श्री निवास शास्त्री कहा करते थे कि वाल्मीकि रामायण का कोई पृष्ठ ऐसा नहीं जिसको पढ़ते समय मेरी आंखें तरल न हो जायं । परंतु जब मैं वाल्मीकि रामायण पढ़ता हूँ तो कुछ और ही अनुभव होता है। इसका प्रत्येक प्रसंग पढ़ते समय मैं अपने मस्तक के भीतर सूर्योदय होते हुए अनुभव करता हूँ ।” वाल्मीकि ने अपने काव्य को ‘रामायण’ और तुलसीदास ने ‘रामचरित मानस’ कहा है, पर राय साहब उसे ‘त्रेता का वृहत्साम’ की संज्ञा देते हैं और उसकी विशद व्याख्या भी करते हैं। यहाँ वृहत्साम को महाकाव्य का पर्याय माना गया है। कृष्ण ने गीता में कहा है ‘‘मैं सामों में वृहत्साम हूँ।’’ दूसरी तरफ ‘‘विष्णु सौर देवता हैं। द्वादश आदित्यों में से एक हैं विष्णु। सूर्य का साम सबसे बड़ा है और उसे वृहत्साम कहा जाता है। ... अतः त्रेता के वृहत्साम का अर्थ है रामावतार की कथा।’’ श्री राय ने वैदिक भाषा को ध्यान में रखकर भी इसकी व्याख्या की है। उनका कहना है, ‘‘परिधि और केन्द्र के बीच का व्योम प्राण रूप अग्नि से व्याप्त है और वही उस वस्तु या इकाई का यजुष है। इस प्रकार वैदिक भाषा में किसी वस्तु या सत्ता के अस्तित्व के चरम विस्तार की परिधि उसका ‘साम’ है। ... अतः त्रेता के वृहत्साम का अर्थ हुआ त्रेतायुग की प्राण सत्ता का सीमान्त या चरम बिन्दु।’’ इसी चरम बिन्दु को उन्होंने रामकथा की संज्ञा दी है। स्पष्ट है कि रामकथा का यह विवेचन पारंपरिक आधार से भिन्न प्रातिभ आधार पर संपादित हुआ है। उनकी दृष्टि में ‘सूर्य का बिम्ब एक अद्भुत बिंब है। श्री, शोभा, जीवन, प्राण, मधु, तेज, परिपक्वता, संयम, तप, दाह, विराग, संघर्ष और देहातीत चिन्मयता को, इन सब कुछ को एक ही साथ व्यक्त करने वाला बिम्ब है सूर्य’ । राम के व्यक्तित्व का चित्रण करते हुए वे सूर्य के इन विशेषणों को राम के भीतर अंतर्भुक्त कर देते हैं। सूर्य और राम दोनों का सारा कर्मयोग ऋत की रक्षा के लिए निरासक्त पुरुषार्थ योग कर रहा है। दोनों कभी पराजित नहीं होते और अंत में अमृत/प्रकाश लाकर पृथ्वी पर बिखेर देते हैं। फलस्वरूप धरित्री मंह-मंह सुगंधित हो उठती है। जिस तरह सूर्य छंदोबद्ध चलता है उसी तरह राम की जीवन यात्रा भी छंदबद्ध तरीके से चलती है, और कहना न होगा कि श्री राय के निबंध भी छंदोबद्ध ही चलते हैं जिससे वे इतिहास के श्रेष्ठ मृत्तिका पुतुल को ध्यान के शिखर पर स्थापित करने में सफल रहे हैं।
यह एक तथ्य है कि जिस लेखक का आधुनिक बोध जितना गहरा और व्यापक होगा वह युग की जटिलता को उतनी ही गहराई और व्याप्ति में पकड़ने सफल होता है। आधुनिकता बोध से अनुप्राणित लेखक परंपरा के स्वीकार-अस्वीकार के बीच संतुलन साधते हुए वर्तमान के प्रति भी सजग रहता है। हालांकि इसके लिए विशद अध्ययन और गंभीर मानसिक संघटन की अपेक्षा होती है। यह एक विरल संयोग है कि श्री राय की मानसिक बुनावट ऐसी ही थी। उनके निबंध ‘सुगम अगम मृदु मंजु कठोरे’ सिद्धान्त के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। ‘कठिन भूमि, कोमल पग’ निबंध में वे ‘राम वन गमन’ को एक कर्तव्य-पुरुष के रूप में चित्रित किया है। जैसे-जैसे वह यात्रा आगे बढ़ती है मनुष्य-प्रकृति को एकमेक करते हुए भूगोल, राज्य और राज्य व्यवस्था, संस्कृति, मनुष्य की निर्मिति और उपमर्द की भूमिका, वन्य-जीव स्वभाव,बचपन की विविध स्मृतियाँ, विधि-विधान,गाँव-देहात,बाढ़ और नौकायन, परिवार और प्रेम,भय और काम-संवेग तथा निषादराज की गांजे की चिलम सहित न जाने कितनी छवियाँ चित्त में इस तरह से निर्मित होती जाती हैं जैसे पाठक को घर-आँगन में बैठे हुए सब कुछ चलचित्र की तरह दिखाई दे रहा हो । परंपरा और आधुनिकता से संपृक्त रामकथा का ऐसा सरस और सजीव चित्रण अन्यत्र दुर्लभ है। जीवन में रस और औदात्य की स्थापना के आग्रही श्री राय द्वारा रामकथा को लेकर किए जा रहे प्रभूत लेखन को उनके आधुनिकता प्रेमी मित्रों को अजीब सा लगता था। लेकिन रायसाहब इसकी परवाह नहीं करते थे। उनके लिए तो रामकथा निराशा के क्षणों में जिजीविषा, करुणा और अभय प्राप्ति का साधन था। और हो भी क्यों न! –“रामकथा का काठ तो वह दिव्य काष्ठ है जो 'हजार' नहीं, 'शाश्वत' आयु वाला है। कथा-तरु हमारी 'परमा स्मृति' (racial memory) की जमीन पर उगा है और इसकी जड़ें हमारी सत्ता के पाताल तक खिली हैं ” और वे तो अपने पाठकों के लिए ‘धरती का चप्पा-चप्पा छानते हैं कि कहीं विधाता की भूल से कोई रस की बूँद छूट गयी हो, तो उसका आहरण कर लें ।’
निबंध का शीर्षक हो,निबंध संग्रह का नाम हो या उसकी अंतर्वस्तु रायसाहब की खासियत है विषय के अंतस्थल में डूबकर उसकी प्रकृति और मूल स्वर को पकड़ने की कोशिश साथ ही वर्तमान की कसौटी पर कसना। ‘मानस’ के मंगलाचरण को वे कई अर्थों में बेजोड़ मानते हैं । मंगलाचरण की अंतर्वस्तु की विवेचना करते हुए इसमें इच्छा,ज्ञान,क्रिया,योग सांख्य,विज्ञान-मनोविज्ञान, शिल्प,आगम-निगम-पुराण, शिव-अशिव आदि अनेक विषयों को अंतर्भुक्त करते हुए सम्पूर्ण-भारतीय चिंता जो अपने प्रमादवश विकृत हो गई है। को उसकी मुक्ति के रास्ते के रूप में ‘रामत्व’ नामक ‘महारस’ को प्रस्तुत किया है। उनका मानना है कि “यदि हमने मूल्यों के परम आश्रय, आदर्शों के चरम निधान किसी अतिमानस की परम सत्ता के प्रति विश्वास का वरण नहीं किया’ तो इसके परिणाम भयानक होंगे। यदि जनता (Mass) ‘चर्च’ या ईश्वर के अभाव में ‘पार्टी’ और डिक्टेटर को अपना श्रद्धा-विश्वास अर्पित कर बैठी तो वह भयानक वंचना का शिकार बनेगी । यह एक तथ्य है कि ‘ईश्वर ‘कल्पना’ हो तो भी वह स्वभावतः हानिकारक नहीं बल्कि कवि और बंधु है । दूसरी ओर डिक्टेटर ‘सत्य’ है सही परंतु वह स्वभावतः कसाई और ‘बॉस’ है ।” स्पष्ट है कि ‘समर्पण-तृष्णा की तुष्टि के लिए ईश्वर किसी भी डिक्टेटर की अपेक्षा अधिक उपयुक्त और कम हानिकारक पात्र है।’ लेकिन इसके पीछे चुपचाप रची जानी वाली शक्तियों से वे अनजान नहीं हैं। इसलिए चेतावनी भरे स्वरों में कहते हैं-“रह गई उसके पंडे-पुजारियों के अत्याचार की बात । तो ईश्वर की कल्पना और आविष्कार इन पंडे-पुजारियों ने नहीं किया है। उसे किया है कवियों और योगियों ने ये पंडे-पुजारी ईश्वर और धर्म के अविभाज्य और अनिवार्य अंग नहीं। इन्हें मंदिर से निकाल बाहर किया जा सकता है। दूसरी ओर डिक्टेटर के पंडे-पुजारी भी तो हैं। वे अधिक शक्तिशाली, क्रूर, खतरनाक हैं। ईश्वर का काम बिना मंदिर के पंडे-पुजारी के चल सकता है। परंतु डिक्टेटर का एक क्षण भी बिना उसके अपने पंडे-पुजारी के अर्थात् उसकी अपनी ‘पार्टी-ब्यूरोक्रेसी’ दलगत अमलातंत्र के नहीं चल सकता।” इसलिए रामकथा को हृदयंगम करना हमारी अनिवार्यता है।
श्री राय के निबंधों में मृत्तिका पुतुल राम के जीवन में मानुषी चर्या का अनुगमन उसकी सम्पूर्ण मर्यादा में किया गया है। उनके मानुषी जीवन में घटी दो-एक घटनाएँ - बालि-वध,सीता-निर्वासन,शंबूक-वध आदि इसके प्रमाण भी हैं। इतिहास से अनेक उदाहरण देते हुए वे बताते हैं कि ‘प्रत्येक पैगंबर के सामने जब वरण का प्रश्न उपस्थित हुआ तो उन्होंने अपने आत्मसत्य को ही वरण किया’। कहीं ‘राम अपनी आत्मा द्वारा स्वीकृत सत्य को ग्रहण करके अडिग रहे और उन्होंने ‘साहस’ दिखाया’ तो कहीं ‘वे लोकमत के दबाव के सम्मुख झुक गये और आत्मोपलब्ध सत्य को स्वीकार करने का साहस उनमें नहीं रहा’। लेकिन “इस साहसहीनता के साथ कायरता नहीं, तितिक्षा जुड़ी है, त्याग का आदर्श जुड़ा है। इसी से यह भी महान् है। भले ही यह साहसहीनता हो, परंतु इसके बिना राम का रामत्व अधूरा रह जाता। प्रथम प्रसंग में राम व्यक्ति मात्र थे। व्यक्ति साहस दिखा सकता है। व्यक्ति एक ‘अस्तित्व’, एक सजीव सत्ता है। परंतु दूसरी बार वे राजा हैं। और राजा व्यक्ति नहीं एक ‘संस्था’, एक अवधारणा होता है जो भावहीन तथा ऋत-बद्ध ‘अस्तित्व’ है, जो सर्वतंत्र-स्वतंत्र नहीं, जो विविध प्रकार के दबावों का दास है और स्वयं भी एक दबाव या दमन की शक्ति है। अतः उत्तरचरित में राम का कार्य व्यक्ति के हिसाब से साहसहीनता है, परंतु राजा के हिसाब से महिमा है। और यह महिमा राम नामक व्यक्ति से साहस नहीं, तितिक्षा की अपेक्षा करती है। यह उनकी अमानुषी या देवोपम सहन क्षमता और त्याग का परिचायक है।”
श्री राय के इस कथन से कि ‘रामायण अद्भुत कवि-कर्म है’ से सौ प्रतिशत सहमत होते हुए यह जोड़ना अतियुक्ति नहीं होगी कि कुबेरनाथ राय के निबंध भी रामायण के मानुषी चर्या के अवतरण का अनुपम उदाहरण है। उनका निबंध साहित्य आधुनिकता बोध से अनुप्राणित ऐसा अनुपम दर्पण है ‘जिनमें जितनी ही गहराई से चिन्तन करेंगे उतने ही नये-नये अर्थ सगुण रूप धारण करके सामने उभरते जायेंगे।’ दुर्भाग्य से आज आत्म-क्षय और रमण-तृषा की दबाव-तकनीक से 21वीं शती के वाम-दक्षिण के मायावी शैवाल में भारतीयता का प्रतीक ‘रामत्व’ का मुख-कमल उलझ गया है। उपनिषद् कहते हैं कि जब सूर्य अस्त हो जाए, चंद्र अस्त हो जाए, अग्नि शांत हो जाए तो उस तमसा में पुरुष वाणी का आश्रय लेकर, बोलकर, पुकारकर ढाढ़स पाता है और बच निकलता है। कुबेरनाथ राय का निबंध-साहित्य इसी प्रकार का एक आश्रय है, जो हमें बताते हैं कि विगत कई दशकों से हमारी अदूर-दर्शिता के चलते भारतीय जीवन में जो छन्दहीनता आ गयी है, उसके छन्द-पतन को रोकना आवश्यक है और यह तभी संभव है जब हम आज तक ‘जो करते रहे उसके ठीक प्रतिकूल नहीं, तो उससे भिन्न दिशा में चलें । न वाम, न दक्षिण, बल्कि सम्मुख तीसरी आंख की सीध में चलें । न वामपंथ, न दक्षिण पंथ, बल्कि उत्तर पंथ की ओर चलें । अब हमें स्वर बदलना है। अन्यथा त्राण नहीं।’
मनोज कुमार राय*
गांधी अध्ययन विभाग
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय,वर्धा
ईमेल- manojkumarrai@hindivishwa.ac.in
मो-9404822608
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