Saturday, April 19, 2025

विश्वनाथ त्रिपाठी का सोवियत-प्यार और कुबेरनाथ राय का भारत-प्रेम मनोज कुमार राय सयाजीराव गायकवाड़ ग्रंथालय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय,वाराणसी के जर्नल स्टैक के एकांत में पड़ी मेरी रुचि की अनेक पुरानी पत्रिकाएं प्राय: मेरी राह देखा करती हैं। मैं भी उन्हें निराश नहीं करता। जब-जब काशी-यात्रा होती है, मेरे कदम अपने-आप उधर बढ़ जाते हैं। पिछले दिनों ग्रीष्मावकाश (मई-जून 2023) में काशी आया तो ग्रंथालय जाना हुआ। भयानक गर्मी और पंखा विहीन गलियारे में खड़े-खड़े बेतरतीब पड़ी कुछ पत्रिकाओं के अंकों को उलट-पुलट रहा था। अचानक ‘आलोचना’ पत्रिका के अक्तूबर-दिसंबर 1974 के अंक में कुबेरनाथ राय के निबंध-संग्रह ‘विषाद-योग’ पर आचार्य विश्वनाथ त्रिपाठी द्वारा शीर्षक-पैरोडी के साथ लिखी गई समीक्षा ‘विषाद-रोग’ पर मेरी नजर पड़ी। इस आलेख के बारे में कभी किसी ने चर्चा भी की थी। प्रत्यक्ष लेख और कुबेर-साहित्य में रुचि होने के कारण इसे पढ़ गया। पढ़ क्या गया, फोटो भी ले लिया। उम्र में कुबेरनाथ राय से लगभग दो वर्ष बड़े श्री विश्वनाथ त्रिपाठी दिल्ली विश्वविद्यालय के एक प्रतिष्ठित और खेमेबाज अध्यापक के रूप में समादृत तो रहे ही हैं उन्नीस सौ सत्तर के दशक में साहित्य जगत के मजबूत और एकाधिकारवादी वामपंथी-मार्क्सवादी खेमे के सक्रिय सदस्य भी रहे हैं। ‘आलोचना’ पत्रिका अपनी ना-धर्मी वामपंथी रुझान के लिए जानी जाती रही है। स्वाभाविक है कि श्री त्रिपाठी को इस पत्रिका में जल्दी ही लिखने की जगह मिल गई (इसे उन्होंने अपने एक साक्षात्कार में स्वीकार भी किया है) और वे इस पत्रिका के स्थापित लेखक/समीक्षक बन गए। कुबेरनाथ राय एक कृति की समीक्षा करते हुए लिखते हैं-“पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी ... के अनुसार आलोचना का मतलब होता है कृति के अंतर्निहित सौंदर्य का उद्घाटन और पाठक का उसके रस बोध के लिए प्रशिक्षण। वे स्वयं किसी कृति में मौज लेते थे और वे उस मौज को औरों में बाँटते थे। इसी से उनकी आलोचना में कहीं भी साँढ़-भैंसे नहीं हँकड़ते हैं।” मेरी भी निजी मान्यता है कि समीक्षक का मूल धर्म है रचना और रचनाकार की समीक्ष्य कृति से ईमानदारी से पेश आना । खास तौर से यह तब और जरूरी हो जाता है जब वह अध्यापन कर्म से जुड़ा हो। इसके साथ ही उससे यह भी अपेक्षा की जाती है कि आलोचना करते समय न केवल आलोच्य कृति अपितु लेखक की अन्य कृतियों और उस विषय पर लिखे गए दूसरे समकालीन लेखकों की रचनाओं से भी वह अवश्य परिचित हो । कुबेरनाथ राय भी ‘रचनात्मक अभिव्यक्ति के लिए भाव के स्पष्ट बोध अर्थात् भाव को उसके सारे कोणों, कटावों, नोकों के साथ खूब स्पष्टतः अनुभूत कर लेने को प्राथमिक आवश्यकता’ के रूप में देखते हैं। यहाँ मेरी भी कोशिश है कि कृति,कृतिकार और ‘विषाद-योग’ की समीक्षा को सिलसिलेवार उसकी समग्रता में देखूँ। किसी कृति पर लिखी गई समीक्षा पर टिप्पणी लिखना अपने आप में एक पंड-श्रम है। लेकिन कई बार यह जरूरी भी हो जाता है। यह कार्य प्राय: लेखक या उसके पाठक द्वारा किया जाता है। बतौर पाठक मेरे लिए यह कर्तव्य-श्रम इसलिए भी जरूरी है कि 21वीं सदी की पीढ़ी यह जान ले कि आजादी के कुछ ही वर्षों बाद कैसे गिरोह बनाकर किसी लेखक को हाशिये पर डालने की कोशिश शुरू हो गई थी। मार्क्सवादी-मकबरे पर उगा हिन्दी साहित्य जगत का एक खास कुनबा अपनी इस शकुनि-सोच के लिए विख्यात रहा है। विश्वनाथ त्रिपाठी भी उसी कुनबे से संबंध रखते हैं। उनके द्वारा ‘विषाद-योग’ पुस्तक पर लिखी गई समीक्षा पर आगे बढ़ने से पहले श्री राय और श्री त्रिपाठी की व्यक्तित्व-निर्मिति को भी संक्षेप में जान लेना जरूरी है। श्री राय और श्री त्रिपाठी दोनों का काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से संबंध रहा है। विश्वनाथ त्रिपाठी ने जहां स्नातक के बाद काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के श्री हजारी से ‘प्रसाद और आशीर्वाद’(पीएच.डी.) ग्रहण किया वहीं कुबेरनाथ राय ने स्नातक (बनारस) के बाद स्नातकोत्तर (अंग्रेजी में) के लिए कोलकाता का रुख किया और वहाँ ‘श्री हीन’ होना उचित न समझकर ‘पीएच.डी.’ की केंचुल (उपाधि-दौड़) से अपने को मुक्त तो किया ही, प्रो. हुमायूँ से ‘कबीर-पंगा’ भी लिया। श्री त्रिपाठी 1959 में दिल्ली-दरबार (कॉलेज) से जुड़े और वहाँ की साहित्यिक-राजनीति में बखूबी जम गए । उधर श्री राय उसी वर्ष सुदूर पूर्वोत्तर के एक पिछड़े इलाके नलबारी पहुंचे और 27 वर्षों तक रस आखेट करते रहे तथा जीवन के अंतिम दशक में वे अपने गृह जिला लौटे । इधर 1996 में श्री त्रिपाठी अपने सेवा काल से मुक्त हुए उधर श्री राय ने अपने गृह निवास में अपने को जीवनमुक्त कर लिया। विश्वनाथ त्रिपाठी द्वारा लिखित आलोचना-समीक्षा ‘विषाद-रोग’ आलोचना पत्रिका के कुल तीन पृष्ठ और कुछ पंक्तियों में फैली है जिसके प्रथम पैरे और अंतिम पंक्ति में आए ‘ईमानदारी’ शब्द पर ज़ोर देते हुए उनके द्वारा उसे अपना ‘कवच’ बनाया गया है। ऊपर संकेत किया जा चुका है कि समीक्षा में ईमानदारी सहज ही अंतर्भुक्त होती है। इसे समीक्षक ने भी अप्रत्यक्ष रूप से कागज पर ही सही स्वीकार किया है। अस्तु। श्री हजारी प्रसाद द्विवेदी विश्वनाथ त्रिपाठी के गुरु रहे हैं। गुरु के प्रति उनकी श्रद्धा स्वाभाविक है। लेकिन वे यह कैसे तय कर सकते हैं कि जैसे वे द्विवेदी जी की माला प्रतिक्षण जपते रहते हैं, उसी तरह दूसरे भी माला जपें। उन्होंने अपने समीक्षा लेख के शुरू में ही श्री राय पर दोहरा आरोप जड़ दिया है कि उन्होंने ‘आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी से सारी मुद्रा, शैली और उक्ति-भंगिमाएँ ले ली हैं।’ लेकिन जब वे ‘द्विवेदी जी का [ही] कहीं भी आभार-उल्लेख नहीं करते तो धर्मवीर भारती का ऋण [क्या] स्वीकार करेंगे ।’ त्रिपाठी जी के कथन से ऐसा लग रहा है गोया द्विवेदी जी ने अपने घर के किसी ताखे पर इन्हें (मुद्रा, शैली और उक्ति-भंगिमा) सजा कर रखा हो और एक दिन जब द्विवेदी जी सो रहे थे तब कुबेरनाथ राय ने चुपके से प्रवेश किया और उसे उठाकर अपने घर ले आए। बाद में त्रिपाठी जी को लाख खोजने के बाद भी वे चीजें नहीं मिली जिससे उस ‘मुद्रा, शैली और उक्ति-भंगिमा’ में वे (त्रिपाठीजी) अपना योगदान नहीं दे सके। द्विवेदी जी के साहित्यिक अवदान को स्वीकारना और माला जपना दोनों में बहुत फर्क है। श्री त्रिपाठी के लिए माला जपना महत्वपूर्ण है जबकि श्री राय के लिए उनका ‘राष्ट्रीय और साहित्यिक दायित्व’ महत्वपूर्ण था, व्यक्ति-विशेष नहीं। इसका यह अर्थ नहीं कि वे जब कहीं-किसी से संदर्भ लेते हैं तो उसका श्रेय उसे नहीं देते। तो फिर द्विवेदी जी या किसी और के प्रति कैसे अनुदार हो सकते हैं। श्री राय के शब्दों में उनके पहले ‘ललित-निबंध’ का धर्मवीर भारती ने न केवल ‘स्वागत’ किया अपितु अन्य ललित निबंधों को लिखवा लेने में भी उनकी प्रमुख भूमिका रही ।’ विषाद-योग से दो वर्ष पूर्व प्रकाशित निबंध-संग्रह ‘गंधमादन’ के एक निबंध ‘आधुनिकता: अकर्म से कर्म की ओर’ में ‘अंधायुग’ को कामायनी, उर्वशी और कुरुक्षेत्र के समकक्ष रखते हुए श्री राय ने लिखा है, “अंधा युग का महत्व इसी में है कि इसमें अतीत के माध्यम से आधुनिकता का सही बोध प्रस्तुत किया गया है ।” यदि श्री त्रिपाठी उनकी अन्य रचनाओं से परिचित होते तो वे ‘श्री राय का चिंतन ‘अंधायुगीन है’, जैसा निरर्थक वाक्य न लिखते । श्री राय शायद इकलौते निबंधकार होंगे जिनके लिए धर्मवीर भारती ने ‘प्रतिभाशाली निबंधकार’ के विशेषण का प्रयोग किया है । 1972 की ‘वीणा’ पत्रिका में ‘स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी निबंध’ नामक लेख में लक्ष्मी नारायण जोशी उस समय के प्रसिद्ध सभी निबंधकारों का परिचय और योगदान का जिक्र करते हुए लिखते हैं -‘ललित निबंध के क्षेत्र में कुबेरनाथ राय का प्रादुर्भाव वरदानी सिद्ध हुआ है’। अर्थात श्री राय इस निबंध-विधा के लिए वरदान सिद्ध हुए हैं। श्री नारायण चतुर्वेदी ने उन्हें ‘मौलिक चिंतक और सावधान लेखक’ के रूप में याद किया है। हालांकि यह भी सत्य है कि उस कालखंड के अनेक लेखक श्री राय के लेखन से परिचित होते हुए भी उनकी चर्चा न के बराबर करते हैं। ‘कल्पना’ पत्रिका के 25 वर्ष पूरा होने के उपलक्ष्य में डॉ विवेकी राय ने शृंखला-आलेख के माध्यम से पत्रिका और उसके साहित्यिक योगदान की चर्चा की है। यहाँ भी वे कुबेरनाथ राय के लिए केवल एक पंक्ति कहकर आगे बढ़ जाते हैं। इतना ही नहीं ‘कल्पना’ के इस शृंखला प्रकाशन के एक दशक बाद प्रकाशित अपनी पुस्तक में रामस्वरूप चतुर्वेदी श्री राय के योगदान को केवल ‘… मिश्र की भांति उन लेखकों में हैं जिन्होंने निबंध की विधा को पूरे मनोयोग और एकांत निष्ठा के साथ स्वीकार किया है,’ के रूप में चर्चा कर इतिश्री कर लेते हैं। साथ ही उन्होंने ‘विधा के स्वरूप और आंतरिक तत्व की प्रतिमानीकृत’ हो जाने की घोषणा करते हुए श्री राय के लिए सीमा-रेखा भी तैयार कर दिया है और अपनी सीमा/अध्ययन को भी ‘विषाद-योग’ पर ही रोक दिया है। डॉ नगेन्द्र द्वारा संपादित ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में डॉ बच्चन सिंह द्वारा गद्य-खंड को लिखा गया है। वे लिखते हैं-“ … मिश्र की तरह कुबेरनाथ राय हजारी प्रसाद द्विवेदी-संस्थान के निबंधकार हैं ... और [वे] उनसे मुक्त होकर नयी भंगिमा अपनाने के लिए निरंतर प्रयत्नशील हैं।’ और तो और उन्होंने श्री राय और शरद जोशी की तुलना भी की है और लिखते हैं- “कुबेरनाथ राय दृष्टि अभिसार में तीखा व्यंग्य करते हैं पर वह उतना पैना और अर्थगर्भित नहीं है, जितना शरद जोशी का व्यंग्य।’ कुल मिलाकर यह तो स्पष्ट ही है कि श्री राय जैसे स्फटिक-धर्मा निबंधकार को उनके समकालीनों ने ‘भांति’, ‘तरह’, ‘संस्थान के’ आदि से आगे देखने की कोशिश ही नहीं की है। विश्वनाथ त्रिपाठी हों या कोई और सभी साहित्य के भारी आचार्य हैं, और उनकी प्रतिभा पर किसी को संदेह नहीं है। फिर श्री राय के साथ ऐसा ‘दुर्व्यवहार’ क्यों? ‘साहित्य के मूल्य की सच्ची कसौटी’ तो तब होती जब 1948 में प्रकाशित ‘अशोक के फूल’ के साथ ही श्री राय के कक्षा आठ में पढ़ते समय लिखे और 1949/51 की माधुरी/विशाल भारत पत्रिका में प्रकाशित आलेख ‘साहित्य में भोगवाद/विज्ञान में भोगवाद’ को किसी ने देखने की कोशिश की होती। पर ऐसा हो न सका और विश्वनाथ त्रिपाठी भी ‘भांति’, ‘तरह’, ‘…संस्थान के’ चकोह में ही फंसे रह गए। कुबेरनाथ राय ने लेखकीय प्रेरणा के रूप में श्री नारायण चतुर्वेदी के स्नेह को स्वीकार करते हुए लिखा है, “सन 1962 में प्रो हुमायूँ कबीर की इतिहास संबंधी ऊलजलूल मान्यताओं पर मेरे एक तर्कपूर्ण और क्रोधपूर्ण निबंध को पढ़कर पं. श्रीनारायन चतुर्वेदी ने मुझे घसीट कर मैदान में खड़ा कर दिया और हाथ में धनुष-बाण पकड़ा दिया ।” सन 1962 में प्रकाशित एक लेख ‘आधुनिक सांस्कृतिक पक्षाघात’ में उन्होंने स्वीकार किया है कि वे स्वयं “साहित्य संबंधी विचारों में 'टैगोरिस्ट' है और श्री प्रियरंजन सेन, डॉ. सुबोध सेन गुप्ता एवं प्रोफेसर तारक सेन जैसे ‘टैगोरिस्टों’ के चरणों में बैठकर उसने विद्या-लाभ किया है।” अब भला इससे अधिक आदर कोई किसी को और कैसे दे सकता है ? लेकिन हिन्दी-साहित्य जगत के क्षितिज पर कब्जा जमाये हुए ‘चर्च’ के आतंक के प्रभाव का क्या कहना! वह दौर भी अद्भुत था। एक दूसरे की पीठ खुजलाने के लिए मशहूर इस चर्च दीक्षित और उनके प्रभाव में आने वाले सदस्यों ने श्री राय का नाम शायद ही कभी स्वीकार किया हो। श्री राय ने जिन-जिन लेखकों का नाम विषय-वस्तु के अनुरूप (1962 से लेकर 1996 तक) आदर सहित लिया है या उनके योगदान को आदर-पूर्वक याद किया है,उनमें से दो-तीन को छोड़कर शायद ही किसी ने उनका नाम अपने लेखन में या कहीं और अनुशंसित किया हो। जब कभी किसी ने नाम लेने की जहमत उठाई तो वह विश्वनाथ त्रिपाठी की तरह या तो ‘द्वेष-ग्रस्त’ रहा या फिर याद भी किया तो कुछ इस तरह कि ‘मसलन कुबेरनाथ राय नाम के एक ललित निबंधकार हैं वो . ... मिश्र जैसे ललित निबंधकारों से, जो जीवंत हैं, लोक जीवन के साथ भी जोड़ते हैं, लेकिन लेकर के पता नहीं कौन किस ‘प्रिया नीलकंठी’ में जी रहे हैं और ज्ञानपीठ उसे छाप रहा है, धर्मयुग प्रसारित कर रहा है और सबसे बड़े निबंधकार कुबेरनाथ राय हो गये हैं।’ लुके-छिपे चल रहीं ऐसी बातों से कुबेरनाथ राय बखूबी परिचित हैं-“मैंने इधर देखा है कि मेरे ऊपर जो कुछ थोड़ा बहुत कोई लिखता या कहता है, वह मेरी प्रथम कृति 'प्रिया नीलकंठी' को पढ़कर। किसी भी लेखक के मूल्यांकन और विश्लेषण में उसकी प्रथम कृति को ही दृष्टि में रखा जाये, यह उसके लिए दुर्भाग्यपूर्ण है, इससे अधिक क्या कहूं ! कभी-कभी और विचित्र बातें सुनता है। मैंने प्रिया नीलकंठी में 'चंडी थान' नाम से ललित निबंध लिखा-काव्य और दर्शन के दृष्टि क्रम से। उसी विषय पर 'निषाद बांसुरी' में लिखा है-नृतत्व और इतिहास के दृष्टि क्रम से। 'दृष्टि क्रम' अर्थात् 'पर्सपेक्टिव' के भेद से शैली और बोध में एक भेद आ जाता है और एक ही विषय भिन्न स्वाद, भिन्न बोध देता है। ऐसा मैंने जान-बूझकर किया है। परंतु मात्र शीर्षक पढ़कर एक सुधी ने फतवा दे डाला कि वे तो ‘चुक’ गये। नया कहने को कुछ नहीं, पुरानी चीजें दुहरा रहे हैं’। विषाद-योग की समीक्षा लिखते समय श्री त्रिपाठी भी इस कदर अवसाद-ग्रस्त हैं कि विषाद-योग संग्रह के कुछ निबंधों के नाम को गिनाते समय ‘प्रिया-नीलकंठी’ संग्रह का नाम भी उसी श्रेणी में रख देते हैं। श्री राय अपने एक निबंध-संग्रह की भूमिका में देशी-विदेशी अनेक विद्वानों का उल्लेख करते हुए लिखते हैं- ‘लेखक इन सारे पंडितों के प्रति श्रद्धा पूर्वक ऋण स्वीकार करता है।’ संदर्भगत ईमानदारी श्री राय का सहज स्वभाव है । अपने एक निबंध में उन्होंने ‘यजमानी प्रथा’ पर कुछ टिप्पणी की है। वहीं पर उन्होंने इस विषय की समझ के लिए बचपन के सहपाठी और इतिहास के आचार्य जयमल राय को याद किया है। रस-आखेटक संग्रह में वे भारती जी को कुछ इस तरह याद करते हैं “याद आता है डॉ. धर्मवीर भारती का निबन्ध : चिकनी सतहें और बहते आन्दोलन !" निबन्ध क्या है खतरे की घण्टी है।” यह संग्रह विषाद-योग से तीन वर्ष पूर्व 1971 में प्रकाशित हुआ था । लेकिन विश्वनाथ त्रिपाठी को तो साहित्य की राजनीति में अपनी पैठ बनाने की चिंता थी। यह पचने वाली बात नहीं है कि साठ और सत्तर के दशक की सभी श्रेष्ठ पत्रिकाओं में प्रमुखता से प्रकाशित हो रहे श्री राय के निबंधों से विश्वनाथ त्रिपाठी अथवा ‘आलोचना’ पत्रिका (जिसके बारे में यह अनुश्रुति है कि सत्तर का दशक उसका स्वर्ण काल है) का संपादक मण्डल परिचित न रहा हो । यहाँ यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि कुबेरनाथ राय के निबंध/लेख प्रत्येक पत्रिका के अनुक्रम में प्राय: ऊपर ही रहते थे । लेकिन जैसा कि कुबेरनाथ राय ने हजारीप्रसाद द्विवेदी को याद करते हुए लिखा है, “उनके किसी भी शिष्य ने उनके इस गुण-स्वभाव का उत्तराधिकार प्राप्त नहीं किया। जो आदमी वस्तुतः वेदव्यास था, उसे ये लोग महज द्रोणाचार्य मानकर ग्रहण किये।” आश्चर्यजनक तथ्य यह कि आदरणीय समीक्षक भी गुरु-प्रसाद में से केवल द्रोण-रस का ही आहरण कर पाये। आजादी के एक दशक बाद ही जब अपने-पराये बोध के साथ साहित्य जगत के आकाश पर ‘गीधहिं दृष्टि अपार’ लिए एक खास खेमा शैली और बाहुबल के ज़ोर पर अपनी धाक जमाने की कोशिश में लगा हुआ था तब श्री राय इससे बेपरवाह माँ भारती की सेवा में मगन थे। सुदूर पूर्वोत्तर के किरातारण्य से अपने प्रथम निबंध-संग्रह (1969) के प्रकाशन के साथ ही हुंकार भी भरा, “अब तुलसीदास की कुछ मधुर चौपाइयों ‘बहुरि बंदि खलगन सतिभाये...’ आदि का स्मरण कर के एक किनारे मैं भी जम रहा हूँ।” दरअसल यह आत्मविश्वास उन्हें ‘तुलसीदास की भूमि पर जन्म होने और उनके द्वारा दिये गए उत्तराधिकार का भागीदार होने के नाते’ प्राप्त हुआ है। कुबेरनाथ राय के लिए ‘निबंध लिखते रहना अपने आत्म-धर्म का पालन करना जैसा है’, न कि दूसरों की तरह पाठ्यक्रमों में प्रवेश या पुरस्कार का जुगाड़ । श्री राय संभवत: इकलौते भारतीय साहित्यकार हैं जिनको ‘निबंधों को लिखते समय सदैव अनुभव होता रहा: ‘अहं भारतोऽस्मि’ और जिंहोने केवल और केवल निबंध-विधा को ही अपना कंठहार बनाया। लेकिन समीक्षक को यह सब नहीं दिखा । आखिर दिखता भी कैसे? ‘आंखें जब विकार पीड़ित होती हैं, तो ज्ञान विकृत होता है और यह विकृति ज्ञानांधता तक भी जा सकती है।’ बुद्ध ने अपने शिष्यों को यूं ही नहीं कहा था कि ज्ञानाञ्जन के साथ-साथ नेत्रांजन का सन्दूक पात्र भी अपने साथ ले चलें। लेकिन लगता है कि त्रिपाठी जी चूक गए और गुरु से नेत्रांजन नहीं ले पाये । फलस्वरूप श्री राय के प्रति उनके मन में अमर्ष का कैक्टस अपना सिर उठा लेता है -‘‘जब पूंजी कम हो, अपनी शैली अर्जित न की गयी हो और हौसला हजारीप्रसाद द्विवेदी बनने का हो तब यही होता है।’ इसी के साथ वे मुफ्त की सलाह भी देते हैं,‘उन्हें सिद्ध साहित्यकारों की मुद्रा अपनाने की जल्दी नहीं होनी चाहिए।’ इसको जरा तफसील से समझना होगा। ‘विशाल भारत’ और ‘माधुरी’ के निबंधों को पढ़ते हुए बचपन से ही श्री राय के मन में ‘लेखक बनने का शौक’ (दिनांक 10/12/1984 को पंजाब विवि की शोधार्थी स्नेहलता पांडे जो श्री राय के निबंध-साहित्य पर शोध कर रहीं थीं, को लिखे गए पत्र से) पैदा हो गया था । फलस्वरूप मिडिल स्कूल से ही उन्होंने लिखना शुरू कर दिया –“8वीं दर्जे में पढ़ता तभी ‘माधुरी’ (तब रूप नारायण पांडे संपादक थे) लेख निकला था ‘साहित्य में मेरा वादा’ । (वही) स्कूल के ही दिनों (1949-53) में लिखे गए कुछ निबंध - ‘साहित्य में भोगवाद’, ‘विज्ञान में भोगवाद’ तथा ‘तर्क और वस्तु की परिधि में अलीकता’ इस बात की ताईद करते हैं कि ठोस पूंजी के साथ वे साहित्य में उतरने की तैयारी कर रहे थे ।‘साहित्य में भोगवाद’ लेख में कबीर,उमर ख़ैयाम, टैगोर,गेटे,पंत,बच्चन को साधिकार उद्धृत करना पूंजी में निरंतर समृद्धि का संकेत है। यह आलेख भी शायद तभी प्रकाशित हुआ था जब श्री राय सुदूर गाँव के मिडिल स्कूल के छात्र थे। मुझे लगता है कि श्री त्रिपाठी को यह आलेख अवश्य देखना चाहिए था। (मेरा तो निवेदन है कि यदि वे पूर्व में इस आलेख को न देख पाये हों तो उन्हें इस आलेख को अवश्य देखना चाहिए) रस-आखेटक संग्रह के शेक्सपीयर-होमर-वर्जिल पर लिखे तीन मोनोग्राफ और गंधमादन-संग्रह में आधुनिकता पर लिखे गए दो निबंध श्री राय की साहित्यिक कुबेर-पूंजी का प्रमाण देने के लिए पर्याप्त हैं। लेकिन श्री राय को तो हाशिये पर धकेलना था। और उसके लिए ‘आलोचना’ का प्लेटफॉर्म पहले से ही तैयार था, इसलिए विषाद-योग के प्रकाशित होते ही एक दशक पुराना आग्रह-राग समीक्षा के रूप में सामने आ गया। श्री राय ने इस तरह के ‘मोर्चे के सिपाहियों’ के ‘दुर्योधन-जंघे’ पर प्रहार करते हुए कभी लिखा था, “ मैं कुंठाहीन भाव से स्वीकार करता हूँ कि मैं हिन्दू हूँ। मेरी धारणा है कि जो अपनी पैदाइश को, अपने बाप को, वही इनकार करता है जिसके मन में चोर छिपा होता है जो भीतर ही भीतर हीनता ग्रंथि से पीड़ित होता है। हिन्दी साहित्य और भारतीय साहित्य में ऐसे लोग काफी हैं और मैं उनकी नाराजगी की परवाह नहीं करता।” सच तो यह है कि श्री राय की सर्वसाधारणता की लीक से अलग चलने की जिद तथा साहित्य में चर्च,पार्टी और वाद की न्यूनतम स्वीकारोक्ति इन ‘मोर्चे के सिपाहियों’ को स्वीकार नहीं थी । विस्तार, गहराई, उदात्तता और लालित्य से युक्त साहित्य श्री राय को सिद्ध साहित्यकार की श्रेणी में खड़ा करते हैं। शिविरबद्ध लेखकों को इसी से दिक्कत थी । 1974 तक प्रकाशित राय के चार निबंध-संग्रह और पत्रिकाओं में छपे लेख इस बात की ताईद करते हैं कि पश्चिम और पूर्व के साहित्य के मूल ग्रन्थों के साथ-साथ बीसवीं सदी का शायद ही कोई प्रमुख ‘पंडित’ होगा जिससे वे अपने पाठकों के मानसिक ऋद्धि के लिए उनके रस,बोध और मर्म से परिचय न कराये हों। गाँधी के अलावा बुद्ध, महावीर, मक्खलि गोशाल, कपिल, महिदास, शंकर, रामानुज आदि भारतीय चिंतकों तथा वैदिक, बौद्ध, जैन, शाक्त, शैव, वैष्णव, लोकायत आदि भारतीय चिंतन-परंपराओं के साथ-साथ गेटे,इलियट, वाल्देयर, सार्त्र, कामू, कीर्केगार्द, आटेन, वर्डस्वर्थ, कार्लाइल, रस्किन, तोलस्टोय और न जाने कितने रचनाकारों के विचार-मर्म के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष संदर्भ से उनका लेखन भर पड़ा है। चिंतन ही नहीं, भारतीय और पाश्चात्य कला दृष्टि, परंपरा और प्रतीक भी उनके लेखन के अनिवार्य अंग हैं। लौह कवच बद्ध शिविर में बैठकर समीक्षा लिखने वालों को शायद ही यह पता हो कि ‘विशाल- भारत’ के लिए भेजे गये लेख की समृद्ध ‘पूंजी’ को देखकर ही श्री बनारसी दास चतुर्वेदीजी ने उनको लेखक बनने का मुक्त कंठ से आशीर्वाद दिया था। हालांकि 1952 से 1962 लगभग एक दशक तक ‘लेखकीय अरुचि’ के कारण श्री राय की कलम लगभग बंद रही’।(स्नेहलता को लिखे गए पत्र से) पुन: कलम तभी उठी जब एक दशक के अज्ञातवास में पूंजी का कुबेर और समृद्ध हो गया। आजादी के बाद ही साहित्य और इतिहास में ‘सात समुद्र पार उन्नीसवीं शती में लिखी गई एक किताब के आधार पर’ साहित्य में ‘जन क्रांति’ का दिल्ली दरबार सजने लगा था। जिस तरह ‘गाँव के आसमान को गाँव के कबूतरबाजों द्वारा आपस में बाँट लिया जाता है और बिना खसरा-खतौनी के ही यह बन्दोबस्त प्रामाणिक मान लिया’ जाता है, वैसे ही जन क्रांति के अग्रदूतों ने साहित्य के आकाश को भी बाँट लिया और जिसे चाहा उसे जन-विरोधी,संस्कृति विरोधी, परंपरा की रुग्ण पकड़, परिवर्तन विरोधी आदि-आदि घोषित कर हाशिये पर ढकेलने की कोशिश की । यह सब एक खास रणनीति के तहत की जा रही थी। वरना क्या कारण था कि विश्वनाथ त्रिपाठी के इस कथन को कि ‘कुबेरनाथ राय के निबंध पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी से बहुत पीछे की चेतना’ है, को छह वर्ष बाद उनके गुरु टाइप गुरु-भाई ने दुहराते हुए कहा कि ‘कुबेरनाथ राय आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी से ज्यादा अतीत के कैदी’ हैं। दरअसल श्री राय संभवत: उस कालखंड के इकलौते भारतीय साहित्यकार हैं जो ‘सर्वहारा विश्व-बन्धुत्व’ और ‘इस्लामी विश्व-बन्धुत्व’ के कागजी मुखौटे को एक-एक कर जनता के सामने लाने के साथ ही उनके मर्म पर प्रहार करते जा रहे थे। वे लिखते हैं, “भारतीय कम्यूनिस्टों की भावना है कि कम्यूनिज़्म का प्रथम शत्रु है हिन्दू-वाद, अतएव भावी लड़ाई में मुसलमान बड़े काम की चीज साबित होगा।” ऐसी खुली चुनौती भला कैसे बर्दाश्त होती? विश्वनाथ त्रिपाठी की अनेक दिक्कतें हैं। अपनी समीक्षा लेख में किसी भी बिन्दु को तार्किक परिणति तक ले जाने की जगह अक्सर वे शाखा-मृग की तरह तेजी से उछल-कूद करते हुए नजर आते हैं। उनकी नजरों में द्विवेदी जी के निबंधों में कला-विनोद के साथ-साथ ‘निरन्न’ और ‘वस्त्रहीन जनता’ जैसे शब्द-प्रयोग उसे जीवंत और संदर्भवान बना देते हैं, लेकिन श्री राय के निबंधों में आए सजीव संदर्भ यथा पशुओं के गोबर से अन्न बीनते दलित, महुआ सुखाकर क्षुधा शांत करने वाली असहाय जनता,भूमि-समस्या, हरिजन समस्या, नारी-मुक्ति, जाति-भेद, असम में अवैध प्रवेश, ‘खाली मुट्ठी,खाली पेट,खाली हांडी साल भर तक अन्नपूर्णा की प्रतीक्षा करते धरती का शेषनाग किसान,’ ‘भूमि जिसकी माता है , बैल जिसका भाई है खेत जिसका बेटा है उसने कब नहीं सहा और कब उसे नहीं सहना होगा’ आदि अनेक शब्द-पद जन-विरोधी लगते हैं। रस-आखेटक संग्रह के ‘जम्बुक’ निबंध में आया गाँव का शब्द-चित्र मस्तिष्क को झकझोरने के लिए काफी है-“मेरे गाँव में दक्षिण तरफ डोमों की बस्ती है। उनके बच्चे जंगल-जंगल, बाग-बाग, खेत-खेत कोई जड़ी, कोई गाँठ, कोई कन्द, चाहे खाद्य हो या कुखाद्य ढूँढते-खोदते-खाते फिरते हैं ; मीठी भटकोंई हो या काषाय जड़, दोनों को चाव से खाते हैं ; ज्वार-बाजरे का डण्ठल चूसते हैं और बाजरे का ‘सीका’ (नये गुम्फ) जानवरों की तरह भरपेट खा जाते हैं । ये धरती का चप्पा-चप्पा छानते हैं कि कहीं विधाता की भूल से कोई रस की बूँद छूट गयी हो, तो उसका आहरण कर लें । पिता समाज ने इन्हें अधिकार वंचित कर दिया, तो क्षमामयी माता वसुन्धरा के हाथ में जो कुछ है, वह इनके हाथ पर वैसे ही रख देती है, जैसे मेले-ठेले के दिन कोई हस्तरिक्त गरीब माँ बेटे के हाथ पर मन के सम्पूर्ण दाह को दबाते हुए कहीं से पाँच नये पैसे का एक सिक्का लाकर रख देती है।” (रस आखेटक,पृ 129) करुणा के साथ विभुता और उदात्तता के मणिकांचन योग का इससे सुंदर उदाहरण दुर्लभ है। मतसा हो या शेरपुर, प्रत्येक गाँव का यही यथार्थ रहा है। अब ‘बिस्कोहर’ वासी इससे अपरिचित हो तो इसमें श्री राय का क्या दोष? हद तो तब होती है जब इन शिविरबद्ध ‘मैनेजरों’ की दुशासन-वृत्ति श्री राय की सांस्कृतिक चेतना को ही प्रश्नांकित करती है। संस्कृति,ऋत और शील श्री राय के लेखन के प्रस्थान-त्रयी हैं । इसे विकृति करने या किसी प्रकार से चोट पहुंचाने का प्रयास करने वाले हर विचार या व्यक्ति उन्हें अग्राह्य थे–“राष्ट्रीय स्तर पर तथ्यों की तोड़-मरोड़ का विरोध हरेक भारतीय द्वारा होना चाहिए, विशेषतः तब जबकि तथ्यों का संबंध संस्कृति और इतिहास से है। संस्कृति के विकारों का निराकरण निष्पक्ष होकर करना आवश्यक है, पूर्वाग्रह लेकर नहीं।”(सरस्वती,फरवरी1962) तथ्य-संदर्भ-विषय की ईमानदारी से वे किसी प्रकार के समझौते के लिए तैयार नहीं थे। उन्होंने पंडित नेहरू के ‘भारत माता की जय’ लेख में परिभाषित ‘भारतीय जनता की जय। ...भारतीय जन-गण’ का अतिक्रांत करते हुए भारत को ‘भारतीय मनुष्य, भारतीय धरती और भारतीय संस्कार साधना’ के त्रिक (ट्रिनिटी) के रूप में देखने और उसके प्रति रागात्मक बोध पैदा करने की बात की है। जब राजनीति घर के चूल्हे से लेकर दिल्ली दरबार तक सर्वग्रासी राहु-केतु के रूप में वर्चस्व स्थापित कर चुकी थी तब भी वे ‘एकला चलो रे’ के पथिक बनने के लिए तैयार हैं- ‘‘जिस देश के नागरिकों का पाप-पुण्य, अच्छा-बुरा, शिव-अशिव दोनों को राजनीति के नाम पर समान पूजा देकर स्वीकृति करने की प्रेरणा दी जाती है, उस राष्ट्र की बौद्धिक एवं सांस्कृतिक बरबादी निश्चित है।’’ (सरस्वती,फरवरी 1962) यह सहज ही कल्पना की जा सकती है कि वैसी विकट स्थिति में इसे (वर्चस्व को) अस्वीकार करना और इस अस्वीकृति को आचरण में ढालना कितना दुष्कर कार्य था । लेकिन जन्म-लब्ध 'ऋतंवरा प्रज्ञा' अपनी अस्मिता को दाव पर लगाने को तैयार ही नहीं थी । वे न तो किसी स्वार्थ के लिए लिख रहे थे न ही कोई राजनीतिक एजेंडा-लेखन कर रहे थे । इतना ही नहीं जब साहित्य के बालखिल्य और दुग्ध-दंत कुमार (त्रिपाठी जी की असल दिक्कत का कारण ये विशेषण ही हैं) तथा उनके ‘मैनेजर’ दिल्ली-दरबार से निकटता गांठ रहे थे तब श्री राय ने तत्कालीन राजनीति के कद्दावर नेता/मंत्री हुमायूँ कबीर को ‘इतिहास-संशोधन के प्रधान व्याख्याता और हमारी ‘संस्कृति’ के सरकारी विधाता’ विशेषण से नवाजते हुए उनके तर्कों को तथ्य से परे बता रहे थे । सच्चाई तो यह है कि श्री राय ‘साठ के दशक के कबीर यानि क्रुद्ध तरुण (यंग्री यंगमैन) थे’। आश्चर्य इस बात पर है कि जिसने खुलकर घोषणा की हो कि “साहित्य में अपनी दर है हिन्दुस्तानी लोक-संस्कृति-अतः बाहर-बाहर नील मरुत-प्रवाह में, या नीचे सुगन्धियों के जंगल में, चाहे जितनी हवाखोरी कर लें, पर लौट आता हूँ घूम-फिर अपनी दर पर ही। लोक-संस्कृति की चिन्मय और मृण्मय भूमि ही अपना असल ‘डीह’ है,”(निषाद बांसुरी, पृ.116) उसके सांस्कृतिक चेतना पर ही समीक्षक द्वारा प्रश्न उठाया गया है। यह आज भी एक रहस्य ही है कि ऐसा कर समीक्षक किस लोभ-साधना में लिप्त था! श्री राय का तो स्पष्ट कहना है कि “समष्टि मानस या जातीय मानस ‘धर्म और सौन्दर्योपासना’ से संस्कारों का ग्रहण एवं पोषण करता है। भारतीय संस्कृति ने इस देश में जो कुछ गुणवान एवं सुंदर हैं पहले से ही अपना लिया है।”(सरस्वती, सितंबर 1962) उनकी दृष्टि में ‘भारतीय कला और साहित्य, चिंतन और दर्शन तथा भाव-साधना में कमल सिंह, हाथी, बैल, सर्प, गाय, मयूर, हंस, कोकिल, कदंब, पीपल, वट, देवदारू (विशेषतः शिखरों की बनावट में) राधाकृष्ण, त्रिभंगी कृष्ण, नटराज, बुद्ध आदि भाव-धाराओं का जाल बिछा है।’ (वही) जरूरत है संस्कृति के मर्म में अनुप्रवेश की। वे निर्भ्रांत शब्दों में कहते हैं कि यदि ‘इन सब प्रतीकों को धर्म निरपेक्षता के नाम पर बहिष्कृत कर दें तो, सारा देश कुरूप हो जायेगा, अभिरुचि विकृत हो जायेगी एवं मानसिक संस्कारों के लिए कोई भूमि नहीं रह जायेगी कि वे पनप सकें। भारतीय कला और साहित्य, चिंतन और दर्शन इनके बिना जी नहीं सकते। इन प्रतीकों के बहिष्कार का अर्थ होगा भारतीय कला-साहित्य एवं चिंतन की मृत्यु ।... धर्म-निरपेक्षता बढ़कर संस्कृति-निरपेक्षता नहीं बननी चाहिए। राष्ट्रीय संस्कृति की आराधना सभी वर्गों को करनी चाहिए। यही कर्तव्य है, जिसका पालन करना राष्ट्रीय जीवन के लिए आवश्यक है।’ बीसवीं सदी के साठ-सत्तर के दशक में हिन्दी क्षेत्र के गांवों में सिर उठाती नवाबी 'कल्चर' और अंग्रेजियत की कलम से तैयार हो रही कॉकटेल संस्कृति के लंबरदारों की खबर लेने से भी वे नहीं चूकते हैं-“परंतु विशुद्ध रईस वर्ग का हिंदी प्रांतों की सांस्कृतिक, बौद्धिक एवं सामाजिक क्रांति में कुछ भी योगदान नहीं। भारतीय इतिहास की यह सबसे कापुरुष एवं क्षुद्र इकाई है जिसकी आत्मा सदैव मरी रही।” (वही) श्री राय को भरोसा है तो उसी वर्ग से जो अदृश्य कारणों से हाशिये पर था/है, "ब्राह्मण और क्षत्रिय सांस्कृतिक विरासत से शून्य होकर इसी कृत्रिमता को ओढ़े रहेंगे। उनसे मैं कुछ आशा नहीं करता । आशा करता हूँ निम्न वैश्य और शूद्र से जो लोक संस्कृति को अब भी विरासत की तरह संभाले चल रहे हैं।" (21/1/1974 को रामनारायन उपाध्याय को लिखे गए पत्र से) श्री राय के साहित्य में सांस्कृतिक चेतना के ऐसे महत्वपूर्ण सूत्रों को न देख पाने को ‘साहित्यिक-वर्णांध्रता’ के अतिरिक्त और कौन से संज्ञा दी जा सकती है? विश्वनाथ त्रिपाठी की समीक्षा से उनके ‘शब्द-प्रिय’ होने के शौक का पता चलता है। वे हर जगह शब्द-तलाश में भटकते फिरते हैं और चाहते हैं कि हर उस शब्द को जो उन्हें प्रिय है, ‘विषाद-योग’ निबंध संग्रह में दिखना ही चाहिए। लेकिन यह कैसे हो सकता है ? प्रत्येक पुस्तक और निबंध की अपनी मर्यादा होती है और वह उसी अनुरूप अपने को ढालता है। नाम-स्थान की अनुपस्थिति के साथ एक जो भारी चिंता का विषय श्री त्रिपाठी के लिए है, वह है श्री राय द्वारा वामपंथ और मार्क्सवाद के असलियत का उद्घाटन । वे सीधे नब्ज पर हाथ धर देते हैं, “आज वामपन्थ ही सबसे बड़ा सुविधावाद है। सारे चरित्रगत पापाचार को ढंकने का सर्वाधिक सीधा रास्ता है और सटीक उपाय है वामपन्थी भंगिमा । कभी वह समय भी था जब वामपन्थी होना एक बहुत बड़ा खतरा मोल लेना था, एक वीरतापूर्ण आवाहन था, एक अधूरी परन्तु तेजस्वी निष्ठा था। पर आज बात उलटी है ।” आजादी के बाद के चार-छह दशकों तक साहित्य और इतिहास के सरकारी संस्थानों से लेकर पुरस्कारों के मैदान में शकुनि-पाँसा का जो खेल खेला गया है वह सबके सामने है। श्री राय यहीं नहीं रुकते हैं। वे भरत-पुत्र हैं जिंहे शेरों के दाँत गिनने का शौक बचपन से रहा है। यहाँ तो उनका सामना जंबुकों से हो रहा था जो गोधूलि वेला के बाद ही माँद से निकलते हैं । वे इनके नकाब को प्रारम्भ में ही उतार देते हैं, “उनका सारा चिन्तन बड़ा ही बाजारू, तात्कालिक राजनीतिक सुविधा की ओर उन्मुख और प्रचार वादी है। इन ‘मर्कट’ वामपन्थियों ने परस्पर प्रशंसा आदान-प्रदान द्वारा स्वयं को स्वयं ही मूर्धाभिषिक्त कर लिया है।” श्री राय यहीं रुकते तब भी बालखिल्यों को संतोष हो जाता। लेकिन उनके स्नायु मण्डल में बैठा ‘मोहनजोदड़ों के सांड’ को तो जैसे संतोष ही नहीं है। वह हँकड़ता है-“जिस तरह से नाजियों ने हमारे पुरुषार्थ और वाङ्मय के प्रतीक 'स्वस्तिक’ को छूकर अपवित्र कर दिया, वैसे ही हमारे अरुण वर्ण को कम्युनिस्टों ने स्पर्श करके अपावन कर दिया। ये दोनों नाजी और कम्युनिस्ट मौसेरे भाई हैं और दो चोरों की तरह इनमें प्रगाढ़ बन्धुत्व और प्रगाढ़ दुश्मनी दोनों रहीं पर....।” वे एक-एक कर इनका कच्चा चिट्ठा खोलते जाते हैं, “भारतीय सन्दर्भ में मार्क्सवाद की आकृति क्या होगी, यह किसी वामपन्थी की चिन्तन-क्षमता के बाहर है। ... भारतीय मार्क्सवादी का मार्क्सवादी चिन्ता के विकास में क्या योगदान है, मुझे इसका उत्तर कहीं नहीं मिला। आचार्य नरेन्द्रदेव हों, एस. ए. डांगे हों या राजनीति के अध्यापन में संलग्न मुकुटबिहारी लाल हों, इनका मार्क्सवादी चिन्ता में क्या योगदान है ? इन्होंने ‘बुद्धू’ शिष्यों की तरह जो नोट और कुंजी रटकर पास होते हैं, मार्क्स की या मार्क्स पर लिखी पश्चिमी विचारकों की व्याख्याओं को ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया, अथवा उसे भिन्न देश काल के सन्दर्भ में रख कभी परखा भी ? इसका उत्तर नकारात्मक है । शुद्ध वामपन्थियों (कम्यूनिस्टों) से तो यह आशा ही नहीं क्योंकि वे अपनी बुद्धि और आँखें गिरवी रख चुके हैं।” श्री राय की इस बात को उच्चतम न्यायालय ने भी प्रमाणित किया है, “हमें शंका है कि इन्होंने मार्क्सवादी साहित्य को ठीक से समझा है अथवा कभी भी पढ़ा है । या तो ये मार्क्स के बारे में कुछ जानते नहीं, अन्यथा जानबूझकर मार्क्स, ऐंगिल्स एवं लेनिन की रचनाओं की अपव्याख्या कर रहे हैं।” श्री राय की असल चिंता है भारत,भारत धर्म और भारतीयता । इस भाव-संकुलता के खिलाफ जो भी गया उससे श्री राय की कभी नहीं पटी और वे मैदान में उतर ही जाते हैं-“अत: मैं आधुनिक भीड़ का अंग न बनकर कालिदास और मल्लिनाथ की राह पर चलना चाहता हूँ। आनन्द की शोभा यात्रा या जलूस तो सर्वदा निर्जन एकान्त का पथ पकड़कर चलता रहा है। अतः मैं भी अकेले ही सही-चिल्लाऊंगा : “मेघदूत-कामायनी जिन्दाबाद ! मानव-मन जिन्दाबाद ! मानसिक संस्कृति जिन्दाबाद !” मैं अकेले-अकेले सारे नरक को परास्त करूँगा। मैं अकेले-अकेले इस कसाईखाने में बैठकर भी यज्ञीय-पायस का रंधन करूँगा।” श्री राय ने अपने पूर्व के संग्रहों में भी अपनी मुख्य प्रतिज्ञा ‘अहं भारतोऽस्मि’ का सदैव ध्यान रखा है और भारत की प्रतिष्ठा और उसे विश्व-मन से जोड़ने की चेष्टा अनेकश: की है। उनके लिए युग बोध भी एक महत्वपूर्ण चीज है। इसलिए उन्होंने “निश्चय किया ... कि एक दिन पूज्य पिताजी जब सोये रहेंगे, तो उनके सिरहाने से ... फटी दीमक लगी किताब निकाल लाऊँगा और आग लगाकर फूँक दूंगा। ... तब हिन्दू धर्म के लिए एक नई पोथी लिखनी पड़ेगी ... उस नई किताब को मैं लिखूंगा, और जो-जो मन में आयेगा,सो लिखूंगा। आखिर मेरी बात भी तो कभी आनी चाहिए कि आजीवन मैं ‘हाँ,कहारी हाँ’ का ठेका ही पीछे से भरता रहूँगा ।” फिर एक सुयोग्य वंशज की भांति आनंद वर्धन हों या विवेकानंद, तुलसी हों या कबीर, कुमारस्वामी हों या राधाकृष्णन, गांधी हों या प्रेमचंद या कोई और श्रेष्ठ पूर्वज, सबके प्रति आदर भाव रखते हुए ‘मैं जो ठीक समझता हूँ वह कहूँगा ही’ से अनामिकाभिषक्त करने से भी नहीं चूके । और यह सब वह अपनी कुबेर-पूंजी के बल पर कर रहे थे न कि ‘पार्टीमैन’ या ‘व्यक्ति-निष्ठा’ के आधार पर जैसा कि विश्वनाथ त्रिपाठी ने ‘विषाद-रोग’ में किया है। श्री राय के निबंधों की खूबी है तथ्य,कथ्य,संदर्भ और लालित्य का मणिकांचन योग । दबे स्वर से ही सही विश्वनाथ त्रिपाठी स्वीकार करते हैं, “कुबेरनाथ राय प्रकृति-सौंदर्य के परम प्रेमी हैं,भावुक हैं, ‘ललित लवंग-लता-परिशीलन’ शैली के गद्यकार हैं, मोहक गद्य लिखते हैं । उनके पास सौंदर्य दृष्टि भी है।” लेकिन जल्दी ही वे बेचैन होकर कि ‘हाय यह मैंने क्या किया!’ और तुरंत अपने वर्णांध्र-रंग में आ जाते हैं -“यह गद्य शैली और सौंदर्य-दृष्टि उन्हें हिन्दी के पूर्व गद्यकारों से मिली है।” सच तो यह है कि पूरी समीक्षा में समीक्षक की यही कोशिश दिखती है कि श्री राय को कैसे हल्का दिखाया जाय। यदि कहीं कुछ शुभ दिखा भी तो उस पर यह टिप्पणी कि ‘उनके निबंध द्विवेदी से पीछे की चेतना ... भारतेन्दु युग से पूर्व रीतिकालीन दृष्टि से लिखे गये निबंध हैं।’ वे यदि श्री राय के निबंधों/लेखों पर वर्णान्ध्र-मुक्त होकर चिंतन किए होते तो उन्हें यह जरूर पता होता कि एक युग पूर्व ही श्री राय ने इस बात को रेखांकित करते हुए लिखा था, “कला और साहित्य के अंतर्गत मौलिकता ‘परंपरा का अभिनव विकास' मात्र है। कवि के मौलिकतम कृति में भी परंपरा तत्त्व का योग बारह आना रहता है और व्यक्तिगत प्रतिभा का सिर्फ चार आना मात्र।” एकांतिक निष्ठा,तप और श्रम से अर्जित की गई श्री राय की शैली अद्भुत और विशिष्ट है। समीक्षक ने प्राय: परशु-प्रहार करने की कोशिश की है। लेकिन श्री राय के गाँडीव के आगे उनके सारे अस्त्र-शस्त्र न केवल धरे के धरे रह जाते हैं अपितु यह भी साबित हो जाता है कि खास मोह-निशा से आच्छादित विचार किस हद तक लेखक को पूर्वग्रह युक्त कर देते हैं। कुबेरनाथ राय ने 1962 के सरस्वती में प्रकाशित एक लेख ‘इतिहास अथवा शुक-सारिका कथा’ में लिखा था कि ‘संन्यासी और इतिहासकार दोनों को चराचर-जितेंद्रिय होना चाहिए।’ किसी भी समीक्षक से यह अपेक्षा की जाती है कि वह ‘व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों और वर्गगत स्वार्थों की वंचनापूर्ण मरीचिका में, जल-कमल न्याय से, निर्विकार रहेगा।’ लेकिन यह तो हस्तामलकवत तब होता है जब हम ध्यान-योग में अपने को प्रतिष्ठित कर लें । तुलसी ने ‘कबिहिं अरथ आखर बल साँचा’ ऐसे ही नहीं कहा है। श्री राय इस हाँ-धर्मी क्रिया-योग की साधना के फलस्वरूप अपनी मूल प्रकृति के स्रोत से जुड़ चुके थे । तभी तो वे लिखते हैं -‘‘इसी से ठोस, झकाझक ठनठनाते अर्थ की चिन्ता न कर शब्दों के अर्थ की चिन्ता किया करता हूँ। माना कि भावों और विचारों से पेट नहीं भरता। पेट भरने के लिए ठनठनियाँ चाँदी का अर्थ ही चाहिए। परंतु इन भावों और विचारों के बीच मन अपूर्व स्थान पा जाता है। यह अपूर्व सुख है। जब तक संभव है यह अपूर्व स्नान करता ही चलूँगा, भले ही खाने के लिए बस बम-बम महादेव ही रहे।” तो श्री राय के लिए यह अपूर्व-स्नान जिसे अन्यत्र उन्होंने ‘मानस-स्नान’ कहा है, महत्वपूर्ण है। ‘मानस-स्नान’ के फलस्वरूप उनका लेखन सिद्धावस्था की ओर बढ़ता गया है और उनकी रचना में इसके चारो पाये-'संक्षिप्तता,' 'संतुलन', अर्थ-गाम्भीर्य' और 'उदात्तता' अपने आप उपस्थित हो गए हैं । इस सिद्धावस्था तक पहुँचने में उन्हें अपने को पल छिन होम करना पड़ा है। वे लिखते हैं- “मैं गाँव-गाँव, नदी-नदी, वन-वन घूम रहा हूँ । मुझे दरकार है भाषा की। मुझे धातु जैसी ठन-ठन गोपाल टकसाली भाषा नहीं चाहिए। मुझे चाहिए नदी जैसी निर्मल झिरमिर भाषा, मुझे चाहिए हवा जैसी अरूप भाषा। मुझे चाहिए उड़ते डैनों जैसी साहसी भाषा, मुझे चाहिए काक-चक्षु जैसी सजग भाषा, मुझे चाहिए गोली खाकर चट्टान पर गिरे गुर्राते हुए शेर जैसी भाषा, मुझे चाहिए भागते हुए चकित भीत मृग जैसी ताल-प्रमाण झंप लेती हुई भाषा, मुझे चाहिए वृषभ के हुंकार जैसी गर्वोन्नत भाषा, मुझे चाहिए भैंसे की हँकड़ती डकार जैसी भाषा, मुझे चाहिए शरदकालीन ज्योत्सना में जंबुकों के मंत्र- पाठ जैसी बिफरती हुई भाषा, मुझे चाहिए सूर के भ्रमरगीत, गोसाई जी के अयोध्याकाण्ड, और कबीर की ‘साखी’ जैसी भाषा, मुझे चाहिए गंगा-जमुना-सरस्वती जैसी त्रिगुणात्मक भाषा, मुझे चाहिए कंठलग्न यज्ञोपवीत की प्रतीक हविर्भुजा सावित्री जैसी भाषा।” यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि जिसे ऐसी भाषा की दरकार हो,जिसने ऐसी भाषा की साधना की हो, वह किसी की भाषा शैली का क्या नकल करेगा? यह एक तथ्य है कि श्री राय परंपरा के दाय को सदा ही आदर के साथ स्वीकार करते रहे हैं। यह उनका निजी संस्कार है। श्री राय के शब्द-प्रयोग पाठक को गुदगुदाते हैं, कल्पना के घोड़े पर बैठाते हैं और फिर कहते हैं-जा बेट्टा! लेकिन विश्वनाथ त्रिपाठी द्वारा उद्धरणों को संदर्भ-प्रसंग से काटकर किए गए शब्द-प्रयोग उनके निजी राग-द्वेष से आगे नहीं बढ़ पाते हैं । कुछ-देशी विदेशी लेखकों और क्रांति स्थलों का नामोच्चारण करते हुए वे आरोप लगाते हैं कि श्री राय के लेखन में इन नामों की अनुपस्थिति उनके चिंतन में ‘जन-सामान्य की आशा-आकांक्षा की उपेक्षा और शताब्दी के सांस्कृतिक योगदान में अधिकांशतः और प्रधानतः जनवादी और वामपंथी चेतना के योगदान की अस्वीकृति को दर्शाती है। समीक्षक यदि अपनी आँखों से संगठन-मोहाविष्ट की बंधी पट्टी हटाकर देखता तो ‘विषाद-रोग’ से मुक्ति हेतु जितनी भी जड़ी-बूटियों (पूर्व-पश्चिम के कम्यूनिस्ट-वामपंथी रुझान के लेखक और देश) का नाम-जप उसके द्वारा किया गया है, वे सब श्री राय के निबंधों में अपने ठेठ यथार्थ के साथ उपस्थित हैं, “मैं राइन-वोल्गा के तट पर अथवा कावेरी-ब्रह्मपुत्र के तट पर फूल बनकर फूटूंगा या गिरनार के जंगलों का सिंह बनकर दहाडूंगा या हरियाना का सेचन-समर्थ पुंगव वृषभ बनकर हँकडूँगा, या कहीं किसी वियतनाम के मुक्ति-संग्राम में रत रहूँगा या कहीं किसी हंगरी या चेकोस्लोवाकिया के किसी अखबार दफ्तर में बैठकर अग्रलेख लिखता रहूँगा जब बाहर लाल या काली सरकारी 'गाड़ी' मेरी प्रतीक्षा कर रही होगी एक दर्जन संगीनों के साथ।” श्री त्रिपाठी के लिए वामपंथ और मार्क्सवाद मकबरा और चर्च हैं जिसकी आलोचना उन्हें बर्दाश्त नहीं है। जबकि श्री राय ‘मनुष्य को छोड़कर अन्य किसी के प्रति साहित्य को प्रतिबद्ध नहीं मानते।’ आखिर सात समुद्र पार विचारधारा की स्थापना के लिए लाखों किसानों और मजदूरों की गयी हत्या को ‘तर्क के धोखे से कोई कैसे उचित ठहरा सकता है’ । श्री राय ने इसे ही लक्षित करते हुए कहा “यह गरीब का भाग्योदय नहीं; मुट्ठीभर पार्टी ‘मैनेजरों’ का भाग्योदय अवश्य है।” चार दशक बाद हारवर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस द्वारा प्रकाशित बहुचर्चित संपादित पुस्तक The Black Book of Communism ने इस बात को पुख्ता तौर साबित भी किया। श्री राय के लेखन की विशेषता है ‘रचनात्मक सामंजस्य’(creative balance)। यह शुरू से आखिर तक बना रहता है। वे कभी भी अनावश्यक अथवा निरर्थक बात नहीं कहते हैं। विश्व के हर ‘पंडित’ के प्रति उनके मन में सम्मान है। लेकिन वे अपने विवेक के साथ समझौता करने के लिए तैयार नहीं है। वे लिखते हैं-“मार्क्सवाद के पास आस्था का आदर्श है सही, पर वह आदर्श अभी जन-संस्कारों में प्रतिष्ठित नहीं हो पाया है। इसका कारण है रूसी और चीनी मार्क्सवादियों का चरित्र।” यह एक तथ्य है । लेकिन इसके साथ ही वे यह भी कहने से नहीं चूकते हैं कि “गीता-रहस्य, हिंद स्वराज और संविधान तीनों मेरी समझ से आदर्श हिंदुस्तान के अभिनव साम-ऋक और यजुर्वेद हैं और इन तीनों को यदि हृदय से स्वीकृत करके चौथे ‘दास कैपिटल’ के अथर्व का भी देश वरण करें तो कोई विशेष आत्मक्षय या हानि नहीं।” श्री राय ने अपने को ‘चैत्ररथी गद्य काक’ कहा है जिसके पास भले ही एक आँख हो पर वह सब कुछ देख सुन लेता है। लेकिन समीक्षक पता नहीं क्यों शुतुरमुर्ग-पुराण रचने में ही मशगूल था। श्री विश्वनाथ त्रिपाठी के कई आरोप तो अति अनोखे और हास्यास्पद हैं। इस छोटी समीक्षा में वे अपनी दो महत्वपूर्ण प्रूफ की गलती ‘पुरुखा’(पुरूरुवा) और ‘आध्यामिक’ (आध्यात्मिक) को भले ही नहीं देख पाये पर ‘विषाद-योग’ के शब्द-बंध ‘रोमहीन जघन’ में वे निजी काम-सीत्कार की ध्वनि (एक प्रूफ की गलती की) को अवश्य पकड़ लेते हैं और कल्पना कर लेते हैं कि श्री राय यहाँ पहुँचते-पहुँचते बेसुध हो गए होंगे। अब ऐसी ‘उदात्त कल्पना’ पर कौन न मर जाये ऐ खुदा! श्री राय ने मानस-राग की खेती खूब की है। फलस्वरूप प्रणय,दांपत्य,वात्सल्य जैसे स्थलों पर उनकी कल्पना उदात्त ही नहीं विशाल और विभुतासंपन्न हो उठी हैं। यह राग-मधु उन्होंने वाल्मीकि,कालिदास,भवभूति,पुराण सहित अनेक कवियों/लेखकों की रचनाओं से तैयार किया है, और इसे श्रद्धा पूर्वक स्वीकार भी किया है । पर इसका वर्णन करते हुए अपनी विवेक की छौंक लगाना (वही बारह आना+चार आना) नहीं भूलते हैं । जब श्री त्रिपाठी और उनके शिविर-धर्मी दिल्ली में साहित्यिक उठा-पटक और परकीया-राग में ऊभ-चुभ कर रहे थे तब श्री राय महज चालीस वर्ष की अवस्था में अर्जुन की तरह अपने गाँडीव को एक ओर रखने के बारे में सोचने लगे थे, “मेरी चौथी पुस्तक 'विषाद-योग' प्रकाशित हो गई है। निषाद-बांसुरी की छपाई काशी में शुरू है। लगता है कि साहित्य के दिन लद गये, इसी से कुछ लिखने की इच्छा नहीं होती, किन्तु अपने मानसिक संतुलन के लिए कुछ न कुछ लिखना पड़ता है।” श्री राय “‘सिद्ध साहित्य’ अथवा ‘उत्तम साहित्य’ कहलाने लिए (1) लेखक की अनुभूतिगत ईमानदारी (सब्जेक्टिव आनेस्टी) और (2) बालिग अभिव्यक्ति (‘एडल्ट’ या ‘मेच्योर एक्सप्रेशन’)" को परम आवश्यक मानते हैं। दुर्भाग्य से समीक्षक अथवा उनके शिविर-सहधर्मियों के पास यह दोनों ही अनुपलब्ध है। इसलिए समीक्षक को ‘बालखिल्य या दुग्ध दंत-कुमार’ का विशेषण नागवार लगता है। श्री राय की आजीवन दोस्ती रही है गाँव के अनपढ़ों और कथित रूप से कमजोर और अछूत जाति में पैदा हुए लोगों से । वे उनके अनुभव और ज्ञान के आगे नतमस्तक भी हैं। पर समीक्षक व्यंजना को ही नहीं समझ पाया और आरोप मढ़ दिया कि कॉलेज के अध्यापक होने के नाते उनके लिए ‘हाईस्कूल के अध्यापक भी निम्न श्रेणी के प्रतिमान हैं’।(आलोचना,वही) इसी तरह का एक और आरोप कि “कुबेरनाथ राय का ‘मैं’ पुस्तक के प्रत्येक पृष्ठ पर दिखाई देता है।” (वही) जबकि श्री राय का स्पष्ट मानना है कि “... इसमें [साहित्य में] आया ‘मैं’ भी मैं नहीं हूँ। साहित्य में ‘मैं’ सदैव समूहवाचक संज्ञा (Collective Noun) का अभिनय करता है।” आरोपों को धार देने के चक्कर में समीक्षक हँसुआ के बियाह में खुरपी का गीत भी गाते हैं- ‘ हम जानते हैं कि शंकराचार्य के बाद गीता के सबसे समर्थ व्याख्याकार बाल गंगाधर तिलक ने गीता को ‘कर्मयोग’ कहा है । क्या कारण है कि कुबेरनाथ राय को 'कर्म' से अधिक विषाद से अनुराग है।’ श्री राय तिलक के योगदान से बखूबी वाकिफ हैं- “गीता में कर्मवाद का दर्शन लोकमान्य तिलक के द्वारा हुआ। 'गीता रहस्य' कर्मवाद पर ही आश्रित है। इससे पूर्व 'गीता' को 'योग वाशिष्ठ' जैसा संन्यासी-साहित्य ही माना जाता था। गृहस्थों के लिए इसका उपयोग नहीं था। परंतु तिलक ने इसको नवीन दिशा प्रदान की। फल यह हुआ कि गीता राष्ट्रीय, सामाजिक एवं साहित्यिक आंदोलनों की मुख्य प्रेरणा स्रोत बनी। ऐसा लगता है कि समीक्षक शायद मधुसूदन सरस्वती (सोलहवीं सदी के दार्शनिक) जिसे श्री राय ने 'प्रचंड प्रतिभावान सन्यासी' कहा है, से ठीक तरीके से परिचित नहीं है। अन्यथा 'सबसे...' जैसी आत्यंतिक घोषणा से अवश्य बचते। मेरा तो मानना है कि यदि विश्वनाथ त्रिपाठी श्री नारायण चतुर्वेदी जी के संपादकत्व में प्रकाशित ‘सरस्वती’ पत्रिका के केवल 1962 से लेकर 1974 तक के अंकों का ही ठीक से वाचन कर लेते तो श्री राय की असल भाव-भंगिमा-मुद्रा, पूंजी, सिद्ध-भाव तथा अनासक्त कर्म आदि से सहज ही परिचित हो गए होते। कुल मिलाकर समीक्षा से गुजरते हुए तो यही लगता है कि ‘अहं भारतोऽस्मि’ के अप्रतिम साधक श्री राय के प्रति समीक्षक के सोवियत-प्यार ने उनसे आग्रह-पूर्ण लेखन के लिए प्रेरित किया था और वे खोज-खोजकर पुस्तक के कुछ उद्धरणों को संदर्भहीन ढंग से उद्धृत कर ‘क्रूरकर्मा वृकोदर’ को ही अपना पाथेय बना लेते हैं। श्री विश्वनाथ त्रिपाठी को यह जानना चाहिए कि ‘साहित्य का राजमार्ग अति विशाल है। साहित्य भीम और द्रौपदी तक ही जाकर नहीं रुकता है। वह युधिष्ठिर तक जाता है जिनका रथ महाभारत की लड़ाई में धरती से सदैव चार अंगुल ऊपर-ऊपर चलता था।’ गांधी अध्ययन विभाग महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय,वर्धा मो-9404822608, ईमेल- chinmay69@gmail.com

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