Saturday, April 26, 2025
*अनुत्तर योगी: स्वतंत्र सत्य संधानी कवि का अतलगामी धँसान*
*मनोज कुमार राय*
विश्वविद्यालय में मनाये जा रहे ‘साहित्य महोत्सव’ के लिए जब उपन्यासों का चयन किया जा रहा था तो संयोजकों की निर्मल कृपा से मेरे हिस्से में ‘अनुत्तर योगी’ उपन्यास आया जिसका नाम इसके पहले मैंने कभी नहीं सुना था। (उत्तर योगी का नाम जरूर सुना था)
एक-दो दिन बाद मेरे पड़ोसी और साहित्य के ‘नारायण गुरु’ ने मुस्कराते हुए अपनी खास भंगिमा में सवाल दागा- ‘क्यों कौन सा उपन्यास लिए हो’? मैंने उत्तर दिया -‘अनुत्तर योगी’ । वे भी इस उपन्यास का कभी नाम नहीं सुने थे। दो-तीन दिन बीतने पर उन्होंने पुन: ‘रचना’ के बारे में मेरी राय जाननी चाही। मैं उनसे क्या बताता कि यह ‘भीमकाय और पिष्टपेषण प्रधान साहित्य जो मेरे चांदी जैसे शुभ्र मन को अपने शब्द-गदा से प्रताड़ित कर रहा है’, उसे पढ़ जाना मेरी क्षमता और रुचि के बाहर की बात है। मेरे यह बताने पर कि चार खंडों में फैला1400 पृष्ठों का उपन्यास है, वे थोड़ा चौंके और चैन के सांस ली कि उनके जिम्मे इसका ‘एक बटा दस’ पृष्ठों का ही उपन्यास मिला है।
‘अनुत्तर योगी’ एक ऐतिहासिक उपन्यास है जिसके नायक हैं चरम तीर्थंकर महावीर । ऐतिहासिक उपन्यास की साधारण प्रतिज्ञायें भी होती है। इसकी आधारभूमि अर्थात विषय-वस्तु इतिहास पर आधारित होती हैं । चित्रपट बुनने तथा कथा के निर्वाह एवं विकास के लिए यह आवश्यक शर्त है कि उपन्यासकार इतिहास के जिस युग से सूत्र ले रहा हो, उस युग की पृष्ठभूमि और वातावरण का ठीक-ठाक परिचित हो । ऐसे उपन्यासों में ‘इतिहास और वर्तमान का’ तथा ‘यथार्थ और कल्पना’ का संतुलन होना चाहिए ।
ऐतिहासिक उपन्यासों के मुख्य पात्रों का इतिहास सिद्ध होना आवश्यक शर्त है । उन पात्रों के कार्यकलाप का अधिकांश भाग ऐतिहासिक दृष्टि से प्रामाणिक होना चाहिए । नायकों के सम्बन्ध में यथार्थ और कल्पना का प्रश्न सदैव सामने रहना चाहिए। ऐतिहासिक उपन्यास में लेखक किसी पात्र को इतिहास में मिलने वाले विवरण के आधार पर प्रस्तुत करने की कोशिश करता है । अत: प्रस्तुति में नीर- क्षीर विवेक आवश्यक हो जाता है। पाठक प्राय: भोला होता है। वह अपने अतीत से जुड़ने की कोशिश में इस तरह के लेखन से जुड़ता है और जब उसका जुड़ाव गहरा हो जाता है तब वह उसे यथार्थ मान लेता है ।
साहित्य की दुनिया में प्राय: कृति और कृतिकार के बीच भेद कर पढ़ने की गुजारिश की जाती है। लेकिन मेरा मन इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं होता है। यह एक खास किस्म का दुर्गुण है जो कवच-कुंडल की तरह जन्म-लब्ध है। अनेक मित्रों ने इसे छील कर अलग करने की कोशिश की पर वे असफल रहे।
साहित्य एक मानसिक कारबार है। इसका सृजन और आस्वादन दोनों मानसिक क्रियाएँ हैं। अर्थात पाठक को मानसिक खुराक और उपचार तो मिलना ही चाहिए। निजी तौर मैं किसी भी कृति में इसकी तलाश करता ही हूँ। स्वाभाविक है कि इस कृति को भी इस खराद पर कसने की कोशिश की।
यह तो मानी हुई बात है कि अहिंसा के अप्रतिम महावीर हिन्दू परिवार के एक ‘रेडिकल ब्वाय’ थे जिन्होंने उस कालखंड की विकृतियों को दूर करने की कोशिश की और एक नए पंथ -धर्म की स्थापना की। वे हमारे इतिहास के एक बड़े नायक और अगुआ हैं। ऐसे पवित्र और उदात्त व्यक्तित्व को केंद्र में रखकर लिखा गया उपन्यास अपने इस अप्रतिम नायक के साथ लेखक तथ्य, कल्पना,भाषा-शैली आदि स्तरों पर न्याय करने में कितना सफल रहा है इसे जानने के लिए आप सबको इस उपन्यास के पृष्ठों से गुजरना ही चाहिए। लेकिन यहाँ पाठक को सावधानी भी बरतनी होगी। क्योंकि ढाई हजार वर्ष पूर्व धरा पर अवतरित इस धीरोदात्त नायक के साथ न्याय करने के लिए हमारा इतिहास बोध भी समृद्ध होना चाहिए।
उपन्यास को हाथ में लेते समय सबसे पहला सवाल मन में आया कि इस उपन्यास में क्या है और इसे क्यों पढ़ा जाना चाहिए। तीर्थंकर को कितनी ईमानदारी से लेखक प्रस्तुत करने में सफल रहा है। अर्थात पाठक और लेखक की पहली मुठभेड़ यहीं से शुरू हुई।
चार खंडों में पसरे भीमकाय ग्रंथ को देखते ही मैं सिहर गया। मोटे-मोटे ग्रन्थों को पढ़ने की आदत नहीं है। तो यह एक प्रकार की यातना जैसी लगी । पर इससे गुजरना तो था ही। परमादेश जो था। अत: उलटने पलटने की कोशिश की और तीसरे खंड पर नजर टिक गई।
मैंने तीसरा खंड ही क्यों लिया? दरअसल इसके एक अध्याय ‘इतिहास का अग्नि स्नान’ का नाम देखकर लालसा हुई कि इसे ही पढ़ा जाय। पुस्तक हाथ में आई तो देखा कि लेखक ने परिशिष्टि में लिखा है कि ‘पहले कृति को पढ़ा जाय फिर संभावित प्रश्नों और शंकाओं के उत्तर इस ‘संयोजिका’ में खोजे जा सकते हैं’। अब मनुष्य तो आदम-हव्वा के जमाने से सेब खाने का अभ्यासी है । अत: मैंने भी ‘इतिहास का अग्नि स्नान’ ही पहले देखा। इस अध्याय में एक सार्थवाह आनंद-गृहपति का जिक्र है जिसके पास 12 करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं नकद हैं। जिसमें कुछ घर में है, कुछ व्यापार में लगाया है और कुछ चक्रवृद्धि व्याज पर लगाया है। अब जब उस जमाने में स्वर्ण मुद्राएं थी ही नहीं, या थीं तो बड़े पैमाने पर प्रचलन में नहीं थीं, तो ऐसा उपन्यासकार ने लिखा क्यों? उत्तर भी वह देता है- ‘छठी सदी के सटीक ऐतिहासिक ढांचे में मेरे महावीर को फिट करके जाँचना चाहेंगे तो उनके पल्ले भी निराशा ही पड़ सकती है’। अर्थात इतिहास की तरफ पाठक की नजर नहीं जानी चाहिए। लेखक सगर्व कहता है कि कुछ मित्रों ने ‘शास्त्रों में वर्णित अलौकिक तत्त्वों,चमत्कारिक अतिशय-प्रसंगों आदि को छांट देने की सलाह दी, लेकिन उन्होने “इन आउट-मोडेड’ मित्रों की सलाह नहीं मानी” । तो यहाँ लेखक ने स्पष्ट कर दिया कि उसे इतिहास से कुछ खास लेना देना नहीं है। हालांकि एक स्वीकृति जरूर है कि ‘इतिहास में उपलब्ध तथ्यों का चुनाव मैंने नितांत अपनी सृजनात्मक आवश्यकता के अनुसार किया है।’ सृजन की आवश्यकता ऐसी पड़ी कि लेखक ने ‘मौर्यपुत्र काश्यप’, बुद्ध और उनके शिष्य आनंद तथा आश्रम में स्त्री प्रवेश की चर्चा’ कर डाली। तब जबकि ये सारे पात्र महावीर की मृत्यु के बाद के हैं। मन में तथ्य और कथ्य को लेकर शंका पैदा हुई।
एक सवाल मन में आया कि आखिर इस रचना का प्रेरणा-स्रोत क्या है? छानबीन करने पर पता चला कि महावीर की 2500 वीं निर्वाण शती की गुंजायमान वातावरण ने इन्हें प्रेरित किया। सही बात है । निर्मल वर्मा अपने एक निबंध में लिखते हैं-‘स्वप्न की तरह हर स्मृति की अपनी बिम्ब-भाषा होती है-वह कहीं से भी उत्प्रेरित हो सकती है; वैदिक ऋचाओं,पौराणिक कथाओं अथवा महाकाव्यों से।” तो वीरेंद्र जैन का महावीर के प्रति उत्प्रेरित होना स्वाभाविक है। यहीं से उपन्यासकार ‘मेरे चांदी जैसे शुभ्र मन को अपने शब्द-गदा से प्रताड़ित करना शुरू कर देता है’ और मैं पंड श्रम का शिकार हो जाता हूँ। लेखक लिखता है कि “एक व्यक्तित्व प्रधान वैचारिक महा गाथा बनी है तो उसके निर्णायक और विधायक महावीर ही रहे हैं मैं नहीं’ । यह लेखक की विनम्रता है। होनी भी चाहिए। लेकिन अगले ही वाक्य में यह कहना कि ‘मैं महावीर के जीवन सृजन में सफल हो सका या नहीं, यह महावीर खुद जानें’। यहाँ अपना पल्ला सीधे झाड़ लेते हैं।
लेकिन ‘पिक्चर अभी बाकी है दोस्त’ की तर्ज पर फिर अवतरित होते हैं और कहते हैं-“यहाँ प्रस्तुत महावीर अंतत: एक कलाकार के अंत: साक्षात्कार (विजन) में से ही प्रतिफलित और प्रकाशित हुए हैं।” (विजन को परा दृष्टि कहते हैं)-‘यह कृति मेरा कर्तृत्व नहीं मेरे माध्यम से स्वयं उन भगवान का स्वैच्छिक प्रकटीकरण है। -‘ महावीर को रचने वाला मैं कोई नहीं होता । तो ‘हाँ’ ‘ना’ का खेल रचते हुए उपन्यासकार फिर कहता है-‘सृजन के इस बेमुद्दत लंबे रियाज के दौरान, मैंने कला-संभावना के कई अद्भुत द्वीप खोज निकाले,और कथ्य तथा शिल्प के कई अज्ञात और अकूत खज़ानों की कुंजिया मेरे हाथ लग गई’। और घोषणा भी कर देता है कि ‘पूरे अर्वाचीन भारतीय वांगमय में यह किताब अपनी तरह की बहुत अलग साबित हुई है।’ तो इस उपन्यास को समझना इतना आसान नहीं है।
कुबेरनाथ राय अपने एक निबंध ‘विपथगा’ में लिखते हैं कि “किसी भी कृति को पढ़ने पर कोई ‘तीव्र बोध’ या 'क्षुरधार सजग दृष्टि' प्राप्त होनी चाहिए।” अर्थात बोध और दृष्टि और साफ होनी चाहिए। यह बात एकदम सही है। अनुत्तर योगी का लेखक इस बात से परिचित भी है। तभी तो उन्होने अपनी तीव्रता क्षुरधारता का दावा तूर्यकण्ठ से घोषित किया है- “मेरी संवेदना और कल्पना स्वभाव से ही पारान्तर-वेधी है। अपनी स्वभावगत तीव्रता,वेधकता और विदग्धता के चलते महावीर के रचना में मुझे काफी सुविधा हुई। एक स्वतंत्र सत्य संधानी कवि हूँ। वे अपने को ‘महावीर का आत्मज कवि वीरेंद्र’ भी घोषित करते हैं। और बड़ी विनम्रता से कहते हैं- कोई भी मौलिक प्रतिभा का सर्जक कलाकार, अपने भीतर मौलिकता का यत्किंचित प्रकाश लेकर जन्म लेता है। वह योग्य और तीर्थंकर का ही एक सारस्वत सूर्यपुत्र होता है । इसी से वह शास्त्र और इतिहास पढ़ कर रचना नहीं करता वह सिंह नूतन शास्त्रों इतिहास का निर्माता होता है।” तो ‘इतिहास निर्माता’ से मुलाक़ात की इच्छा रखने वाले पाठक चाहे तो इस पुस्तक के पृष्ठों से गुजर सकते हैं।
‘कथ्य तथा शिल्प के कई अज्ञात और अकूत खज़ानों’ से भरपूर यह उपन्यास अद्भुत है। इसके कुछ नमूनों से परिचित होना आवश्यक है। वे लिखते है- ‘मेरे चिरकाल की सत्यान्वेषी दृष्टि, महाभाव चेतना और सौंदर्य बोध में जो तथ्य अनायास आत्मसात हो गए, उन्हीं का उपयोग मैंने किया है’। यहाँ भी लेखक एकदम सहज है। 1400 पृष्ठ का उपन्यास लिखना सामान्य बात नहीं है। इस बात का स्पष्ट संकेत भी मिलता है जब वे कहते हैं कि ‘विषय की असाधारणता के अनुरूप,अपना विलक्षण शिल्प-विधान, मेरी रचना प्रक्रिया में आपो आप प्रस्फुटित होता चला गया है’। बिना अनुग्रह के ऐसी रचना संभव नहीं है। वे हमारे लिए इसका एक उपाय भी सुझाते हैं- ‘भूत,वर्तमान भविष्य की किसी भी सत्ता को लक्ष्य कर यदि एक सतेज संकल्प,शक्ति से हम उसे खींचे, तो वह सत्ता यथावत हमारी मानसिक चेतना में मूर्तिमान हो सकती है’। इसलिए उनके लिए महावीर एक जीवित मनुष्य की तरह चलते दिखे हैं और वे फ़ाइन आर्ट के विद्यार्थी की तरह ‘अनिमेष नासाग्र पर टिकी उनकी दृष्टि’ महावीर की ‘रोमानी भूमा’ का स्केच बनाते चले गए हैं।
जैन दर्शन के त्रिभंगी तत्व से निर्मित इस उपन्यास के तीसरे खंड के अंतिम पृष्ठ का एक वाक्यांश उद्धृत कर रहा हूँ- “आश्चर्यों का आश्चर्य है कि प्रशिष्ट पाठक इस किताब को अक्सर दुरूह और सामान्य पाठक की पहुँच के बाहर कहते सुने जाते हैं।” आपको जानकार आश्चर्य होगा कि जितनी बार मैंने इस खंड को अपने हाथ से उठाया हर बार मुझे अपने प्रिय लेखक की याद आती रही । उन्होने लिखा है -मैं पठन-श्रम के पुरस्कार से वंचित हो रहा हूँ जो पाठक का मौलिक अधिकार है और जो साहित्य का प्रथम दायित्व है और मुझे खाली हरारत हो महसूस होती है। 'रस' मत दो, आनन्द मत दो, व्यथा मत दो ; परन्तु कुछ तो मिलना चाहिए, कोई अन्य 'तीव्र' बोध या 'क्षुरधार' संवेदना ही सही, कोई तीक्ष्ण व्यंग या विडम्बना ही नहीं।” लेकिन इस उपन्यास को पढ़ते हुए जो भी मिलता है वह है 80 प्रतिशत चौंकाने वाली भंगिमा और 20 प्रतिशत ऊब और हरारत । कुछ उदाहरण देखिये-
उनके भीतर उज्ज्वल पानियों में शुद्ध परिणमन की गहन सारंगी बज रही है।
गाय के स्तनों की दूध भरी उष्मा में।
सर्वज्ञ की दिव्य ध्वनि झेलें, आत्मसात करें।
श्वेत कमलों के पावड़े रचाए। ।
अपने एक भ्रूभंग मात्र से समवशरण की मायापुरी को भ्रूसात कर देंगे ।
कोई बलात्कारी बाहुबल उन्हें कस रहा है ।
सारा ब्रह्मांड जैसे एक प्रकांड मृदंग की तरह बजने लगा ।
मैं इतिहास की पूरी सड़ांध को आरपार स्पष्ट देख रहा हूं ।
अनाहत रक्तदान ।
एक विचित्र खूनी मृत्यु गंध से राजा मोहित और मत्त हो उठा ।
मुनीश्वर के अंगों से लिपटकर रभस करने लगा।
सलोनी बाहों के तकियों में सिलवटें पड़ जाती हैं।
दिगंबर से परे तुम चिदम्बर हो आए ।
उनका सौंदर्य और यौवन पूर्णिमा के समुद्र की तरह कल्लोलित और हिल्लोलित दिखाई पड़ा।
मामा की बेटी को भाजा न ब्याहे तो कौन ब्याहे।
“Poetry blossoms out of Anger” “क्रोध से ही कविता के फूल जन्मते हैं।” सच्चा क्रोध किसी अमूर्तन की तलाश नहीं करता है। साहित्य सच्चे क्रोध को व्यक्त करने का माध्यम है। अभिव्यक्ति के लिए उदात्त भाषा की जरूरत है। यह तभी संभव है जब हम सचमुच में अपने प्रति ईमानदार हों। जब ‘हम रामायण, महाभारत, 'रघुवंशम्', ‘रामायण महातीर्थम’ आदि का एक पन्ना भी पढ़ते हैं, तब लगता है कि मन समृद्ध हुआ है, हमें कुछ प्राप्त हुआ है’ और मन उदात्त कुचालें भरने लगता है। एक ताजी हवा का झोंका जैसे छू जाता है। भीतर-ही भीतर ‘तेज: प्रचंड’ जैसा अनुभव होने लगता है। इस उपन्यास को पढ़ते समय इस तरह का कोई अनुभव नहीं होता है।
एक और बात । जब जीवन के पाँच दशक बीत गए हों और औसत आयु के हिसाब से बमुश्किल से डेढ़ या दो दशक का जीवन शेष है। तो ऐसी अवस्था में 'रामचरित मानस' सहित आधा दर्जन से भी कम प्रिय लेखकों को पढ़कर ‘शाप-ताप से कुछ मुक्ति का अनुभव कर लूं और अपने भीतर निरन्तर पोषित मानवीय मुमुक्षा को पराजित करूं’, या अथवा ‘लिखने के लिए लिखे’ गए उपन्यास को पढ़कर शेष बची उम्र को व्यर्थ करूँ ? यहाँ तो न तो 'राम' है, न 'माया' है। उपन्यास में ऐसा कुछ है नहीं जिसको साधारणीकरण के स्तर पर लाकर 'रस' या 'बोध' कुछ भी कहा जा सके। बोध के नाम पर निजी 'अति व्यक्तिगत' मानस-भोग है जिसमें किसी 'सार्वजनीन' साधारणीकृत 'बोध' का नितान्त अभाव है।
सच तो यह है कि इस उपन्यास को पढ़ने पर सिर्फ हरारत,थकावट,झुंझलाहट के साथ-2 ऐसा उपन्यास क्यों लिखा आदि का ही अनुभव होता है। एक कहावत है ‘खोदा पहाड़ निकली चुहिया’ । यहाँ भी ‘आपको चुहिया मिलेगी। वह है तकनीक,भंगिमा या शब्दों का चमत्कार’। किसी ने लिखा है -“प्रत्येक अनुभव सार्थक होने के लिए शब्द पाना चाहता है। शब्द न पाना, नाम न पाना, अनाम रह जाना एक बहुत बड़ी व्यथा है’।
भाषा की सार्थकता शब्द के सन्दर्भगत प्रयोग में होती है। शब्द तो निष्क्रिय घटक समान हैं। प्रयोग के द्वारा ही उनमें सचेतनता का संचार किया जाता है। बोध-अनुभूति-स्मृति को अपनी सार्थकता सिद्ध करने के लिए शब्द और वाक्य रूप से जुड़ना पड़ता है। उपमर्द की यह व्यथा/क्रिया बड़ी जटिल होती है। अंदर की अनुभूति जितनी साधारणीकृत होती है, उसकी अभिव्यक्ति उतनी ही प्रभावोत्पादक होती है। कुबेरनाथ राय का लिखा गया यह आर्ष वाक्य कि ‘आलोचना लिखने और ट्यूशन करने का अर्थ होता है अपनी ही आत्मा की दुर्दशा करना । इससे धृति और मति कुंठित होती है’, यह कथन सटीक बैठता है जब आपके हाथ में एक पवित्र-पुरुष को केंद्र में रखकर लिखा गया उपन्यास ‘अनुत्तर योगी’ हो।
Sunday, April 20, 2025
भारतीयता की तलाश और श्री कुबेरनाथ राय/की भारत चिंता
भारत और भारतीयता की बात को आजकल फैशन के तौर पर जहां-तहां खूब उठाया जा रहा है। शिक्षाविद से लेकर राजनीतिक कार्यकर्ता तक सभी अपने-अपने हिसाब से सक्रिय हैं । पर सच तो यह है कि यह सिर्फ स्थापित पार्टी-राजनीति के लंबरदारों के कानों तक पहुंचाने की कोशिश भर ही है । तात्कालिक लाभ के लिए इसे एक हथकंडे (टूल) की तरह इस्तेमाल करना हम सब की आदत बन गई है । कोई नारे लगवाकर अपनी स्पृहा की संतुष्टि चाहता है तो कोई दूसरों से ज्यादा स्वयं को राष्ट्रभक्त साबित करना चाहता है । कुल मिलाकर कहें तो उसके तत्वों के विश्लेषण के गंभीर प्रयत्न नहीं हो रहे हैं । दरअसल भारतीयता को समझने के लिए ‘भारतीय मानस’ को समझना जरूरी है। यह एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें अनुसंधान और चिंतन बहुत कम हुआ है। आज जब देश में विघटनमूलक और विच्छिन्नतावादी राजनीति अपना रूप बदल-बदलकर सक्रिय है तब इस पर गहन चिंतन-मनन की आवश्यकता और बढ़ जाती है।
भारतीयता पर विचार करते हुए गांधीवादी चिंतक श्री कुबेरनाथ राय एक साथ अनेक प्रश्न उठाते हैं : ‘भारतीयता क्या है ? इसका ढांचा कैसा है? इसकी परिभाषा क्या है? इसकी आवश्यकता क्या है ? इसकी पहचान कैसे की जाय’? भारत से हम कैसे जुड़ सकते हैं? हम जानते हैं कि ये प्रश्न नए नहीं हैं । पर ये प्रश्न इसलिए जरूरी हैं कि इन्होने हमारी कई पीढ़ियों को उद्वेलित किया है और आज भी इस पर बहस जारी है । किन्तु किसी निश्चयात्मक उत्तर तक हम नहीं पहुँच पाये हैं । शायद पहुंचा भी नहीं जा सकता है- “भारतीय संस्कृति या भारतीयता क्या है? यह एक ‘अति प्रश्न’(चरम प्रश्न) है। ‘अति प्रश्न’ का उत्तर परिभाषित करना संभव नहीं । जहां परिभाषा संभव नहीं वहाँ एक मात्र समाधान है ‘पहचान’ बनाना ।”(मराल,पृ.160) इस उद्घोष के साथ ही श्री कुबेरनाथ राय लेखन क्षेत्र में उतरते हैं और न केवल उतरते हैं अपितु इसकी पहचान की तलाश में गंगातीरी/भोजपुरी इलाके से लगायत ईशान कोण से प्रवहमान ब्रह्मपुत्र और काजीरङ्गा तक की यात्रा करते/कराते हैं ।
कुबेरनाथ राय अपने लेखन-उद्देश्य के प्रति सतत जागरूक रहे हैं-‘‘सच तो यह है कि मेरा सम्पूर्ण साहित्य या तो क्रोध है,नहीं तो अंतर का हाहाकार । पर इस क्रोध और आर्तनाद को मैंने सारे हिंदुस्तान के क्रोध और आर्तनाद के रूप में देखा है। इन निबंधों को लिखते समय मुझे सदैव अनुभव होता रहा : ‘अहं भारतोऽस्मि’।” ।(रस-आखेटक,पृ॰195) अपने एक निबंध संग्रह के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं- “निषाद-बांसुरी’ संग्रह का एक गौण उद्देश्य यह भी है : भारतीयता का प्रत्यभिज्ञान,अर्थात भारत की सही ‘आइडेंटिटी’ का पुनराविष्कार,जिससे वे जो कई हजार वर्षों से आत्महीनता की तमसा में आबद्ध रहें हैं..... ।’’(निषाद बांसुरी,पृ॰244) श्री राय अपने सम्पूर्ण लेखन में उनकी अनिमेष लोचन-दृष्टि भारतीयता के गुणसूत्रों की तलाश करती है- “जिस ‘भारत’ की बात मेरे सम्पूर्ण साहित्य में आती गई है वह है इस देश का ‘चिन्मय’ और ‘मनोमय’ संस्करण। वह चिन्मय और मनोमय रूप किसी प्रकार की क्षुद्रता और संकीर्णता से ऊपर है। शिवत्व,बुद्धत्व,रामत्व ही इसके प्रतीक हैं।”(मराल,पृ 168)
श्री राय की नजर में यह ‘भारतीयता’ किसी एक की बपौती नहीं अपितु ‘संयुक्त उत्तराधिकार’ है। और इस उत्तराधिकार के रचयिता सिर्फ आर्य ही नहीं रहे हैं। वस्तुत: आर्यों के नेतृत्व में इस संयुक्त उत्तराधिकार की रचना द्राविड़-निषाद-किरात ने की है । ग्राम-संस्कृति और कृषि-सभ्यता का बीजारोपण और विकास निषाद द्वारा हुआ है । नगर सभ्यता, कला-शिल्प, ध्यान-धारणा, भक्तियोग के पीछे द्राविड़ मन है । आरण्यक शिल्प और कला-संस्कारों में किरातों का योगदान है । श्री राय के लिए ‘भारतीयता’ कोई अमूर्त अथवा यूटोपिया नहीं है अपितु प्रत्यक्ष सगुण रूप है- “मुझसे जब कोई पूछता है कि ‘भारतीयता क्या है’ तो मैं इसका एक शब्द में उत्तर देता हूँ, वह शब्द है ‘रामत्व’-राम जैसा होना ही सही ढंग की भारतीयता है। हमारे युग में भी एक पुरुष ऐसा हो गया था जिसने राम जैसा होने की चेष्टा की और बहुत कुछ सफल भी रहा । वह पुरुष था महात्मा गांधी ।” (त्रेता का वृहत्साम,पृ.165) श्री राय के लिए ‘भारत’ कोई ‘मानसिक भोग’ या ‘भौगोलिक सत्ता’ नहीं है। यह उससे बढ़कर ‘एक प्रकाशमय,संगीतमय भाव-प्रत्यय या चैतन्य-प्रतिमा का रूप’ तो है ही ‘अधिक सत्य एवं शाश्वत’भी है ।(कामधेनु,पृ.90) श्री राय का आग्रह है कि ‘भारत’ को मात्र एक राजनीतिक और भौगोलिक इकाई के रूप मे न देखकर उसे भारतीय मनुष्य,भारतीय धरती और भारतीय संस्कार के त्रिक के रूप में देखना चाहिए। एक राजनीतिक इकाई मात्र मान लेने से ‘भारत’ का अस्तित्व एक मतदाता सूची में बदल जाता है। एक भौगोलिक इकाई मात्र स्वीकार कर लेने पर उसका बंटवारा हो सकता है । पर एक संस्कार समूह और बोध सत्ता के रूप मे उसका विशिष्ट निराकार रूप कालजयी है- “भारत की यह निराकार मूर्ति (अर्थात ‘संस्कार समूह’ के रूप में) सूक्ष्मतर होने की वजह से अधिक कालजयी है। कोई जवाहरलाल या कोई जिन्ना इसका’ पार्टीशन’ या बंदर-बाँट नहीं कर सकता ।” (कामधेनु,पृ.90) गांधी ने भी ‘हिन्द-स्वराज’ में इसी बात को थोड़ा और गर्वीले भाव में कहा है -‘हिंदुस्तान को बहुत से अक्ल देने वाले आए और गए पर हिंदुस्तान जस का तस रहा’ । अपने एक अन्य निबंध संग्रह ‘मराल’ में श्री राय ‘भारतीयता’ को और भी स्पष्ट करते हैं- “अत: ‘राम’ शब्द के मर्म को पहचानने का अर्थ है भारतीयता के सारे स्तरों के आदर्श रूप को पहचानना....... सही भारतीयता क्षुद्र,संकीर्ण राष्ट्रीयता के दम्भ से बिल्कुल अलग तथ्य है । यह ‘सर्वोत्तम मनुष्यत्व’ है । पूर्ण ‘भारतीय’ बनने का अर्थ है ‘राम’ जैसा बनना ।” (मराल,पृ.163)
कुबेरनाथ राय की दृष्टि में ‘भारत भूगोल से ज्यादा एक जीवन दर्शन और एक मूल्य परंपरा है’, जिसे वे ‘मनुष्यत्व का महायान’ कहते हैं ।(उत्तरकुरु ,पृ.105) इसके पीछे के कारणों को भी वे स्पष्ट करते हैं- “इसी जम्बूद्वीप में देवता मनुष्य के लोक में नीचे उतरकर मनुष्यों के साथ ‘मिश्र’ होकर रहते आये हैं।”(उत्तरकुरु ,पृ 105) देवता से उनका तात्पर्य किसी पारलौकिक सत्ता से न होकर देवोपम जीवन दृष्टि से है। वे लिखते हैं –“वह सारी मानसिक ऋद्धि,मानसिक दिव्यता जिसकी कल्पना देवता में की जाय यदि किसी मनुष्य में उतर जाये तो वह देवोपम हो जाता है।”(उत्तरकुरु,पृ.105-6) इसी देवोपम की पहचान ही असल में ‘भारतीयता’ की पहचान है । इस पहचान-स्वरूप की निर्मिति के लिए वे इतिहास में पसरे कला,शिल्प,शास्त्र के खोह में प्रवेश करते चले जाते हैं और वहाँ से ‘भारतीयता की मणि’ लेकर ही निकलते हैं ।
प्रसिद्ध समाजशास्त्री डा श्यामाचरण दुबे ने अपने निबंध ‘भारतीयता की तलाश’ में भारतीयता की सही समझ की कुछ पूर्व शर्तों की ओर इशारा किया है, जिनमें ‘इतिहास दृष्टि’, ‘परंपरा बोध’, ‘समग्र जीवन-दृष्टि’, और ‘वैज्ञानिक विवेक’ प्रमुख हैं। (समय और संस्कृति,पृ. 44-5) श्री राय के लेखन में यह ‘चतुरानन-दृष्टि’ हर जगह देखने को मिलती है । ‘भारतीयता’ की पहचान के लिए जिस शास्त्रीय,स्थानीय और क्षेत्रीय परम्पराओं के अंतरावलंबन की सूक्ष्म समझ की आवश्यकता पर डॉ श्यामाचरण दुबे ने जोर दिया है, वह श्री राय को संस्कार में मिली है। कला-शिल्प की आंतरिक संरचना और बुनावट को जिस आत्मीयता से वे प्रस्तुत करते हैं, वह अद्भुत तो है ही असल ‘भारतीय मन’ का प्रमाण भी है । महाकवि कालिदास की अमरकृति ‘शकुंतला’ उनके लिए ‘दुष्यंत-शकुंतला’ की प्रणय-गाथा मात्र न होकर ‘भारतीयता की निर्मिति’ के एक महत्वपूर्ण कोण की तरफ इशारा करती है। उनकी दृष्टि में यह कथा आर्येतर और आर्य के महासमन्वय और वर्णाश्रम के सही ऐतिहासिक स्वरूप की ओर इशारा करने के साथ ही भारतीय धर्म साधना की पूर्णांगता को भी प्रस्तुत करती है, जिसके अनुसार काम और तप परस्पर विरोधी न होकर सहजीवी हैं। भारत के जल-जंगल-जमीन को लेकर लिखे गये उनके निबंधो में ‘भारतीयता’ का इंद्र्धनुषी रूप देखने को मिलता है । इस ‘आसेतु हिमाचल वसुंधरा’ को वे मामूली मिट्टी मानने के लिए कत्तई तैयार नहीं हैं। यह उनके लिए ‘साक्षात देव-विग्रह’ है जिसे ‘कोई जय नहीं कर सकता’। ‘महीमाता’ निबंध में भारतवर्ष के मृण्मय स्वरूप की सार्थक विवेचना करते हुए श्री राय ने यह सिद्ध किया है कि भारत का सिर्फ झंडा ही तिरंगा नहीं है अपितु ‘मिट्टी के रंग की दृष्टि से यह भारतवर्ष तिरंगा,त्रिवर्णी भूमि है-सादी,लाल और काली’। श्री राय की नजर में ‘यह स्वर्णगर्भा वसुंधरा है,शस्य लक्ष्मी,... साक्षात माता है’ । (निषाद बांसुरी,पृ.84)
श्री राय एक जगह लिखते हैं कि ‘भारतीय सभ्यता में बाह्य तत्वों को आत्मसात करने की अपूर्व क्षमता थी। ऐसे तत्वों का भारतीय सांस्कृतिक परिवेश में अनुकूलन भी हुआ,समाकलन भी’। सच तो यह है कि भारतीयता का विकास एक लम्बी सांस्कृतिक यात्रा है । यह प्रक्रिया निरंतर आज भी जारी है । लेकिन आज परिस्थितियां भिन्न हैं । आज हम पर फिर चौतरफा आक्रमण हो रहा है । हर्षवर्धनोत्तर काल में जो स्थिति पैदा हुई थी कुछ वैसी ही परिस्थितियां आज फिर से हमारे सामने उत्पन्न हो गई हैं । आज बड़ी सफाई और बारीकी से ‘भारतीयता’ को कुचलने की कोशिश हो रही है- “भारतीयता के सगुण प्रतीक ‘महात्मा गांधी’ के नाम को ही मिटाने की कोशिश हो रही है । इसी के साथ ‘अन्नों के देशी बीज,पशुओं की देशी नस्लें,देशी भूषा और सज्जा,देशी भाषा और शब्दावली सब कुछ से हमें धीरे-धीरे काटने की कोशिश चालू है जिससे हम सर्वथा जड़-मूलहीन हो जाएँ । अत: ठहरकर सोचने की जरूरत है। आज हमारे लिए जरूरी है कि पश्चिमी मानसिकता को निरंतर उधार लेने की जगह अपने देशी मानसिक उत्तराधिकारों की चर्चा करें।”(उत्तरकुरु,पृ.70) सरस्वती के वरद पुत्र श्री कुबेरनाथ राय की यह चिंता अत्यंत सहज और स्वाभाविक है । उनके लेखन का गम्भीर अनुशीलन आवश्यक है । ‘भारतीयता’ के महत्वपूर्ण प्रतीकों की सारगर्भित विवेचना जिस ईमानदारी और प्रमाणिकता के साथ उन्होने अपने निबंधों में की है,वह अन्यत्र दुर्लभ है । आज समय की मांग है कि हम उसे समझकर सही परिप्रेक्ष्य में समाज के सामने रखें ।
श्री राय की एक बड़ी चिंता है हमारा अपनी जड़ों से अपरिचित होना । डॉ श्यामा चरण दुबे ने भी स्वीकार किया है कि “जड़ों की तलाश एक बुनियादी सवाल है। वह एक सार्थक जिज्ञासा से जुड़ा है और अस्तित्वबोध को एक नया आयाम और नए मूल्य देता है।” (समय और संस्कृति,पृ.44) श्री राय का मानना है कि पिछले डेढ़-दो-सौ वर्षों मे इस आर्ष चिंतन को अँग्रेजी भाषा के माध्यम से गलत ढंग से समझा और परोसा जा रहा है। स्वतंत्र भारत के बुद्धिजीवी अपने निजी पर्यवेक्षण,अपनी भारतीय दृष्टि और अपने भारतीय स्रोतों के आधार पर आर्ष चिंतन और भारतीय समाज को समझने तथा तत्संबंधी सिद्धांतों को विकसित करने की अपेक्षा पश्चिमी अवधारणाओं और प्रत्ययों के सहारे अपने अधूरे सरलीकरण प्रस्तुत कर रहे हैं जिनसे देश का भयानक अहित अवश्यंभावी है । सच तो यह है कि भारतीय चिंतन और संरचना को ठीक-ठीक समझने के लिए भारतीय बुद्धिजीवियों को अपना निजी समाजशास्त्र या देशी नृतत्वशास्त्र या सौन्दर्य शास्त्र विकसित करना चाहिए । श्री राय इन्हीं जड़ों की तलाश में निरंतर मानसिक यात्रा करते रहे हैं । श्री राय विदेशी विद्वानों से विचारों के आदान-प्रदान के विरोधी नहीं हैं। परंतु गांधी की ही तरह अपने घर की खिड़कियों को खोले रखने के साथ–साथ अपनी निजी-देशी-सोंधी जमीन-‘हमारे हरि हारिल की लकड़ी’-को मजबूती से पकड़े रखने का आग्रह करते हैं । श्री राय उसी आर्ष चिंतन परंपरा के प्रामाणिक दस्तावेज़ के साथ हमारे सामने उपस्थित होते हैं । इसके लिए वे नृतत्व शास्त्र के साथ-साथ भाषा विज्ञान का भी सहारा लेते हैं और अंत में इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि भारतवर्ष को जानने के लिए ‘भारत’ और ‘भारतीय विश्व’ को जानना आवश्यक है । भारतीयता की तलाश का रास्ता-लेखन नीरस और उबाऊ न हो इसके लिए उन्होने आवश्यकतानुसार ‘लालित्य’ का खूब सहारा लिया है । भारतीयता की समझ के लिए लालित्य-बोध एक आवश्यक कड़ी है क्योंकि भारतीयता एक ही साथ ‘भावना’ और ‘मनोदशा’ दोनों है । बोधयुक्त देशज लालित्य के अखाड़े में खड़े श्री राय दोनों भुजाओं और जंघों पर भीम-ताल ठोंक कर चुनौती देते हैं । यह सच है कि इस तरह की यह ललकार तो कोई ‘मरदवा’ ही दे सकता है जिसकी अपनी जमीन उर्वरा शक्ति से भरपूर हो ।
यह एक तथ्य है कि स्वाधीनता-प्राप्ति के बाद ही देश में एक सांस्कृतिक अराजकता की शुरुआत हो गई थी । हुमायूँ कबीर जैसे लोगों ने उल-जुलूल व्याख्या से इसकी शुरुआत की और नुरूल हसन की छ्त्रछाया में भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद ने इसे खाद-पानी दिया । परिणाम यह हुआ कि आज राष्ट्रीय भावनाएँ बड़ी तेजी से अशक्त और निष्प्राण होती जा रही हैं । हम बेझिझक पश्चिम का अनुकरण कर अपनी अस्मिता खोते जा रहे हैं । कल तक यह प्रवृत्ति एक छोटे और प्रभावशाली तबके तक ही सीमित थी पर अब उसका फैलाव बड़ी तेजी से बढ़ता जा रहा है। आज हम सब इस बात से परिचित हैं कि संस्कृति आज की दुनिया में एक राजनीतिक अस्त्र के रूप में उभर रही है । अपने स्वार्थपूर्ण उद्देश्यों की पूर्ति के लिए राष्ट्र और संस्थायें इसका खुलकर उपयोग कर रही हैं । यदि हम निष्ठा और प्रतिबद्धता से भारतीयता की तलाश करें, उसे पहचाने और आत्मसात करने की कोशिश करें तो उन पर रोक लग सकती है। पर यह कहने और लिखने में जितना आसान है उतना ही व्यवहार में जटिल भी है।
भारतीयता की पहचान का असल स्वरूप हमें उसकी वांगमय परंपरा अर्थात साहित्य और शिल्प में देखने को मिलता है । इस पहचान के उद्घाटन के लिए हमारा आर्ष चिंतन से परिचित होना जरूरी है। ‘चिन्मय भारत’ नामक पुस्तक में श्री राय ने आर्ष चिंतन के बुनियादी सूत्रों को स्पष्ट करने की कोशिश की है-“ आर्ष से हमारा तात्पर्य ‘वैदिक’ मात्र या ‘ऋषि दृष्टि प्रसूत’ मात्र नहीं है। हम उस पूरी परंपरा को,जो ऋषि के अनुधावन से बनती है, आर्ष परंपरा मानते हैं। आर्ष से हमारा तात्पर्य उस समूची चिंतन परंपरा से जिसका प्रस्थान बिन्दु तो ऋषि ही है, पर अविच्छिन्न रूप मे कालिदास, शंकराचार्य , रामानुज-वल्लभ-चैतन्य, संत और भक्त से होती हुई आधुनिक गांधी-अरविंद तक आती है । बीज है ऋषि और भारतीय चिंतन का यह अश्वत्थ अभी तक विराजमान है। वृक्ष बीज के आधार पर ही नामांकित होता है। अत: इस इतिहासव्यापी अखंड चिंतन परंपरा की संज्ञा आर्ष हो सकती है। ” (चिन्मय भारत,पृ.16-17)
आज जब समाज के सभी तबके- बुद्धिजीवी से लेकर साहित्यकार तक सभी सरकार-बाजार के पिछलग्गू बनने के लिए हर संभव प्रयास कर रहे हैं वैसे समय में श्री राय गंगातीरी पगड़ी बांधे हुए कंधे पर मजबूत देशी में भारतीयता का अमृत-घट लटकाये हुए आर्यावर्त से लगायत जंबूद्वीपे-भरतखंडे की परिक्रमा करते हैं। इस बोध-परिक्रमा के लिए जिस अकुंठ साहस,निर्भयता,स्पष्टता और दो टूकपन की जरूरत होती है वह कुबेरनाथ राय के लेखन में सर्वत्र मौजूद है । श्री राय ने भारतीयता के उदात्त तत्वों को न केवल आत्मसात किया है अपितु अपने निबंधों में इसकी गंभीर विवेचना भी की है । उनकी तर्कशक्ति अद्भुत है । इसे धार देने के लिए वे विज्ञान,नृतत्व शास्त्र,भाषा विज्ञान,मिथक,इतिहास आदि अनुशासनों का यथासंभव सहारा भी लेते हैं । श्री राय किसी के विरोध या उपेक्षा से मुक्त सम्पूर्ण आर्यावर्त में शिव के सांड की तरह मुक्त विचरण करते हैं । सच तो यह है कि श्री राय अपने आत्मलब्ध सत्य के प्रति न केवल पूरी तरह ईमानदार हैं अपितु साहस के साथ उसकी अभिव्यक्ति भी करते हैं जिसका प्रथम और आखिरी सूत्र है-‘अहं भारतोऽस्मि ’।
जेहिं राखे रघुवीर सो उबरे यहि काल मँह
“साहित्य ही संत्रास के युग में वराभय दे जाता है। साहित्य किसी भी जाति की अमावस्या में बड़ा भारी और एकमात्र भरोसा बनकर काम आता है।” ------------------कुबेरनाथ राय
बीसवीं शती के उत्तरार्द्ध के प्रथम अर्धांश में जब भारतीय साहित्येतिहास के आकाश पर संस्कृति तथा इतिहास-संशोधन के सरकारी विधाता-व्याख्याता, मनसबदार तथा नव्य-पुरातन वामपंथियों का अश्वमेध यज्ञ चालू था और वे ‘सांस्कृतिक-स्वातन्त्र्य' और 'बुद्धि-स्वातन्त्र्य’ के नाम पर न केवल ‘लोलिता’ का चंग बनाकर उड़ा रहे थे अपितु ‘रामकथा/मानस’ को ही प्रश्नांकित कर रहे थे, तब उस संक्रमण काल में श्री कुबेरनाथ राय को त्रेताकालीन मृदंग-ध्वनि सुनाई देती है । उनके मन में सवाल कौंधता है- “मैं ही क्यों इस मृदंग के मधुर-मधुर-गंभीर रव को सुन रहा हूँ और मेरा ही मन क्यों रामाकार हुआ जा रहा है, और ये सारे आसपास के लोग जो माथे पर बोरियाँ लादे चल रहे हैं, या जो रथों पर बैठे धुँधुआते हुए सुलग रहे हैं, या जो अंगना-अंग से भांज-दर-भांज सर्पों की तरह लिपटे हैं, ये आसपास के सारे लोग भी क्यों नहीं इस मृदंग की मधुर-मधुर ध्वनि को सुन पा रहे हैं?” यह एक तथ्य है कि ‘मनुष्य जब घोर चिंता में पड़ जाता है, तो अपने से ही बातें करता है, उत्तर-प्रत्युत्तर देता है, और मान-मनुहार झिड़की और विवाद करता है। चरम क्षण में हम स्वयं ही अपने साथी रह जाते हैं, शेष सभी कोई दूर चले जाते हैं ।’ श्री राय जब कभी ध्यान-लोक में “जगती के शिखर पर जा खड़े होते हैं .... तब-तब हाथ उठाकर कोई दिव्य चतुर्मुख पुरुष आशीर्वाद देते ज्ञात होते हैं, “वत्स, ऋषि, रामचंद्र के रसरूप के जनक तुम्हीं बन सकते हो ।” उस परमादेश को स्वीकार करते हुए श्री राय ‘इतिहास के रामचंद्र को यही रसरूप प्रदान करने’ के लिए रामकथा-लेखन में उतरते हैं और लिखते हैं-“नेताओं में गांधीजी, किताबों में रामचरितमानस, वनस्पतियों में हरी-हरी दूब, पशुओं में गाय, रसों में करुण रस, ये सब मुझे एक ही किस्म के भाव-संकुल या बोध प्रदान करते हैं। इन सबमें शांति है, निष्कपटता है, विनय है और सेवा धर्म है, साथ-ही-साथ महिमा और त्याग भी है।”
श्री कुबेरनाथ भारतीय साहित्य जगत में निबंधकार के रूप में प्रख्यात हैं। उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के मतसा गाँव में जन्मे श्री राय का ‘जीवन घटना विहीन रहा [है]। जैसा कि मध्यवर्गीय भोजपुरी युवा का जीवन प्राय: होता है।...... वैसे कहने को भी अपने पास है ही क्या? जो है सो किताबों में ही है।’ स्पष्ट है कि रचना प्रक्रिया में एक कवि-लेखक के रूप में जितनी अनिवार्य उपस्थिति आवश्यक है उतने भर ही वे हैं। रचना-पात्रों में जबर्दस्ती उपस्थिति को वे अनावश्यक मानते हैं। गो कि उनके अनेक निबंध बातचीत की शैली में हैं और वहां उनका अदृश्य-उदात्त व्यक्तित्व सदैव विद्यमान रहता है। पैरा-दर पैरा हम उनके स्पर्श का अनुभव भी करते हैं, लेकिन निजी दुःख-सुख की बात करते हुए वे शायद ही दिखते हैं । अपवाद स्वरूप एक-दो निजी पत्रों में यदि वह व्यथा दिखाई भी देती है तो वहाँ उसका स्वर मार्मिक ही है-“... हम लोगों की तो कोई बड़ी महत्वाकांक्षा नहीं। इसीलिए कोई मंच मिले या न मिले, कोई फोरम मिले या न मिले मैं ज्यादा परेशान नहीं होता... तब भी मन में कभी-कभी होता है कि उचित परिवेश और अवसर मिलने पर कुछ पराक्रम दिखाने का मौका मिलता।” निजी जीवन के प्रति इतनी निस्संगता दुर्लभ है।
कुबेरनाथ राय पर उनकी अत्यल्प शिक्षिता माँ का बहुत प्रभाव है । उनकी ‘माँ पौराणिक कथाओं और लोककथाओं का भण्डार थीं । माँ जिस गद्य भंगिमा में कहानी कहती थीं उसकी तर्ज [पर बाद में उन्होने] 'पाकड़ बोली रात भर’ निबंध भी लिखा।’ मानस-महाभारत आदि के संस्कार-बीज घर के आँगन में ही पनपे। ‘माधुरी’ और ‘विशाल भारत’ के संपर्क ने उनके बौद्धिक क्षितिज का विस्तार किया । फलस्वरूप माँ के पल्लू से चिपककर कहानी सुनते समय ‘हाँ,कहारी हाँ’ के टेक से मुक्त हुए और “निश्चय किया...कि एक दिन पूज्य पिताजी जब सोये रहेंगे, तो उनके सिरहाने से...फटी दीमक लगी किताब निकाल लाऊँगा और आग लगाकर फूँक दूंगा। ...तब हिन्दू धर्म के लिए एक नई पोथी लिखनी पड़ेगी...उस नई किताब को मैं लिखूंगा, और जो-जो मन में आयेगा,सो लिखूंगा। आखिर मेरी बात भी तो कभी आनी चाहिए कि आजीवन मैं ‘हाँ,कहारी हाँ’ का ठेका ही पीछे से भरता रहूँगा ।” मजे कि बात यह है कि कक्षा आठ में पढ़ते हुए उन्होंने जो पहला लेख लिखा उसका शीर्षक था- ‘साहित्य में मेरा वादा’ । कौन जानता था कि यह किशोर भविष्य में अपना वादा निभाते हुए सच में ही ‘नई पोथी’ लिखेगा और कहेगा कि ‘रस, शील और अध्यात्म पर अपनी चरम पूर्णता के साथ प्रतिष्ठित’ ‘राम ही पूर्णावतार हैं।’
‘नई पोथी’ लिखने के वादे की शुरुआत में ही वे इतिहास की तरफ मुड़ जाते हैं और लिखते हैं- “रामायण या ‘मानस’ हमारे सामने दृढ़ता और संघर्षशील चरित्र का सूत्र प्रस्तुत करता है। बख्तियार खिलजी जब गौड देश पर चढ़ आया तो राजा लक्ष्मण सेन को गीतगोविन्दकार जयदेव ने यही उपदेश दिया- “महाराज, भगवान् की इच्छा! आप यवन को पराजित नहीं कर पायेंगे, अतः लोहा लेना व्यर्थ है। परम शान्ति के आश्रय भगवान् की शरण में जाइये!” पता नहीं यह किंवदन्ती कितनी सत्य है। पर जयदेव की जगह तुलसीदास होते तो कहते “महाराज, रामचन्द्र का स्मरण करके मैदान में उतरिये ! आपका समर रामचन्द्र स्वयं करेंगे।” श्रद्धा और विश्वास के इसी सूत्र का गांठ बांधकर वे अपने लेखकीय द्विजत्व द्वारा पकड़ाये गए धनुष-बाण को लेकर विश्व साहित्य के क्लासिकल काव्यों/महाकाव्यों के महाकांतार में प्रवेश कर गए। इस कार्तिकेय-यात्रा में भी क्या मजाल कि कोई ‘अप्सरा-नायिका’ की बाँकी चितवन उन्हें घायल कर सके। अगर किसी मोड़ पर कोई ‘तीरे-नजर’ या ‘पंचाप्सर की मार कन्याएं’ दिखी भी तो उसे गुडाकेश भाव में ‘माते प्रणाम’{ 'वात्सल्य' (Mother instinct)} कहकर तीर-वेग से लक्ष्य की ओर मुड़ जाते थे। आखिर ‘रन में, वन में सदैव साथ-साथ अभय की गदा लेकर चलने वाले’ बजरंगबली जो उनके साथ थे।
श्री राय को बचपन से ही ‘मानस पढ़ने की आदत’ थी। समय के साथ उनकी यह रुचि और परिष्कृत होती गई । ‘क्रिया-योग’ की साधना में रमे श्री राय को ‘आसाम ट्रिब्यून’ के 1961 के दुर्गापूजा अंक में हुमायूँ कबीर का एक आलेख पढ़ने को मिला । वे इस आलेख की अनेक स्थापनाओं से सहमत नहीं थे । उन्होने असहमति के सुपर्ण-स्वर युक्त आलेख ‘इतिहास अथवा शुकसारिका कथा’ शीर्षक से ‘सरस्वती’ पत्रिका को लेख क्या भेजा उन्हें लेखन में ही उतर जाना पड़ा - “सन 1962 में प्रो हुमायूँ कबीर की इतिहास संबंधी ऊलजलूल मान्यताओं पर मेरे एक तर्कपूर्ण और क्रोधपूर्ण निबंध को पढ़कर पं. श्रीनारायन चतुर्वेदी ने मुझे घसीट कर मैदान में खड़ा कर दिया और हाथ में धनुष-बाण पकड़ा दिया ।” अब श्री राय के हाथ में धनुष-बाण आ चुका था--–“तीर जब तक तरकस में पड़ा रहा बेकार रहा। कौड़ी का तीन। वही धनुष की प्रत्यंचा पर चढ़ा तो सर्प की तरह फुफकार उठा। अंतर्मुखी खिंचाव ने गति भर दी, तो काल गरुड़ की तरह झपटकर उड़ चला।” वे अब ‘अपने राष्ट्रीय और साहित्यिक उत्तरदायित्व के प्रति सजग’ थे। समय और समाज के प्रति सजग श्री राय जैसे ‘तमोगुणी वैष्णव के लिए शुद्ध बारह बानी ललित-ललाम बन उठना-बैठना-चलना कठिन’ तो था ही कृषि-संस्कृति में पले-बढ़े होने के कारण यथा स्थिति स्वीकारना भी कठिन था। वे लिखते हैं-“यह मेरे स्वभाव के प्रतिकूल होगा, यह मेरी धरती और मेरे युग के स्वभाव के प्रतिकूल होगा। इस तथ्य का साक्ष्य मेरी प्रत्येक रचना देती है। सच तो यह है कि मेरा सम्पूर्ण साहित्य या तो क्रोध है, नहीं तो अन्तर का हाहाकार।। पर इस क्रोध और इस आर्तनाद को मैंने सारे हिन्दुस्तान के क्रोध और आर्तनाद के रूप में देखा है। इन निबन्धों को लिखते समय मुझे सदैव अनुभव होता रहा ‘अहं भारतोऽस्मि’।”
1974 में जब भारतवर्ष द्वारा ‘मानस चतुःशती महोत्सव’ के प्रचार-प्रसार की तैयारी चल रही थी तो उस निमित्त लेख लिखवाने के लिए सरस्वती के संपादक श्री नारायण चतुर्वेदी श्री राय को याद किया - “मेरे अपने लेखकीय द्विजत्व के पुरोहित पं॰ श्रीनारायण चतुर्वेदी ने मुझसे ‘मानस- चतुःशती-समारोह’ पर जिसे भारतवर्ष में 1974 ई॰ में बड़ी धूमधाम से मनाने जा रहा है, कुछ लिखने को कहा तो मैं बड़ी चिन्ता में पड़ गया, क्योंकि सारी समस्या एक वृहत्तर सांस्कृतिक-नैतिक और आध्यात्मिक समस्या के अन्दर अन्तर्भुक्त-सी लगती है और मानस-समारोह को उस वृहत्तर समस्या-वृत्त के मध्य रखकर ही देखना होगा अन्यथा विगत टैगोर शतवार्षिकी और गालिब शताब्दी समारोह की तरह यह भी बिल-तमाशा लूट-खसोट बनकर रह जायगा।” इस बात से कौन इनकार कर सकता है कि पाँच दशक बाद भी आज पूर्वजों की जयंती-समारोह हाथी-दाँत ही हैं। चतुर्वेदी जी के आग्रह को शिरोधार्य करते हुए उन्होंने ‘सरस्वती’ के लिए एक बड़ा आलेख ‘मानस- चतुःशती-समारोह’ शीर्षक से लिखकर भेज दिया। यह आलेख इस बात का प्रमाण है कि धारा के विपरीत जाकर ‘नयी पोथी’ लिखने का जो उनका वादा था, उससे वे विरत नहीं हुए थे। इस आलेख में उन्होंने अनेक सुझाव भी दिये थे । इन सुझावों से सहमत/असहमत हुआ जा सकता है । पर इससे श्री राय के साहस और उनकी मुख्य प्रतिज्ञा ‘नयी पोथी’ लिखने का पता तो चल ही जाता है।
श्री राय का मानना है कि किसी भी ‘राष्ट्र की कस्तूरी उसके साहित्य में होती है। यह कस्तूरी दुर्गन्धमयी न हो’ इसके लिए साहित्य को सरल-स्वच्छ-उच्चगामी होना होगा जिसके लिए विषय का उच्चाशय होना जरूरी है। इसलिए वे सबसे बड़े उदाहरण के रूप में तीन महाकाव्यों – रामायण, महाभारत और श्रीमद्भागवत- में उपस्थित सार्वभौम मूल्यों को हमारे सामने अनेकश: रखते हैं, क्योंकि ये हमारी ‘परमा स्मृति’ का हृदय रचते हैं। इनमें भी वे अनेक कारणों से- अच्छे नागरिक, अच्छे गृहस्थ, अच्छे पिता-पुत्र-भाई आदि बनने का आदर्श जनमानस में प्रतिष्ठित करने में समर्थ ग्रंथ के रूप में 'मानस' को ही सर्वोत्तम ग्रंथ मानते हैं। कहीं कोई चूक न हो जाये इसलिए ध्यान भी दिलाते हैं-‘स्मरण रहे कि 'रामायण' की नहीं, 'रामचरितमानस' की बात कर रहा हूँ।’
श्री राय एक सजग निबंधकार हैं। रामकथा के रूप में ‘रामायण’ और ‘रामचरितमानस’ दोनों के प्रति उनकी श्रद्धा है और दोनों महाकाव्यों का उन्होने गंभीर अध्ययन किया है। दोनों महाकाव्यों को केंद्र में रखकर उन्होने अनेक निबंध भी लिखे हैं। लेकिन जब बात जन सामान्य की आती है तो उनका मन ‘मानस’ में ही रमता है। वे ‘मानस’ के नामकरण से लेकर, उसके उद्देश्य,सार्थकता,पढ़ने की जरूरत और आलोचकों के सवालों के जबाव के साथ-साथ वर्णों और शब्दों की महत्ता पर भी विचार प्रकट किया है। मानस को संस्कार-महीरुह के रूप में देखने के आग्रही श्री राय उसके मंगलाचरण को बेजोड़ मानते हैं। मंगलाचरण के श्लोकों की विवेचना करते हुए उसमें कर्म-इच्छा-ज्ञान तत्वों की खोज की है। तुलसी द्वारा मंगलाचरण के श्लोकों द्वारा एक तरफ तो स्थूल अथवा सामाजिक अर्थ में शैव-वैष्णव के समन्वय की ओर संकेत किया गया है तो दूसरी तरफ सूक्ष्म स्तर पर इसमें सन्निहित तुलसी के पौरुष प्रधान रूप और तत्कालीन पराजित जाति की इच्छाशक्ति को कर्मोन्मुख करने के रूप में देखा है। महाकाव्य का उद्देश्य ही होता है –‘शील,करुणा और सौंदर्य का उद्घाटन’ जो ‘पराक्रम’ से भी शक्तिशाली तत्व हैं। इतिहास भी इस बात का गवाह है कि अपनी तमाम कुटिल शक्तियों के बावजूद गोरी-खिलजी-मुगल की इस्लामिक शक्तियां पराजित हुई और जीत हुई इसी त्रिविक्रम पराक्रम ‘शील,करुणा और सौंदर्य’ के रचनाकार भक्त कवियों की। इनमें भी ‘तुलसी कृत मानस’ अप्रतिम है। इसीलिए श्री राय ने उसे अपना कंठहार बनाया है और उसके पढ़ने-पढ़ाने पर सवाल खड़ा करने वालों को तर्कपूर्ण जबाव भी दिया है।
मानस का विरोध करने वाली युवा पीढ़ी को वे दो वर्गों में विभक्त करते हैं-‘प्रथम है नास्तिवादी और निहिलिस्ट; द्वितीय है वामपंथी, विशेषत: नव्य वामपंथी।’ पहले ने जहां किसी यूरोप के दार्शनिक के इस कथन को कि ‘“आइडिया पर आधारित इतिहास और सभ्यता के दिन लद गए। यह युग आइडिया का सूर्यास्त है”, को ब्रह्म सत्य मान बैठा तो दूसरे ने न केवल “‘हिंदुत्व का उन्मूलन और इस्लाम के साथ सहअस्तित्व’ जैसा दुराग्रह पाला अपितु ‘हिंदू-मन में एक संस्कारगत ‘शून्य स्थान’ (Vacuum) रच देना [की कोशिश में लगे हैं ] जहां वे अपना रोड़ा पत्थर फेंक सकें और जहां वे मानवता का मार्क्सवादी मकबरा उठा सकें।” श्री राय इनके कपटाचार को ठीक से समझते हैं। इसलिए वे उनका प्रति उत्तर उचित ढंग से देते हैं। हालांकि प्रत्येक प्रश्न कर्ता को वे खारिज नहीं करते हैं। वे विचारक जो तुलसी और मानस का विरोध तुलसी की सामाजिक चिंता के संदर्भ में करते हैं, उनके विरोध को विचारपूर्ण मानते हैं। यद्यपि इस विरोध के पीछे भी मानस की ‘मूल ‘थीसिस’ को दृष्टिच्युत कर देने के कारण को ही मानते हैं । दरअसल ‘गोस्वामी तुलसीदास के महाकाव्य ‘रामचरितमानस’ की ‘मूल थीसिस’ है सनातन धर्म और रामचन्द्र ही मूर्तिमान सनातन धर्म हैं, जो जाति-पाँत के बंधन तोड़कर निषाद का आलिंगन करते हैं और शबरी के जूठे बेर खाते हैं। ‘मानस’ मूर्तिमान सनातन धर्म श्रीरामचन्द्र के चरित्र का मानस-सर है।’ इतना ही नहीं भाषा के स्तर पर भी तुलसी के विद्रोह को भी रेखांकित किया है जिसके लिए कर्मकाण्डी पुरोहितों द्वारा अत्यन्त सताये भी गये। श्री राय तुलसी के व्यावहारिक दिक्कत को भी ध्यान में रखते हैं और काल गत मजबूरी की ओर इशारा करने से नहीं चूकते हैं- “ऊपर से और नया विद्रोह वर्णाश्रम के विरुद्ध करते, तो उनकी वही गति होती, जो कबीर की हुई। कबीर 20वीं शती के उपयुक्त थे। वे अपने युग में खप नहीं सके। फलतः कबीर की सारी सच्चाई काम नहीं आयी उनकी चली नहीं। कबीर की जैसी ही गति तुलसी की भी होती या उससे खराब भी हो सकती थी क्योंकि उनका तो कोई भी मठ नहीं था, शिष्य-परम्परा भी नहीं थी। सत्ताधारी वर्ग पुस्तक नष्ट कर देता।” इसलिए तुलसी ने सत्ताधारी पुरोहित वर्ग से सीधे संघर्ष न ठान कर उनके समर्थन में कुछ चौपाई लिखकर या (प्रक्षिप्त अंश मानना भी उचित ही होगा) मानस की ‘मूल थीसिस’ को जनता तक पहुँचाना जरूरी समझा । वे निर्भ्रांत शब्दों में घोषित करते हैं-“तुलसीदास सनातन धर्म के कवि हैं, वर्णाश्रम-धर्म के नहीं।” बतौर रचनाकार वे यह स्वीकार करते हैं कि “प्रत्येक रचनात्मक कृति के भीतर होती है एक तो सनातन भूमि जो कृति की मूल थीसिस रचती है, दूसरी होती है प्रासंगिक और युग-सापेक्ष भूमि जिसका महत्त्व अगले युगों में चुक जाता है।” इसलिए वह खतरा उठाते हुए सलाह देते हैं-“यदि मानस को बचाना है, तो पुनः उसकी व्याख्या करनी होगी, उसके आंतरिक मर्म को उद्घाटित करना होगा और इस उद्घाटन की युगानुरूप रचनात्मक व्याख्या (Constructive interpretation) देना होगा जैसी कि ‘गीता’ के संदर्भ में लोकमान्य तिलक ने दी है। यदि हम इसकी मूल थीसिस को पुराण पंथी एवं युग प्रतिकूल पूर्वग्रहों से मुक्त नहीं करेंगे तो ‘पगहे’ के लोभ में बेचारी ‘गाय’ भी जल मरेगी। यह सीधी-सी बात है, तो भी लोग इसे समझ नहीं पाते। यह गाय अब भी दुधारू है, अतः इसकी रक्षा पर ध्यान देना चाहिए।”
श्री राय के सामने दो प्रश्न प्राय: सामने आते हैं-पहला यह कि ‘इस युग में ‘रामचरितमानस’ पढ़कर क्या मिलेगा’ और दूसरा यह कि ‘रामचरितमानस’ क्यों पढ़े’। वे प्रश्न को अन्यथा नहीं लेते है। प्रश्न अनुचित भी नहीं है । पाठक को श्रम-फल मिलना ही चाहिए। वे इस सनातन समस्या को एक कथा के माध्यम से सुलझाते हैं। मगध सम्राट अजातशत्रु ने भगवान बुद्ध प्रश्न करते हुए पूछा कि जिस प्रकार और पेशों में यथा खेती-शिल्प आदि में लोग अपने परिश्रम या कर्म का प्रत्यक्ष फल इसी जीवन में पा जाते हैं, उसी प्रकार वैसा ही कुछ या कोई फल संन्यास (श्रामण्य) द्वारा भी इसी शरीर के रहते हुए लब्ध होता है? उसने बुद्ध से यह भी कहा कि भगवान, इस सवाल को मैंने इस युग के अन्य छह बड़े-बड़े दार्शनिकों से भी इस प्रश्न को पूछ चुका है , पर उत्तर नहीं मिला। बुद्ध ने प्रश्न का विस्तार से उत्तर दिया और कहा कि इसी जीवन में देह के रहते हुए जो फल मिलेगा वह है एक सुख, एक तृप्ति एवं एक निरुजता। वह फल है भय से मुक्त हो जाने का सुख, रोग से मुक्त हो जाने का सुख, तृप्तकाम हो जाने का सुख, वेदना की पहुंच से परे हो जाने का सुख आदि-आदि, अर्थात प्रत्येक प्रकार का श्रम-फल रुपया-पैसा या भौतिक उपलब्धि ही हो, यह कोई जरूरी नहीं । हम ‘मानस’ को पढ़ेंगे ‘स्वान्तस्तमः शान्तये’ अर्थात् मानसिक निरुजता और आभ्यंतर ऋद्धि के लिए। रामचरितमानस पढ़कर जो उपलब्धि होगी वह होगी शुद्धतः मानसिक-आत्मिक बौद्धिक उपलब्धि। उसके भीतर आर्थिक या राजनीतिक लाभ या उपयोगिता ढूँढ़ना पण्ड श्रम है । श्री राय सचेत भी करते हुए कहते हैं कि ‘यदि कोई कहे कि मानसिक निरुजता और मानसिक समृद्धि कौड़ी की तीन चीजें हैं, तो फिर उस मनोविकार ग्रस्त ‘प्राणी’ से (हां ‘प्राणी’ ही ‘मनुष्य’ नहीं, क्योंकि निरुजताहीन मन वाला मनुष्य ‘मनुष्य’ नहीं रह जाता) मुझे कोई तर्क नहीं करना है।’ इस सनातन समस्या के निदान के बहाने वे ईश्वर और मनुष्य के लिए उसकी आवश्यकता को हमारे सामने रखते हैं। ‘ईश्वर मर गया की घोषणा’ को विशाल जनता के लिए अनावश्यक मानते हैं । इसके पीछे के कारणों पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए कहते भी हैं- “दो-एक नरेंद्र देव-राहुल आदि भले ही इसे पा जाएं, परंतु पूरा-पूरा जनसमूह इस क्षमता को अर्जित नहीं कर सकता। अतः जनसमूह से उसका ईश्वर छीनने का अर्थ होता है उसे घृणित जड़वादी अधिनायक तंत्र की ओर ढकेल देना, फासिज्म के गर्त में ठेल देना । मनुष्य जाति के प्रति इससे बढ़कर अपराध और क्या हो सकता है ?” आज की वैश्विक परिस्थिति और भकुआ बनी जनता के व्यवहार को देखकर श्री राय की बात बावन तोले पाव रत्ती सही लगती है।
'मानस' में समाजवाद की तलाश करने वालों की भी वे खबर ले ही लेते हैं- “समाजवाद मूलतः एक आर्थिक दर्शन है। इसे एक प्राचीन काव्य ग्रंथ में ढूंढ़ना एक मूर्खता है, विशेषतः उस महाकाव्य में जिसका संबंध धर्म और काम से ही है। जहां काम और धर्म परस्पर समन्वित होते हैं, वहीं गार्हस्थ्य का जन्म होता है।” रवीन्द्र नाथ की यह उक्ति कि ‘रामायण गार्हस्थ्य का महाकाव्य है’ 'मानस' की सनातन सामाजिक भूमिका स्पष्ट कर देती है। श्री राय थोड़ा तल्ख सवाल उछलते हैं और पूछते हैं – “घोर से घोर समाजवाद में भी अच्छे नागरिकों और सद्गृहस्थों की आवश्यकता होगी या नहीं ?... और यदि समाजवादी समाज में भी सुयोग्य नागरिक तथा सद् गृहस्थ की, अर्थात् उत्तम पिता की, उत्तम पुत्र की, उत्तम पति की, उत्तम पत्नी की, उत्तम भाई की, उत्तम बंधु की आवश्यकता रहेगी तो समग्र विश्व-साहित्य में, गीता-बाइबिल-कुरान-दास कैपिटल को समेटते हुए समूचे के समूचे विश्व-साहित्य में वह कौन-सी पुस्तक सर्वाधिक उपयुक्त होगी जो अच्छे नागरिक, अच्छे गृहस्थ, अच्छे पिता-पुत्र-भाई आदि बनने का आदर्श जनमानस में प्रतिष्ठित कर सके ?” फिर उसका सहज उत्तर देते हैं- “गीता-कुरान-बाइबिल-दास कैपिटल में और-और बातें हैं, ऐसी बड़ी-बड़ी हैं जो 'मानस' में नहीं भी हो सकती हैं। परंतु मात्र उपर्युक्त कार्य के लिए समग्र विश्व-साहित्य में 'मानस' ही सर्वोत्तम ग्रंथ है। यह मैं दावे के साथ कहता हूँ।” श्री राय के लिए “रामकथा का काठ तो वह दिव्य काष्ठ है जो 'हजार' नहीं, 'शाश्वत' आयु वाला है। कथा-तरु हमारी 'परमा स्मृति' (racial memory) की जमीन पर उगा है और इसकी जड़ें हमारी सत्ता के पाताल तक खिली हैं।” इसलिए वे अपने पाठकों के लिए रामकथा की ‘धरती का चप्पा-चप्पा छानते हैं कि कहीं विधाता की भूल से कोई रस की बूँद छूट गयी हो, तो उसका आहरण कर लें ।’
निष्कर्षत: हम कह सकते हैं कि ‘मानस’ पर श्री राय द्वारा रचित सुचिंतित निबंध हमारे सामने ऐसा अनुपम दर्पण प्रस्तुत करता है कि ‘जिनमें जितनी ही गहराई से चिन्तन करेंगे उतने ही नये-नये अर्थ सगुण रूप धारण करके सामने उभरते जायेंगे।’ दुर्भाग्य से आज आत्म-क्षय और रमण-तृषा की दबाव-तकनीक से 21वीं शती के वाम-दक्षिण के मायावी शैवाल में भारतीयता का प्रतीक ‘रामत्व’ का मुख कमल उलझ गया है। आक्रमण की रीति,नीति और हथियार बदल गये हैं और नये योद्धा, नये सेनापति मैदान में उतर आये हैं। ऐसे में श्री राय के इस सनातन कथन को कि ‘ईश्वर अस्त हो गया, तो हो जाने दो, पर ग्रंथ तो जीवित है, जो बताता है कि “वाङ्मनसा अगोचर ईश्वर” हो या न हो, परंतु मानवी आकृति का, मानव रूप धरकर कोई जनमा था और वे सारे मूल्य “सत्यं शौचं दया...” आदि उसके जीवन में युक्तियुक्त हुए थे और उसके आगमन से धरती स्वर्ग बन गई थी, तो फिर उन मूल्यों को हम असत्य क्यों और कैसे मानें ? उपनिषद् कहते हैं कि जब सूर्य अस्त हो जाए, चंद्र अस्त हो जाए, अग्नि शांत हो जाए तो उस घोर तमसा में पुरुष वाणी का आश्रय लेकर, बोलकर, पुकारकर ढाढ़स पाता है और बच निकलता है। ‘रामचरितमानस’ इसी प्रकार का एक आश्रय है” , को ईमानदारी से आत्मसात करने की जरूरत है।
मनोज कुमार राय
‘नयी सरस्वती’ का आह्वान और कुबेरनाथ राय
मनोज कुमार राय*
एस. के. रागी**
श्री कुबेरनाथ राय भारतीय साहित्य के लब्ध-प्रतिष्ठ निबंधकार हैं। पाठकों से संवाद करने के लिए उन्होने अपने समय की सबसे कम लोकप्रिय विधा 'निबंध' को माध्यम बनाया था और जीवन-पर्यंत एकनिष्ठ भाव से इसके प्रति समर्पित रहे। उनकी दृष्टि में ‘किसी भी जाति की मूल प्रकृति का सच्चा थर्मामीटर है उस जाति का काव्य-साहित्य और उसकी बौद्धिक गंभीरता तथा उदात्तता का परिचायक है निबंध-साहित्य।’1 अत: ‘निबंध ही किसी जाति के ब्रह्मतेज को व्यक्त करता है।’2 इसलिए वे अनुभव-समुद्र से याचना करते हुए कहते हैं कि ‘यदि देना ही है तो एक पवित्र शंख फेंक दो....मात्र एक शंख। ...मुझे तो चाहिए शुचिस्वेत आवाहनमय एक गद्य शंख ..... । दोगे तो दे दो।’3 श्री राय इसी लब्ध-गद्य शंख से नशे में प्रमत्त भारतीय महाजाति को निरंतर जागृत करने की चेष्टा करते रहे और कहा ‘कि मेरा सम्पूर्ण साहित्य या तो क्रोध है,नहीं तो अंतर का हाहाकार ।’4
कुबेरनाथ राय की दृष्टि में साहित्य व्यक्ति की तुष्टि या मौज शौक के लिए नहीं,समूह की तुष्टि-पुष्टि और शील-संरक्षण के लिए रचा जाता है।5 उनका उद्देश्य अपने पाठकों को रसबोध कराने के साथ उनकी मानसिक ऋद्धि और बौद्धिक क्षितिज का विस्तार6 करना रहा है। अपने इस उद्देश्य को, मनुष्य की मनुष्यता के प्रति अपनी बुनियादी प्रतिबद्धता को, अपने लेखन में उन्होंने अनेकशः दुहराया है। इस प्रतिबद्धता के मूल में उनकी यह निर्भ्रांत समझ है- “मनुष्य की सार्थकता उसकी 'देह' में नहीं, उसके 'चित्त' में है। उसके चित्त-गुण को, उसकी सोचने-समझने और अनुभव करने की क्षमता को विस्तीर्ण करते चलना ही 'मानविकी' के शास्त्रों का, विशेषतः साहित्य का, मूलधर्म है।”7
कुबेरनाथ राय का लेखन बहुआयामी और विविधतापूर्ण है जिसका आदर्श है -“‘सत्यं परम धीमहि’-सत्य क्या है? ‘आत्मा’ । दर्शन में यह ‘आत्मा’ ‘ब्रह्म’ का रूप लेती है, साहित्य में ‘पुरुष’ रूप । पुरुष के अंदर निहित पुरुषोत्तम (परम सत्य) का आविष्कार साहित्य का प्रधान लक्ष्य है।”8 श्री राय एक सजग,सतर्क और अपने समय के सवालों से मुठभेड़ करने वाले लेखक रहे हैं। उनका मानना था कि “साहित्यकार’ न केवल ‘सत्य के प्रति ईमानदार रहे और सत्य के लिए ही एक सांस्कारिक, मानसिक वातावरण तैयार करे’ अपितु “यदि आत्मा द्वारा उपलब्ध सत्य ‘बहुमत’ के खिलाफ जाता है, तो साहित्यकार का धर्म है बहुमत के विरुद्ध खड़ा होना,अकेले खड़ा हो जाना,समूची ऐतिहासिक शक्तियों के विरुद्ध अकेली उठी हुई तर्जनी का रोष व्यक्त कर देना।” 9 मनुष्य,प्रकृति और ईश्वर से लेकर भोजन तक अनेक विषयों पर उन्होने बड़ी ईमानदारी से कलम चलाई है। शिक्षा को लेकर कभी कोई विशिष्ट अकादमिक लेखन उनके द्वारा नहीं किया गया है। लेकिन शिक्षा से जुड़े होने के कारण शिक्षा संबन्धित चिंताएँ उनके लेखन में स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। प्रस्तुत पर्चे में शिक्षा पर उनके विचार-सूत्रों की परिधि में चर्चा की गई है।
आधुनिक शिक्षा की बात करते समय हमारी नई/पुरानी पीढ़ी के पूर्वजों के स्नायुमंडल में मैकाले का प्रेत सदैव अठखेलिया करता रहता है। मैकाले-नीति के 185 वर्ष बाद ज़ोर-शोर से बनी राष्ट्रीय शिक्षा नीति के कर्णधारों सहित विश्वविद्यालयों के कर्ता-धर्ता आज भी मैकाले के बिना अपनी रोटी नहीं सेंक पा रहे हैं। गांधी ने भी हिंद-स्वराज में मैकाले को याद किया है-“मैकाले ने शिक्षा की जो बुनियाद डाली, वह सचमुच गुलामी की बुनियाद थी। उसने इसी इरादे से अपनी योजना बनायी थी, ऐसा मैं नहीं सुझाना चाहता। लेकिन उसके काम का नतीजा यही निकला है। यह कितने दुख की बात है कि हम स्वराज्य की बात भी परायी भाषा में करते हैं?”10 प्रख्यात कला-इतिहासविद आनन्द कुमारस्वामी भी 1909 में प्रकाशित पुस्तक ‘एसेज इन नेशनल आइडियलिज़्म’ में ब्रिटिश शिक्षकों को झकझोरते हुए कहते हैं कि तुम्हारे आडंबर पूर्ण अहंवादी सोच -“लॉर्ड मैकाले को सोचने पर विवश करती है कि एक अच्छे यूरोपीय पुस्तकालय की एक शेल्फ में पड़ी पुस्तकें भारत, अरब और फारस के सभी साहित्य के बराबर है।”11 इसके साथ-साथ वे एक अन्य यूरोपीय स्कॉलर अब्बे डुबोइस (1765-1848) के कथन को भी उद्धृत करते हैं जिसमें उसने कहा था , “हिंदुओं की एक नई जाति बनाने के लिए, उनकी सभ्यता, धर्म और राजनीति की नींव को कमजोर करके और उन्हें नास्तिक और बर्बर बनाकर शुरुआत करनी होगी।”12
पूर्वजों के दाय को समृद्ध करने के लिए संकल्पित श्री राय ने भी शिक्षा के संदर्भ में बात करते हुए मैकाले को याद किया है, लेकिन जरा रचनात्मक ढंग से- “प्रत्येक नवशिक्षित को मूल विच्छिन्न (rootless) करके इस देश के लिए स्थानीय अजनबियों (local outsiders) के समाज की रचना ही उसका(मैकाले) निहित उद्देश्य था। वह पूरा-पूरा असफल नहीं हुआ। सबूत हैं स्वतंत्र भारत के अंग्रेजी पत्रकार और नौकरशाह भौगोलिक दृष्टि से स्वदेशी रहते हुए भी बौद्धिक मानसिक स्तर पर अजनबी कर देना और इस अजनबी होने का दम्भ भर देना, भारतीय नव-शिक्षा के जागरण का उद्देश्य था। भारत छोड़कर ऐसा वाक्य शायद ही कहीं सुनने को मिलेगा, "ये इतनी अच्छी अंग्रेजी जानते हैं कि हिंदी बोल ही नहीं पाते।”13 ध्यान देने की बात है कि 1909 तक गांधी यही मानकर चल रहे थे कि “हिन्दुस्तानी सागर के किनारे पर ही मैल जमा है। उस मैल से जो गंदे हो गये हैं उन्हें साफ होना है।”14 गांधी के इस कथन के आठ दशक बाद श्री राय बतौर एक शिक्षक यह महसूस कर रहे हैं कि “मैकाले द्वारा डेढ़ सदी पूर्व जिस विष बीज को बोया गया, वह अब विष वृक्ष होकर अपना असली फल देने लगा है।”15 श्री राय को दुख इस बात का है कि भारत में “शिक्षित का मतलब होता है अंग्रेजी पढ़ा-लिखा आदमी और शिक्षा का उद्देश्य 'Career' यानी नौकरी ।”16 इसे ही अकबर इलाहाबादी ने व्यंजना में कुछ यूं कहा है , “हम क्या कहें अहबाब क्या कार-ए-नुमायाँ कर गए । बी-ए हुए, नौकर हुए, पेंशन मिली, फिर मर गये !”17 उनकी चिंता और आगे तक जाती है –“ऐसी Career-Oriented और आदर्शहीन, Secular शिक्षा पद्धति का सूत्रपात हुआ था लॉर्ड मैकाले के द्वारा डेढ़ सौ वर्ष पहले। इसका उद्देश्य था हमें अंग्रेजी पढ़ाना, अंग्रेज़ियत देना और हमारे हिन्दुस्तानीपन को धीरे-धीरे खत्म कर देना, हमें पश्चिम के भौतिक ज्ञान-विज्ञान से समृद्ध कर देना और हमारे अन्तर्निहित मनुष्यत्व को, हमारी निजी पहचान को, हमारे 'ताहन्नूद' को, हमारे देशीपन को धीरे-धीरे समाप्त कर देना, और इस तरह कर देना कि हम आत्म-विस्मृत हो जायें और अपनी इस हानि का अहसास करने में ही असमर्थ हो जाय। जो चिन्तामणि खो गयी है उसके लिए अफसोस करने की क्षमता ही हमारे अन्दर नहीं रह जाय।”18 राय बताते हैं कि ‘श्री अरविंद के पिता भी इसी दम्भ के शिकार थे और उन्होंने श्री अरविंद को इंग्लैण्ड भेजकर 'प्रवासी' से 'अजनबी' बना डालने में कुछ उठा नहीं रखा। परंतु हुआ कुछ और ही श्री अरविंद भारत लौटकर इस अजनबी के निर्मोक को तोड़कर न केवल मुक्त हो गये, बल्कि स्वदेशी स्मृति और प्रज्ञा में बड़ी गहराई से अपने को उतारकर प्रतिष्ठित कर लिया।’19 आनंद कुमारस्वामी भी इस बात पर चकित हैं कि ‘भारतीय विश्वविद्यालय का एक साधारण स्नातक शेक्सपियर को महाभारत से अधिक जानता होगा और उसे भारतीय संगीत, धार्मिक दर्शन, कला, पोशाक या आभूषण के बारे में बहुत कम जानकारी होगी।’20 श्री राय इसी अजनबीपन के निर्मोक को तोड़ने के लिए ही कलम उठाते हैं- “आज भारत की सारी व्यवस्था अर्थ, राजनीति, शिक्षा, संस्कृति और साहित्य, प्रत्येक क्षेत्र में ‘छिन्नमूल’ नवशिक्षित बुद्धिजीवियों के हाथ में आ गयी है और वे जन्मतः भारतीय होते हुए भी मानसिक बौद्धिक रूप से ‘आउटसाइडर’ हैं । इसी से चालू हवा के खिलाफ़ जाकर मैं भारतवर्ष से घनिष्ठ रूप से जुड़ा हूँ ।”21
श्री राय अपने जीवनानुभव से इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि आधुनिक शिक्षा प्रणाली हमारे आन्तरिक जीवन को और अधिक विखण्डित, असहज और जटिल करती है। महानगरीय संस्कृति से जुड़ी अंग्रेजी/अमेरिकन पैटर्न पर आधारित आधुनिक शिक्षा जो आज कथित स्मार्ट सिटी/महानगरों के विशाल मधु-छत्तों जैसे विद्यालयों में पल-बढ़ रही है, ने इस आन्तरिक बिखराव को बढ़ाने में सहायक रही है।22 श्री राय कहते हैं कि ‘गांधीजी और रवीन्द्रनाथ दोनों का मौलिक उद्देश्य था जीवन को बढ़ती हुई यांत्रिक जटिलता, असहजता और अऋजुता से मुक्त करके उसे पुनः सहज, सरल और निर्मल रूप में प्रतिष्ठित करना।’23 श्री राय ललित-भंगिमा के साथ लिखते हैं-“गांधीजी और रवीन्द्रनाथ दोनों ‘दो’ होते हुए भी एक ही तरह का जीवन ‘आश्रम जीवन’ जिये और जीने का उपदेश दे गये। ... दोनों ने न केवल विश्वविद्यालय-मुक्त शिक्षा की कल्पना की अपितु ‘श्री निकेतन’ और ‘बुनियादी तालीम तथा राष्ट्रभाषा प्रचार समिति’ जैसे प्रयोग भी किए।24 दोनों के प्रति अपनी गहरी निष्ठा प्रदर्शित करते हुए वे रवीन्द्र को ‘महाकवि’ और गांधी को ‘महामनुष्य’ की संज्ञा से नवाजते हैं । श्री राय को “नेताओं में गांधीजी, किताबों में रामचरितमानस, वनस्पतियों में हरी-हरी दूब, पशुओं में गाय, रसों में करुण रस,’ इसलिए पसंद हैं कि ये सब ‘एक ही किस्म के भाव-संकुल या बोध प्रदान करते हैं।... इन सबमें शांति है, निष्कपटता है, विनय है और सेवा धर्म है, साथ-ही-साथ महिमा और त्याग भी है।’25 इसी भाव-संकुल को वे राष्ट्रीय शिक्षा के पाठ्यक्रम में अंतर्भुक्त होते हुए देखना चाहते हैं। दरअसल इस भाव-संकुल से हीन वर्तमान शिक्षा प्रणाली हमारे आन्तरिक जीवन को असहज, विखंडित और जटिल बनाती है । आधुनिक शिक्षा जिसे श्री राय ‘आत्मिक ट्रेजडी की जननी’ कहते हैं, वह ऊपर से हमारे जीवन को बहुरूपी, बहुवर्णी और सम्मानपूर्ण जरूर करती है पर हमारे भीतर-भीतर बहुत कुछ जो सहज कोमल और शुचि है, उसे बिगाड़ देती है ।26 फलस्वरूप परिश्रम, सादगी, सच्चाई हमें मूर्खता के पर्याय लगने लगे हैं। अब जीवन कर्म नहीं, कर्म का स्वांग बन कर रह गया है। तो फिर इससे मुक्ति का रास्ता क्या है? श्री राय के शब्दों में रास्ता है जीवन में 'कर्मसु कौशलम्' (Efficiency) और संस्कार-साधना/ शील (Culture) की प्रतिष्ठा। यही शिक्षा के मौलिक उद्देश्य हैं। अफलातून और अरस्तू से लेकर गांधी-रवीन्द्र-अरविंद तक सबने इसको स्वीकार किया है। शब्दावली भले ही भिन्न हो। 'कर्मसु कौशलम्'/योग्यता (Efficiency) में छात्र को 3r’s (reading, writing, reckoning) अर्थात् पढ़ना-लिखना और अंक विद्या में पारंगत होने से लेकर मानविकी और विज्ञान के विविध विषयों का सम्यक् ज्ञान कराया जाता है । संस्कार-साधना/ शील (Culture) में ऊपर के 3r’s के बाद चौथा R (the biggest R, Capital R) बच जाता है। यह चौथा R है (Religion) धर्म।27 धर्म शब्द को लेकर श्री राय सावधान हैं। इसलिए उसकी सही व्याख्या प्रस्तुत करते हुए कहते हैं-“यह पुराना शब्द है और पुरोहित तंत्र से जुड़ कर आज अपना आकर्षण खो चुका है। परन्तु है यह एक मूलभूत तत्त्व। इसी को संस्कार, शील, चरित्र, आचरण या वृहत्तर अर्थ में 'संस्कृति' भी कहते हैं। हमारा तात्पर्य इसी वृहत्तर अर्थ से है, संप्रदायवादी अर्थ से नहीं। व्यवहार में धर्म, शील और संस्कृति-तीनों शब्दों का अर्थ एक ही होता है। ये हमारे चाल-चलन, अभिरुचि, और चिन्तन में एक दिव्यता भर देते हैं। इस दिव्यता के लिए प्रशिक्षण और संस्कार देना ही संस्कार-साधना/ शील (Culture) का उद्देश्य है।”28
मद्रास के गवर्नर ट्रेवलिन ने 1838 में प्रकाशित अपनी पुस्तक 'आन एजुकेशन ऑफ पीपल इन इण्डिया’ में स्पष्ट तौर पर कहा था कि अंग्रेजी शिक्षा देकर हम अपना एक बहुत बड़ा सहायक वर्ग तैयार कर रहे हैं-"भारतीय हमारे विरुद्ध कभी भी क्रांति नहीं करेंगे... क्योंकि शिक्षित भारतीय समाज, यह सोचकर कि हमारी शिक्षा प्रणाली पर आधारित भारतीय समाज की उन्नति हमारे संरक्षण के बिना संभव नहीं, सदैव हमसे चिपका रहेगा।"29 श्री राय इससे बखूबी परिचित हैं । इसीलिए वे कहते हैं कि ‘आज़ादी आसमान से गिरी और इसी नये वर्ग ने बीच में उसे पकड़ लिया। आज़ादी के बाद हमारी सारी नीतियाँ, सारी परिकल्पनाएँ इसी नए वर्ग (New Class) के द्वारा संचालित हुईं। आज इसी वर्ग के हाथ में भारतीय प्रेस' है, Mass-Media के सारे साधन हैं। अतः यह अपने वर्ग-स्वार्थ (Vested Interest) को ही बार-बार दुहरा कर उसे राष्ट्रीय स्वार्थ (National Interest) का रूप दे देता है।’30 भकुआई जनता इसे सही माने बैठी है। 1986 में ज़ोर-शोर से प्रचारित -प्रसारित ‘नयी शिक्षा नीति’ को श्री राय ‘मैकाले द्वारा स्थापित मानसिकता का नया संस्करण’ और ‘एक नयी वर्ण-व्यवस्था की स्थापना के प्रयास’ के रूप में देखते हैं । वे एकदम सही लक्ष्य करते हैं कि यह शिक्षा नीति भारतीय भाषाओं और शिक्षा के माध्यम के सम्बन्ध में बिलकुल मौन है।31 श्री राय के लिए भाषा सरस्वती रूपा है। इसके साथ दुर्व्यवहार जातीय संस्कारों को विकृत करना है। इस बात से कौन इनकार कर सकता है कि ‘नारी के बाद भाषा ही एक ऐसी चीज़ है जिसे 20-21वीं शताब्दी में सर्वाधिक दुर्गति का शिकार बनाया गया है।’32 यह कटु सत्य है कि ‘साहित्य में और साधारण बोलचाल में भी नैतिक दृष्टि से भाषा दिन पर दिन या तो अश्लील होती जा रही है अथवा लट्ठमार, और खूबी तो यह कि ये दोनों बातें आधुनिक बुद्धिवाद के नाम पर या आधुनिक राजनीति के नाम पर वाहवाही पा रही हैं। कहीं पर Modernism के नाम पर कहीं पर यथार्थवाद के नाम पर तो कहीं पर प्रतिबद्धता (Commitment) के नाम पर अश्लीलता ही नया नारा है। परन्तु है यह एक प्रकार की मानसिक विकृति का लक्षण। व्याकरण की दृष्टि से दिन पर दिन गलत भाषा लिखने-बोलने का रिवाज बढ़ता जा रहा है भारत में भी और भारत से बाहर भी।’33 यह एक गंभीर चिंता की बात है। श्री राय इस बात से दुखी हैं। वे मानते हैं कि ‘शुद्ध और शालीन भाषा का प्रभाव आसपास के वातावरण और बोलने-सुनने वाले के चाल-चलन पर पड़ता है। अतः हमारा कर्तव्य है कि हम अपने छात्रों में भाषा के प्रति एक पवित्रता का भाव जगायें।’34 इसी के साथ-साथ वे लोक मानस के वैज्ञानिक संस्कार के लिए हिन्दी या भारतीय भाषाओं को विज्ञान और तकनीकी शिक्षा का माध्यम बनाने पर भी ज़ोर देते हैं । बिना इसके भारत जो ‘भविष्य के साथ-साथ अतीत का भी नेता [रहा] है’35 विश्व राष्ट्रों के बीच अपना उचित स्थान बना पाने में असफल ही रहेगा और ‘इसके लिए जिम्मेवार हैं [होंगे] अंग्रेजीपरस्त दिल्ली वासी, भूरे अफसर, निकम्मे शिक्षक,शिखंडी साहित्यकार,शुतुरमुर्ग वैज्ञानिक और गाय-बैल जैसी भारतीय जनता।’36 सौभाग्य से वर्तमान राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में भारतीय भाषा/मातृभाषा/शिक्षा माध्यम पर सूत्र रूप में ही सही चर्चा तो जरूर हुई है । हालांकि परिणाम तो अभी दूर ही है।
शिक्षाविदों ने प्राय: शिक्षा के तीन स्तर गिनाएं हैं : प्राथमिक,माध्यमिक और उच्च शिक्षा । श्री राय इससे सहमत होते हुए माध्यमिक शिक्षा को सर्वाधिक मान दिया है। इसके पीछे का कारण यह है कि छात्र के नागरिक बनने की मानसिक प्रक्रिया माध्यमिक स्तर से ही शुरू होती है। हर एक छात्र अपनी निजी विशेषता और निजी सामाजिक पृष्ठभूमि के साथ आता है। इसलिए कॅरियर/नौकरी के साथ-साथ उसके अंदर सर्वांग सामाजिक दायित्व के बोध-बीज का कर्षण माध्यमिक शिक्षा के स्तर पर ही करना होगा जब मन और बुद्धि की ज़मीन अभी नरम रहती है। राष्ट्रीयता के स्वरूप को विकृति से बचाने के लिए इस स्तर पर ही मजबूती से काम करना होगा। माध्यमिक शिक्षा ‘प्रत्येक छात्र को उसकी किशोरावस्था में 'उपनयन' देता है। उपनयन अर्थात् अतिरिक्त नयन, बुद्धि और संस्कार के नयन।’37 रवीन्द्रनाथ ने अपनी कविता में जिस हिंदुस्तान के 'ज्ञान जेथा मुक्त उच्च जेथा शिर' जहाँ ज्ञान मुक्त हो और जहाँ ऊँचा सिर उठा हुआ हो (Where heed is held high where Knowledge is free)- की चर्चा की है उसका असल द्वार शिक्षा के इसी स्तर पर खुलता है।
श्री राय मानते हैं कि ‘शिक्षा का उद्देश्य है व्यक्ति के अन्दर अन्तर्निहित मनुष्यत्व को विकसित करना और पूर्णांग बनाना, व्यक्ति की बीज रूप प्रतिभा को प्रस्फुटित करके उसे पुनर्जन्म देना, द्विजत्व देना’। गांधी और कुमारस्वामी के साथ-साथ प्रसिद्ध कला-समालोचक और शिक्षाविद् Herbert Read भी इसी बात पर ज़ोर देते हैं - The true aim of Education is to reconcile the individual uniqueness with the Social unity." शिक्षा का असली उद्देश्य है व्यक्ति की अन्तर्निहित अद्वितीयता अर्थात् विशिष्टता को सामाजिक पूर्णांगता के साथ जोड़ना’। किसी भी ‘स्वस्थ और पूर्ण समाज में ... किसान, बढ़ई, लोहार, चमार से लेकर कारीगर, क्लर्क, व्यापारी, डॉक्टर, इंजीनियर, कवि, लेखक, पत्रकार तक की आवश्यकता होती है। इन हज़ार-हज़ार सिरों के मिलने से एक शेषनाग बनता है जिसे समाज कहते हैं- 'सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात' समाज। इसके सारे सिरों की सही-सही संरचना के लिए एक आधारभूत प्रशिक्षण चाहिए। उस प्रशिक्षण को पाने के बाद ही वे सिर अपनी अलग-अलग आकृति को सही-सही बना पायेंगे।’38 आनंद कुमारस्वामी ने ‘कला और स्वदेशी’ सहित अन्य रचनाओं में इस पर विशद प्रकाश डाला है और हिंदुस्तान की अवनति में कला और शिल्प की अवनति को विशेष रूप से रेखांकित किया है। पर दुर्भाग्य से आधुनिक हिंदुस्तान में इस पर गंभीरता से कभी सोचा ही नहीं गया। अपने एक निबंध में वे भारतीय समाज के कड़वे यथार्थ का मार्मिक विवेचना करते हुए लिखते हैं-“देखा है न, अपने ही गाँव के दक्षिण सीमान्त में बाँस के वनों में बसी हुई डोमबस्ती को देखा है, दूर से ही सही। ... उसी बस्ती की लड़की महुआ ... जो तुम्हें सुन्दर बाँसशिल्प के नमूने दिखा जाती है। बाँस के बने हुए बैग, अलंकृत टोकरे और दरवाजे के पर्दे। ... इस कुशल बाँसशिल्पी कन्या को क्या अवसर मिला? यदि यही श्री निकेतन या जापान में प्रशिक्षण के लिए भेजी जाती तो क्या नहीं कर सकती थी?”39 ज्ञात-अज्ञात कारणों से आधुनिक शिक्षा का न तो मनुष्यत्व से कोई सरोकार बना न ही 'शील' या चरित्र से कोई सम्बन्ध । अंतत: श्री राय इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि ‘इस शिक्षा का 'भलमनसाहत' से कोई ताल्लुक नहीं।’40 इस बात से कौन इनकार कर सकता है स्वस्थ समाज के निर्माण की पहली और आखिरी सीधी है ‘भलमनसाहत’ । गांधी जीवन भर इसी की वकालत करते रहे। भले ही उनकी शब्दावली भिन्न हो।
हिन्द स्वराज में गांधी ने एक बड़ी मार्के की बात कही है कि ‘हिन्दुस्तान को असली रास्ते पर लाने के लिए हमें ही असली रास्ते पर आना होगा, बाकी करोड़ों लोग तो असली रास्ते पर ही हैं।’41 श्री राय भी इस बात की ताईद करते हैं कि ‘अशिक्षितों में 'भलेमानुस' मिल सकते हैं, परन्तु इन Careerist शिक्षितों के अन्दर नहीं।’42 स्पष्ट है कि आधुनिक शिक्षा/सभ्यता की आंच जहां तक नहीं पहुंची है वहाँ तक हिंदुस्तान में भलमनसाहत बची हुई है अपनी अनेक विकृतियों के साथ। गांधी मानते हैं कि ‘उसमें सुधार-बिगाड़, उन्नति अवनति समय के अनुसार होते ही रहेंगे। पश्चिम की सभ्यता को निकाल बाहर करने की ही हमें कोशिश करनी चाहिये। दूसरा सब अपने आप ठीक हो जायगा।’43 कुमारस्वामी भी अंग्रेजों को चेताते हैं कि “इंग्लैंड अब भारतीय शिक्षा के हित में केवल एक ही सच्ची सेवा कर सकता है, शिक्षा बजट और शिक्षा का संपूर्ण नियंत्रण भारतीय हाथों में सौंपकर।’44 लेकिन यह केवल मुंह जुबानी जमा खर्च से नहीं होने वाला है। विगत दो सदी से छंद हीन ‘राष्ट्रीय-जीवन की पुनर्रचना में राष्ट्रीय शिक्षा के क्षेत्र में वर्षों के धैर्य और श्रम की आवश्यकता होगी।’ यह दायित्व कितनी बड़ी यंत्रणा है इसे शिक्षा जगत से जुड़े बंधु समझ सकते हैं।45 श्री राय शिक्षा जगत से जुड़े हुए थे इसलिए इसके मर्म को ठीक से समझते थे तभी तो कहते हैं-“गृह विज्ञान की प्रयोगशाला सुसज्जित रखकर क्या होगा जब गृह ही असुन्दर, विसंगत, उदास और छन्दविहीन रह गया।”46 श्री राय की इच्छा है कि भारत रूपी गृह लय-छंद युक्त ‘शान्तम्, सरलम्, सुन्दरम्’ देश बने। कहने की जरूरत नहीं है कि इन ‘भोर के तारों’ के विचार-सूत्रों को पाठ्यक्रमों में उचित स्थान देने की जरूरत तो है ही उससे भी अधिक जरूरी होगा आचरण में उतारने की ।
1- कुबेरनाथ राय, मराल, पृ. 158
2- वही
3- कुबेरनाथ राय, रस आखेटक, पृ 55
4- वही, पृ. 195
5- कुबेरनाथ राय, दृष्टि अभिसार, पृ. 158
6- कुबेरनाथ राय, मराल, पृ. 158
7- कुबेरनाथ राय, कामधेनु, भूमिका, पृ. VII
8- कुबेरनाथ राय संकलित निबंध (सं. मनोज कुमार राय), पृ बारह
9- कुबेरनाथ राय, वाणी का क्षीर सागर, पृ. 36
10- हिन्द-स्वराज, पृ. 93
11- आनंद कुमारस्वामी, एसेज इन नेशनल आइडियलिज़्म, पृ 97
12- वही
13- कुबेरनाथ राय, गहि न जाई अस अद्भुत बानी, पृ 295
14- हिन्द-स्वराज, पृ. 53
15- कुबेरनाथ राय, सोमरस, गाजीपुर विशेषांक अंक 38 वर्ष 1989-90, पृ 194
16- वही
17- वही
18- वही, पृ. 194-95
19- कुबेरनाथ राय, गहि न जाई अस अद्भुत बानी, पृ 295
20- आनंद कुमारस्वामी, एसेज इन नेशनल आइडियलिज़्म, 113
21- कुबेरनाथ राय, मराल, पृ. 162
22- पत्र मणिपुतुल के नाम, पृ. 62-63
23- वही
24- वही
25- कामधेनु, कुबेरनाथ राय, पृ. 16
26- कुबेरनाथ राय, पत्र मणिपुतुल के नाम, पृ. 26
27- कुबेरनाथ राय, सोमरस, गाजीपुर विशेषांक अंक 38, वर्ष 1989-90, पृ 196
28- वही
29- ट्रेवलिन, 'आन एजूकेशन ऑफ पीपुल इन इण्डिया', सन 1838; पृष्ठ 189)
30- कुबेरनाथ राय, सोमरस, गाजीपुर विशेषांक अंक 38, वर्ष 1989-90, 195
31- वही
32- वही, पृ. 199
33- वही
34- वही
35- आनंद कुमारस्वामी, एसेज इन नेशनल आइडियलिज़्म, पृ. 109
36- कुबेरनाथ राय, धर्मयुग, 10 अक्तूबर 1965
37- कुबेरनाथ राय, सोमरस, गाजीपुर विशेषांक अंक 38, वर्ष 1989-90, 198
38- कुबेरनाथ राय, सोमरस, गाजीपुर विशेषांक अंक 38, वर्ष 1989-90, 198
39- कुबेरनाथ राय, पत्र मणिपुतुल के नाम, पू. 13
40- कुबेरनाथ राय, सोमरस, गाजीपुर विशेषांक अंक 38, वर्ष 1989-90, पृ 194
41- हिन्द स्वराज, पृ.93
42- कुबेरनाथ राय, सोमरस, गाजीपुर विशेषांक अंक 38, वर्ष 1989-90, पृ-194
43- हिन्द स्वराज पृ 93
44- आनंद कुमारस्वामी, एसेज इन नेशनल आइडियलिज्म, पृ.97
45- हिन्द स्वराज, पृ 93
46- कुबेरनाथ राय,मराल, पृ. 158
* एसोसिएट प्रोफेसर ,गांधी एवं शांति अध्ययन विभाग,महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय ,वर्धा,महाराष्ट्र
Email-manojkumarrai@hindivishwa.ac.in ,मो-9404822608
*खोज गाँधी की*
*नो ! आई हैवन्ट डाइड येट!*
लगभग 26-27 वर्ष पुरानी बात है। जीवन के 29वें-30वें वर्ष में अचानक बिना किसी प्रसंग के एक दिन स्वप्न में गांधी सीधे चले आए। काहिविवि,वाराणसी से कुछ ही दूरी पर गंगा नदी का ‘सामने घाट’ है। उसी घाट पर गांधी धवल वस्त्र और लाठी के साथ गंगा नदी में लाठी के साथ खड़े हैं और मुझे बुला रहे थे। और मैं उनसे कह रहा था कि ‘आप मर चुके हैं’। मुझे क्यों बुला रहे हैं? वे कहते हैं ‘नहीं, मैं जिंदा हूँ’। नो ! आई हैवन्ट डाइड येट! नींद खुल जाती है और गांधी का कुछ अता-पता नहीं। दो-चार दिन बाद फिर वही दृश्य। वही बुलावा और ‘जीवित हूँ’, तुम आ जाओ’। अबकी बार जगा तो सोच में पड़ गया कि प्रकृति यह कौन सा खेला खेल रही है। लेकिन मन में यह भाव तो आ ही गया कि बात तो कुछ है।
‘हे राम’ मंत्रोच्चार के साथ जीवन मुक्त हुए गांधी-शहादत वर्ष के लगभग तीन दशक बाद मेरा गांधी शब्द से वास्ता पड़ा था। मेरा बचपन निम्न मध्यवर्गीय भोजपुरी युवा की तरह ही रहा है । भोजपुरी बच्चों की दिनचर्या को कुबेरनाथ राय ने बड़े सुंदर शब्दों में कुछ यूं बयां किया है। वे लिखते हैं- ये ‘बच्चे जंगल-जंगल, बाग-बाग, खेत-खेत कोई जड़ी, कोई गाँठ, कोई कन्द, चाहे खाद्य हो या कुखाद्य ढूँढते-खोदते-खाते फिरते हैं ; मीठी भटकोंई हो या काषाय जड़, दोनों को चाव से खाते हैं; ज्वार-बाजरे का डण्ठल चूसते हैं और बाजरे का ‘सीका’ (नये गुम्फ) जानवरों की तरह भरपेट खा जाते हैं । ये धरती का चप्पा-चप्पा छानते हैं कि कहीं विधाता की भूल से कोई रस की बूँद छूट गयी हो, तो उसका आहरण कर लें ।’ (कुबेरनाथ राय : रस आखेटक,पृ.129) तो मेरे बचपन के भी प्रारम्भिक 7-8 वर्ष कुछ ऐसे ही गुजरे । लेकिन यह सब कब तक चलता!
मेरे पिताजी अपने गाँव से सवा सौ किमी दूर एक इंटर कालेज में अध्यापक थे। कुछ बदली परिस्थितियों में पढ़ने लिखने के लिए पिताजी के पास जाना पड़ा। वहाँ मेरी पढ़ाई सीधे कक्षा 3 से ही शुरू हुई, क्योंकि ‘खाद्य-कुखाद्य’ की खोज में 2-3 वर्ष पीछे हो गया था। हमारे होश संभालने तक या कह सकते हैं कि स्कूल-प्रवेश के पहले मेरे आसपास गाँधी किसी खास आकर्षण के रूप में मुझे नहीं दिखे थे । ‘स्मृति’ पर ज़ोर देने से दो जगह गांधी का नाम सुनाई देने की याद है। स्थानीय बस्ती में पिताजी की लोकप्रियता बहुत थी। लोकप्रियता के ‘डॉक-पते’ के मामले में पिताजी गांधी के नजदीक थे। मेरे घर का पता था-‘रायसाहब सिंधोरा वाराणसी’। और गांधी का पता होता था-‘महात्मा गांधी भारत में जहां कहीं भी हों’। तो पिताजी की लोकप्रियता का लाभ उठाने के लिए चुनावी नेता गण आते थे । 1977 का आम चुनाव था। एक मँझले कद के नेता कुछ हल्के रंग का कुर्ता पहने हुए दिखे थे । पिताजी भी उनके साथ थे। नारा लगाया जाता था –‘गांधी लोहिया जयप्रकाश । भारत के तीन प्रकाश।।’ बड़े होने पर पता चला कि उस चुनाव में राजाराम शास्त्री हार गए थे। राजाराम शास्त्री एक बड़े शिक्षाविद थे। काशी विद्यापीठ के कुलपति भी रह चुके थे।
दूसरी बार गांधी से पाला पड़ा अपने प्राथमिक विद्यालय में। कक्षा 5 का विद्यार्थी था। तब वहाँ एक नए-नए अध्यापक आए थे। उन्हें हम सब ‘दुबे पंडीजी’ कहते थे। उन्होने प्रार्थना के बाद एक नई और सुंदर प्रथा शुरू की- प्रार्थना के बाद भारतमाता,महात्मा गांधी, नेहरू,सुभाष,आजाद भगत सिंह आदि के जय-जयकार लगवाकर। वक्त ने मुझे भी प्रार्थना कराने का अवसर प्रदान किया। मुझे वह दिन अच्छी तरह से याद है जब मैं ‘भारतमाता’ की जय के बाद गांधी-नेहरू को लांघते हुए सीधे ‘सुभाष-आजाद’ पर चला गया और मैं प्रतिदिन ऐसा करता था। गांधी-नेहरू के उच्चारण के समय मुंह से आवाज नहीं निकालता था। साथ वाला लड़का गला फाड़कर चिल्लाता था। क्योंकि उसे दूनी मेहनत करनी होती थी। क्यों आगे बढ़ जाता था? यह रहस्य बहुत बाद में समझा आया।
पाठ्यक्रम में भी गांधी पर अध्याय थे। एक कविता आज भी स्नायु-मण्डल में स्थायी रूप से अंकित है जिसके रचयिता सियारामशरण गुप्त थे-‘हम सब के थे प्यारे बापू/सारे जग से न्यारे बापू।‘। पढ़ा और याद भी किया था । पर था यंत्रवत ही ।
फिर आया समय विश्व विद्यालय में पढ़ने का । बीएचयू आ गया था । विषय था- अर्थशास्त्र,गणित और सांख्यिकी । वहाँ सभी दलों/संगठनों के नेताओं से मित्रता थी। पढ़ाई और नौकरी के बीच समानुपाती रिश्ता से हम सब परिचित हैं। प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के समय गांधी-नेहरू-टैगोर को एक अनिवार्य पाठ्यक्रम के अंतर्गत पढ़ने का अवसर मिला। पढ़ा और फेल-पास हुआ। पर गांधी से यहाँ भी जुड़ नहीं पाया था। उसी दौरान हमारे एक सीनियर थे दिलीप त्रिगुणायत जी। उन्होने आचार्य जे बी कृपलानी की पुस्तक – Gandhi : His Life And Thought पढ़ने को दिया। सहमति-असहमति के साथ पढ़ गया। आकर्षण या बंध जाने वाली स्थिति अब भी नहीं बन पाई थी। समय अपनी गति से चल रहा था। दुनियादारी और सामाजिकता का दायरा बढ़ता जा रहा था।
इसी बीच एक किताब हाथ में आई ‘गांधी दि मैन’। लेखक थे-एकनाथ ईश्वरन। शानदार किताब है । पहले अध्याय का नाम है – ‘व्यक्त्विान्तरण’। भाषा अद्भुत है। साहित्य की शब्दावली में ‘पोएटिक लैंग्वेज’। भीतर तक प्रवेश कर गई थीं उसकी बातें। पुस्तक के माध्यम से दबा बीज अंकुराने लगा था।
एक और मजेदार घटना घटी। एक दिन बैंक में पैसा निकालने के लिए लाइन में लगा था। 5-7 लोग आगे थे। तभी एक 18-20 वर्ष का नवयुवक आया और सीधे खिड़की में हाथ डाल दिया। मैंने उसे टोका। उसने रोष भारी नजरों से देखा और कहा-‘मैं जानता हूँ कि आप कितने बड़े गांधी है’? माथा ठनका! लाइन में खड़े होकर अपनी बारी का इंतजार करने के लिए कहना या खड़ा होना भी गांधी है।
गांधी की खोज शुरू ही थी । इस बार दो पतली-2 पुस्तकें हाथ में आईं। वे थीं -‘पत्र मणिपुतुल के नाम’ लेखक कुबेरनाथ राय और दूसरी Gandhi: A Very Short Introduction लेखक भीखू पारेख । दोनों के प्रकाशन वर्ष में लगभग 17 वर्ष का अंतर है। श्री राय की पुस्तक गांधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली से 1980 में प्रकाशित हुई थी और भीखू पारेख की पुस्तक ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से 1997 में । भीखू पारेख का लेखन सुंदर और सुग्राह्य था। हालांकि इस पुस्तक में भीखू पारेख एक जगह लिखते हैं- He either ignored or took a dim view of the intellectual, scientific, aesthetic, sensuous, and other aspects of life. He rarely saw a film, read a book of poetry, visited an art gallery, watched a game, or took any interest in history, archaeology, modern science, wildlife, unspoilt nature, and India’s natural beauty. (भीखू पारेख, Gandhi: A Very Short Introduction, पृ. 97-99) मन थोड़ा खिन्न हुआ यह सब पढ़कर । श्री राय की पुस्तक ‘पत्र मणिपुतुल के नाम’ को पर पढ़ने में जो आनंद आया वह अद्भुत था । वैसे पुस्तक-शीर्षक से पता नहीं लगता है कि यह पुस्तक गांधी-चिंतन को केंद्र में रखकर लिखी गई है। पत्र शैली में लिखे गए इसके निबंध अद्वितीय हैं। इस पुस्तक का असर यह हुआ कि कुबेरनाथ राय और गांधी एक ही साथ प्रेत की तरह चढ़ बैठे।
कुबेरनाथ राय ‘पत्र मणिपुतुल के नाम’ में लिखते हैं-“विश्व-इतिहास में 19वीं शती तक आते-आते भारतवर्ष अपनी प्रतिष्ठा का मुकदमा हार चुका था। परन्तु उसे अन्तिम पराजय से बचाने वाले भारतीयों में तीन नाम विशेष रूप से आते हैं : विवेकानन्द, रवीन्द्रनाथ और तीसरा एक अपेक्षाकृत अल्पज्ञात नाम है सर आनन्द कुमारस्वामी। पहले ने उसकी दार्शनिक महिमा को विश्व-इतिहास की अदालत में उपस्थित किया, दूसरे ने साहित्यिक महिमा को और तीसरे ने उसकी कलात्मक गरिमा को। इन तीनों ने मिलकर भारतीय अस्मिता को पश्चिम के मुकाबले में खड़ा ही नहीं किया, प्रतिष्ठित किया। अस्मिता का अर्थ व्यक्तित्व होता है। परन्तु भारत की आत्मा को, जो अस्मिता से भी सूक्ष्मतर-गम्भीरतर सत्ता है, विश्व-इतिहास की अदालत में उपस्थित करना शेष था और यह काम किया था महात्मा गांधी ने अपने व्यापक और सहज जीवन के द्वारा। विश्व-इतिहास के आधुनिक दौर में यही चार हमारे वकील हैं : विवेकानन्द, रवीन्द्रनाथ, कुमारस्वामी और गांधी । इन्हीं के बल पर हम अपनी फिर खोयी हुई प्रतिष्ठा पा गये।” (कुबेरनाथ राय : पत्र मणिपुतुल के नाम,पृ.36)
अहसास हुआ कि 'अरे! गाँधीजी ऐसे थे '!
विद्यार्थी जीवन में भी लाइब्रेरी के ‘टीचर्स-रूम’ में बैठने की आदत पड़ चुकी थी । वहाँ चर्चा और नई-नई किताबों से रूबरू होने का शानदार अवसर था। वहाँ गांधी के पक्ष-विपक्ष दोनों तरह के लोग बैठते थे। पारिभाषिक शब्दों पर गांधी-कथन की तलाश और उसकी मीमांसा रोज का शगल बन गया। इन्हीं दिनों 'सत्य का प्रयोग' से परिचय हुआ। भाषा की सहजता, मनुष्य की सरलता, उन्मुक्तता और अपनी खोज के साथ असीम धैर्य से सत्य के प्रयोग करते हुए 'हिमालय जैसी भूलों' को अत्यन्त सहजता से कबूल करने का साहस दिखाने वाले इस 'सत्य के प्रयोग' ने बांध ही लिया ।
तो ग्रंथालय के माध्यम से ‘Half naked fakir’-‘अधनंगा फकीर' ही प्रत्यक्ष जीवन में अधिक-अधिक आता गया। इसी पढ़ने लिखने के क्रम तीन व्यक्ति और मिले। प्रो नागेश्वर प्रसाद, डॉ एस एन राय और अमरनाथ भाई। प्रो नागेश्वर प्रसाद ने किताबें उपलब्ध कराईं। डॉ एस एन राय ने दिल्ली की यात्रा कराई । अमरनाथ भाई ने श्री ठाकुरदास बंग और श्री सिद्धराज ढड्ढा को चिट्ठी लिखने के लिए कहा। मैंने इन दोनों लोगों को चिट्ठी लिखी। जवाब आया और कहा गया कि कभी इधर आना हो तो आप आश्रम में जरूर आए। इस दौरान मैंने जो कुछ लिखा पढ़ा था , वह भी उन लोगों को भेज दिया । उन लोगों को काफी पसंद आया। वे लोग बार-बार बुलाते भी रहे। सिद्धराज ढड्ढा से मेरी भेंट नहीं हुई और उनका देहांत भी हो गया।
ठाकुरदास बंग से मेरी निकटता थोड़ी ज्यादा हो गई थी और वर्धा में मैं जहां रहता था उधर ही उनका पुश्तैनी घर था । तो आते जाते उनसे प्राय: भेंट हो जाती थी। आश्रम में ही मैंने एक दिन उनसे गांधी से मुलाक़ात के बारे में पूछा । उन्होने बताया कि वे पहली बार आश्रम में 1936-37 में आए थे और उन्होंने गांधी जी से मिलने का समय मांगा । गांधी जी ने दूसरे दिन शाम को 6:45 बजे का उनको समय दिया था। वे वहां आश्रम में साइकिल से पहुंचे। गांधी जी ने नियत समय अपना दरवाजा खोला और अंग्रेजी में बोला ‘हू इज ठाकुरदास’। मिलते ही उन्होने पहला सवाल किया कि बापू आप अंग्रेजी क्यों बोल रहे हैं। तो गांधी ने कहा कि अरे तुम्हारा नाम से मुझे कंफ्यूजन हो गया था। मुझे लगा कि तुम बंगाली हो और बंगालियों का हाथ हिंदी में थोड़ा तंग होता है। इसलिए मैंने सोचा कि तुमको कोई कष्ट न हो। मुझे तुरंत वह दृष्टांत याद आ गया कि किस तरह से ईश्वर अपने भक्तों के प्रति या कोई गुरु अपने शिष्य के प्रति कितना सतर्क और सावधान रहता था । एक दूसरा सवाल भी ठाकुरदास से मैंने पूछा। गांधी तो अपरिग्रह के पालक थे और उसे पर जोर भी देते थे । तो मुझे लगता है कि वह उन चीजों को जरूर आश्रम में नहीं रखते थे जिनका वह प्रयोग नहीं करते थे। उन्होने हामी भरी। आश्रम में एक बक्सा है। बक्से में बहुत सारी चीज रखी हुई है। उन वस्तुओं में एक माला भी है। तो मैंने उनसे पूछा –‘यदि यहाँ माला रखा हुआ है तो क्या कभी आप लोगों ने माला फेरते हुए उनको कभी देखा है? उन्होने कहा-‘यह तो नहीं देखा और न ही मेरा ध्यान ही कभी उधर गया। लेकिन मैं तो आश्रम में बहुत दिनों तक उनके साथ रहा। आश्रम में किसी ने किसी रूप में जुड़ा हुआ था। लेकिन वे मुझे माला फेरते हुए कभी नहीं दिखे’। (निजी बातचीत के आधार पर)
तो अब गांधी धीरे-2 समझ में आने लगे थे। बचपन में गांधी से बनी दूरी भी स्पष्ट होने लगी थी । वही झूठे आरोप –‘देश विभाजन, पाकिस्तान को रूपये देना, नेहरू को उत्तराधिकारी बनाना,भगत सिंह को फांसी से बचाने की कोशिश नहीं करना, सुभाष चंद्र बोस को कांग्रेस से बाहर करना देना’ आदि-आदि। आरोपों की लंबी फेहरिश्त है ।समझ में आ गया कि गांधी की खोज इससे आगे बढ़कर करनी होगी।
फिल्मकार रिचर्ड एटनबरो के नाम से हम सब परिचित हैं। वे भी गांधी से प्रभावित लोगों में से थे। गांधी की मृत्यु के बाद उनपर एक फ़िल्म बनाना चाहते थे। 1960 के दशक में इसके लिए जवाहरलाल नेहरू से बात भी की थी । नेहरू ने न सिर्फ स्वीकृति दी, समर्थन का भी वादा किया। मगर फ़िल्म तब न बन सकी। दो दशक बाद अंततः एटनबरो की यह फ़िल्म 1982 में बनकर तैयार हुई। यह ऑस्कर के लिए 11 श्रेणियों में नामांकित हुई, और 8 अवार्ड जीत भी लिए। यह एक अनूठा इतिहास है। आप सबको जानकर आश्चर्य होगा कि इस फिल्म को मैंने बहुत बाद में देखा। पर पूरा नहीं देख पाया। क्योंकि तब तक फिल्मों में मेरी गहरी अरुचि हो गई थी। आज भी वही स्थिति है।
इस प्रकार ‘खोज गांधी की’ मेरे लिए किताबों के माध्यम से ही होती रही।
गांधी गीता के बारे में लिखते हैं-“सन 1889 में मैं गीता से परिचित हुआ तब से वह मेरी माता है। मैं हर कठिनाई में मार्गदर्शन के लिए उसकी ओर देखता हूँ, और मुझे उससे अपेक्षित सहायता प्राप्त होती है।... यह आध्यात्मिक माँ अपने भक्त को उसके जीवन में सदैव अभिनव ज्ञान,आशा और शक्ति प्रदान करती है।” (एकनाथ ईश्वरन,गांधी दि मैन, पृ. 44) आत्मकथा में गांधी ने गीता (2.62-63) के जिन दो श्लोकों को उद्धृत किया है उनमें काम से क्रोध, क्रोध से सम्मोह, सम्मोह से स्मृति भ्रंश, स्मृति भ्रंश से बुद्धि नाश और बुद्धि नाश से सर्वनाश की बात कही गयी है।
गीता से मैं भी परिचित था । बचपन में पढ़ा भी था। कुछ असर जरूर हुआ होगा। लेकिन जब मैंने गांधी-पथ पर चलते हुए गीता को समझने की कोशिश की तो कुछ चीजें स्पष्ट हुईं। स्थिति-प्रज्ञ से संबन्धित श्लोकों का मर्म भी समझ में आया। पर श्मशान वैराग्य से आगे मामला बढ़ नहीं पाता है। फिसलता ही रहा हूँ।
इस पुस्तक को पढ़ते समय एक बात और ध्यान में आती है। वह यह कि गांधी के उभार के समय भारत में एक से बढ़कर एक वयोवृद्ध दिग्गज नेता, महान साधक और संत, कवि और कलाकार, वैज्ञानिक, दार्शनिक और पूंजीपति समकालीन भारतीय रंगमंच पर थे भी और उभर रहे थे । फिर भी उन्होंने कभी भी इन्द्र-ग्रंथि को, किसी के प्रति ईर्ष्या-भाव को, अपने मन में कोई जगह नहीं दी। सबको मान-सम्मान दिया। दुख की घड़ी में उन्हें आवश्यकतानुरूप सेवा की, सबको अपनी प्रतिभा के अनुरूप आगे बढ़ाने का समुचित अवसर प्रदान किया। पर ऐसा करते हुए उन्होंने सत्य शोधक की अपनी मर्यादा-रेखा का कभी विस्मरण नहीं किया।
गांधी के जीवन में जब-जब ईर्ष्या की महाशक्ति झांकने को हुई कि एक वैष्णव की विनम्रता से उन्होंने नमन किया और अपने गंतव्य की ओर आगे बढ़ते गये। काम को उन्होंने ब्रह्मचर्य की लगाम लगा दी; ईर्ष्या की अग्नि उन्हें दग्ध न करे, इसके लिए उन्होंने अहंकार का त्याग कर शून्यवत होने की साधना की। 'सेवक की प्रार्थना’ नामक एक कविता भी गांधी ने लिखी है –
"हे नम्रता के सम्राट!
दीन भंगी की हीन कुटिया के निवासी।
...... हे भगवन्! तू तभी मदद के लिए आता है
जब मनुष्य शून्य बनकर तेरी शरण लेता है।”
समय के साथ जीवन में जैसे-2 विभिन्न प्रकार के अवसर मिलते गए और गांधी से निकटता भी बढ़ती गयी । अब मेरे समक्ष हँसते-बोलते गाँधीजी आ गए थे। पर्दे पर ही नहीं विशुद्ध उनकी आवाज़ सुनी । शांत,स्थिर और मद्धिम स्वर, जो सीधे मन में प्रवेश कर गयी। धीरे-2 यह बात भी धीरे-समझ में भी आने लगी थी कि बाहर से अत्यन्त खुरदरा और अनाकर्षक दिखने वाले इस सनातनी बूढ़े ने चार्ली चैप्लिन, जॉन स्मट्स, , रोमा रोला और अल्बर्ट आइंस्टीन जैसे विभिन्न क्षेत्रों के प्रतिभा शाली लोगों को कैसे आकर्षित किया होगा।
रेहाना तैयब आजादी की लड़ाई में भाग लेने वाली मशहूर शख्सियत थीं। उन्होने गांधी से प्रथम मुलाक़ात पर जो साक्षात्कार दिया है उसे हम सबको पढ़ना/जानना चाहिए। वे बताती हैं -“उस दरवाजे से दो व्यक्ति दाखिल हुए, एक तो कवि ठाकुर, ऊँचे और क्या हसीन, जैसे पुराने जमाने के कोई ऋषि, सफेद दाढ़ी, सफेद बाल, वैसी ही मखमल की लम्बी टोपी और रेशमी चोगा। दूसरा उनके साथ था छोटा सा, पतला सा बदसूरत आदमी जो मोटे गाढ़े का कुर्ता, गाढ़े की टोपी, पजिया और छोटी सी धोती पहने हुए था। ... कवि ठाकुर तो मेरे देवता थे । उस वक्त दिल के उपर कुछ असर पड़ा बापू की शख्सियत का और यही ख्याल आया कि यह छोटा सा आदमी ज्यादा बड़ा आदमी है ।” ( पीएमएमएल, नई दिल्ली, मौखिक इतिहास इंटरव्यू , 5/9/1967) जीवित रहते हुए तो इन प्रतिभाशाली लोगों को तो आकर्षित किया ही, परन्तु धरा से जाने के बाद भी मार्टिन लूथर किंग, नेलसन मंडेला,ओबामा,लेक वॉलेसा, पेट्रा केली आदि तक यह गाँधी पहुंचे कैसे? कौन-सी शक्ति है यह?' आइंस्टीन का यह कथन कि ‘हाड़-मांस का बना एक ऐसा मनुष्य इस पृथ्वी पर जन्मा था, इस पर आने वाली पीढ़ियाँ विश्वास नहीं कर पायेंगी’... विश्वसनीय लगने लगा था। इसलिए आइंस्टीन ने अपने अध्ययन कक्ष में चार चित्र टंगे थे- न्यूटन,फैराडे,मैक्सवेल और गांधी । (भीखू पारेख, डिबेटिंग इंडिया,पृ .233)
समय के साथ मानसिक हलचल जैसे-जैसे समझ में आती गयी, वैसे-वैसे इस वाक्य पर विश्वास होने लगा। कानों से टकरायी वही शांत और गंभीर आवाज : I have to search my peace in semi turmoil'; अर्थात् 'मुझे अपनी शांति आँधी में से ही ढूँढ़नी है।' सेवा रूपी जीवन को मोक्ष का साधन मानने वाले महात्मा। आध्यात्म प्रवण । परन्तु उनकी आध्यात्मिकता मात्र शब्द-जाल न थी। एक बार किसी ने उनसे कहा भी कि इतना धर्म-अध्यात्म आदि की चर्चा करते रहते हैं तो हिमालय क्यों नहीं चले जाते। उन्होने जो जबाव दिया वह बड़ा ही मजेदार है। उन्होने कहा मैं हिमालय को अपने पॉकेट में लेकर घूमता हूँ। तो उनका अध्यात्म जीवन से दूर, गिरि-कंदराओं में ध्यान लगाकर बैठने वाली न थी अपितु श्रीमद भागवत और मानस से प्रेरित थी-‘सिर भर जाऊँ उचित अस मोरा......’ । यहीं, इस संसार में रहकर, मनुष्य की तरह जीवन जीकर मुझे अपनी शांति प्राप्त करनी है: यह कर्मप्रवण आध्यात्मिकता थी। कह सकते हैं कि मन में दयानंद-विवेकानंद से महात्मा जी तक का एक महामार्ग निर्मित हो गया था । इस महा मार्ग पर कदम तेजी से बढ़ने लगे।
दांडी मार्च के समय काका कालेलकर से किसी प्रसंग में कहे गए गांधी के इस कथन को कि ‘जिस तरह एक गर्भवती महिला अपने गर्भ में पल रहे बच्चे की खातिर अपने स्वास्थ्य की देखभाल करती है, मैं भी अपना ख्याल उस स्वराज के लिए रखता हूं जो मेरे गर्भ में है’, और ‘मैं इस दुष्ट सरकार को नष्ट करने के लिए पैदा हुआ हूँ।’ इस बात की पुष्टि करती है। हमें उनके जीवन का इस पक्ष को समझने में कई बार कठिनाई भी होती है। कारण यह कि उन्हें हम खंड-2 में देखने/समझने की कोशिश करते हैं, जबकि वे प्राय: कहा करते थे कि “मेरा जीवन एक अविभाज्य इकाई है। .... खण्ड-पद्धति पर उसका निर्माण नहीं हुआ है। सत्याग्रह, सविनय अवज्ञा, अस्पृश्यता, हिन्दू-मुस्लिम एकता और अन्य कई चीजें ... एक ही पूर्ण वस्तु, सत्य के अविभाज्य अंग हैं।” (सम्पूर्ण गांधी वांगमय,खंड 61,पृ.163-64)
पठन-पाठन और संग-साथ से यह बात समझ में आ गई थी कि गांधी के पास असाधारण सर्जनात्मकता थी-जीवन निर्माण से लेकर व्यक्ति और व्यक्तित्व निर्माण तक। वे केवल भारतीय स्वाधीनता संग्राम के प्रेरणा पुरुष के रूप में भारतीय राजनीति ही नहीं बल्कि लेखन समेत समग्र रचनात्मक कार्यक्रमों के प्रेरणा-पुरुष भी थे। गांधी के काल में सेवाग्राम वस्तुत: एक लोकधानी के रूप में विकसित हो चुकी थी। वायसराय से लेकर गाँव के किसान तक आश्रम पहुँच रहे थे। गांधी के पास सबके लिए कुछ-न कुछ रहता ही था । हर झोली में प्रसाद मिलता था। फलस्वरूप संपूर्ण भारतीय साहित्य, कला, दर्शन,कृषि,उद्योग आदि भी उनके रचनात्मक प्रभाव क्षेत्र में आ गये।
कुबेरनाथ राय सही लिखते हैं-“गांधी की शब्दावली देशी थी और उसका मर्म बहुत गंभीर होता था। परंतु आज का बुद्धिजीवी सतही और राजनीति आरोपित अर्थ से ज्यादा समझने में असमर्थ है। फलतः गांधी-चिंतन की बारीकी को वह समझ नहीं सका। जब ‘हिन्द स्वराज्य’ पहले पहल प्रकाशित हुआ, तो इन लोगों ने, देश के भीतर और देश के बाहर भी, इसका उद्देश्य न समझ कर खिल्ली उड़ाई थी। गोखले ने इसे पढ़कर कहा था “मिस्टर गांधी स्वयं साल भर बाद इस किताब को नष्ट कर देंगे।’ ( कुबेर नाथ राय,चिन्मय भारत,पृ.187-88)पर हुआ क्या? गांधी एक शब्द के अलावा किसी भी प्रकार के परिवर्तन के लिए तैयार नहीं थे।
गुरु गोविन्द सिंह के नाम से हम सब परिचित हैं। उन्होंने भी गांधी की तरह ‘अभय’ का उपदेश दिया था। याद कीजिये । एक ओर एशिया की सबसे बड़ी विकराल वाहिनी, मुगल सेना और दूसरी ओर गरीब और कुचले हुए मुट्ठी भर सिख! तो भी उन्होंने कहा था ‘बाज बटेर एक लड़ाऊँ। तब गुरु गोविन्द नाम धराऊँ।’ आत्मशक्ति से सम्पन्न होने पर बटेर भी बाज से भिड़ सकता है और सिख गुरु के दिये ‘अभय’ के पीछे यही राज है। यही राज है गांधी की शक्ति का भी कि अंग्रेज-शासन के मुकाबले में ‘दब्बू भारतीय’ भी तनकर खड़ा हो गया।” लेकिन यह सब एक दिन में नहीं हुआ था। इसकी तैयारी वे अपने अफ्रीका-प्रवास के दिनों से कर रहे थे। अपने देश से दूर, प्रवास के कर्म संकुल जीवन में भी वे भीतर-भीतर एकान्त होने की चेष्टा में रहते थे। कुबेरनाथ राय लिखते हैं-“उनके जीवन में आत्मचिन्तन का वह पूर्वपक्ष बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है। एक दफे की बात है, पुतुल, जब गांधी ‘तोलस्टोय फार्म’ में थे। एक संध्या को वे शान्त तल्लीन बैठे थे, उनकी दृष्टि एक विषाक्त गेहूँअन साँप पर टिकी थी जो धीरे-धीरे उनके नंगे घुटने तक चढ़ आया था, पर काट नहीं रहा था। उसी समय उनके सहयोगी एक अंग्रेज सज्जन आये और यह तमाशा देखकर स्तब्ध रह गये। वे चौंक कर बोले, “मिस्टर गांधी, क्या मृत्यु के साथ जुआ खेल रहे हो?” गांधी नजर उठाकर मुस्करा दिये। इसी बीच साँप स्वयं नीचे उतरकर चला गया। यह दृश्य उपस्थित करता है गांधी को ‘भय’ के साथ एक अहिंसक युद्ध में रत। गांधी अपने मनोबल की परीक्षा और प्रशिक्षण दोनों साथ-साथ कर रहे थे। यह छोटी-सी घटना बहुत-सी बातों का इशारा कर देती है जो उनके अन्तर में घटित होती रहीं, पूरे अफ्रीकी-प्रवास में।” (कुबेरनाथ राय : पत्र मणिपुतुल के नाम,पृ.53)
किसी दूसरे को नीचा दिखाकर खुद सम्मानित होनेवाले भाव को देख गाँधीजी ताज्जुब करते थे। अफ्रीका में जब उन्हें उठाकर फेंका गया था तभी उनके मन में यह भाव उत्पन्न हुआ था “मुझे जो कष्ट सहना पड़ा है, सो तो ऊपरी कष्ट है। वह गहराई तक पैठे हुए महारोग का लक्षण है। यह महारोग हैं रंग-द्वेष । यदि मुझमें में इस गहरे रोग को मिटाने की शक्ति हो, तो उस शक्ति का उपयोग मुझे करना चाहिए । ऐसा करते हुए स्वयं जो कष्ट सहने पड़ें सो सब सहने चाहिए और उनका विरोध रंग-द्वेष को मिटाने की दृष्टि से ही करना चाहिए।' (सत्य के प्रयोग, पृ.126)यहीं से बाजी पलट गयी । वे जानते थे कि प्रतिक्रिया से जन्म लेने वाला व्यक्ति, समाज और देश भी द्वेष मूलक और प्रतिक्रियावादी होगा। गांधी ने जातिगत भेदभाव के खिलाफ न केवल लड़ाई लड़ी अपितु पत्नी और रिश्तेदारों को भी उनकी अनिच्छा के बावजूद इस पवित्र युद्ध में झोंक दिया। उनका यह प्रस्ताव कि एक दलित महिला को स्वतंत्र भारत के पहले राष्ट्रपति के रूप में नियुक्त किया जाए और जवाहर,पटेल और राजेन्द्र बाबू उसके मंत्री के रूप में काम करेंगे, उनके साहस और आखिरी आदमी की चिंता को हमारे सामने रखते हैं। सहज ही कल्पना की जा सकती है कि गांधी के समक्ष एक तरफ ‘अंग्रेज़ भारतीय गिरमिटियों को अपने हाथ से ढेर कर सकते हैं’ का मुगालता पाले दंभी चर्चिल खड़े हैं तो दूसरी तरफ ‘मुस्लिम राज्य के लिए अपनी जान भी दे सकता हूँ’ का उद्घोष करने वाले जिन्ना और केवल दलित को केंद्र में रखकर राजनीति की नब्ज पर अंगुली रखने वाले अंबेडकर थे। लेकिन गांधी का इनमें किसी से कोई द्वेष नहीं था।
गांधी सदैव बड़ी-2 बात करने की अपेक्षा जमीन पर नजर गड़ाए हुए थे। एक बार किसी प्रवास में किसी का सवाल आया : मुझे क्या करना चाहिए? गांधी ने जो नुस्खा समझाया वह हमारी किताबों में कैद है। दरअसल इस स्वतंत्र देश के लिए उन्होंने एक कसौटी प्रदान की थी जिस पर अपने मन के प्रश्नों को कसना आवश्यक है। वे कहते हैं-'मैं आपको एक नुस्खा बताता हूँ । जब कभी कोई योजना बनाते हुए या उसको कार्यान्वित करते हुए आपके मन में प्रश्न उठे कि 'क्या करें?', तब अपनी आँखों के समक्ष समाज की अंतिम सीढ़ी पर खड़े सबसे आखिरी आदमी को लाइए। जिससे उसका हित हो, वही करना चाहिए, वही योजना अमल में लानी चाहिए।' इससे सरल शब्द और क्या हो सकता है? अर्थशास्त्र के लिए इससे बढ़िया सिद्धांत और क्या हो सकता है? गांधी ने ऐसे ही नहीं दांडी यात्रा में स्वयं सीकर एक कमीज भेंट देने वाली लड़की से तीस कोटि शर्ट मांगते है। बुद्ध की महाकरुणा का सगुण रूप हैं गांधी। गांधी ने हमारे भीतर की ताकत को महसूस कराया । हमारी-आपकी करुणा को जगाया, संवेदनशील बनाया और फिर कभी चरखा कातने को कहते है, तो कभी कपड़ों की होली जलवाते हैं, नमक बनवाते हैं। मामूली कामों को प्रतिरोध का प्रतीक, और क्रांति का हथियार बनाकर हाथ में थमा देते हैं और आगे बढ़ने की ललक पैदा कर देते हैं।
लंदन में विलायती बाबू के इस सवाल पर कि ‘आप अर्धनग्न क्यों हैं?, का जबाव कि ‘मेरे हिस्से के कपड़े आपकी रानी ने पहन लिए हैं, इसलिए मैं अर्ध नग्न हूँ।,' अद्भुत गूढ़ार्थ जबाव है। ‘पांत के आखिरी आदमी', जो आज भी अभिशप्त जीवन जी रहा है उसको ध्यान में रखकर, उसे जगाते हुए ही गाँधीजी ने स्वतंत्रता संग्राम लड़ा। महज एक वाक्य में अर्थव्यवस्था के दुष्चक्र को बड़े सलीके से विलायती बाबू के सामने रख दिया।
धीरे-धीरे समझ में आता गया कि गांधी, दरअसल भीरुओं की ताकत है। हम अपने जीवनानुभव से जानते हैं कि प्राय: आम व्यक्ति, शांति चाहने वाला व्यक्ति, विरोध से डरता है, क्रांति से डरता है, हथियार उठाकर बढ़ने से डरता है। वह कानून, पुलिस, जेल, सरकार के पचड़े में पड़ने से बचता है। और मौत से तो हम सब ही डरते हैं। गांधी उसको वहीं से उठाते हैं और निरभ्र आकाश में उछाल देते हैं। अब वह चरखा कातता है,तकली चलाता है, रचनात्मक कार्यक्रमों में अपने को झोंक देता है। इनका कोई न रंग है, न मजहब है, न भाषा है। बस लय और संगीत है जो एकीकृत प्रतिरोध के रूप में सामने प्रकट हो जाती है, और ये काम तो कोई गुनाह नहीं । इसके लिए यदि जेल भी जाएं, तो भीतर कोई अपराध बोध नहीं उल्टे गर्व होगा। और जब जेल जाना गर्व की बात बन जाये… तो उस कौम को भला कब तक दबाया जा सकता है? यही बूंद-बूंद प्रतिरोध की नदी सागर में परिवर्तित उस साम्राज्य को भी बहा ले गया जिसका सूर्य अस्त नहीं होता था।
गाँधी की एक अन्यतम विशेषता समझ में आई वह है-'अन्दर की आवाज़'। यह 'अंदर की आवाज़' हम सबके पास है। बस जरा अंदर झाँकने की जरूरत है- ‘दिल के आईने में है तस्वीरे यार, जब जरा गर्दन झुकाई देख ली’। आज हम बाहर की आवाजों में इतना व्यस्त हो चुके हैं वहाँ झाँकने में डर लगता है। गांधी ने अपने जीवन में जितने भी आंदोलन किए सबके पीछे यही ‘Still small voice within’ है। लेकिन इस आवाज को सुनने के लिए लंबी तपस्या की जरूरत होती है, जिसका सूत्र हमें पतंजलि के योग सूत्र में मिलता है। गांधी ने यम-नियम को साध लिया था।
गांधी का सर्जन शील व्यक्तित्व अद्भुत है। हम कई बार गलती से उनसे रेडीमेड-फ़ैन्सी उत्तर, फॉर्मूला या सिद्धांत की अपेक्षा कर बैठते हैं। ठीक वैसे ही जैसे हम सब बचपन में राम शलाका से पास-फेल का उत्तर जानने के लिए प्रयास करते थे। तथ्य यह है कि गांधी ने सदैव अपने तर्जनी से सही दिशा की ओर बढ़ने का संकेत दिया है । सही दिशा की तलाश कैसे की जानी चाहिए यह स्वयं जी कर दिखा गए हैं। इसलिए भागते-हाँफते पत्रकार को, जो गांधी से किसी संदेश का गुजारिश कर रहा था, पर्ची पर लिखकर दिया- 'मेरा जीवन ही मेरा संदेश है' ।
पार्लियामेंट स्क्वायर लंदन में गांधी के साथ उनके दो मित्रों जॉन स्मट्स और चर्चिल की भी मूर्ति है। इन दोनों से गांधी का परिचय अफ्रीका में हो चुका था। ये वही जॉन स्मट्स हैं जिसने गांधी को जेल में डाल दिया था और जब गांधी जेल गए तो वहाँ से स्मट्स के लिए अपने हाथ से बनाया एक जोड़ी चप्पल भेजा। स्मट्स ने पहना तो जरूर पर उसे अपनी अयोग्यता पर शर्म भी आई। दूसरे मित्र चर्चिल ‘साहित्य और राजनीति’ के शानदार कॉकटेल हैं और नोबेल पुरस्कार भी झटका है । उन्होने अपने जीवन काल में खूब जमकर युद्ध लड़ा और साम्राज्य बचाया भी । ये वही चर्चिल हैं जिंहोने ऐतिहासिक दुर्भिक्ष काल में भी बंगाल का सारा चावल ब्रिटेन मंगाकर, चार लाख लोगों को भूखा मर जाने को विवश कर दिया। और जब इन मौतों की सूचना लंदन आई, तो फाइल नोटिंग पर साहित्य के नोबेल पुरस्कार विजेता चर्चिल पूछते हैं- ‘व्हाय हैवन्ट गांधी डाइड येट’ ?
गांधी अपनी शाश्वत और निर्दोष मुस्कान के शांत-मद्धिम-गम्भीर स्वर में कहते हैं- ‘यस,आई हैवन्ट डाइड येट चर्चिल! मैं तुम्हारे सामने खड़ा हूँ ।’
फिर वही मौन, जिसका जादू आज भी सिर चढ़कर बोल रहा है।
Saturday, April 19, 2025
कुबेरनाथ राय के राम/भूमिका
मनोज कुमार राय*
रामचर्चा इस देश में सदियों से चली आ रही है । भारतीय जन का जीवन राम के बिना अधूरा है। यह एक तथ्य है। लेकिन वह इसके लिए किसी दिखावे को पसंद नहीं करता है। उसके लिए तो वह (राम) सुबह के राम-राम से लेकर शैया पर जाने तक की एक जीवन-पद्धति है। सैकड़ों-हजारों वर्षों से इतिहास और भूगोल के पार लाखों-करोड़ों लोगों के लिए राम का नाम और राम की कहानी आस्था की एक खिड़की रही है जहां से वह परमात्मा के आँगन में झांकता रहा है। श्री राय के निबंध भी हमारे सामने एक गवाक्ष खोलते हैं राम-रस की अनुभूति के लिए। राम-रस को और भाव-प्रवण तथा ज्ञान-सज्ज करने के लिए वे विश्व-साहित्य के साथ-साथ जंबूद्वीप में पसरी अनेक रामकथाओं/रचनाओं के भीतर खूब आवाजाही करते हैं। फलस्वरूप शोध-तर्क-विवेक और लालित्य के सम्मिश्रण से तैयार एक उत्तम ‘राम-रसायन’ हमारे समक्ष आता है। इन निबंधों को पढ़ते हुए पाठक यह महसूस करते हैं कि श्री राय के ‘राम’ सबके ‘राम’ होते हुए भी कुछ अलग किस्म के हैं। उनके राम अपने जैसे लगते हैं । एकदम सगे भाई-बंधु की तरह । अलौकिक शक्तियों से दूर विशुद्ध मृत्तिका-पुतुल की तरह मानुषी-चर्या की मर्यादा-पालक की तरह ।
उनके निबंधों की सबसे बड़ी खूबी यह है कि उन्होने अपने समय में रामकथा पर उपलब्ध लगभग सभी महत्वपूर्ण स्रोतों को खंगाल कर उसके ‘मधु’ को हमारे सामने रखा है जो शायद एक साथ कहीं और उपलब्ध नहीं है। श्री राय के निबंध पाठकों को एक ही छत के नीचे राम की पौराणिकता, उसकी वैज्ञानिकता, उसके उत्स और उसमें सन्निहित रस, गार्हस्थ्य जीवन का महत्व, साहित्य की उपयोगिता से लेकर मनुष्य-प्रकृति-ईश्वर के बीच के सहज संबंधों का उद्घाटन करते हैं ।
रामकथा मंदाकिनी, चित्रकूट चित चारु ।
तुलसी सुभग सनेह बन, सिय रघुबीर बिहारु ॥
लब्ध-प्रतिष्ठ निबंधकार श्री कुबेरनाथ राय ने पाठकों से संवाद करने के लिए अपने समय की (बाद की भी) सबसे कम लोकप्रिय विधा ‘निबंध’ को माध्यम बनाया था और जीवन-पर्यंत एकनिष्ठ भाव से इसके प्रति समर्पित रहे। उनकी दृष्टि में ‘किसी भी जाति की मूल प्रकृति का सच्चा थर्मामीटर है उस जाति का काव्य-साहित्य और उसकी बौद्धिक गंभीरता तथा उदात्तता का परिचायक है निबंध-साहित्य।’ अत: “निबंध ही किसी जाति के ब्रह्मतेज को व्यक्त करता है।” ‘भारतीय जाति’ के ब्रह्मतेज को व्यक्त करने के लिए ही उन्होंने निबंध-विधा को अपनाया था-“ललित निबंध भी गद्य में काव्यधर्मी होने के बावजूद इस दायित्व से छुट्टी नहीं पा सकता।” इसलिए वे अनुभव-समुद्र से याचना करते हुए कहते हैं कि “यदि देना ही है तो एक पवित्र शंख फेंक दो....मात्र एक शंख। ...मुझे तो चाहिए शुचिस्वेत आवाहनमय एक गद्य शंख ..... । दोगे तो दे दो।” श्री राय के इसी लब्ध-गद्य शंख से उनके लेखन में ‘अहं भारतोऽस्मि’ का क्रुद्ध-लालित्य स्वर निरंतर गूँजता रहता है। फलस्वरूप उनके लेखन का परास (रेंज) अपनी अंतर्वस्तु और चेतना में अखिल भारतीय रूप ग्रहण कर लेता है। हताशा,भय और क्रोध के त्रिकोण से आक्रांत अपने समय को उन्होंने न केवल 'प्रजागर पर्व' की संज्ञा दी है अपितु नशे में प्रमत्त भारतीय महाजाति को गद्य-शंख से निरंतर जागृत करने की चेष्टा करते रहे और कहा कि ‘मेरा सम्पूर्ण साहित्य या तो क्रोध है,नहीं तो अंतर का हाहाकार ।’
कुबेरनाथ राय का जन्म गंगा तटवर्ती गाजीपुर (मतसा) में हुआ था। जीवन का एक बड़ा हिस्सा (लगभग 27 वर्ष) अध्यापन करते हुए ब्रह्मपुत्र के किनारे नलबारी (असम) में बीता और अंत में जीवन के आखिरी दस वर्ष भी गंगा की छाया में बिता जहां बचपन गुजरा था। इसलिए ‘गंगातीरी लोकजीवन और संस्कृति न केवल उनकी आत्मीयता की भाजन है; बल्कि उनके समूचे लेखन के देशज संस्कार की कारक और सर्जन का आधार भी है।’ अनंत सिसृक्षा और तितिक्षा के साथ अथक श्रमशीलता और गहरा दायित्वबोध के पीछे है उनकी कृषक पारिवारिक पृष्ठभूमि । देशात्मबोध या भारतबोध के विकास और उसे जीने की शक्ति उनको घर-परिवेश से ही प्राप्त हुआ था । उनके छोटे पितामह पं. बटुकदेव शर्मा नैष्ठिक व्रतधारी थे। विवाह के सवाल पर उन्होंने अपने घर वालों से कह दिया था कि वे ‘गुलाम संतान’ नहीं पैदा करना चाहते और ‘गृह कारज नाना जंजाला’ को आत्मसात करते हुए स्वाधीनता की लड़ाई में अपने को झोंक दिया। श्री राय पर उनका बड़ा स्नेह रहता था। उनका प्रभाव कुछ ऐसा पड़ा था कि बचपन में पिताजी के यह पूछने पर कि ‘बड़े होकर क्या बनोगे?’ के जबाव में श्री राय ने ‘संन्यासी बनने’ का इरादा व्यक्त कर दिया था । हालांकि उसी समय पिताजी के ‘क्रुद्ध-लालित्य’ को देखते हुए थोड़ा सुधार किया और ‘प्रोफेसर’ बनने की बात भी कही। लेकिन पिता तो आखिर पिता ही होता है। श्री राय की शादी महात्मा गांधी की शादी के वय से भी कम वय में कर दी गयी। लेकिन जिसकी जन्मकुंडली के चतुर्थ भाव में ही ‘नभ मंडल की खल-मण्डली दरबार लगा कर’ बैठे हों उसे कौन बांध सकता है –“मैं अपनी जन्मभूमि गंगा तट से प्राय: दूर रहने को बाध्य हूँ और जीविकोपार्जन के लिए इस किरातारण्य से घिरे आर्यों के बीच,लौहित्य तट पर,निवास कर रहा हूँ।”
श्री राय का लेखन बहुआयामी और विविधतापूर्ण है जिसका आदर्श है “‘सत्यं परम धीमहि’-सत्य क्या है? ‘आत्मा’। दर्शन में यह ‘आत्मा’ ‘ब्रह्म’ का रूप लेती है, साहित्य में ‘पुरुष’ रूप । पुरुष के अंदर निहित पुरुषोत्तम (परम सत्य) का आविष्कार साहित्य का प्रधान लक्ष्य है।” उनका मानना है कि-“मनुष्य की सार्थकता उसकी ‘देह’ में नहीं,उसके ‘चित्त’ में है। उसके चित्त-गुण को उसकी सोचने-समझने और अनुभव करने की क्षमता को विस्तीर्ण करते चलना ही ‘मानविकी’ के शास्त्रों का,विशेषतः साहित्य का मूलधर्म है।” किसी भी ‘राष्ट्र की कस्तूरी उसके साहित्य में होती है। यह कस्तूरी दुर्गन्धमयी न हो’ इसके लिए साहित्य को सरल-स्वच्छ-उच्चगामी होना होगा जिसके लिए विषय का उच्चाशय होना जरूरी है। इसलिए वे सबसे बड़े उदाहरण के रूप में तीन महाकाव्यों-– रामायण, महाभारत और श्रीमद्भागवत- में उपस्थित सार्वभौम मूल्यों को हमारे सामने अनेकश: रखते हैं, क्योंकि ये हमारी ‘परमा स्मृति’ का हृदय रचते हैं।
विषय वस्तु की दृष्टि से ‘रामकथा’ श्री राय के लेखन की एक प्रमुख दिशा है। श्री राय मानते हैं कि स्वस्थ समाज के लिए जिस उदात्त सामाजिक व्यवस्था की आवश्यकता है/होगी वह ‘रामकथा’ में पर्याप्त रूप से मौजूद है। बतौर लेखक वे अपने नागरिक-धर्म से भलीभाँति परिचित हैं-“मेरे मन के भीतर स्थित प्रजापति बार-बार मुझे आदेश दे रहे हैं कि त्रेतायुग के इस इतिहास खंड को मनुष्य जाति की चेतना का शाश्वत अंग बना डालूँ ।” स्पष्ट है कि रामकथा को हृदयंगम-करना और उसे अपने लेखन का विषय-वस्तु बनाना वस्तुत: एक अदृश्य परमादेश ही है। वे लिखते हैं कि “राम शब्द के मर्म को पहचानने का अर्थ है भारतीयता के सारे स्तरों के आदर्श रूप को पहचानना। मेरे लेखन की एक दूसरी प्रमुख दिशा इसी 'राम' की महागाथा से संयुक्त है। राम मनुष्यत्व के आदर्श की चरम-सीमा हैं। सही भारतीयता क्षुद्र, संकीर्ण राष्ट्रीयता के दंभ से बिलकुल अलग तथ्य है। यह सर्वोत्तम मनुष्यत्व है। पूर्ण 'भारतीय' बनने का अर्थ है 'राम' जैसा बनना। वेदांत 'ब्रह्म जिज्ञासा' है तो काव्य 'पुरुष जिज्ञासा’। मेरा लेखन इसी 'पुरुष जिज्ञासा' से जुड़ा है।” इसी पुरुष-जिज्ञासा के गर्भ में छिपे ‘तम: शांतए’ के बीज की तलाश है राम-कथा।
श्री राय के निबंध-कांतार से गुजरते समय विषय और वर्ष/समय के साथ-साथ उस काल खंड की घटनाओं तथा आगे-पीछे के वैचारिक आंदोलनों और उसकी पृष्ठभूमि से परिचय होना जरूरी है। अन्यथा चिंतन के ‘शांत-बिन्दु’ पर बैठे श्री राय द्वारा उद्घाटित ‘परमा-स्मृति’ की निर्मिति के ताने-बाने की बुनावट को समझना कठिन होगा। रामकथा पर कुबेरनाथ राय द्वारा लिखा गया पहला निबंध 23 अक्तूबर 1966 के धर्मयुग में प्रकाशित हुआ था,जिसका शीर्षक था ‘राम... निर्वासन और निर्माण : एक चिर पुरातन आधुनिक समस्या’। बाद में यह निबंध ‘गंधमादन’ संग्रह में ‘राघव: करुणो रस:’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ। इस निबंध में श्री राय राम के निर्वासन को वैश्विक समस्या के रूप में देखते हुए उसकी जड़ तक जाते हैं और बताते हैं “नया मनुष्य अकारण निर्वासित है, ऐतिहासिक शक्तियों (नाजीवाद, कम्यूनिज्म, महायुद्ध और विभाजन) द्वारा । इस पीढ़ी का कोई अपराध नहीं। ऐसे अकारण निर्वासन का उदाहरण ‘रामायण’ में भी है। राम उसी तरह अकारण निर्वासित हुए थे, जैसे आज का नया मनुष्य ।” लेकिन दोनों में भेद है। नया मनुष्य जहां ‘स्व’ के कोटर में अपने को बंद कर अजनबीपन का शिकार होने दिया है वहीं राम ‘स्व’ के प्रति तटस्थ होकर “बे-पहचान से भी पहचान करते हैं, प्रीति करते हैं और ऐसी प्रीति कि ‘कीन्ह प्रीति कछु बीच न राखा।’ निशिचर कामरूप होता है। स्वभाव से मायावी होता है। पर तो भी कोई हर्ज नहीं। वह भी अपना है। और यदि “भेद लेन पठवा दशशीशा । तबहुँ कछु नहिं हानि कपीशा।” वे ‘नया मनुष्य’ का आह्वान करते हैं राम-पथ पर चलने के लिए। लेकिन यह पथ जरा दुष्कर है। राम को देवता मानकर ‘नया मनुष्य’ ‘उंह’ उच्चारण कर मुंह फेरने की कला में माहिर है। इसलिए उन्होंने अपने निबंधों में राम को एक मनुष्य के रूप प्रस्तुत करने और उसके विकसित होने की प्रक्रिया को दर्शाया है। इस प्रक्रिया/रहस्य की कथा को सरस,सरल,सहज और तथ्य आधारित ढंग से प्रस्तुत करने के लिए वे रामकथा के उत्स ‘महाकाव्य का जन्म’ से विषय को उठाते हैं और ‘युग संदर्भ में मानस’ की आवश्यकता पर ज़ोर देते हुए इतिहासकारों के लिए नव्य-पथ का निर्माण ‘भारतीय इतिहास-दृष्टि और रामकथा’ करते हुए बोध के कैलाश शिखर ‘राम ही पूर्णावतार थे’ पर पहुँचकर विश्राम करते हैं। श्री राय की यह यात्रा गांधी-पथ है -‘मैं मार्ग जनता हूँ । वह सीधा और संकरा है। वह तलवार की धार की तरह है। मुझे उस पर चलने में आनंद आता है।’
राम कथा से बचपन से ही प्रभावित श्री राय जैसे-जैसे रामकथा के मर्म में अनुप्रवेश करते गए उन्होंने अनुभव किया कि ‘क्रांतिकारी और रचनात्मक दोनों स्थितियों में इसकी सार्थक और कालजयी भूमिका है’। फिर क्या था, वे रामत्व के सौंदर्य का उद्घाटन करने के लिए ‘मन पवन की नौका’ पर सवार होकर विश्व साहित्य के क्लासिकल काव्यों/महाकाव्यों के महाकांतार में प्रवेश कर गए। इस कार्तिकेय-यात्रा में भी क्या मजाल कि कोई ‘अप्सरा-नायिका’ की बाँकी चितवन उन्हें घायल कर सके। अगर किसी मोड़ पर कोई ‘तीरे-नजर’ या ‘पंचाप्सर की मार कन्याएं’ दिखी भी तो उसे गुडाकेश भाव में ‘माते प्रणाम’{ 'वात्सल्य' (Mother instinct)} कहकर तीर-वेग से लक्ष्य की ओर मुड़ जाते थे। आखिर ‘रन में, वन में सदैव साथ-साथ अभय की गदा लेकर चलने वाले’ बजरंगबली जो उनके साथ थे।
राम/रामकथा को लेकर वाल्मीकि से लेकर कामिल बुल्के जैसे अनेक श्रद्धेय विद्वान पंडितों द्वारा प्रभूत मात्रा में लेखन कार्य हुआ है। लेकिन श्री राय की निर्मिति तो कुछ अलग ही किस्म की है। मानस-महाभारत के संस्कार-बीज घर के आँगन में ही पनपे। उनकी माँ के पास पौराणिक कहानियों का खजाना था। ‘माधुरी’ और ‘विशाल भारत’ के संपर्क ने उनके बौद्धिक क्षितिज का विस्तार किया । फलस्वरूप माँ के पल्लू से चिपककर कहानी सुनते समय ‘हाँ,कहारी हाँ’ के टेक से मुक्त हुए और “निश्चय किया...कि एक दिन पूज्य पिताजी जब सोये रहेंगे, तो उनके सिरहाने से...फटी दीमक लगी किताब निकाल लाऊँगा और आग लगाकर फूँक दूंगा। ...तब हिन्दू धर्म के लिए एक नई पोथी लिखनी पड़ेगी...उस नई किताब को मैं लिखूंगा, और जो-जो मन में आयेगा,सो लिखूंगा। आखिर मेरी बात भी तो कभी आनी चाहिए कि आजीवन मैं ‘हाँ,कहारी हाँ’ का ठेका ही पीछे से भरता रहूँगा ।” मजे कि बात यह है कक्षा 8 में पढ़ते हुए उन्होंने जो पहला लेख लिखा उसका शीर्षक था- ‘साहित्य में मेरा वादा’ । कौन जानता था कि यह किशोर भविष्य में अपना वादा निभाते हुए सच में ही ‘नयी पोथी’ लिखेगा और कहेगा कि ‘रस, शील और अध्यात्म पर अपनी चरम पूर्णता के साथ प्रतिष्ठित’ ‘राम ही पूर्णावतार हैं।’
बीसवीं शती के उत्तरार्द्ध के प्रथम अर्धांश में जब भारतीय साहित्येतिहास के आकाश पर संस्कृति तथा इतिहास-संशोधन के सरकारी विधाता-व्याख्याता, मनसबदार तथा नव्य-पुरातन वामपंथियों का अश्वमेध यज्ञ चालू था और वे ‘सांस्कृतिक-स्वातन्त्र्य' और 'बुद्धि-स्वातन्त्र्य’ के नाम पर न केवल ‘लोलिता’ का चंग बनाकर उड़ा रहे थे अपितु ‘रामकथा/मानस’ को ही प्रश्नांकित कर रहे थे, तब उस संक्रमण काल में श्री राय को त्रेताकालीन मृदंग-ध्वनि सुनाई देती है । उनके मन में सवाल कौंधता है- “मैं ही क्यों इस मृदंग के मधुर-मधुर-गंभीर रव को सुन रहा हूँ और मेरा ही मन क्यों रामाकार हुआ जा रहा है, और ये सारे आसपास के लोग जो माथे पर बोरियाँ लादे चल रहे हैं, या जो रथों पर बैठे धुँधुआते हुए सुलग रहे हैं, या जो अंगना-अंग से भांज-दर-भांज सर्पों की तरह लिपटे हैं, ये आसपास के सारे लोग भी क्यों नहीं इस मृदंग की मधुर-मधुर ध्वनि को सुन पा रहे हैं?” यह एक तथ्य है कि ‘मनुष्य जब घोर चिंता में पड़ जाता है, तो अपने से ही बातें करता है, उत्तर-प्रत्युत्तर देता है, और मान-मनुहार झिड़की और विवाद करता है। चरम क्षण में हम स्वयं ही अपने साथी रह जाते हैं, शेष सभी कोई दूर चले जाते हैं ।’ श्री राय लगभग ऐसी ही भूमिका में हैं । वे जब कभी ध्यान-लोक में “जगती के शिखर पर जा खड़े होते हैं .... तब-तब हाथ उठाकर कोई दिव्य चतुर्मुख पुरुष आशीर्वाद देते ज्ञात होते हैं, ‘वत्स, ऋषि, रामचंद्र के रसरूप के जनक तुम्हीं बन सकते हो ।” उस परमादेश को स्वीकार करते हुए श्री राय ‘इतिहास के रामचंद्र को यही रसरूप प्रदान करने’ के लिए ‘त्वं साक्षात् भारतोऽसि’/‘अहं भारतोऽस्मि’ का नारा बुलंद करते हुए रामकथा-लेखन में उतरते हैं और लिखते हैं-“नेताओं में गांधीजी, किताबों में रामचरितमानस, वनस्पतियों में हरी-हरी दूब, पशुओं में गाय, रसों में करुण रस, ये सब मुझे एक ही किस्म के भाव-संकुल या बोध प्रदान करते हैं। इन सबमें शांति है, निष्कपटता है, विनय है और सेवा धर्म है, साथ-ही-साथ महिमा और त्याग भी है।” 1966 से शुरू हुई यह रामकथा जीवनपर्यंत (1996 तक) चलती रही । 32-34 वर्षों की इस लेखकीय यात्रा में रामकथा के विभिन्न आयामों को लेकर उन्होंने लगभग 72 निबंध लिखे । श्री राय द्वारा ‘राम’ को केंद्र में रखकर लिखा गया प्रत्येक निबंध वस्तुत: किसी भी शोध-प्रबंध पर भारी है। सच तो यह है कि शोध,तथ्य,इतिहास और ललित भंगिमा से तैयार यह ‘रामकथा-रसायन’ विश्व-साहित्य जगत का दुर्लभ दस्तावेज़ है।
1974 में श्री नारायण चतुर्वेदी ने बंधु-बांधवों के नैतिक आग्रह-दबाव पर ‘सरस्वती’ का एक मानस-विशेषांक निकालने की योजना बनाई। इस अंक के लिए उन्होंने जिन सात लोगों को पत्र लिखा था, उनमें एक कुबेरनाथ राय भी थे। लेकिन इसके दो वर्ष पूर्व जब भारतवर्ष द्वारा ‘मानस चतुःशती महोत्सव’ के प्रचार-प्रसार की तैयारी चल रही थी तो उस निमित्त लेख लिखवाने के लिए उन्होंने शायद श्री राय को ही याद किया; गो कि निवेदन उनका सबसे रहा होगा- “मेरे अपने लेखकीय द्विजत्व के पुरोहित पं॰ श्रीनारायण चतुर्वेदी ने मुझसे ‘मानस- चतुःशती-समारोह’ पर जिसे भारतवर्ष में 1974 ई॰ में बड़ी धूमधाम से मनाने जा रहा है, कुछ लिखने को कहा तो मैं बड़ी चिन्ता में पड़ गया, क्योंकि सारी समस्या एक वृहत्तर सांस्कृतिक-नैतिक और आध्यात्मिक समस्या के अन्दर अन्तर्भुक्त-सी लगती है और मानस-समारोह को उस वृहत्तर समस्या-वृत्त के मध्य रखकर ही देखना होगा अन्यथा विगत टैगोर शतवार्षिकी और गालिब शताब्दी समारोह की तरह यह भी बिल-तमाशा लूट-खसोट बनकर रह जायगा।” चतुर्वेदी जी के आग्रह को शिरोधार्य करते हुए उन्होंने ‘सरस्वती’ के लिए एक बड़ा आलेख ‘मानस-दृढ़ता और संघर्षशील चरित्र का सूत्र’ शीर्षक से लिखकर भेज दिया। यह आलेख इस बात का प्रमाण है कि धारा के विपरीत जाकर ‘नयी पोथी’ लिखने का जो उनका वादा था, उससे वे विरत नहीं हुए थे। इस आलेख में उन्होंने अनेक सुझाव भी दिये थे । इन सुझावों से सहमत/असहमत हुआ जा सकता है । पर इससे श्री राय के साहस और उनकी मुख्य प्रतिज्ञा ‘नयी पोथी’ लिखने का पता तो चल ही जाता है।
श्री राय के निबंधों को पढ़ते समय कथा-रस की अनुभूति होती है। प्राय: निबंध ऐसे शुरू होते हैं जैसे सामने बैठकर वे स्वयं ही कथा कह रहे हों-‘ऐसे थे रामचंद्र । उनका रूप दूर्वादल श्याम था,’ ‘मुझे लगता है कि हनुमान भी चंडिका और गणपति की तरह आदिम भारत के देवता हैं,’ ‘मैं इस नदी के तट पर प्रतिदिन ही आ बैठता हूँ;’ लेकिन यह तो केवल ‘रामा हो रामा’ ही है, क्योंकि उनके लिए लेखन कोई मौज-शौक की वस्तु नहीं है। लेखन को तो सोद्देश्य होना चाहिए और वह उद्देश्य है पाठक के ‘मानसिक ऋद्धि और बौद्धिक क्षितिज का विस्तार ।’ कविता के प्रति गहरा आकर्षण होने के बावजूद उनका ‘मैदान गद्य का ही था’ और इसमें भी वे निबंध-विधा को सर्वोत्तम विधा मानते हैं और इसके पक्ष में मजबूती से खड़ा होते हुए कहते भी हैं-‘निबंध ही किसी जाति के ब्रह्मतेज को व्यक्त करता है।’ भारतीय महाजाति के ‘ब्रह्मतेज’ को व्यक्त करने वाले राष्ट्रीय काव्य रामायण के नायक मर्यादापुरुषोत्तम राम को उन्होंने अपने जीवन का कंठहार बनाया है। लेकिन वे राम के चरित्र को अलौकिक रूप में प्रस्तुत करने के आग्रही नहीं रहे हैं-“आखिर राम भी तो मृत्तिका पुतुल ही हैं । वे इतिहास की मांटी में जन्म लेते हैं।” अब यदि “उन्होंने इतिहास की मृत्तिका में जन्म धारण किया है तो मृत्तिका का मटमैला रजोगुण उनमें होगा ही... गंधवती मृत्तिका के सारे गुण-अवगुण उनमें होंगे ही, क्रोध-रोष-काम तृषा और कूट बुद्धि सभी कमोबेश असली राम में, इतिहास में जीने वाले राम में होंगे ही। जरा-सा ही सही। चंद्रमा में जितना कलंक है, उतना सा ही सही । अथवा, उससे भी कम। परंतु कलंक शून्य ‘विरजं विशुद्धं’ वे हो नहीं सकते।” इस प्रकार वे ‘पर्याप्त के चिंता बाद ... इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि इतिहास के साक्ष्य को कल्पना के साथ जोड़ना आवश्यक है।’
श्री राय को लगता है कि आजादी के श्रेष्ठ नायकों द्वारा तैयार पवित्र ‘संविधान के मौलिक आदर्शों की विवेचना करते समय भारतीय जाति के कुल-शील की जड़ ही काट दी गयी है ‘धर्म’ को अस्वीकृत करके।’ यहाँ वे सावधान भी करते हैं- “स्मरण रहे, मैं संप्रदाय की बात नहीं करता। मैं धर्म की बात कर रहा हूँ।” जिस काल-खंड में वे यह बात लिख रहे थे उस समय देश एक खास किस्म की वैचारिकी में उलझा पड़ा था। श्री राय की पैनी नजर उनके कर्तृत्व-वाकपटुता को ठीक तरीके से समझ रही थी-“आधुनिक समाजवादी के लिए धर्म दीन-ईमान की कोई जरूरत नहीं और, इस प्रकार नये किस्म के चरित्र-निरपेक्ष, शील-निरपेक्ष समाजवादियों के मिथ्या भाषण और अनाचार से भारतीय धरती काँप उठी है। गाँधीजी इस ‘कुल- शील’ की बात को लेकर चिंतित थे और इसी से रामराज्य की बात करते थे। धर्म के प्रति उनकी दृष्टि नकारमूलक नहीं थी।” श्री राय निर्भ्रांत शब्दों में कहते हैं-“राष्ट्रीय कुल-शील या मूल प्रकृति को पहचानने के सर्वाधिक सुगत साधन हैं राष्ट्रीय मिथक और महाकाव्य। रामायण और महाभारत ऐसे ही काव्य हैं।”
श्री राय का मानना है कि किसी काल खण्ड के समाज की सामाजिक चेतना की सही उपलब्धि लिए 'मर्म' में प्रवेश करना पहली शर्त है । उनके निबंधों से गुजरते समय यह बात स्फटिक की तरफ साफ दिखती है कि उन्होंने अपने समय और समाज के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक आयामों में ‘भीतरी आदमी’ (Insider) की तरह प्रवेश कर जाते हैं। वहाँ वे ठहरते हैं,सुस्ताते हैं और लोगों से उनकी/अपनी शैली में बातें करते हैं । बातचीत के इस क्रम में वे ‘इतिहास और काव्य’ के बीच चलने वाले शाश्वत संवाद के मर्म को पहचानते हैं। फिर वे लौट आते हैं उस संवाद-कथा को शब्द और भाव का रूप देने- “मैं वस्तुतः रामकथा से इसलिए जुड़ा हूँ कि यह कथा हाँ-धर्मी भाव-त्रिभुज यानी जिजीविषा, करुणा और अभय की कथा है। यही कारण है कि यह मुझे आश्वासन और सांत्वना का स्रोत जान पड़ती है, आधुनिक संदर्भ में भी।” इसलिए जब उनसे कोई यह पूछता है कि हम ‘रामचरितमानस’ क्यों पढ़ें? तो वे उसका उत्तर देते हैं कि किसी भी “समाज में भी सुयोग्य नागरिक तथा सद् गृहस्थ की, अर्थात् उत्तम पिता की, उत्तम पुत्र की, उत्तम पति की, उत्तम पत्नी की, उत्तम भाई की, उत्तम बंधु की आवश्यकता रहेगी तो समग्र विश्व-साहित्य में, ... वह कौन-सी पुस्तक सर्वाधिक उपयुक्त होगी जो अच्छे नागरिक, अच्छे गृहस्थ, अच्छे पिता-पुत्र-भाई आदि बनने का आदर्श जनमानस में प्रतिष्ठित कर सके ? ... मात्र उपर्युक्त कार्य के लिए समग्र विश्व-साहित्य में 'मानस' ही सर्वोत्तम ग्रंथ है।”
निबंध-लेखन की श्री राय की अपनी शैली है। उनके हर निबंध में इतिहास-भूगोल-दर्शन-भाषा की चतुरंगिणी भी साथ-साथ चलती रहती है। रामकथा के मर्म और महाकाव्य के उत्स की तलाश में एक तरफ तो वे समाज और गाँव के उस छोर/टोले की यात्रा भी करते हैं जहां इतिहास रुक कर जड़ीभूत अहल्या हो गया है तो दूसरी तरफ विश्व-साहित्य के श्रेष्ठ पंडितों की रचनाओं को भी अपने मीमांसा का विषय बनाते हैं। वे ऐसा सोद्देश्य करते हैं-“मेरा उद्देश्य है रामकथा के भावात्मक और बौद्धिक सौन्दर्य का उद्घाटन । मैं ललित निबन्धों के माध्यम से रामकथा को एक नये बौद्धिक सम्मोहन से मण्डित करना चाहता हूँ ।” इसलिए उनके निबंध पाठकों से अतिरिक्त सजगता और अध्ययन की मांग करते हैं। ये निबंध के केवल साहित्य की निधि नहीं हैं। कला, साहित्य, इतिहास, नृतत्वशास्त्र, धर्मशास्त्र, आधुनिकता बोध से अनुप्राणित ये निबंध वस्तुत: बहुविषयक (Multidisciplinary) अध्ययन के शानदार उदाहरण हैं।
रामकथा/रामायण को श्री राय ने ‘ऋत और मधु का महाकाव्य’ माना है। देशी-विदेशी पंडितों द्वारा ‘ऋत’ शब्द की गई व्याख्या का विस्तृत और गहन विश्लेषण करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि ‘रामायण में किसी के क्रिया-कलापों की कसौटी व्यक्ति का सुख-दुःख या औचित्य-अनौचित्य नहीं। वह कसौटी हैं ‘ऋत’, जिस पर व्यक्ति, समाज और इतिहास का भावी जीवन और वर्तमान दोनों आश्रित हैं। इस ऋत का ही एक अन्य नाम हैं ‘मर्यादा’ और रामायण के नायक की एक उपाधि हैं ‘मर्यादापुरुषोत्तम’। महाकवि रवीन्द्रनाथ की दृष्टि में "रामायण गार्हस्थ्य का महाकाव्य है।" श्री राय इस कथन से सहमत हैं और सदा की तरह पूर्वजों के दाय को समृद्ध करते हुए कहते हैं कि ‘रामायण में ऋतचक्र का नैसर्गिक प्रवाह भी देखा जा सकता है।’ उनकी दृष्टि में ‘रामायण व्यक्तिगत शील, राष्ट्रीय आदर्श, सामाजिक धर्म और प्राकृतिक ऋत-विधान का महाकाव्य है।’ इसका प्रमाण यह है कि ‘इसका विषय नीतिशास्त्रीय (ethical) होते हुए भी इसमें नौ रसों की स्थापना की गई है।’ श्री राय अपनी विवेचना में यह स्पष्ट करते हैं कि ‘रामायण करुण रस का 'स्वस्थतम' और 'श्रेष्ठतम' महाकाव्य है। इसमें करुणा का अस्वस्थ विलाप नहीं है। इसमें रस भी ऋत का सगोत्र बन गया है।’
श्री राय के मन में वाल्मीकि-भवभूति से लेकर कुमारस्वामी-कामू तक के विचारों के प्रति ‘श्रद्धा-विश्वास’ तो है पर ‘गांधारी श्रद्धा’ नहीं है- “माननीय श्री निवास शास्त्री कहा करते थे कि वाल्मीकि रामायण का कोई पृष्ठ ऐसा नहीं जिसको पढ़ते समय मेरी आंखें तरल न हो जायं । परंतु जब मैं वाल्मीकि रामायण पढ़ता हूँ तो कुछ और ही अनुभव होता है। इसका प्रत्येक प्रसंग पढ़ते समय मैं अपने मस्तक के भीतर सूर्योदय होते हुए अनुभव करता हूँ ।” वाल्मीकि ने अपने काव्य को ‘रामायण’ और तुलसीदास ने ‘रामचरित मानस’ कहा है, पर राय साहब उसे ‘त्रेता का वृहत्साम’ की संज्ञा देते हैं और उसकी विशद व्याख्या भी करते हैं। यहाँ वृहत्साम को महाकाव्य का पर्याय माना गया है। कृष्ण ने गीता में कहा है ‘‘मैं सामों में वृहत्साम हूँ।’’ दूसरी तरफ ‘‘विष्णु सौर देवता हैं। द्वादश आदित्यों में से एक हैं विष्णु। सूर्य का साम सबसे बड़ा है और उसे वृहत्साम कहा जाता है। ... अतः त्रेता के वृहत्साम का अर्थ है रामावतार की कथा।’’ श्री राय ने वैदिक भाषा को ध्यान में रखकर भी इसकी व्याख्या की है। उनका कहना है, ‘‘परिधि और केन्द्र के बीच का व्योम प्राण रूप अग्नि से व्याप्त है और वही उस वस्तु या इकाई का यजुष है। इस प्रकार वैदिक भाषा में किसी वस्तु या सत्ता के अस्तित्व के चरम विस्तार की परिधि उसका ‘साम’ है। ... अतः त्रेता के वृहत्साम का अर्थ हुआ त्रेतायुग की प्राण सत्ता का सीमान्त या चरम बिन्दु।’’ इसी चरम बिन्दु को उन्होंने रामकथा की संज्ञा दी है। स्पष्ट है कि रामकथा का यह विवेचन पारंपरिक आधार से भिन्न प्रातिभ आधार पर संपादित हुआ है। उनकी दृष्टि में ‘सूर्य का बिम्ब एक अद्भुत बिंब है। श्री, शोभा, जीवन, प्राण, मधु, तेज, परिपक्वता, संयम, तप, दाह, विराग, संघर्ष और देहातीत चिन्मयता को, इन सब कुछ को एक ही साथ व्यक्त करने वाला बिम्ब है सूर्य’ । राम के व्यक्तित्व का चित्रण करते हुए वे सूर्य के इन विशेषणों को राम के भीतर अंतर्भुक्त कर देते हैं। सूर्य और राम दोनों का सारा कर्मयोग ऋत की रक्षा के लिए निरासक्त पुरुषार्थ योग कर रहा है। दोनों कभी पराजित नहीं होते और अंत में अमृत/प्रकाश लाकर पृथ्वी पर बिखेर देते हैं। फलस्वरूप धरित्री मंह-मंह सुगंधित हो उठती है। जिस तरह सूर्य छंदोबद्ध चलता है उसी तरह राम की जीवन यात्रा भी छंदबद्ध तरीके से चलती है, और कहना न होगा कि श्री राय के निबंध भी छंदोबद्ध ही चलते हैं जिससे वे इतिहास के श्रेष्ठ मृत्तिका पुतुल को ध्यान के शिखर पर स्थापित करने में सफल रहे हैं।
यह एक तथ्य है कि जिस लेखक का आधुनिक बोध जितना गहरा और व्यापक होगा वह युग की जटिलता को उतनी ही गहराई और व्याप्ति में पकड़ने सफल होता है। आधुनिकता बोध से अनुप्राणित लेखक परंपरा के स्वीकार-अस्वीकार के बीच संतुलन साधते हुए वर्तमान के प्रति भी सजग रहता है। हालांकि इसके लिए विशद अध्ययन और गंभीर मानसिक संघटन की अपेक्षा होती है। यह एक विरल संयोग है कि श्री राय की मानसिक बुनावट ऐसी ही थी। उनके निबंध ‘सुगम अगम मृदु मंजु कठोरे’ सिद्धान्त के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। ‘कठिन भूमि, कोमल पग’ निबंध में वे ‘राम वन गमन’ को एक कर्तव्य-पुरुष के रूप में चित्रित किया है। जैसे-जैसे वह यात्रा आगे बढ़ती है मनुष्य-प्रकृति को एकमेक करते हुए भूगोल, राज्य और राज्य व्यवस्था, संस्कृति, मनुष्य की निर्मिति और उपमर्द की भूमिका, वन्य-जीव स्वभाव,बचपन की विविध स्मृतियाँ, विधि-विधान,गाँव-देहात,बाढ़ और नौकायन, परिवार और प्रेम,भय और काम-संवेग तथा निषादराज की गांजे की चिलम सहित न जाने कितनी छवियाँ चित्त में इस तरह से निर्मित होती जाती हैं जैसे पाठक को घर-आँगन में बैठे हुए सब कुछ चलचित्र की तरह दिखाई दे रहा हो । परंपरा और आधुनिकता से संपृक्त रामकथा का ऐसा सरस और सजीव चित्रण अन्यत्र दुर्लभ है। जीवन में रस और औदात्य की स्थापना के आग्रही श्री राय द्वारा रामकथा को लेकर किए जा रहे प्रभूत लेखन को उनके आधुनिकता प्रेमी मित्रों को अजीब सा लगता था। लेकिन रायसाहब इसकी परवाह नहीं करते थे। उनके लिए तो रामकथा निराशा के क्षणों में जिजीविषा, करुणा और अभय प्राप्ति का साधन था। और हो भी क्यों न! –“रामकथा का काठ तो वह दिव्य काष्ठ है जो 'हजार' नहीं, 'शाश्वत' आयु वाला है। कथा-तरु हमारी 'परमा स्मृति' (racial memory) की जमीन पर उगा है और इसकी जड़ें हमारी सत्ता के पाताल तक खिली हैं ” और वे तो अपने पाठकों के लिए ‘धरती का चप्पा-चप्पा छानते हैं कि कहीं विधाता की भूल से कोई रस की बूँद छूट गयी हो, तो उसका आहरण कर लें ।’
निबंध का शीर्षक हो,निबंध संग्रह का नाम हो या उसकी अंतर्वस्तु रायसाहब की खासियत है विषय के अंतस्थल में डूबकर उसकी प्रकृति और मूल स्वर को पकड़ने की कोशिश साथ ही वर्तमान की कसौटी पर कसना। ‘मानस’ के मंगलाचरण को वे कई अर्थों में बेजोड़ मानते हैं । मंगलाचरण की अंतर्वस्तु की विवेचना करते हुए इसमें इच्छा,ज्ञान,क्रिया,योग सांख्य,विज्ञान-मनोविज्ञान, शिल्प,आगम-निगम-पुराण, शिव-अशिव आदि अनेक विषयों को अंतर्भुक्त करते हुए सम्पूर्ण-भारतीय चिंता जो अपने प्रमादवश विकृत हो गई है। को उसकी मुक्ति के रास्ते के रूप में ‘रामत्व’ नामक ‘महारस’ को प्रस्तुत किया है। उनका मानना है कि “यदि हमने मूल्यों के परम आश्रय, आदर्शों के चरम निधान किसी अतिमानस की परम सत्ता के प्रति विश्वास का वरण नहीं किया’ तो इसके परिणाम भयानक होंगे। यदि जनता (Mass) ‘चर्च’ या ईश्वर के अभाव में ‘पार्टी’ और डिक्टेटर को अपना श्रद्धा-विश्वास अर्पित कर बैठी तो वह भयानक वंचना का शिकार बनेगी । यह एक तथ्य है कि ‘ईश्वर ‘कल्पना’ हो तो भी वह स्वभावतः हानिकारक नहीं बल्कि कवि और बंधु है । दूसरी ओर डिक्टेटर ‘सत्य’ है सही परंतु वह स्वभावतः कसाई और ‘बॉस’ है ।” स्पष्ट है कि ‘समर्पण-तृष्णा की तुष्टि के लिए ईश्वर किसी भी डिक्टेटर की अपेक्षा अधिक उपयुक्त और कम हानिकारक पात्र है।’ लेकिन इसके पीछे चुपचाप रची जानी वाली शक्तियों से वे अनजान नहीं हैं। इसलिए चेतावनी भरे स्वरों में कहते हैं-“रह गई उसके पंडे-पुजारियों के अत्याचार की बात । तो ईश्वर की कल्पना और आविष्कार इन पंडे-पुजारियों ने नहीं किया है। उसे किया है कवियों और योगियों ने ये पंडे-पुजारी ईश्वर और धर्म के अविभाज्य और अनिवार्य अंग नहीं। इन्हें मंदिर से निकाल बाहर किया जा सकता है। दूसरी ओर डिक्टेटर के पंडे-पुजारी भी तो हैं। वे अधिक शक्तिशाली, क्रूर, खतरनाक हैं। ईश्वर का काम बिना मंदिर के पंडे-पुजारी के चल सकता है। परंतु डिक्टेटर का एक क्षण भी बिना उसके अपने पंडे-पुजारी के अर्थात् उसकी अपनी ‘पार्टी-ब्यूरोक्रेसी’ दलगत अमलातंत्र के नहीं चल सकता।” इसलिए रामकथा को हृदयंगम करना हमारी अनिवार्यता है।
श्री राय के निबंधों में मृत्तिका पुतुल राम के जीवन में मानुषी चर्या का अनुगमन उसकी सम्पूर्ण मर्यादा में किया गया है। उनके मानुषी जीवन में घटी दो-एक घटनाएँ - बालि-वध,सीता-निर्वासन,शंबूक-वध आदि इसके प्रमाण भी हैं। इतिहास से अनेक उदाहरण देते हुए वे बताते हैं कि ‘प्रत्येक पैगंबर के सामने जब वरण का प्रश्न उपस्थित हुआ तो उन्होंने अपने आत्मसत्य को ही वरण किया’। कहीं ‘राम अपनी आत्मा द्वारा स्वीकृत सत्य को ग्रहण करके अडिग रहे और उन्होंने ‘साहस’ दिखाया’ तो कहीं ‘वे लोकमत के दबाव के सम्मुख झुक गये और आत्मोपलब्ध सत्य को स्वीकार करने का साहस उनमें नहीं रहा’। लेकिन “इस साहसहीनता के साथ कायरता नहीं, तितिक्षा जुड़ी है, त्याग का आदर्श जुड़ा है। इसी से यह भी महान् है। भले ही यह साहसहीनता हो, परंतु इसके बिना राम का रामत्व अधूरा रह जाता। प्रथम प्रसंग में राम व्यक्ति मात्र थे। व्यक्ति साहस दिखा सकता है। व्यक्ति एक ‘अस्तित्व’, एक सजीव सत्ता है। परंतु दूसरी बार वे राजा हैं। और राजा व्यक्ति नहीं एक ‘संस्था’, एक अवधारणा होता है जो भावहीन तथा ऋत-बद्ध ‘अस्तित्व’ है, जो सर्वतंत्र-स्वतंत्र नहीं, जो विविध प्रकार के दबावों का दास है और स्वयं भी एक दबाव या दमन की शक्ति है। अतः उत्तरचरित में राम का कार्य व्यक्ति के हिसाब से साहसहीनता है, परंतु राजा के हिसाब से महिमा है। और यह महिमा राम नामक व्यक्ति से साहस नहीं, तितिक्षा की अपेक्षा करती है। यह उनकी अमानुषी या देवोपम सहन क्षमता और त्याग का परिचायक है।”
श्री राय के इस कथन से कि ‘रामायण अद्भुत कवि-कर्म है’ से सौ प्रतिशत सहमत होते हुए यह जोड़ना अतियुक्ति नहीं होगी कि कुबेरनाथ राय के निबंध भी रामायण के मानुषी चर्या के अवतरण का अनुपम उदाहरण है। उनका निबंध साहित्य आधुनिकता बोध से अनुप्राणित ऐसा अनुपम दर्पण है ‘जिनमें जितनी ही गहराई से चिन्तन करेंगे उतने ही नये-नये अर्थ सगुण रूप धारण करके सामने उभरते जायेंगे।’ दुर्भाग्य से आज आत्म-क्षय और रमण-तृषा की दबाव-तकनीक से 21वीं शती के वाम-दक्षिण के मायावी शैवाल में भारतीयता का प्रतीक ‘रामत्व’ का मुख-कमल उलझ गया है। उपनिषद् कहते हैं कि जब सूर्य अस्त हो जाए, चंद्र अस्त हो जाए, अग्नि शांत हो जाए तो उस तमसा में पुरुष वाणी का आश्रय लेकर, बोलकर, पुकारकर ढाढ़स पाता है और बच निकलता है। कुबेरनाथ राय का निबंध-साहित्य इसी प्रकार का एक आश्रय है, जो हमें बताते हैं कि विगत कई दशकों से हमारी अदूर-दर्शिता के चलते भारतीय जीवन में जो छन्दहीनता आ गयी है, उसके छन्द-पतन को रोकना आवश्यक है और यह तभी संभव है जब हम आज तक ‘जो करते रहे उसके ठीक प्रतिकूल नहीं, तो उससे भिन्न दिशा में चलें । न वाम, न दक्षिण, बल्कि सम्मुख तीसरी आंख की सीध में चलें । न वामपंथ, न दक्षिण पंथ, बल्कि उत्तर पंथ की ओर चलें । अब हमें स्वर बदलना है। अन्यथा त्राण नहीं।’
मनोज कुमार राय*
गांधी अध्ययन विभाग
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय,वर्धा
ईमेल- manojkumarrai@hindivishwa.ac.in
मो-9404822608
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