गुलामी की मानसिकता और गांधी
किसी ने कहा है-A nation’s character was improved not by importing
foreign expertise but by an inspiring moral leadership capable of speaking in
its native idioms activating its hidden moral nerves and creatively
reinterpreting and mobilizing its traditional resources. Alien institution
produced parrots who repeated what they were taught and did not generate inner
or organic changes.
राघवन
एन अय्यर अनुसार Colonialism was an
ontological phenomenon and consisted in destroying the cultural autonomy and
integrity of subject country. अर्थात सर्वतोमुखी नुकसान पहुंचाना ही
उपनिवेशवाद है।
इस विषय पर आगे बढ़ने से
पूर्व भारत के संदर्भ में इसकी पृष्ठभूमि जान लेना आवश्यक है--
यह एक सच्चाई है कि एक दूर
देश में जहां की आबोहवा से अंग्रेज़ एकदम
अपरिचित थे उसपर शासन करना उनके लिए असंभव था। विश्व के एक शानदार भूभाग पर वे
यहाँ पूर्ववर्ती आक्रमणकारियों की तरह बसने का इरादा भी लेकर नहीं आए थे। न तो कोई
रिश्तेदारी करनी थी। व्यापार ही उनका प्रमुख उद्देश्य था । यद्यपि कि लालच वश उन्होने यहाँ थोड़ा-बहुत
निवेश भी किया था, पर यह लंबे समय तक
के शासन के लिए नाकाफी था। जड़ जमाने के लिए यहाँ की
आबोहवा-भाषा-शिक्षा-रहन-सहन-कला-साहित्य से परिचित होना आवश्यक था और उनके शब्दकोष
में इसकी अनिवार्य शर्तें पहले से ही मौजूद थी – धूर्तता,शोषण,विभाजन
और हीनता बोध को बढ़ावा देना। बस इसका उपयोग करना था। वे एक कुशल रणनीतिकार की
भांति बेहतर शासन-सुरक्षा और उसकी वैधता को जनता के बीच ले जाकर प्रचारित किया ।
आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक सुधारों का एक मायाजाल फैलाया । इस प्रक्रिया में उनसे
कुछ गलतियाँ भी हुई पर वे एक बड़ी घटना जिसे उन्होने थोड़ी परेशानी से ही सही,
नियंत्रित कर लिया और लगभग 200 सालों तक शासन किया।
गांधी की औपनिवेशिक शासन की व्याख्या और आलोचना
पूर्ववर्तियों के विपरीत सांस्कृतिक थी।
वे कहते हैं –उनका आदर्श है अपनी व्यापारिक प्रभुता को बनाए रखना और इस
आदर्श की प्राप्ति के लिए सभी नैतिक या अन्य आवश्यकताओं को तिलान्जलि दे देना। दरअसल
वे यहाँ व्यापार के लिए आए थे।
प्रारम्भिक दिनों में
अंग्रेजों ने खास तौर से विलियम जोन्स ने - यह स्वीकार किया कि भारतीय सभ्यता कभी
महान हुआ करती थी । परंतु अपने लक्ष्य को देखते हुए जोन्स ने यह कहना शुरू कर दिया था कि ‘अपने
दोषपूर्ण और निरंकुश शासन व्यवस्था के चलते उसमे आई जड़ता ने रचनात्मकता,
अनिवार्य स्वतन्त्रता,उद्यमिता आदि को नष्ट
कर दिया है। इसकी मुक्ति का एकमात्र उपाय यह है कि निरंकुश शासन को ‘सभ्य-समाज’
से स्थानापन्न करते हुए मनुष्य को उसकी चौहद्दी में जीवन सुरक्षा,
दोष रहित और न्यायपूर्ण शासन व्यवस्था’
ईमानदार और सक्षम प्रशासन को स्थापित किया जाय’। इसके लिए अंग्रेजों ने बाकायदा यह जताया कि वे
भारत के पुनरुत्थान की कोशिश कर रहे हैं। उन्नीसवी सदी के प्रारंभ में ‘उदारवाद’
विचारधारा का प्रादुर्भाव हुआ था और ब्रिटीशर्स इसे अपनी ‘विरासत’
के रूप में देख रहे थे। उन्होने इस विचारधारा को भारत में लागू करने का बीड़ा उठाया
और यह कहते हुए इसकी वकालत की कि ‘भारत
जो अब जड़ हो चुका है और यहाँ तर्क और वैज्ञानिक दृष्टि का घोर अभाव है,
को आगे बढ़ाने के लिए एक नई राज-व्यवस्था के साथ-2 तर्क आधारित नई चिंतन-पद्धति को
अपनाना पड़ेगा’। ऐतिहासिक रूप से अपने को ‘तर्कपूर्ण
शासन प्रणाली’ के एजेंट के रूप में देखने
वाले ब्रिटीशर्स ने बहुत महीन तरीके से यहाँ की सामाजिक ताना-बाना,नैतिक
व्यवस्था,सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था को
अंधविश्वासी और त्रुटिपूर्ण सिद्ध करने का प्रयास किया और काफी हद तक सफल रहे। यह
उनके लिए जरूरी भी था। भारत जैसे विशाल देश पर केवल तलवार के बल पर शासन नहीं किया
जा सकता था। इसलिए उन्होने अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने और देशज लोगों के मन में
हीन ग्रंथि को विकसित करने के हर उपाय को
आजमाने की कोशिश की। क्या यह सच नहीं है कि यदि भारतीयों ने उनकी अधिकांश चीजों को
यथा-समान,संस्थान,मूल्य,आदतों
आदि को श्रद्धा पूर्वक स्वीकार नहीं किया होता तो वे यहाँ ठहर सकते थे। स्पष्ट था कि जब तक हम उनके सम्मोहन में थे या
हैं भी, तब तक उनके भौतिक शासन के
खत्म हो जाने के बाद भी हम उनके वैचारिक गुलाम थे भी और रहेंगे भी ।
एक बार जब ब्रिटिशर्स
साभ्यतिक विमर्श को अपने विमर्श के केंद्र में लाने में सफल हुए तो फिर शिक्षा जगत
पर उन्होने अपना ध्यान केन्द्रित कर लिया। क्योंकि शासन तंत्र को स्थायित्व प्रदान
करने के लिए यह सबसे बेहतर उपाय था। अब वे अपने लक्ष्यानुरूप जिन विषयों –जीवन
मूल्य को प्रभावित करने,बुद्धि
और चरित्र की नई परिभाषा गढ़ने, नई
आदतों को मन में बैठाने –जैसी योजना को जनता के बीच स्थापित करना चाहते थे,उसके
लिए प्रयास करने लगे । एक विद्वान ने इसकी सटीक व्याख्या की है- “जैसे ही ब्रिटिश शासन स्वयं को सभ्यता
आधारित शब्दावली में न्यायोचित बताने लगी शैक्षणिक अन्योक्ति की विपुलता सामने आई.
शासन ने यह पूरा उपक्रम प्रजा के भीतर नए जीवन मूल्य और विचार के सहारे नयी आदतें, धर्माचरण, और बौद्धिकता व चरित्र के नए गुण अंतर्निविष्ट
करने के लिए सामने लाया। अब वे सिर्फ
अध्यापक नहीं, प्राध्यापक थे, केवल शास्रकार नहीं, शिक्षक थे; भारतीय लोग उनकी प्रजा नहीं, शिष्य थे; भारत एक बृहत राजकीय विद्यालय था जैसे कोई एकदम स्पष्ट ईटन स्कूल हो, किसी शैक्षणिक संस्था को सुशासित करने का एकमात्र विकल्प, जहाँ कानून दमन के लिए नहीं बल्कि अनुशासित अध्ययन के वातावरण को नियमित
करने के लिए बनाये गए थे। शिक्षा प्रसार को लैंकस्टर और बेल द्वारा लोकप्रिय बनाये
गए ‘मॉनिटोरियल’ पद्धति में संचालित होना था”। उन्होने एक तानाशाही तरीके से शिक्षा-पद्धति को
बिना दबाब में लाये इस तरह की स्थिति पैदा की कि भारत अब उनकी पद्धति को स्वीकार
करने के लिए मजबूर हो गया। ब्रिटेन को अब
कुछ भारतीयों को प्रशिक्षित करना था जो अपने देशवासियों को उनकी भाषा में
प्रशिक्षित कर सकता था।
अपने प्रारम्भिक दिनों में
जब ब्रिटिश भारत में सभ्य समाज के निर्माण की अवधारणा से गुजर रहे थे तो उन्होने
निरपेक्ष न्याय और निष्पक्ष प्रशासन को अपनी उपलब्धि के तौर पर न केवल सामने रखा
अपितु राजनैतिक हदबंदी और सामाजिक परिवर्तन के औज़ार के रूप में प्रयोग किया। नए
साभ्यतिक विमर्श में शिक्षण संस्थान सामाजिक परिवर्तन और राजनीतिक क्रियाशीलता के
अखाड़े के रूप में उभरे ।(जो आज तक बदस्तूर जारी है। जो हमारी गुलाम मानसिकता के
परिचायक हैं।) धीरे-2 यह आंग्ल-शिक्षा नैतिक और सामाजिक परिवर्तन के वाहक के रूप
में सामने आई। अँग्रेजी शिक्षा प्राप्त करना केवल एक भाषा सीखने तक ही सीमित नहीं
थी अब वह आधुनिक ज्ञान-विज्ञान तक पहुँच का माध्यम थी। और उससे भी आगे ‘भारत-बोध’
से कटने और अंग्रेजीदाँ बनना था। भारतीय भी अँग्रेजी सीखने में रुचि रखते थे।
क्योंकि उनके लिए यह ‘वैश्विक-खिड़की’
खोल रही थी। गांधी भी इसके गुलाम हुए थे- When I first saw
my room in victoria Hotel, I thought I could pass a life time in that room.।)
तब लंदन दार्शनिकों/साहित्यकारों का गढ़ हुआ करता था। यद्यपि कि कुछ ही दिनों बाद
उन्होने अपना विचार बदल दिया-“मैं स्वयं इसे देखकर पाश्चात्य सभ्यता से ऊब गया हूँ
सड़क पर जोलोग मिलते हैं , वे
उन्हें पागल जैसे दिखाई देते हैं”।
ब्रिटिश बहुत शातिर थे। वे
शतरंज के मोहरों को धीरे-धीरे आगे बढ़ा रहे थे। जब उन्होने यह जान लिया कि हमारी
श्रेष्ठता अब इनके सिर पर हावी हो चुकी है तो एक कदम और आगे बढ़ाते हुए चुनौती की
मुद्रा में आ गए और कहा कि ‘भारतीय
बताएं कि उनके पास क्या है जो वे ब्रिटिश को सीखा सकते हैं’?
स्वाभाविक उत्तर तो ‘न’
में था । उन्होने ज़ोर देकर कहा कि ‘उनके
पास वह सब कुछ है जिससे हिन्दुस्तानी कुछ सीख सकते हैं । हमें उनसे सीखने को कुछ
भी नहीं है’। अब इसका जबाब तो सिर्फ
जबानी जमा खर्च से नहीं दिया जा सकता था कि हमारे जीवन-मूल्य अलग हैं । अपितु
उन्हें उनकी ही भाषा में और उसी स्तर-हैसियत-आत्मविश्वास से जबाब देना था। निरंकुश
औपनिवेशिक विमर्श में सिर्फ मतभिन्नता कहना दोष पूर्ण कमी की ओर इशारा करती है।
शैक्षणिक विमर्श के इस मोड़
पर भारतीय अपने शासक की बराबरी केवल दो स्तरों पर कर सकते थे-पहला यह कि वे भी यह
कहने का साहस कर सकें कि ‘उन्हे
भी उनसे कुछ भी सीखने की जरूरत नहीं है’
और दूसरे यह कि ‘उनके
पास भी बहुत कुछ सिखाने को है’।
यह इसलिए जरूरी था कि यह स्वीकार करना कि हमें आपसे सीखना है दरदरअसल उनकी
श्रेष्ठता को स्वीकार करना था। उस समय के हमारे पूर्वज जिनकी सत्यनिष्ठा और
देशभक्ति पर तनिक भी संदेह नहीं किया जा सकता है वे भी कुछ हद तक इसे ‘क्षणिक’
उधार के रूप में देख रहे थे और यह मानकर चल रहे थे कि इस उधार को हम फिर लौटा
देंगे। ‘संस्कृति के क्षेत्र में भी
जब तक आयात-निर्यात बराबर न हो तब तक हमें नुकसान हो सकता है’
की भावना व्यापक और गहरे जड़ जमा चुकी थी। उस समय के बड़े नेता भी एक खास तरीके से
इसे अपने लेखन में स्वीकार भी कर रहे थे। कुछ उदाहरणों से इसे समझा जा सकता है -
We Bengalis are
considered to be a people of no consequence compared to the great nation like
the English. In comparison with the English, there is nothing praiseworthy in
us. Nothing about us is commendable.(Bankim chandr )
If you want to
become equal with the Englishman or the American, you
will have to as well as to learn, and you have plenty yet to teach to the world
for centuries to come. (Vivekanand)
1820 से लेकर 1920 तक के
कथित हिन्दू नेताओं ने यह मत प्रकट किया कि उनके देशवासियों के भीतर नागरिक बोध और
राजनैतिक संस्कृति का अभाव था। भारतीय मूलत: अपनी जाति और परिवार से अलग हटकर शायद
ही सोचते हों। उनकी राजनीतिक समझदारी शिशु सुलभ थी। देशभक्ति और एकता उनके लिए दूर
की कौड़ी थी। कुछ हद तक उनके अंदर जातीय एकता जरूर थी पर इसकी कोई राजनैतिक
अभिव्यक्ति नहीं थी। लाला लाजपत राय ने लिखा है- Our countrymen sadly lack the spirit of patriotism that characteristics
the citizen of every great and prosperous country in the world and consequently
there is no end to our troubles. और यह आजतक बदस्तूर जारी है। कुबेरनाथजी लिखते
हैं-‘विगत तीन-चार हजार वर्षों से
अविछिन्न चली आ रही एक विशेष चिंतन पद्धति के तहत भारतीय वांगमय लिखा गया,भारतीय
समाज की संरचना हुई और विगत सौ-डेढ़ सौ वर्षों में उस वांगमय और उस समाज का अध्ययन
विश्वविद्यालयों में उल्टी और पर्याप्त भिन्न चिंतन-पद्धति के आधार पर हो रहा है
और वह भी एक विदेशी भाषा के माध्यम से। फल हुआ तरह-तरह की गलत फहमियां,चरित्र
हनन और वहमपूर्ण फतवे। कुल मिलाकर एक अधूरी समझ और अँग्रेजी भाषा के ज्ञान के बल
पर इस देश का भाग्य निर्णायक बना और अपने सौभाग्य का कटहल देश के सिर पर फोड़कर खा
रहा है’।
अपने पूर्ववर्ती महापुरुषों
की भांति गांधी भी अपने समय के भारतीय समाज की जड़ता/काहिलता से बहुत दुखी थे। खास
तौर से हिन्दू समाज के। भारत जो कभी अपनी स्पंदनमान
संस्कृति(vibrant culture) और समृद्ध-सभ्यता (Rich
culture) के कारण विश्वगुरु कहा जाता था, अपनी चमक खो रहा था । अब वह
दया का पात्र बन चुका था । कभी वेद-उपनिषद
और तर्क शास्त्र पर भरोसा रखने वाला भारत
अंधविश्वासों,रूढियों,जातियों,प्रतिबंधों,मुझे मत छूओ आदि के भँवर
में फंस चुका था। उसका आत्मविश्वास हिल
गया था। Gandhi knew that he could not attack the increasing
domination of European civilization without also attacking the power and
authority of its indigenous representatives and replacing them with authentic
sons of the soil.
कुबेरनाथ जी लिखते
हैं-- ‘भारत विश्व-अदालत में अपना मुकदमा लगातार हारता जा रहा था। इसके
पीछे सबसे बड़ा कारण था उसके आत्मविश्वास का खोना । ठीक ऐसे समय पर उसके त्राण के लिए विश्व-अदालत में
चार वकील उसका पक्ष रखने के लिए सामने आते हैं-विवेकानंद,रवीन्द्रनाथ,आनंदकुमार स्वामी और गांधी ।
पहले ने उसकी दार्शनिक महिमा को सामने रखा,दूसरे ने साहित्यिक महिमा को,तीसरे ने कलात्मक गरिमा को और
चौथे ने भारत की आत्मा को’।
अब जरा अंग्रेजों की चालाकी
के इतिहास और उसके बरक्स गांधी के जबाब या उनके उपनिवेशवादी सोच के खिलाफ तथ्य परक
जबाब के साथ-साथ आत्मविश्वास और अतिरेक (जो समय की आवश्यकता और रणनीति का हिस्सा
थी) को भी देख लिया जाए ।
गांधी ने सबसे पहले एक कुशल
सेनापति की तरह युद्ध-मैदान की तरफ ध्यान दिया और कहा कि यह जो औपनिवेशिक संघर्ष
है वह भारत या यूरोप के बीच नहीं बल्कि प्राचीन और आधुनिकता के बीच है। इस साधारण
से सूत्र के सहारे गांधी ने बढ़त हासिल कर ली । जहां उनकी सोच क्षेत्रीय बँटवारे
अर्थात एशिया और यूरोप या पूरब और पश्चिम पर ज़ोर दे रही थी वहीं गांधी ने इसे
समसामयिक संदर्भों के आलोक में मानवता के एकता के रूप में देखने की कोशिश की। पूर्व के लोगों ने सिर्फ भारतीय
सभ्यता की बात की थी जो एक भौगोलिक सीमा तक ही सीमित थी। उसकी सर्वव्यापकता
संदिग्ध थी। लेकिन गांधी ने चतुराई-पूर्वक
उस सभ्यता-संस्कृति की बात की जो सार्वभौम थी। यूरोपियन सभ्यता को ‘आधुनिक;
कहकर गांधी ने काल और स्थान में न केवल बांटा बल्कि उसकी सार्वभौमिकता पर ही
प्रश्न चिन्ह खड़ा करते हुए यह भी बता दिया कि तथाकथित श्रेष्ठता का दंभ पाश्चात्य
सभ्यता का परिचायक न होकर एक छोटे से भाग तक सीमित है और इसके पास न तो ऐतिहासिक
गहराई है न ही भौगोलिक व्यापकता है।
अपने इस कथन से गांधी ने दो
निशाने साधे-एक तो उन्होने यह जताया कि यूरोपीय सभ्यता जिसके पास एक महान ऐतिहासिक
विरासत थी वह खतरे में है। दूसरे अपने देशवासियों को भी यह समझाने में सफल रहे कि
उनकी लड़ाई सिर्फ अपने लिए नहीं है अपितु सम्पूर्ण मानवता के लिए है। निराश जनता
में आत्मविश्वास जगाने का यह जरूरी और साहसिक कदम था।
इसके बाद गांधी का रूप और बदल
गया-वे कहते हैं-“पश्चिमी सभ्यता विनाशक है और पूर्वी सभ्यता विधायक है।
..... मैं मानता हूँ कि पश्चिमी सभ्यता का
कोई लक्ष्य नहीं है और पूर्वी सभ्यता के सामने सदैव लक्ष्य रहा है। ... आधुनिक सभ्यता मुख्य रूप में भौतिकतावादी है
जब कि हमारी सभ्यता प्रधान रूप से आध्यात्मिक है। आधुनिक सभ्यता भौतिक नियमों
की खोज में लगी हुई है और मानवीय प्रतिभा को उत्पादन और विनाश के साधनों की खोज
में जुटाये हुए है, और हमारी सभ्यता
मुख्य रूप से आध्यात्मिक नियमों की खोज में लगी हुई है।”
एक-एक कर उन्होने जबाब देने
की कोशिश की -“हिंदुस्तान पर
आरोप लगाया जाता है कि वह ऐसा जंगली, ऐसा अज्ञान है कि उससे जीवन में कुछ फेर बदल कराए ही नहीं जा सकते।
यह आरोप हमारा गुण है,दोष नहीं। अनुभव से जो हमें ठीक लगा है,उसे हम क्यों बदलेंगे? बहुत से अक्ल देने वाले आते जाते
रहते है पर हिंदुस्तान अडिग रहता है । यह उसकी खूबी,यह उसका लंगर है”। कल तक अंग्रेज़ जो
कह रहे थे अब गांधी ने उन्हें उनकी भाषा में जबाब दिया-“हिंदुस्तान को कुछ भी
सीखना बाकी नहीं है। यह बात ठीक है”।
“हजारो साल पहले जैसी हमारी शिक्षा थी वही चलती आई । हमने नाशकारक
होड को समाज में जगह नहीं दी,सब अपना धंधा/कारीगरी करते रहे”।
“जब अंग्रेज़ हिंदुस्तान में नहीं थे तब हम एक राष्ट्र थे,हमारे विचार एक थे,हमारा रहन सहन एक था,तभी तो अंग्रेजों ने यहाँ एक
राज्य कायम किया। भेद तो हमारे बीच बाद में उन्होने पैदा किये”।
उपरोक्त बातें गांधी ने हवा में नहीं कहा था अपितु विचारों को अपने
अनुभव की आंच में पकाकर और अपने पूर्ववर्ती विचारों को आत्मसात करके कहा है। रोमा
रोला को लिखे पत्र में इसकी पुष्टि भी की है- “मैं
अपने जीवन में जिन निर्णयों पर पहुंचा हूँ,उन्हें
मैंने इतिहास से नहीं पाया-मेरे विचार चिंतनों पर इतिहास का प्रभाव बहुत थोड़ा ही
है। मेरे कार्यप्रणाली की नींव अभिज्ञता पर है अर्थात मेरे सभी निर्णय अपनी
व्यक्तिगत अभिज्ञता से प्राप्त हुए हैं”।
“मैं
कहता हूं कि आज भारत पचास या सौ साल पहले की बनिस्बत ज्यादा निरक्षर है । इसका
कारण यह है कि अंग्रेज प्रशासक जब भारत में आए तो यहां की चीजों को ज्यों-का-त्यों
स्वीकार करके आगे बढ़ने के बजाय उन्होंने उनका मूलोच्छेद करना शुरू किया। उन्होंने
मिट्टी पलटकर जड़ देखना शुरू किया, लेकिन
बाद में फिर उस जड़ पर मिट्टी नहीं डाली और नतीजा यह हुआ कि वह सुंदर वृक्ष
(धर्मपाल) नष्ट हो गया। ग्राम्य पाठशालाए
ब्रिटिश प्रशासकों के प्रयोजनों के लिए पर्याप्त अच्छी नहीं थीं और इसलिए
वे एक नई योजना लेकर सामने आए। .......
अंग्रेजों की ही धरती पर
उनसे कहा कि ‘इनको गोरों ने जान बूझकर बरबाद
किया है’। वे बिना लाग-लपेट के कहते
हैं-“....मैं इसे सच मानता हूँ कि अंग्रेजों ने भारत पर कोई परोपकार की भावना से
अधिकार नहीं किया। उसमें उनका स्वार्थ था और उसमें अक्सर बेईमानी से काम लिया गया”,
और सावधान भी किया -“ परंतु प्रकृति के नियमों को हम समझ नहीं पाते । वह अक्सर
मनुष्य के किए-धरे को उलट देती है...।”
गांधी बार-बार कहते थे कि
“मैं अपने घर के दरवाजे और खिड़कियाँ खुली रखता हूँ ताकि हर प्रकार के विचार उसमें
प्रवेश कर सकें किन्तु मेरा पैर अपनी धरती पर जमा हुआ है”।
दरअसल गांधी जीवन के हर
क्षेत्र में ‘आधुनिकता’
और तथाकथित पश्चिम को चुनौती दे रहे थे । इसी संदर्भ मेन उनका ध्यान काला की तरफ
गया और उन्होने लिखा- “कला के लिए कला मेरी समझ के बाहर है जो कला हमें आत्मदर्शन
करना न सिखाये वह कला ही नहीं है। मेरा ध्येयय सदैव कल्याण का है,कला
कल्याणकारी हो तभी मुझे स्वीकार्य है। मैं उसे यूरोप की दृष्टि से नहीं देख सकता।”
कला के क्षेत्र में एक बड़ा
नाम कुमारस्वामी का है । यूरोपीय कला को चुनौती देते आनंद कुमारस्वामी ने भारतीय कला पर बहुत महत्वपूर्ण किए हैं।यह
उनहीन के श्रम का फल है कि ब्रिटेनिका विश्वकोश को अपने 14वें संस्करण में ‘भारतीय
कला’ को एक विषय के रूप में
स्वीकार करना पड़ा । कुमारस्वामी ही वह पहले व्यक्ति हैं जिंहोने सर्वप्रथम
राजस्थानी और पहाड़ी कला का ठीक मूल्यांकन किया और भारतीय कला में आनंद और सौंदर्य
का अक्षय भंडार खोज निकाला । उनके लिये ‘कला
मन अथवा बुद्धि का कौतूहल मात्र नहीं है ।
कला का सच्चा आसान इससे बहुत ऊंचा है और उतना ही अनिवार्य है जितना धर्म,अध्यात्म
और दर्शन का’।
कुमारस्वामी लिखते हैं-“आपको अपने भारतीय
संस्कृति ,परम्परा,
और गौरव शाली अतीत
को कभी नहीं भूलना
चाहिये । आपको एक राजदूत
की तरह कार्य करना होगा और आप
कही भी जायेँ आपको भारतीय बनकर ही
रहना चाहिये।”
“My resistance
to western civilization is really a resistance to its indiscriminate and
thoughtless imitation based on the assumption that Asians are fit only to copy
everything that comes from the west”.
Adaptability is
not imitation. It means power of resistance and assimilation.
वे कहते हैं-“भारत
के लिए यह खतरा है कि वह अपनी आत्मा को खो बैठे। उसे खोकर भारत जीवित नहीं रह
सकता। इसलिए भारत को अकर्मण्य और असहाय बन कर बैठे रहना नहीं चाहिए। मेरे लिए
परिश्रम के उन्मादपूर्ण प्रवाह से बचना कठिन हो रहा है। भारत को शक्तिशाली बनना
होगा जिससे कि अपनी खातिर और दुनिया के लिए वह इसका प्रतिरोध कर सके” । गांधी इन
सभी लड़ाइयों को एक साथ लेकर आगे बढ़ रहें हैं।
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