राजनारायणजी को
पढ़ते हुए
आधुनिक
भारतीय राजनीतिज्ञों में राजनारायणजी कई अर्थों में बेजोड़ हैं। वह स्वयं में ‘नाना पुराण निगमागम सम्मत’ राजनीतिज्ञ हैं । वैष्णव
परिवार में जन्मे राजनारायणजी एक सनातनी हिन्दू की भांति सुबह-सबेरे ध्यान-धारणा
के आग्रही थे तो दूसरी तरफ मूर्तिभंजक की तरह वर्जनाओं को तोड़ने का दम भी रखने
वाले थे ।
आज
का समय बड़ा विचित्र है। आज जीवन के हर क्षेत्र में नैतिकता की धूरियां टूट रही हैं,राष्ट्र और धर्म की गठरी सरे राह बेची जा रही है । बुद्धिजीवी वर्ग अपने
को सोलहो आने चापलूस सिद्ध करने में आकाश-पाताल एक किए जा रहा है। जीवन-जगत की पतन
गाथा तो ‘टीवी सीरियल’ की भांति निरंतर
ढलान पर है। शीलबोध,मूल्यबोध अब बीते जमाने की बात हो गई है।
विचार गोष्ठियाँ भी अब पार्टी का झण्डा-डंडा बनकर रह गई हैं। ‘नई नैतिकता’ के नाम पर स्वैराचार और राजनीतिक
अवसरवादिता अपने चरम पर है और जीवन का सर्वांग बनती जा रही है ‘राजनीति’। कुबेरनाथ राय सही लिखते हैं- “संसद से लेकर सड़क तक तड़ातड़ लाठियां भांजी जा रही हैं। किसी लाठी पर गांधी का नाम
लिखा है तो किसी पर नेहरू का ।किसी पर अंबेडकर का नाम लिखा है तो किसी पर गोलवलकर
का । और ये सब मिलकर एक मात्र जिस खोपड़ी को सनाथ कर रहीं है तो वह है भारतीय जनता”।
ऐसी
विषम परिस्थिति में मनुष्य सदा ही अपने पूर्वजों की तरफ नजर उठा कर देखता रहा है।
आज हम भी राजनारायणजी की तरफ इसी आशा भारी नजरों से द्खने की कोशिश कर रहें हैं कि
शायद कोई सूत्र हाथ लग ही जाय।
वस्तुत:
राजनारायणजी हमारे सामने दृढ़ता और संघर्षशील चरित्र का सूत्र प्रस्तुत करते हैं।
उनका जीवन हमारे सामने ‘चरित्रगठन’ का एक आदर्श रूप प्रस्तुत करता है। उनका सम्पूर्ण जीवन हमारे सामने एक
शक्ति-काव्य के रूप मे आता है। जो किसी भी प्रकार के ‘दैन्य-पलायन’ को जानता ही नहीं । ठीक गांधी की तरह। गांधी राजनारायण के ‘आइकन’ हैं। गांधी ने एक बार कहा था-‘मैं कब्र में भी जिंदा रहूँगा। और वहीं से आवाज लगाता रहूँगा’। राजनारायण भी कहते हैं-‘मैं मरूँगा नहीं और आखिरी
सांस तक लोगों को झकझोरता रहूँगा । लोगों के मानस को–जब तक कि जन-जन स्थिरता का
बनावटी मुखौटा अपने ऊपर से उतार कर फेंक न दे’।
राजनारायणजी
का चिंतन फ़लक बहुत व्यापक था । जीवन-जगत में उनकी पैठ अद्भुत थी। प्राय: उनकी छवि
ऐसी बना दी गई है जैसे कि वे केवल और केवल गाली-गलौज अथवा उठा-पटक करने वाले ही
थे। कुछ किस्से भी उन पर बन गए। दरअसल हम सब राजनारायणजी के ‘रोष-वर्षा’ से ही परिचित हैं और प्राय: वही हमारी
समझ की सीमा भी बन चुकी है। पर उनके ‘उपचार-बोध’ से जो उनके जीवन का केंद्रीय तत्व है, हम सब लगभग
अपरिचित ही रहें हैं। यह ‘रोष-वर्षा’
उनके व्यक्तित्व का ऊपरी सतह है जो एक झटके में उनके बारे में निर्णय करा देती है।
सच
तो यह है कि राजनारायणजी को पढ़ना अपने को समृद्ध करने जैसा लगता है। कुबेरनाथ राय
ने कहीं लिखा है कि ‘मनुष्य अपना सर्वोत्तम लगभग 40
वर्ष की अवस्था तक दे जाता है। खींच तान कर आप इसे 45 -50 के बीच तक ले जा सकते
हैं’। उनके इस कथन को इतिहास के तमाम श्रेष्ठ जनों की
उपलब्धि पर नजर दौड़ाकर कोई भी सच्चाई जान सकता है। राजनारायणजी पर भी यह फार्मूला
सटीक बैठता है । 1917 में जन्मे राजनारायणजी 1952-58 में विधान सभा में बतौर नेता-विपक्ष
राष्ट्रीय समस्याओं पर जिस ‘सधे’ और
हाँ-धर्मी तत्वों के साथ अपनी बात रखते हैं वह अनुकरणीय है। उनकी इस क्षमता का
सटीक मूल्यांकन करते हुए लोहिया ने कहा
है-‘भविष्य की पीढ़ियों के पास राजनारायण को आजाद भारत के
प्रारम्भिक वर्षों के सबसे सफल विधायक के रूप में याद करने की वजह होगी।
.....जिसने जुबान से ज्यादा कर्म और उदाहरण के जरिये कमजोर तथा असहाय आदमी को
अत्याचार का मुक़ाबला करना सिखाया’।
राजनारायणजी
ने विधान सभा में दिये गए एक भाषण में एक मंत्री को लक्ष्य करते हुए कहते हैं-‘मैं उन्हीं के लिए ऋगवेद,मनुस्मृति और शुद्ध नीति का
मनन करके कि सभासदों के क्या कर्तव्य होना चाहिए,राजा कैसा
होना चाहिए ,राजा के दंड की क्या व्यवस्था होनी चाहिए , आपकी खिदमत मे पेश कर रहा हूँ। ऋगवेद
सूत्र 23 मंत्र (12) में तो साफ -2 कहा गया है कि घमंडी,उग्र
शासक अपनी प्रतिबुद्धि से यदि प्रजा का नाश करने में प्रवृत्त हो तो उसका विरोध
करना प्रत्येक सभासद का कर्तव्य होना चाहिए’। पुन: मनुस्मृति से सभासदों के कर्तव्य को उद्धृत करते
हुए कहते हैं-‘ विधान निर्मात्री सभा में पहले तो आना ही
नहीं चाहिए। प्रवेश करने पर न्याय पूर्ण ही बोलना चाहिए लेकिन जो लोग सभा में जाते हैं,अन्याय होने पर
बोलते नहीं या असत्य का पक्ष लेते है वे सभासद पापी हैं। सभा का अर्थ क्या है? ‘स’ और ‘भ’ के दो अक्षरों के जोड़ से सभा बना है। ‘स’ माने सहित और ‘भ’ का अर्थ ‘प्रकाश’ है। जहां से
प्रकाश मिले जहां से न्याय मिले उसको सभा कहते हैं’ । तो यह
दृष्टि है राजनारायणजी की ।
राजनारायणजी
को पढ़ते हुए हमें ‘क्षुरधार सजग दृष्टि’ मिलती है। उनके भाषणों में कथन या भंगिमा का चमत्कार नहीं दिखता है। उनके भाषण तथ्य और तर्क से कसे होते हैं।
आंकड़ों की प्रस्तुति में भी वे एक प्रगतिशील अर्थशास्त्री दिखते हैं -‘बहुत से अर्थशास्त्रियों ने 4 ‘एम्स’ क्रिएट किया है-मनी,मैन ,मैटीरियल
और मैनेजमेंट’।राजनारायणजी ने इसमें ‘डिस्ट्रीब्यूशन’ को जोड़ा और कहा कि असली रेशनलाइजेशन के लिए यह जरूरी है। जब तक संपत्ति
का ठीक-2 वितरण नहीं होगा तब तक कल्याणकारी राज्य एक शाब्दिक जाल ही रह जाएगा’।
भाषा
के प्रयोग के स्तर पर भी राजनारायणजी बेहद सजग हैं। वे विधान सभा में ही ललकारते
हैं –“जिन शब्दों का प्रयोग लोग कर रहे हैं मैं उनसे भी आगे जा सकता हूँ । पर मेरी
अपनी मर्यादा है। शिक्षा मंत्री द्वारा ‘माल’ शब्द के प्रयोग को लेकर उनकी अपनी आपत्ति है-‘माल
का भी बड़ा व्यापक अर्थ होता है। ....सौंदर्य के पदार्थ अक्सर गोप्य रखे जाते
हैं....... मैं उनसे
निवेदन करूंगा कि शब्दों के साथ खेल न किया करें। शब्दों के साथ खेल करके बहुत
अनर्थ किया जा चुका है। ऐसे शब्दों का प्रयोग न किए जाएँ जो कई अर्थों में
प्रयुक्त होता है”।
राजनारायणजी
निष्पक्षता और ईमानदारी को जीवन-ध्येय मानते हैं। उनका मानना है कि यह बहुत दूर तक
साथ देती है। वे कहते हैं-‘मैं सबसे ईमानदारी की बात कहना चाहता हूँ कि राजनीतिक ईमानदारी का परिचय
हमको हर समय देना चाहिए। जो हमारा मत हो,जो हमारा सिद्धांत
हो जिसको हम प्रतिपादित करना चाहते है, जो हमारा कार्यक्रम
हो,उसको बिना किसी संकोच के हमको स्पष्ट कहना चाहिए’। यह दृष्टि उन्होने गांधी से पायी है। वे अक्सर उनको ‘कोट’ करते रहते हैं। गांधी को दक्षिण अफ्रीका में
जूलू विद्रोह के समय सेवा-सुश्रुषा के चक्कर में अक्सर 40-40 मील की यात्रा करनी
पड़ती थी। नेटाल के उस विशाल निर्जन क्षेत्र में घायलों की सेवा के समय प्रार्थना
और आत्मविश्लेषण का सहारा लेते थे। इन्हीं दिनों ध्यान की गहन स्थिति में उन्हे
भान हुआ कि सार्वजनिक सेवा के लिए पुत्रैष्णा और विषयेष्णा से मुक्त होना होगा।
गांधी के इस सिद्धांत को राजनारायणजी ने सहज ही अपना सिद्धांत बना लिया था। वे
कहते हैं- “ परिवार के सिद्धांतों के बारे में मैं गांधीजी के सिद्धांतों का
अनुयायी रहा हूँ। यह सही है कि मैं अपनी संतति के लिए आदर्श पिता नहीं बन सका ,लेकिन राष्ट्र के सभी बच्चे मेरे बच्चे हैं,ऐसा
मानकर मैं एक बड़ा बाप बन गया हूँ । घर-परिवार व समाज के स्वार्थ काफी हद तक परस्पर
विरोधी होते हैं। ऐसी स्थिति में में परिवार से अलग रहकर समाज की सेवा की जा सकती
है”।
राजनारायणजी पर गांधी का प्रभाव चौतरफा है। स्वराज की उनकी
परिभाषा भी गांधी से मिलती जुलती है--“इस देश में जो कि पूज्य बापू की पुण्य भूमि
है, में सच्चा जनतंत्र तब है, जब स्वच्छ स्वराज्य
हो-स्वराज्य का मतलब है खुद का राज्य। यह
तभी संभव है जबकि हर इंसान इतना पूर्ण हो कि वह अपने से किसी दूसरी ताकत को
नियंत्रण करने के लिए अपने ऊपर न रखें। --जब मनुष्य विवशता से निकलकर स्वतंत्र
वातावरण में विचरण करे तब मैं समझता हूँ
स्वराज्य होगा”।
आजादी
के बाद के राजनेताओं में ऐसा चरित्र और साफ दृष्टि शायद ही कहीं देखने को मिले।
उनका दिल सदा ही अभावग्रस्त और शोषितों के लिए
तड़पता रहता है। वे एक जगह कहते हैं - ‘बोर्जुआ लीडर आफ अपोजीशन के अंदर थोड़ा सा नजाकतपन हो
सकता है,साफ सुनहले-सुडौल शब्द हो सकते हैं मगर जिनका हृदय
दुखित है,जिनका हृदय विदीर्ण है,जो रात
दिन अभाव,भय और शोषण से परेशान हैं उनसे क्या आशा की जा सकती
है’ । यह जो कथन है वह वस्तुत: गांधी ही उनसे कहला रहे हैं। आजादी की लड़ाई जब चरम पर थी तब गुरुदेव रवीन्द्र
ने गांधी को पत्र लिखते हुए कहा कि ‘एक व्यक्ति के चरखा
चालाने से आजादी कैसे मिल सकती है। .गांधी उसका जबाब अत्यंत विनम्रता से देते
है-वे कहते है।कि गुरुदेव जिन पक्षियों की बात कर रहें हैं वे कल रात भरपेट भोजन
करने के बाद आराम किए हैं तब वे मुक्तगगन में उड़ते दिख रहें है। यहाँ तो उन्हे
भोजन ही नहीं मिला है । उनके पंखों में रक्त संचार ही नहीं हो रहा है जिससे वे अपने पंख खोल सके। न हो तो, कविवर! वीणा रख दीजिये । यह वीणा हम फिर कभी बजा लेंगे ।
राजनारायणजी
की दृष्टि बड़ी पैनी थी। वे जब विधान सभा में खड़े होते हैं उनकी दृष्टि से शायद ही
कोई ऐसा विषय होता था जिस पर उनकी नजर न
पड़ती हो। शिक्षा और गुरु दोनों के प्रति उनके मन में बेहद अनुराग है। एक बार तबके मुख्यमन्त्री ने यह कहा कि ‘अध्यापक अपनी तनख्वाह बढ़ाने की बात कैसे कह सकते हैं’? तब उनका उत्तर देखिये-‘क्या गुरुजन भूखे रहकर पढ़ाएँ
या पेट काटकर पढ़ाये। जब उनका शरीर स्वस्थ रहेगा तभी उनका मस्तिष्क भी स्वस्थ रह
सकता है’ तो यह हैं राजनारायणजी ।आज जब चौतरफा शिक्षा को
लेकर ‘पंड-श्रम’ किया जा रहा है तब
उनकी याद आनी स्वाभाविक है। आजादी के तुरंत बाद जब हम गांधी के नेतृत्व में
सत्य-अहिंसा-अभय के त्रिक पर खड़ा होकर नैतिकता को जीवनोद्देश्य बना रहे थे तब भी
शैतान सक्रिय था और उसने बनारस के संस्कृत विवि में अपना खेल कर दिया । पर
गांधी-सपूत राजनारायण जिंदा था और विधान सभा में ही गरज पड़ता है- ‘संस्कृत कालेज विवि बनाने जा रहा है और वहाँ के प्रिंसिपल अनिवार्य
योग्यता ही नहीं रखते हैं’। जरा तुलना कीजिये आज के
कुलपतियों की योग्यता और चयन प्रक्रिया से। राजनारायणजी जी खुले तौर पर कहते
हैं-विश्वविद्यालयों में सरकारी हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए।...उन्हें अभिव्यक्ति
की स्वतन्त्रता मिलनी ही चाहिए। पूरा हिंदुस्तान घूम जाइए विश्वविद्यालयों के
कुलपति सहमें नजर आते हैं। कुर्सी बचाने के लिए हर कुर्बानी देने को तैयार हैं- टैंक
से लेकर तोप तक। किसी जमाने ने विवि में
टैंक आने पर कहा था –‘आने दो मैं उसके सामने ही लेट जाऊंगा’।
एक
कालेज को विश्वविद्यालय का रूप दिया जा रहा था। राजनारायणजी ने इस कार्य का स्वागत
करते हुए कहा-“मनुस्क्रिप्ट (पाण्डुलिपि) के लिए कोई रजिस्टर नहीं है। इसके लिए
कैटेलाग बनाना चाहिए”। तो इतनी पैनी दृष्टि है राजनारायणजी की। वे ज़ोर देकर कहते
हैं- “मैं चाहता हूँ कि जिस तरह से शिक्षा
संस्थाओं के निजी लाभ के लिए प्रयोग में लाया जा रहा है, वह आगे न हो। सरकार ऐसी व्यवस्था करे जिससे शिक्षालयों में शिक्षा का काम
हो और पार्टी पालिटिक्स का काम न हो” । लेकिन वर्षों से हो क्या रहा है? हमने तो शिक्षण संस्थानों को राजनीति का ही अखाड़ा बना लिया और परिणाम
सामने है कि विश्व-स्तर पर हम कहीं नहीं ठहरते है। उन्होने ज़ोर देकर कहा था- “शिक्षा
का उद्देश्य देशवासियों को सत्यं , शिवं और सुंदरम बनाना था।
जो रास्ता सत्य का हो,शिव का हो और सुंदर हो,उस रास्ते की ओर ले जाने की जब शिक्षा सुनियोजित होगी तभी हमारे देश का
निर्माण हो सकेगा”। और इसके लिए सबसे जरूरी चीज होती मस्तिष्क का संतुलित होना-“ मानसिक
संतुलन जब तक ठीक नहीं होगा तो फिर देश नहीं बन सकता। देश को बनाने के लिए सबसे
बड़ी आवश्यकता इस बात की है कि पहले देश की साइकालजी ठीक करें”।
राजनारायणजी अपार साहस लेकर पैदा हुए थे। वे
गांधी के प्रभाव में आकर अभय को साध चुके थे । तभी तो कहते हैं- “किसी देश की जनता
की आवाज को वहाँ की पुलिस और फौज नहीं रोक सकती। अगर ब्रिटिश की फौज जनता की आवाज
को दबा सकी होती तो आज भारत स्वतंत्र न होता। जनतंत्र की भावना जब बढ़ती है तो इस
तरह की दकियानूसी सरकार उसमे जलाकर खाक हो जाती है”। नेहरू ने अपनी प्रसिद्ध
पुस्तक ‘डिस्कवरी
ऑफ इंडिया’ में लिखा है- ‘हमारी
प्राचीन पुस्तकों में यह कहा गया था कि किसी आदमी या किसी राष्ट्र के लिए सबसे
बड़ा उपहार है अभय— निर्भयता; सिर्फ
शारीरिक हिम्मत ही नहीं, बल्कि दिमाग से डर का हट जाना.
हमारे इतिहास के प्रभात में ही जनक और याज्ञवल्क्य ने कहा था कि जनता के नेताओं का
काम जनता को निर्भय बनाना है...... चारों
तरफ समाये हुए इस डर के खिलाफ ही गांधी की शांत, लेकिन दृढ़
आवाज़ उठी— “डरो मत!” और यह ‘डरो मत’ राजनारायन का मंत्र था।
अपने
स्वभाव के बारे में एक जगह उन्होने कहा है--‘ मेरी आदत ही कुछ ऐसी खराब है कि जो कुछ मैं जानता
हूँ ,उसे छिपाना नहीं चाहता’। जैसे
कम्युनिस्ट पार्टी के बारे में उनकी अपनी राय है- ‘कम्युनिस्ट पार्टी को पनपने के लिए तीन ‘एफ’ हैं। ‘फियर, फ़्राड और
फ्रस्टेशन’। इस परिभाषा से कोई सहमत हो या न हो । लेकिन जब जो
मन में आया नेताजी ने कह दिया और आगे बढ़ गए।
आज
जो हम भ्रष्टाचार रूपी पूतना को देख रहें हैं उसकी तरफ उन्होने 1952-53 में ही
सरकार का ध्यान आकर्षित किया था- “हम चारों तरफ देखे, चाहे किसी विभाग को देखें,चारो तरफ करप्शन ही
करप्शन दिखाता है”। भविष्य का संकेत भी
करते हैं-“जहां तक मेरी जानकारी है राजनीतिक और आर्थिक शोषण दोनों का अविछिन्न
संबंध है। जिस मुल्क की जैसी आर्थिक व्यवस्था होगी वैसी ही राजनीतिक व्यवस्था होगी”
। लगे हांथ उपचार भी बताते हैं-“पाँच मूल तंत्र होते हैं जनतंत्र में- 1)व्यक्ति का
स्थान अलग,2)पार्टी का स्थान अलग,3)स्टेट
का स्थान अलग और 4)सोसाइटी का स्थान अलग। कोई भी दो मिलकर जनतंत्र का नुकसान ही
करती हैं”। हम अपने अनुभव से जानते हैं कि
आज जो समाज में चौतरफा गिरावट आई है उनके मूल में किन्हीं दो या तीन का मिलना ही
है। विधान सभा उनका दर्द छलक पड़ता है-“जो ढांचा जो नक्शा अंग्रेज़ यहाँ छोड़कर गया
था उसको तोड़कर क्या कोई नई जिंदगी पैदा की जा रही है ? नई जिंदगी
नहीं पैदा की जा रही है,बल्कि पुरानी शराब को किसी नई बोतल
में रखकर नई जिंदगी बनाने का का स्वप्न देख रहे हैं जो हो ही नहीं सकता”।
राजनारायणजी
का व्यंग्य भी अद्भुत होता था- शतबुद्धि: शिरस्यों$यं,लंबते छ सहस्त्रधी: / एक बुद्धि रहं भदरे?क्रीड़ामि
विमले जले// ‘यानि एक बुद्धि से काम हो तो वह ठीक हो सकता है
लेकिन माननीय मंत्रीजी तो अपने सिर पर शतबुद्धि लिए हुई हैं। मालूम होता है कि हजारों
बुद्धि लटकाये चलते हैं’।
एक
और व्यंग्य मिश्रित तथ्य देखिये-“मैं इतिहास से यह उदाहरण दे सकता हूँ कि जब-जब
साधुता के द्वारा या दानी या भिखारी बनाकर लोग सियासत में आए,तब तब मामला गड़बड़ हुआ। रावण ने भी भिखारी बनाकर सीता का हरण किया था। कर्ण
को दानी बनाकर उसका कवच हरण कर लिया गया । विष्णु ने भिखारी बनाकर तीन कदमो में
सारे विश्व को नाप लिया”।
राजनारायणजी
की सामाजिक चेतना अद्भुत है जिसमें अतीत,वर्तमान और
भविष्य ये तीनों ही स्मृति अनुभव-सत्य और आकांक्षा के रूप में उपस्थित हैं। अपनी
सर्जक दृष्टि में उन्होने ‘शास्त्रों के गंभीर आलोड़न’ और ‘अनभैं साँचा’ दोनों को
समान स्थान दिया है। उनका सर्जक व्यक्तित्व जड़ से जुड़ा हुआ है। परंपरा को समझने के
लिए यह एक अनिवार्य शर्त है। केवल ‘आउटसाइडर’ अर्थात अजनबी दृष्टि से इसे नहीं पहचाना जा सकता है। इसे ‘इनसाइडर’ दृष्टि के बल पर ही उन्होने परंपरा और
इतिहास के मर्म को पहचाना और तदनुसार अपने व्यक्तित्व की निर्मिति की। इसी बिना पर
हम उनके जीवन में तमाम ‘शबरी और निषाद प्रसंग’ के उदाहरण देख पाते हैं-वह घर से विद्रोह हो या मंदिर में हरिजन प्रवेश
हो। हर जगह राजनारायणजी का व्यक्तित्व निखर कर सामने आया है। वे गांधी का उदाहरण
भी देते हैं-“पूज्य बापूजी भी पुरानी संस्कृति परम्पराओं और गौरव और पाठ पढ़ाते
रहते थे और नवीन मान्यताओं से उनको वजनी बनाते रहते थे”।
आरक्षण
जैसे विवादित मुद्दे पर उनका विचार है- एस सी आज शिक्षित नहीं है।,पिछड़ी हुई हैं, जाति और सामाजिक विभिन्नताएँ भी हैं,सामाजिक डाँड-मेड़ है। ...वरना किसी जाति के आधार पर किसी के लिए सीट
सुरक्षित करना शोभनीय नहीं है”। आज जब
चारो तरफ सरकारी आवास योजना को लेकर वाहवाही लूटी जा रही है उसकी तरफ आजादी के
तुरंत बाद ही उन्होने कहा था-“कितने आदमी इतने गरीब हैं जो रहने के लिय घर नहीं
बना पाते वे सड़कों की पटरियों पर सो जाते हैं। उनके लिए कोई कोआपरेटिव स्कीम चलायी
जाए”।
‘गोवध-गो
हत्या’ जैसे मुद्दे पर बोलते हुई तब के जमाने के हिसाब से
उन्होने एक मुकम्मल प्रस्ताव रखा था- उत्तम नस्लों के सांड,
खेती को मुनाफ़ादायक बनाने पर ज़ोर दिया था। सांप्रदायिकता और जातिवाद के खिलाफ खुलकर न केवल लड़ते थे अपितु सरकार को घेरने का हर
उपाय करते थे। देश के प्रति उनकी चिंता अद्भुत है। जनसंख्या वृद्धि और उसके उपाय
पर भी राजनारायणजी ने अपनी बात बहुत गंभीरता से रखी है। जिन बातों को लेकर आज ‘पैडमैन’ जैसी फिल्में बनाई जा रहीं हैं या सोसल
मीडिया से लेकर व्हाटसैप यूनिवर्सिटी पर चर्चा हो रही है उस पर नेताजी ने बहुत
पहले ही ध्यान दिलाया था –“भारत वर्ष में प्रत्येक मनुष्य पति-पत्नी का संबंध रखने
वाला प्रत्येक व्यक्ति जानता है। इसे सेफ पीरियड कहते है। इस ‘सेफ पीरियड’ पर भी चर्चा होनी चाहिए”।
यह
हमारा दुर्भाग्य है कि ऐसे मनीषी और शिक्षित जनता के बीच एक अपरिचय की स्थिति बनी
हुई है । इस अपरिचय की स्थिति को तोड़ने का सर्वाधिक उत्तम उपाय है विमर्श और
अध्ययन । आज की पीढ़ी क्या यह करने को तैयार है ?उम्मीद तो यही है कि भावी पीढ़ियों
द्वारा निश्चित रूप से उनको लेकर कुछ
महत्वपूर्ण कार्य किए जाएँगे।
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