भारतीय कला का भागीरथ :आनंद कुमारस्वामी
मनोज
कुमार राय
“माँ ,
इन चित्रों के सामने आप आँख मूंदकर हाथ जोड़े हुए क्यों खड़ी हैं?
ये कौन लोग हैं?”
“ इनमें एक तुम्हारे पिता
हैं और दूसरे भगवान कुमारस्वामी हैं।” नन्हें बालक के प्रश्नों का माँ ने
मुस्कराते हुए उत्तर दिया।
“लेकिन मैंने तो अपने पिताजी
को कभी देखा नहीं! अभी वे कहाँ हैं?”
माँ ने उत्तर दिया-“अब वे
भगवान कुमारस्वामी के साथ हैं। ”
बालक ने कौतूहल से पूछा-“
क्या भगवान के छः मुख होते हैं?”
माँ ने उत्तर देते हुए कहा-“हाँ। भगवान के छः मुख भी होते हैं और अनंत मुख भी।
आपके पिता अब इन्हीं के साथ हैं। वे इन्हीं के उपासक थे। आपका नाम इसीलिए इनके नाम
पर कुमारस्वामी रखा गया। आप भी आँख मूंदकर हाथ जोड़कर इन्हें प्रणाम करो।”
बालक ने आज्ञा का पालन किया ।
हिन्दू धर्म-दर्शन –चिंतन से यह उसका प्रथम परिचय था । गांधी ने अपनी आत्मकथा में
लिखा है- “बचपन में सीखी हुई बातें ही बाद के जीवन में प्रस्फुटित होती हैं।”
कुमारस्वामी
का जन्म 22 अगस्त 1877 को श्रीलंका में हुआ
था। इनके पिता मुथु कुमारस्वामी तमिल हिन्दू परिवार से थे। वे एक प्रतिष्ठित
व्यक्ति थे। भारतीय दर्शन-खास तौर से बौद्ध दर्शन(उन्होने दो पाली ग्रन्थों का
अँग्रेजी में अनुवाद भी किया था) और पाश्चात्य साहित्य में उनकी गहरी रुचि थी।
कुमास्वामी को अपने पिता से संस्कार में ही नाम-अभिरुचि मिल गई थी। ‘आनंद’
नाम
बुद्ध के प्रिय शिष्य के नाम पर रखा तो ‘कुमारस्वामी’
धर्म-देवता के नाम पर। बीच का नाम ‘केंटिश’माँ
एलिज़ाबेथ क्ले के गृह-प्रदेश का द्योतक है। कुमास्वामी मात्र दो वर्ष के थे जब
उनके पिता का निधन हो गया। एलिज़ाबेथ क्ले तब महज तीस वर्ष की थीं। नन्हें शिशु को लेकर वे अपने मायका इंगलैंड लौट
आईं । हिन्दू-चिंतन पद्धति से गहरे प्रभावित एलिज़ाबेथ क्ले ने अपना पूरा ध्यान बालक
आनंद के शिक्षा-दीक्षा पर लगा दिया। उन्होने आनंद को भारतीय धर्म-दर्शन के अध्ययन
हेतु प्रेरित किया। कुमारस्वामी ने भी अपनी माँ को निराश नहीं किया । माँ की मृत्यु के पश्चात आनंद ने लिखा,
“मुझे विश्वास है कि मैंने अपने अध्ययन और कार्य से माँ की इच्छा को कुछ हद तक
पूरा किया है।”
कुमारस्वामी
ने पहले वाइक्लीफ़ कालेज तथा बाद में लंदन विवि से अपनी शिक्षा पूरी की । उनकी
शिक्षा मुख्यत: विज्ञान की थी,यद्यपि
कि रस्किन आदि के प्रभाव में आ गए थे। “श्रीलंका की भौमिकी” पर डी एस सी की उपाधि
प्राप्त करने वाले ये प्रथम श्रीलंकाई थे। पचीस वर्ष की अवस्था में ही इन्हें
श्रीलंका के विज्ञानीय सर्वेक्षण के निदेशक पद पर नियुक्त किया गया। 1903 से 1906
के बीच इस पद पर कार्य करते हुए इंहोने श्रीलंका के गांवों की यात्रा की। सिंहल
द्वीप के प्राचीन उद्योग धंधे ,कला,रहन-सहन,और
जीवन की सुंदर जीवन पद्धति पश्चिम के प्रहार और जीवन में बढ़ती हुई कुरूपता को देखकर कुमारस्वामी अत्यंत चिंतित
हुए ।उन्होने अपनी नग्न आँखों से देखा कि किस तरह पाश्चात्य औद्योगिक सभ्यता ने यहाँ की दस्तकारी और कला को नष्ट किया है।
उन्हें कहना पड़ा-‘एशिया को बचाओ! उसका आदर्शवाद खतरे
में है’। उनकी रुझान प्राच्य संस्कृति के विभिन्न
पक्षों विशेषकर ललित कलाओं की तरफ दिनोदिन
बढ़ती जा रही थी। जल्दी ही उन्हे यह महसूस हुआ कि उनके जीवन का मूल उद्देश्य ‘भौमिकी’
नहीं ‘कला’
का क्षेत्र है। मातृभाषा की शिक्षा और प्राचीन कला और शिल्प के विषय में अपने
देश-वासियों की रुचि जागृत करने के लिए उन्होने न केवल “सीलोन रिफ़ार्म
सोसाइटी”(1905) की स्थापना की अपितु अपने संपादकत्व में ‘सीलोन
नेशनल रिव्यू’ नामक एक पत्र भी 1906 में
प्रकाशित किया ।
वर्ष
1906 कुमारस्वामी के जीवन का एक महत्वपूर्ण पड़ाव है। उन्होने भौमिकी के क्षेत्र से
स्वयं को पूरी तरह से कला-इतिहास के प्रति समर्पित कर दिया । एक सुबह उन्होने
श्रीलंका की धरती को प्रणाम किया और वहाँ से नए क्षितिज की तलाश में भारत पधारे । भारत
में कुछ महीने गुजारने के बाद वे इंगलैंड
चले गए । अगले दस वर्षों तक उन्होने भारतीय धर्म-दर्शन का गहन अध्ययन किया। लंदन
में एक पुराना घर खरीदा और वहीं पर एक प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना की। पति-पत्नी
मिलकर कुछ महत्वपूर्ण पुस्तकों का प्रकाशन भी किया । इस बीच उनका भारत और इंग्लैंड
के बीच आवागमन होता रहा। वे टैगोर के निकट होने के साथ-2 वे भारत की आजादी-आंदोलन
की तरफ भी आकृष्ट हुए । महात्मा गांधी से कुमारस्वामी बहुत प्रभावित थे । गांधी से
उनकी मुलाकात लंदन में 1914 में हुई ।
कुबेरनाथ
राय अपने एक निबंध ‘जंबूदीपे-भरतखंडे’
में लिखते हैं-“हमारी भारतीय साधना,शिल्प,साहित्य
एवं दार्शनिक चिंता आदि की उच्चतम स्थितियों में ‘चिन्मय
भारत’ ही व्यक्त होता है।”
कुमारस्वामी इसी ‘चिन्मयता’
पर मुग्ध हैं। उनके लिए यह भौगोलिक सत्ता नहीं अपितु ‘एक
प्रकाशमय,संगीतमय भाव-प्रत्यय या
चैतन्य-प्रतिमा’ का सहज बोध है। एक बार एक कला आलोचक सर जार्ज बर्डवुड ने अपने एक
व्याख्यान में बुद्ध मूर्ति का उदाहरण देते हुए कहा कि पूरब के कलाकार
मूर्ति-चित्र आदि बनाते तो जरूर हैं पर वे नहीं जानते कि ‘सौंदर्य’
क्या है? यह मूर्ति सिवा बुरादा की
खिचड़ी के अलावा कुछ नहीं है। कुमारस्वामी ने महसूस किया कि बर्डवुड आदि वस्तुत:
पौर्वात्य कला-इतिहास के उत्पत्ति-औदात्य से कत्तई अपरिचित हैं। उन्होने इसे एक
चुनौती के रूप में स्वीकार किया और कुछ ही समय बाद ‘ओरिजिन
आव बुद्ध इमेज’ नामक पुस्तक लिखकर
करारा जबाब दिया। समय मिलते ही उन्होने पत्नी के साथ श्रीलंका की एक और यात्रा की । इस यात्रा के परिणाम यह रहा कि
कुमारस्वामी के पास नई पुस्तक के लिए विपुल मात्रा में सामग्री मिल गई। भारतीय कला
परंपरा को लेकर उन्होने ‘आर्ट
एंड स्वदेशी’ नामक पुस्तक लिखी। इस
पुस्तक की प्रशंसा विश्व भर में हुई।
समय
के साथ कला और सत्य के प्रति कुमारस्वामी का आग्रह बढ़ता जा रहा था। दुबारा 1910
में इंडिया ओरिएंटल सोसाइटी के निमंत्रण पर भारत आए और इलाहाबाद कला प्रदर्शन के
संयोजक नियुक्त हुए । इस अवसर का लाभ उठाते हुए उन्होने सामग्री-संग्रह के लिए
उत्तर-दक्षिण की यात्रा की और की भारतीय कलाकृतियों- मूर्तियों- चित्रों का एक बड़ा
खजाना इकठ्ठा कर लिया। प्रदर्शनी के बाद
इस संग्रह को वे भारतवर्ष के किसी कला-संग्रहालय को देना चाहते थे। उनके मन में यह
बात बैठ गई थी कि भारत की सेवा का माध्यम
उनके लिए कला है। इसे मूर्त रूप देने के
लिए उन्होने बनारस में अपने लिए नौकरी की तलाश भी की। उनकी इच्छा थी की काशी में
इस तरह का कोई संस्थान बने। उन्होने अपने द्वारा संग्रहीत कलाकृतियों को दान देने
की भी पेशकश की। इसके लिए उन्होने एक अपील
भी निकाली। पर दुर्भाग्य से उस वक्त किसी संस्था,सरकार
या मर्मज्ञ ने इस पर ध्यान नहीं दिया । डिलथे ने कहीं लिखा है कि -‘जीवन
संयोग,भाग्य और चरित्र के
ताने-बाने बुना एक रहस्यमय कपड़ा है।’ अंतत:
भारतीय कला के इस भागीरथ की योग्यता की असल पहचान सुदूर बैठे हार्वर्ड विवि के कला-पारखी प्रो रास
ने समझा और उन्हे बोस्टन संग्रहालय के भारतीय कला विभाग के अध्यक्ष पद पर कार्य करने का आमन्त्रण भेजा । इस तरह अपने संग्रह सहित कुमारस्वामी
अमरीका पहुँच गए । बोस्टन में लगभग “30 वर्षों तक ‘विशुद्ध
मनीषी’ के रूप में केवल मात्र सत्य
और ज्ञान की लालसा से प्रेरित होकर अध्ययन और संग्रह,
व्याख्या और विश्लेषण करते रहे।” यह उनके अविराम परिश्रम का ही फल था विश्व
प्रसिद्ध ब्रिटेनिका विश्वकोश को अपने 14वें संस्करण में ‘भारतीय
कला’ को एक विषय के रूप में
स्वीकार करना पड़ा। कुमारस्वामी ही वह पहले व्यक्ति हैं जिंहोने सर्वप्रथम
राजस्थानी और पहाड़ी कला का ठीक मूल्यांकन किया और भारतीय कला में आनंद और सौंदर्य
का अक्षय भंडार खोज निकाला । उनके लिये ‘कला
मन अथवा बुद्धि का कौतूहल मात्र नहीं है ।
कला का सच्चा आसान इससे बहुत ऊंचा है और उतना ही अनिवार्य है जितना धर्म,अध्यात्म
और दर्शन का’।
कार्लाइल के शब्दों में बड़भागी वह है जिसे अपने
जीवन का कार्य करने के लिए मिल जाय,उसे
फिर किसी और वरदान की चाह नहीं करना चाहिए । इस मामले में कुमारस्वामी भाग्यशाली
हैं। पिता का संस्कार ,माँ
की इच्छा और स्वयम की अभिरुचि का कार्य ही उनके जीवन का उद्देश्य बन गया। इसमें
उन्होने अपना शत-प्रतिशत लगा दिया । ‘सृष्टि-स्थिति-प्रलय-तिरोभाव-अनुग्रह’
भाव से युक्त चिदम्बरम शैली के ‘नटराज’-प्रतिमा
की सांगोपांग व्याख्या पहली बार अभारतीय विश्व के सम्मुख भारतीय कला के भागीरथ
आनंद कुमारस्वामी ने ही अपने निबंध संग्रह ‘दी
डांस आव शिव’ के माध्यम से रखा। उन्होने ‘नटराज’
के इस नृत्य की तुलना लूसियन द्वारा उल्लिखित ‘ईरास’(काम
शक्ति) सृष्टि-नृत्य से की है जिससे
सृष्टि का सूत्रपात होता है। यद्यपि कि श्री कुबेरनाथ राय ने ‘नटराज’-
नृत्य को उससे वृहत्तर कल्पना मानते हुए कहते हैं कि –“नटराज-नृत्य की कल्पना से
कोई तुलना ही नहीं हो सकती।” एक योग्य उत्तराधिकारी से इससे बेहतर क्या उम्मीद हो
सकती है कि वह अपने पूर्वजों की थाती को और भी पुष्ट-तुष्ट करे । कुमारस्वामी इस
पर एकदम खरे उतरते हैं।
कुमारस्वामी
इस बात से भी व्यथित हो जाते थे कि भारतीय अपने विरासत को न तो जानते हैं न ही उसे
समझने की कोशिश करते हैं । अध्ययन के लिये
अमेरिका आये भारतीय छात्रो के एक
समूह को सम्बोधित
करते हुए उन्होने
कहा –“आपको अपने भारतीय संस्कृति ,परम्परा,
और गौरव शाली अतीत
को कभी नहीं भूलना
चाहिये । आपको एक राजदूत
की तरह कार्य करना होगा और आप कही भी जायेँ आपको भारतीय बनकर ही
रहना चाहिये।”
कुमारस्वामी
के मन में आत्मप्रचार के लिए कोई जगह नहीं
थी । इस मामले में वे अपने पूर्वजों के अनुयायी हैं । मंत्र-मूर्ति-काव्य आदि जो
कुछ भी हो हमारे पूर्वजों ने नाम आदि पर कभी ध्यान नहीं दिया-‘त्वदीयम
वस्तु गोविंदम तुभ्यमेव समर्पये’। उनके
एक मित्र ने उनसे आत्मचरित लिखने का आग्रह किया। उन्होने कहा-“आत्मचरित लिखने के
विचार के लिए मेरे मन में कोई स्थान नहीं है। मैं एकांत में रहना चाहता हूँ.
मेरे बारे में
लिखने अच्छा होगा कि आप
मेरी पुस्तको के बारे
में लिखो । उनका मूल्यांकन करो ।
यही मेरे लिये पर्याप्त होगा । मैं भारतीय संस्कृति का
पुजारी हूँ और इस परम्परा में मोक्ष के लिये आत्मकथा लिखना अनिवार्य नहीं
है । मुझे इस पर पूरा विश्वास है । यह सिर्फ विनम्रता नहीं है । यह मेरे
जीवन का सिद्धांत है ।”
कुमारस्वामी
ने भारत की आजादी के शुभ अवसर पर हार्वर्ड
विवि में एक व्याख्यान दिया । आजादी की लडाई में गांधी के योगदान को सराहते हुए
कहा -“ मुझे उस देश पर गर्व है जिसका झंडा
न केवल राष्ट्रवादी है अपितु मनुष्य और जगत के आपसी सम्बंधों की तरफ भी
इशारा करता है।”
बोस्टन के हार्वर्ड क्लब में अपने सत्तरवे जन्म दिन के अवसर पर अयोजित विदाई समारोह में अपने भविष्य की योजना
के बारे में बताते हुए कहा-“ मेरा और मेरी
पत्नी की अगले वर्ष भारत (अपने घर) लौटने की योजना है।” ये शब्द बताते हैं कि कुमारस्वामी भले ही
अमेरिका में दशको तक काम करते रहे हो पर उनका भारत से आध्यात्मिक जुडाव समय
के साथ
और गहराता ही गया। भारत के अन्य
विख्यात कल-इतिहास मर्मज्ञ वासुदेव शरण अग्रवाल को एक पत्र में उन्होने लिखा-“
इस समय आत्मा पर एक महाग्रंथ लिखने में
लगा हूँ । उसके पूरा होने पर भारत लौटने की इच्छा है।” पर दुर्भाग्य से उनका यह सपना साकार नहीं हो पाया । भारतीय कला-गौरव का यह उद्धारक-मनीषी
भारत-अपने घर- लौटने की इच्छा लिये हुए बोस्टन में ही 9 सितम्बर 1947 को सदा के
लिये आंखे मूंद ली ।
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