विमर्शों
में कराहता ‘गांधी-विमर्श’
बुद्ध-महावीर के काल से ही भारतीय सभ्यता में
त्यागी-तपस्वियों के प्रति
आदर-समर्पण का भाव रहा है। इसी परंपरा की एक
अभिन्न कड़ी महात्मा गांधी भी हैं। गांधी के जीवन-दर्शन पर सर्वप्रथम उनके अभिन्न मित्र मि डोक और डा
मेहता ने कलम चलाया था। डा मेहता ने तो भारतीय राजनीति के उस समय के एक बड़े नेता गोपाल कृष्ण गोखले को लिखा था - “ मुझे लगता है कि जिस किसी को भी
अपने देश के लिए काम करने की इच्छा हो तो उसे गांधी और उसके संस्थानों/आश्रमों का
अध्ययन करना चाहिए।” तब गांधी दक्षिण अफ्रीका
में अपने लोगो के हक और हुकूक की लडाई लड़ रहे थे। गांधी-दर्शन पर डोक और मेहता के द्वारा 1907 से शुरू हुआ लेखन आज भी बदस्तूर जारी है।
गांधी
पर सुचिन्तित अध्ययन-लेखन उनके जीवन काल में ही शुरू हो गया था। आजादी के बाद भी
रचनाकार,समाज वैज्ञानिक,कलाकार
अपने-2 तरीके से गांधी को व्याख्यायित भी कर रहे थे। पर एटनबरो की फिल्म ‘गांधी’,
जिसने कई आस्कर अवार्ड भी जीते थे, के
आने के बाद तो जैसे गांधी अचानक ग्लोबल हो गए । गांधी-चिंतन के कई पक्ष जो अभी भी
अनुछुए थे, उस पर लोगों ने अपनी
कलम चलाई । गांधी एक ‘अनुशासन’
के रूप में उभरकर सामने आए। दुनियां ने अपनी तमाम समस्याओं से निजात पाने के लिए
गांधी की तरफ आशा भरी नजरों से देखा। समीक्ष्य पुस्तक का लेखक भी इससे अछूता नहीं
है-“सवाल चाहे धर्म,राजनीति एवं शिक्षा
का हो अथवा प्रौद्योगिकी,पर्यावरण
एवं विकास का,सभी का जबाब एक है-‘गांधी’!’गांधी’,
‘सिर्फ गांधी’
और ‘गांधी के सिवा कुछ भी नहीं’!!”(पृ10)
यह महज संयोग नहीं है कि पुस्तक के लेखक का जन्म-वर्ष
और रिचर्ड एटनबरो की फिल्म ‘गांधी’
का परदे पर आने का वर्ष एक ही है। लगता है कि लेखक को अभिमन्यु की तरह गर्भ में ही गांधी-चिंतन की
घुट्टी पिला दी गई थी। वरना आसान नहीं होता है एक वर्ष के भीतर ही लगभग एक ही तरह
के दो पुस्तकों ( गांधी-चिंतन और
गांधी-विमर्श )का सम्पादन-सृजन । गांधी के प्रति लेखक में गहरा आकर्षण है जिसे
पुस्तक के प्रत्येक पृष्ठ पर देखा जा सकता है। यह लेखक की ईमानदारी ही है कि उसने अपने ‘आत्मकथन’
में यह स्वीकार किया है कि-“ इस पुस्तक
में प्रस्तुत विचार मुख्यत: गांधी के ही हैं,इसलिए
एक तरह से इसका सारा श्रेय उन्हीं को जाता है।”(पृ 10) वरना आज की पेटेंट प्रिय
दुनिया में ‘आइडिया’
से लेकर ‘संस्थान-उत्पाद’
तक हर जगह ‘यह हमारा है’
की होड़ लगी हुई है।
गांधी
को पढ़ने-सुनने का अवसर मुझे भी मिला है । पर मेरे अनुभव कुछ भिन्न किस्म के रहें
हैं। सच तो यह है कि ‘गांधी’
अपने
पर कलम चलाने वाले किसी भी लेखक से अंतहीन धैर्य और उदात्त कल्पना की मांग करते
हैं। स्वयं उन्होने अपने जीवन में इस सिद्धांत का पालन किया था । ‘जब
उनसे (मुझसे) से नहीं रहा गया तभी लिखा’।
यह नहीं कि कभी ‘पुस्तक मेला’
लगने
वाला हो अथवा कोई ‘साक्षात्कार-सम्मेलन’
नजदीक हो तो झट कलम उठाया और लिख मारा ।आजकल ‘संचयन’
और
‘रचनावली’
की बाढ़ सी आई हुई है। जिसे देखिये वही इस प्रक्रिया में अपने को झोंके हुए है। इस
तरह के लेखन-संचयन पर हमारे एक आत्मीय आचार्य वागीश जी ने एक बार हास्य टिप्पणी
करते हुए कहा था - “ संचयन में तो पेंसिल की जरूरत भी पड़ती है ,
रचनावली में तो उसकी भी जरूरत नहीं है।” वस्तुत: रचना–प्रक्रिया में लेखक स्वयं को भूल
जाता है। यह एक जटिल और श्रमसाध्य क्रिया है । प्लोतिनस ने इस प्रक्रिया की बड़ी सुंदर व्याख्या की है।
उसने लिखा है- “बाहर से अपने को खींचकर भीतर ले जाओ और द्रष्टा बनकर वहाँ जो है,उसे देखो। अगर तुम्हें अंतर्निहित
तात्विक सौंदर्य का अनुभव नहीं होता तो मूर्ति को सौंदर्य प्रदान करने के प्रयत्न
में लगे शिल्पकार की विधि को अपनाओ। वह छेनी और हथौड़ी से पत्थर को विधिवत तराशते
हुए तब तक काम में लगा रहता है,जब तक मूर्ति बन नहीं जाती।”
दरअसल
गांधी केवल कलम-दवात-स्याही की वस्तु ही नहीं है। वह तो कुछ और ही हैं । गांधी
रुक्मिणी के श्रद्धा रूपी तुलसी दल से तुलने वाले हैं न कि सत्यभामा के
हीरे-जवाहरात से। हीरे-जवाहरात से तौलने के भ्रम में ही हम अपना पथ भूल गए हैं। आजकल यह फैशन में आ गया है जब मन कियागांधी को राजनीतिक रूप से दोषी ठहरा दो नहीं तो उनपर भक्ति भाव से कलम चला दीजिये। विमर्शों
की इस भागमभाग में परिणाम यह हुआ कि गांधी
पर पुस्तकों की बाढ़
सी
आ गयी । सबसे आसान टापिक गांधी ही हो
गए। हर कोई गांधी से दो-दो हाथ करने के लिए तैयार बैठा है। पर यह क्या इतना आसान
है ? टामसन के शब्दों में देखिये
-“ तीन घन्टे तक उन्हे छाना
गया और उनसे जिरह
की गई . ....यह काफी
थका देने वाली
परीक्षा थी ,
लेकिन वह
एक क्षण के
लिये भी विचलित या निरूत्तर
नहीं हुए । मेरे
हृदय में पूर्ण विश्वास
जम गया कि परम आत्म-संयम और
अनुद्विग्नता के मामले में संसार ने सुकरात के समय से आज तक इनकी टक्कर का
पैदा नहीं किया।” सच
तो यह है कि गांधी
तक पहुंचने का रास्ता ध्यान-मौन-निष्काम कर्म के संकुल से होकर गुजरता है । जो इस
रास्ते से गया उसे
एक दृष्टि मिली और वह
अपने धुन
में रम गया। उसे न
कलम चलाने की जरूरत
पड़ी न विमर्शो
में उलझना पड़ा । वह तो ‘
एकला चलो
रे’ का
पथिक बन एक
राह पकड़कर किसी
रचनात्मक कार्य की तरफ बढ़ गया। समीक्ष्य पुस्तक के लेखक ने इस ओर इशारा
भी किया है –“गांधी विचार या हिन्द-स्वराज ‘कहने’
से नहीं ‘करने’
से करीब आयेगा।” (पृ 135)
‘राष्ट्र
से लेकर भूमंडलीकरण’ तक के तेरह अध्यायों
में विभक्त ‘गांधी-विमर्श’
में वाक्यांशों की भरमार है।आजकल जिन विमर्शों ने अपने घटाटोप में ‘संगोष्ठी-कार्यशाला’
को घेर रखा है उससे संबन्धित तमाम उद्धरण जो गांधी द्वारा समय-समय पर यत्र-तत्र
दिये गए हैं, उसे लेखक ने एक जगह
प्रस्तुत कर एक श्लाघनीय कार्य किया है। इसे उसने स्वयं स्वीकार भी किया है -“गांधी-विमर्श
की आवश्यकता एवं उपयोगिता स्वयंसिद्ध है।”(पृ 10) समीक्ष्य-पुस्तक लेखक ने हिंद-स्वराज
की प्रशंसा में जमकर कसीदे गढ़ा हैं,पर
हिन्द-स्वराज की ही एक प्रसिद्ध उक्ति ‘पहले
के लोग कम लिखते थे.......’ को
नजरंदाज करते हुए ‘सृजन-सम्पादन’
का कीर्तिमान रचने की ओर अग्रसर है। इस तरह की रचना ‘एपीआई’
की
पूर्ति के लिए तो ठीक है पर कोई सार्थक अवदान देने में असफल साबित होती हैं जो
किसी भी रचना की मुख्य प्रतिज्ञा होती है। ‘गांधी-विमर्श’
के लेखक ने जिन चीजों का अपने लेखन में विरोध किया है उसी का अनुपालन वह करता हुआ
दिखता है जो उसके हड़बड़ी और प्रकाशन-लोभ को
दर्शाता है। उसने स्वीकार भी किया है कि उसने समय–समय पर संगोष्ठी-पत्रिका में
अपने प्रस्तुत-प्रकाशित लेखों को क्रमवार
इकट्ठा कर पुस्तक का रूप दिया है।(पृ 10) ‘सौन्दर्य-प्राण-सर्जन तो तब सामने आता है जब सही बोध
क्रियाशील रहता है’। इस
बात को हर लेखक को ध्यान में रखना चाहिए ।
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