Monday, December 14, 2015

विमर्शों में कराहता गांधी-विमर्श
 बुद्ध-महावीर के काल से ही भारतीय सभ्यता में त्यागी-तपस्वियों के प्रति आदर-समर्पण का भाव रहा है।  इसी परंपरा की एक अभिन्न कड़ी महात्मा गांधी भी हैं। गांधी के जीवन-दर्शन पर  सर्वप्रथम उनके अभिन्न मित्र मि डोक और डा मेहता ने कलम चलाया था। डा मेहता ने तो भारतीय राजनीति के उस समय के एक बड़े नेता गोपाल  कृष्ण गोखले को  लिखा था - “ मुझे लगता है कि जिस किसी को भी अपने देश के लिए काम करने की इच्छा हो तो उसे गांधी और उसके संस्थानों/आश्रमों का अध्ययन करना चाहिए।” तब  गांधी दक्षिण अफ्रीका में अपने लोगो के हक और हुकूक की लडाई लड़ रहे थे। गांधी-दर्शन पर  डोक और मेहता के द्वारा 1907 से शुरू हुआ लेखन आज  भी बदस्तूर जारी है।
गांधी पर सुचिन्तित अध्ययन-लेखन उनके जीवन काल में ही शुरू हो गया था। आजादी के बाद भी रचनाकार,समाज वैज्ञानिक,कलाकार अपने-2 तरीके से गांधी को व्याख्यायित भी कर रहे थे। पर एटनबरो की फिल्म गांधी’, जिसने कई आस्कर अवार्ड भी जीते थे, के आने के बाद तो जैसे गांधी अचानक ग्लोबल हो गए । गांधी-चिंतन के कई पक्ष जो अभी भी अनुछुए थे, उस पर लोगों ने अपनी कलम चलाई । गांधी एक अनुशासन के रूप में उभरकर सामने आए। दुनियां ने अपनी तमाम समस्याओं से निजात पाने के लिए गांधी की तरफ आशा भरी नजरों से देखा। समीक्ष्य पुस्तक का लेखक भी इससे अछूता नहीं है-“सवाल चाहे धर्म,राजनीति एवं शिक्षा का हो अथवा प्रौद्योगिकी,पर्यावरण एवं विकास का,सभी का जबाब एक है-गांधी’!’गांधी’, ‘सिर्फ गांधी और गांधी के सिवा कुछ भी नहीं’!!”(पृ10)
  यह महज संयोग नहीं है कि पुस्तक के लेखक का जन्म-वर्ष और रिचर्ड एटनबरो की फिल्म गांधी का परदे पर आने का वर्ष एक ही है। लगता है कि लेखक को  अभिमन्यु की तरह गर्भ में ही गांधी-चिंतन की घुट्टी पिला दी गई थी। वरना आसान नहीं होता है एक वर्ष के भीतर ही लगभग एक ही तरह के दो  पुस्तकों ( गांधी-चिंतन और गांधी-विमर्श )का सम्पादन-सृजन । गांधी के प्रति लेखक में गहरा आकर्षण है जिसे पुस्तक के प्रत्येक पृष्ठ पर देखा जा सकता है। यह लेखक की ईमानदारी ही  है कि उसने अपने आत्मकथन में यह स्वीकार किया है  कि-“ इस पुस्तक में प्रस्तुत विचार मुख्यत: गांधी के ही हैं,इसलिए एक तरह से इसका सारा श्रेय उन्हीं को जाता है।”(पृ 10) वरना आज की पेटेंट प्रिय दुनिया में आइडिया से लेकर संस्थान-उत्पाद तक हर जगह यह हमारा है की होड़ लगी हुई है।   
गांधी को पढ़ने-सुनने का अवसर मुझे भी मिला है । पर मेरे अनुभव कुछ भिन्न किस्म के रहें हैं। सच तो यह है कि गांधीअपने पर कलम चलाने वाले किसी भी लेखक से अंतहीन धैर्य और उदात्त कल्पना की मांग करते हैं। स्वयं उन्होने अपने जीवन में इस सिद्धांत का पालन किया था । जब उनसे (मुझसे) से नहीं रहा गया तभी लिखा। यह नहीं कि कभी पुस्तक मेलालगने वाला हो अथवा कोई साक्षात्कार-सम्मेलन नजदीक हो तो झट कलम उठाया और लिख मारा ।आजकल संचयनऔर रचनावली की बाढ़ सी आई हुई है। जिसे देखिये वही इस प्रक्रिया में अपने को झोंके हुए है। इस तरह के लेखन-संचयन पर हमारे एक आत्मीय आचार्य वागीश जी ने एक बार हास्य टिप्पणी करते हुए कहा था - “ संचयन में तो पेंसिल की जरूरत भी पड़ती है , रचनावली में तो उसकी भी जरूरत नहीं है।”  वस्तुत: रचना–प्रक्रिया में लेखक स्वयं को भूल जाता है। यह एक जटिल और श्रमसाध्य क्रिया है । प्लोतिनस ने इस प्रक्रिया की बड़ी सुंदर व्याख्या की है। उसने लिखा है- “बाहर से अपने को खींचकर भीतर ले जाओ और द्रष्टा बनकर वहाँ जो है,उसे देखो। अगर तुम्हें अंतर्निहित तात्विक सौंदर्य का अनुभव नहीं होता तो मूर्ति को सौंदर्य प्रदान करने के प्रयत्न में लगे शिल्पकार की विधि को अपनाओ। वह छेनी और हथौड़ी से पत्थर को विधिवत तराशते हुए तब तक काम में  लगा रहता है,जब तक मूर्ति बन नहीं जाती।”  
दरअसल गांधी केवल कलम-दवात-स्याही की वस्तु ही नहीं है। वह तो  कुछ और ही  हैं । गांधी  रुक्मिणी के श्रद्धा रूपी तुलसी दल से तुलने वाले हैं न कि सत्यभामा के हीरे-जवाहरात से। हीरे-जवाहरात से तौलने के भ्रम में ही हम अपना पथ भूल गए हैं। आजकल  यह फैशन में आ गया है जब मन कियागांधी को  राजनीतिक रूप से दोषी ठहरा दो  नहीं तो उनपर भक्ति भाव से कलम चला दीजिये। विमर्शों की इस भागमभाग में परिणाम यह हुआ कि गांधी  पर  पुस्तकों  की  बाढ़  सी  आ  गयी । सबसे आसान टापिक गांधी ही हो गए। हर कोई गांधी से दो-दो हाथ करने के लिए तैयार बैठा है। पर यह क्या इतना आसान है ? टामसन के शब्दों में देखिये -“ तीन घन्टे  तक उन्हे  छाना  गया और  उनसे  जिरह  की  गई . ....यह   काफी  थका   देने  वाली  परीक्षा  थी , लेकिन  वह  एक  क्षण  के  लिये भी  विचलित या  निरूत्तर  नहीं हुए  ।  मेरे  हृदय में  पूर्ण  विश्वास  जम  गया कि परम  आत्म-संयम और  अनुद्विग्नता के मामले में संसार ने सुकरात के समय से आज तक इनकी टक्कर का पैदा नहीं  किया।”  सच  तो  यह  है  कि गांधी तक पहुंचने का रास्ता ध्यान-मौन-निष्काम कर्म के संकुल से होकर गुजरता है । जो  इस  रास्ते  से  गया उसे  एक दृष्टि  मिली  और  वह अपने  धुन  में रम गया।  उसे  न  कलम  चलाने  की जरूरत  पड़ी   न  विमर्शो  में  उलझना पड़ा ।  वह  तो एकला  चलो  रे  का  पथिक  बन  एक  राह  पकड़कर  किसी  रचनात्मक कार्य   की तरफ बढ़  गया। समीक्ष्य पुस्तक के लेखक ने इस ओर इशारा भी किया है –“गांधी विचार या हिन्द-स्वराज कहने से नहीं करने से करीब  आयेगा।” (पृ 135)
राष्ट्र से लेकर भूमंडलीकरण तक के तेरह अध्यायों में विभक्त गांधी-विमर्श में वाक्यांशों की भरमार है।आजकल जिन विमर्शों ने अपने घटाटोप में संगोष्ठी-कार्यशाला को घेर रखा है उससे संबन्धित तमाम उद्धरण जो गांधी द्वारा समय-समय पर यत्र-तत्र दिये गए हैं, उसे लेखक ने एक जगह प्रस्तुत कर एक श्लाघनीय कार्य किया है। इसे उसने स्वयं स्वीकार भी किया है -“गांधी-विमर्श की आवश्यकता एवं उपयोगिता स्वयंसिद्ध है।”(पृ 10) समीक्ष्य-पुस्तक लेखक ने हिंद-स्वराज की प्रशंसा में जमकर कसीदे गढ़ा हैं,पर हिन्द-स्वराज की ही एक प्रसिद्ध उक्ति पहले के लोग कम लिखते थे....... को नजरंदाज करते हुए सृजन-सम्पादन का कीर्तिमान रचने की ओर अग्रसर है। इस तरह की रचना एपीआईकी पूर्ति के लिए तो ठीक है पर कोई सार्थक अवदान देने में असफल साबित होती हैं जो किसी भी रचना की मुख्य प्रतिज्ञा होती है। गांधी-विमर्श के लेखक ने जिन चीजों का अपने लेखन में विरोध किया है उसी का अनुपालन वह करता हुआ दिखता है जो  उसके हड़बड़ी और प्रकाशन-लोभ को दर्शाता है। उसने स्वीकार भी किया है कि उसने समय–समय पर संगोष्ठी-पत्रिका में अपने  प्रस्तुत-प्रकाशित लेखों को क्रमवार इकट्ठा कर  पुस्तक का रूप दिया है।(पृ 10) सौन्दर्य-प्राण-सर्जन तो तब सामने आता है जब सही बोध क्रियाशील रहता  है इस बात को हर लेखक को ध्यान में रखना चाहिए ।


भारतीय कला का भागीरथ :आनंद कुमारस्वामी
                                                                                मनोज कुमार राय
 “माँ , इन चित्रों के सामने आप आँख मूंदकर हाथ जोड़े हुए क्यों खड़ी हैं? ये कौन लोग हैं?”
“ इनमें एक तुम्हारे पिता हैं और दूसरे भगवान कुमारस्वामी हैं।” नन्हें बालक के प्रश्नों का माँ ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया।
“लेकिन मैंने तो अपने पिताजी को कभी देखा नहीं! अभी वे कहाँ हैं?”
माँ ने उत्तर दिया-“अब वे भगवान कुमारस्वामी के साथ हैं। ”
बालक ने कौतूहल से पूछा- क्या भगवान के छः मुख होते हैं?” माँ ने उत्तर देते हुए कहा-“हाँ। भगवान के छः मुख भी होते हैं और अनंत मुख भी। आपके पिता अब इन्हीं के साथ हैं। वे इन्हीं के उपासक थे। आपका नाम इसीलिए इनके नाम पर कुमारस्वामी रखा गया। आप भी आँख मूंदकर हाथ जोड़कर इन्हें प्रणाम करो।”
बालक ने आज्ञा का पालन किया । हिन्दू धर्म-दर्शन –चिंतन से यह उसका प्रथम परिचय था । गांधी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है- “बचपन में सीखी हुई बातें ही बाद के जीवन में प्रस्फुटित होती हैं।”
कुमारस्वामी का जन्म  22 अगस्त 1877 को श्रीलंका में हुआ था। इनके पिता मुथु कुमारस्वामी तमिल हिन्दू परिवार से थे। वे एक प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। भारतीय दर्शन-खास तौर से बौद्ध दर्शन(उन्होने दो पाली ग्रन्थों का अँग्रेजी में अनुवाद भी किया था) और पाश्चात्य साहित्य में उनकी गहरी रुचि थी। कुमास्वामी को अपने पिता से संस्कार में ही नाम-अभिरुचि मिल गई थी। आनंदनाम बुद्ध के प्रिय शिष्य के नाम पर रखा तो कुमारस्वामी धर्म-देवता के नाम पर। बीच का नाम केंटिशमाँ एलिज़ाबेथ क्ले के गृह-प्रदेश का द्योतक है। कुमास्वामी मात्र दो वर्ष के थे जब उनके पिता का निधन हो गया। एलिज़ाबेथ क्ले तब महज तीस वर्ष की थीं।  नन्हें शिशु को लेकर वे अपने मायका इंगलैंड लौट आईं । हिन्दू-चिंतन पद्धति से गहरे प्रभावित एलिज़ाबेथ क्ले ने अपना पूरा ध्यान बालक आनंद के शिक्षा-दीक्षा पर लगा दिया। उन्होने आनंद को भारतीय धर्म-दर्शन के अध्ययन हेतु प्रेरित किया। कुमारस्वामी ने भी अपनी माँ को निराश नहीं किया । माँ  की मृत्यु के पश्चात आनंद ने लिखा, “मुझे विश्वास है कि मैंने अपने अध्ययन और कार्य से माँ की इच्छा को कुछ हद तक पूरा किया है।”
कुमारस्वामी ने पहले वाइक्लीफ़ कालेज तथा बाद में लंदन विवि से अपनी शिक्षा पूरी की । उनकी शिक्षा मुख्यत: विज्ञान की थी,यद्यपि कि रस्किन आदि के प्रभाव में आ गए थे। “श्रीलंका की भौमिकी” पर डी एस सी की उपाधि प्राप्त करने वाले ये प्रथम श्रीलंकाई थे। पचीस वर्ष की अवस्था में ही इन्हें श्रीलंका के विज्ञानीय सर्वेक्षण के निदेशक पद पर नियुक्त किया गया। 1903 से 1906 के बीच इस पद पर कार्य करते हुए इंहोने श्रीलंका के गांवों की यात्रा की। सिंहल द्वीप के प्राचीन उद्योग धंधे ,कला,रहन-सहन,और जीवन की सुंदर जीवन पद्धति पश्चिम के प्रहार और जीवन में बढ़ती हुई  कुरूपता को देखकर कुमारस्वामी अत्यंत चिंतित हुए ।उन्होने अपनी नग्न आँखों से देखा कि किस तरह पाश्चात्य औद्योगिक सभ्यता ने  यहाँ की दस्तकारी और कला को नष्ट किया है। उन्हें कहना पड़ा-एशिया को बचाओ! उसका आदर्शवाद खतरे में है उनकी रुझान प्राच्य संस्कृति के विभिन्न पक्षों  विशेषकर ललित कलाओं की तरफ दिनोदिन बढ़ती जा रही थी। जल्दी ही उन्हे यह महसूस हुआ कि उनके जीवन का मूल उद्देश्य भौमिकी नहीं कला का क्षेत्र है। मातृभाषा की शिक्षा और प्राचीन कला और शिल्प के विषय में अपने देश-वासियों की रुचि जागृत करने के लिए उन्होने न केवल “सीलोन रिफ़ार्म सोसाइटी”(1905) की स्थापना की अपितु अपने संपादकत्व में सीलोन नेशनल रिव्यू नामक एक पत्र भी 1906 में प्रकाशित किया ।
वर्ष 1906 कुमारस्वामी के जीवन का एक महत्वपूर्ण पड़ाव है। उन्होने भौमिकी के क्षेत्र से स्वयं को पूरी तरह से कला-इतिहास के प्रति समर्पित कर दिया । एक सुबह उन्होने श्रीलंका की धरती को प्रणाम किया और वहाँ से नए क्षितिज की तलाश में भारत पधारे । भारत में कुछ महीने  गुजारने के बाद वे इंगलैंड चले गए । अगले दस वर्षों तक उन्होने भारतीय धर्म-दर्शन का गहन अध्ययन किया। लंदन में एक पुराना घर खरीदा और वहीं पर एक प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना की। पति-पत्नी मिलकर कुछ महत्वपूर्ण पुस्तकों का प्रकाशन भी किया । इस बीच उनका भारत और इंग्लैंड के बीच आवागमन होता रहा। वे टैगोर के निकट होने के साथ-2 वे भारत की आजादी-आंदोलन की तरफ भी आकृष्ट हुए । महात्मा गांधी से कुमारस्वामी बहुत प्रभावित थे । गांधी से उनकी मुलाकात लंदन में 1914 में हुई ।
कुबेरनाथ राय अपने एक निबंध जंबूदीपे-भरतखंडे में लिखते हैं-हमारी भारतीय साधना,शिल्प,साहित्य एवं दार्शनिक चिंता आदि की उच्चतम स्थितियों में चिन्मय भारत ही व्यक्त होता है।” कुमारस्वामी इसी चिन्मयता पर मुग्ध हैं। उनके लिए यह भौगोलिक सत्ता नहीं अपितु एक प्रकाशमय,संगीतमय भाव-प्रत्यय या चैतन्य-प्रतिमा का सहज बोध है। एक  बार एक कला आलोचक सर जार्ज बर्डवुड ने अपने एक व्याख्यान में बुद्ध मूर्ति का उदाहरण देते हुए कहा कि पूरब के कलाकार मूर्ति-चित्र आदि बनाते तो जरूर हैं पर वे नहीं जानते कि सौंदर्य क्या है? यह मूर्ति सिवा बुरादा की खिचड़ी के अलावा कुछ नहीं है। कुमारस्वामी ने महसूस किया कि बर्डवुड आदि वस्तुत: पौर्वात्य कला-इतिहास के उत्पत्ति-औदात्य से कत्तई अपरिचित हैं। उन्होने इसे एक चुनौती के रूप में स्वीकार किया और कुछ ही समय बाद ओरिजिन आव बुद्ध इमेजनामक पुस्तक लिखकर करारा जबाब दिया। समय मिलते ही उन्होने पत्नी के साथ श्रीलंका की एक और  यात्रा की । इस यात्रा के परिणाम यह रहा कि कुमारस्वामी के पास नई पुस्तक के लिए विपुल मात्रा में सामग्री मिल गई। भारतीय कला परंपरा को लेकर उन्होने आर्ट एंड स्वदेशी नामक पुस्तक लिखी। इस पुस्तक की प्रशंसा विश्व भर में हुई।
समय के साथ कला और सत्य के प्रति कुमारस्वामी का आग्रह बढ़ता जा रहा था। दुबारा 1910 में इंडिया ओरिएंटल सोसाइटी के निमंत्रण पर भारत आए और इलाहाबाद कला प्रदर्शन के संयोजक नियुक्त हुए । इस अवसर का लाभ उठाते हुए उन्होने सामग्री-संग्रह के लिए उत्तर-दक्षिण की यात्रा की और की भारतीय कलाकृतियों- मूर्तियों- चित्रों का एक बड़ा खजाना इकठ्ठा कर  लिया। प्रदर्शनी के बाद इस संग्रह को वे भारतवर्ष के किसी कला-संग्रहालय को देना चाहते थे। उनके मन में यह बात बैठ गई थी कि भारत की सेवा का  माध्यम उनके लिए कला है। इसे मूर्त  रूप देने के लिए उन्होने बनारस में अपने लिए नौकरी की तलाश भी की। उनकी इच्छा थी की काशी में इस तरह का कोई संस्थान बने। उन्होने अपने द्वारा संग्रहीत कलाकृतियों को दान देने की भी पेशकश की।  इसके लिए उन्होने एक अपील भी निकाली। पर दुर्भाग्य से उस वक्त किसी संस्था,सरकार या मर्मज्ञ ने इस पर ध्यान नहीं दिया । डिलथे ने कहीं लिखा है कि -जीवन संयोग,भाग्य और चरित्र के ताने-बाने बुना एक रहस्यमय कपड़ा है।अंतत: भारतीय कला के इस भागीरथ की योग्यता की असल पहचान  सुदूर बैठे हार्वर्ड विवि के कला-पारखी प्रो रास ने समझा और उन्हे बोस्टन संग्रहालय के भारतीय कला विभाग के अध्यक्ष पद पर  कार्य करने का आमन्त्रण  भेजा । इस तरह अपने संग्रह सहित कुमारस्वामी अमरीका पहुँच गए । बोस्टन में लगभग “30 वर्षों तक विशुद्ध मनीषी के रूप में केवल मात्र सत्य और ज्ञान की लालसा से प्रेरित होकर अध्ययन और संग्रह, व्याख्या और विश्लेषण करते रहे।” यह उनके अविराम परिश्रम का ही फल था विश्व प्रसिद्ध ब्रिटेनिका विश्वकोश को अपने 14वें संस्करण में भारतीय कला को एक विषय के रूप में स्वीकार करना पड़ा। कुमारस्वामी ही वह पहले व्यक्ति हैं जिंहोने सर्वप्रथम राजस्थानी और पहाड़ी कला का ठीक मूल्यांकन किया और भारतीय कला में आनंद और सौंदर्य का अक्षय भंडार खोज निकाला । उनके लिये कला मन अथवा बुद्धि का कौतूहल मात्र  नहीं है । कला का सच्चा आसान इससे बहुत ऊंचा है और उतना ही अनिवार्य है जितना धर्म,अध्यात्म और दर्शन का


  कार्लाइल के शब्दों में बड़भागी वह है जिसे अपने जीवन का कार्य करने के लिए मिल जाय,उसे फिर किसी और वरदान की चाह नहीं करना चाहिए । इस मामले में कुमारस्वामी भाग्यशाली हैं। पिता का संस्कार ,माँ की इच्छा और स्वयम की अभिरुचि का कार्य ही उनके जीवन का उद्देश्य बन गया। इसमें उन्होने अपना शत-प्रतिशत लगा दिया । सृष्टि-स्थिति-प्रलय-तिरोभाव-अनुग्रह भाव से युक्त चिदम्बरम शैली के नटराज’-प्रतिमा की सांगोपांग व्याख्या पहली बार अभारतीय विश्व के सम्मुख भारतीय कला के भागीरथ आनंद कुमारस्वामी ने ही अपने निबंध संग्रह दी डांस आव शिव के माध्यम से रखा। उन्होने नटराज के इस नृत्य की तुलना लूसियन द्वारा उल्लिखित ईरास’(काम शक्ति)  सृष्टि-नृत्य से की है जिससे सृष्टि का सूत्रपात होता है। यद्यपि कि श्री कुबेरनाथ राय ने नटराज- नृत्य को उससे वृहत्तर कल्पना मानते हुए कहते हैं कि –“नटराज-नृत्य की कल्पना से कोई तुलना ही नहीं हो सकती।” एक योग्य उत्तराधिकारी से इससे बेहतर क्या उम्मीद हो सकती है कि वह अपने पूर्वजों की थाती को और भी पुष्ट-तुष्ट करे । कुमारस्वामी इस पर एकदम खरे उतरते हैं।
कुमारस्वामी इस बात से भी व्यथित हो जाते थे कि भारतीय अपने विरासत को न तो जानते हैं न ही उसे समझने की कोशिश करते हैं  । अध्ययन के लिये अमेरिका आये भारतीय  छात्रो  के एक  समूह  को  सम्बोधित  करते  हुए  उन्होने  कहा –“आपको  अपने भारतीय  संस्कृति ,परम्परा, और  गौरव शाली  अतीत  को कभी  नहीं  भूलना  चाहिये । आपको  एक  राजदूत  की तरह  कार्य करना होगा और आप कही  भी जायेँ आपको भारतीय बनकर  ही  रहना  चाहिये
कुमारस्वामी के मन में आत्मप्रचार  के लिए कोई जगह नहीं थी । इस मामले में वे अपने पूर्वजों के अनुयायी हैं । मंत्र-मूर्ति-काव्य आदि जो कुछ भी हो हमारे पूर्वजों ने नाम आदि पर कभी ध्यान नहीं दिया-त्वदीयम वस्तु गोविंदम तुभ्यमेव समर्पये। उनके एक मित्र ने उनसे आत्मचरित लिखने का आग्रह किया। उन्होने कहा-“आत्मचरित लिखने के विचार के लिए मेरे मन में कोई स्थान नहीं है। मैं एकांत में रहना चाहता हूँ. मेरे  बारे  में  लिखने  अच्छा होगा  कि आप  मेरी  पुस्तको के  बारे  में  लिखो । उनका मूल्यांकन करो । यही मेरे  लिये  पर्याप्त होगा । मैं भारतीय  संस्कृति का  पुजारी हूँ और इस परम्परा में मोक्ष के लिये आत्मकथा लिखना अनिवार्य नहीं है । मुझे इस पर पूरा विश्वास है । यह सिर्फ विनम्रता नहीं है ।  यह मेरे  जीवन का सिद्धांत है
कुमारस्वामी ने भारत की आजादी के शुभ अवसर पर  हार्वर्ड विवि में एक व्याख्यान दिया । आजादी की लडाई में गांधी के योगदान को सराहते हुए कहा -“ मुझे उस देश पर गर्व है जिसका झंडा  न केवल राष्ट्रवादी है अपितु मनुष्य और जगत के आपसी सम्बंधों की तरफ भी इशारा करता है बोस्टन के हार्वर्ड क्लब में अपने सत्तरवे जन्म दिन के अवसर पर  अयोजित विदाई समारोह में अपने भविष्य की योजना के बारे  में बताते हुए कहा-“ मेरा और मेरी पत्नी की अगले वर्ष भारत (अपने घर) लौटने की योजना है ये शब्द बताते हैं कि कुमारस्वामी भले ही अमेरिका में दशको तक काम  करते  रहे हो पर उनका भारत से आध्यात्मिक जुडाव समय के  साथ  और  गहराता ही गया। भारत के अन्य विख्यात कल-इतिहास मर्मज्ञ वासुदेव शरण अग्रवाल को एक पत्र में उन्होने लिखा-“ इस समय आत्मा पर एक महाग्रंथ लिखने में  लगा हूँ । उसके पूरा होने पर भारत लौटने की इच्छा है” पर दुर्भाग्य से  उनका यह सपना साकार नहीं हो पाया । भारतीय कला-गौरव का यह उद्धारक-मनीषी भारत-अपने घर- लौटने की इच्छा लिये हुए बोस्टन में ही 9 सितम्बर 1947 को सदा के लिये आंखे मूंद ली ।
  


मुटुर-मुटुर ताकती भारतीय (भारतीयता की) आँखें  
                                                                                               * मनोज कुमार राय
बहुत कम ऐसे साहित्यकार होंगे जिन्होंने आपने लेखन के शुरू में ही यह घोषित कर दिया हो कि मेरा सम्पूर्ण साहित्य या तो क्रोध है,नहीं तो अंतर का हाहाकार’ और जीवन भर अपने इस आदर्श पर दृढ़ता पूर्वक बिना किसी लोभ-लालच के डटे रहे । श्री कुबेरनाथ राय को इसका श्रेय प्राप्त है। श्री राय का यह क्रोध या आर्तनाद उनका निजी नहीं है अपितु सम्पूर्ण भारत का है। श्री राय की ख्याति एक ललित निबंधकार के रूप में है। ललित निबंध की प्रस्थान-त्रयी की हिंदी साहित्य में एक अघोषित परम्परा चलती रही है । अपने विशद अध्ययन-चिंतन के बावजूद प्रस्तुत रचना संचयन का संपादक भी  इस मिथ से ऊपर नहीं उठ सका है । यद्यपि कि संपादक ने प्रारम्भ में ही कुबेरनाथ राय को एक विलक्षण प्रतिभा से सम्पन्न अनूठे साहित्यकार के रूप में देखा है जिसके लेखन का परिविस्तार अपनी अंतर्वस्तु और चेतना में अखिल भारतीय या राष्ट्रीय था। 
समीक्ष्य पुस्तक में प्रो शुक्ल की यह चिंता कि इधर हिन्दी आलोचना में मतवाद और विचारधारा का दुराग्रह समूची सर्जनात्मकता पर धुंध की तरह छा गया है। ..... कुछ जुमलों और कुछ दर्जन भर शब्दों(जार्गंस) के सहारे जुगाली करते हुए उपजे हुए फेन से रचना को आच्छादित करके संगठन के बल से सृजन-विरोधी वातावरण रच दिया गया है’, स्वाभाविक और जायज है। पिछले कई दशकों से यह देखने में आया है कि विश्वविद्यालयों से लेकर निजी संस्थानों तक में ऐसे लोगों की संख्या खूब बढ़ी है । दक्षिण-वाम की गोलबंदी/खेमे में हर रचना को देखने की प्रवृत्ति ने वस्तुत: साहित्य का ही नुकसान किया है। पर इसकी किसे चिंता? हर कोई पुरस्कार-छपास के रोग से ऐसा ग्रसित है कि हर विधा में हाथ आजमाने से न तो चूक रहा है न ही अपनी कृतियों पर लोगों से लिखवाने के मोह से मुक्त हो पा रहा है । लेकिन कलयुग के इन विपरीत परिस्थितियों में श्री कुबेरनाथ राय का एक ही विधा और उसके माध्यम से भारतीयता के उदघाटन के लिए अंगद के पाँव की तरह जमे रहना भारतीय किसान के उद्यम,सिसृक्षा,तितिक्षा,दायित्वबोध,जिजीविषा को दर्शाता है । श्री राय भी किसान पुत्र हैं और यह पंचामृत उन्हें जन्मजात घुट्टी में मिला है।  
श्री राय अपने निबंधों की सोद्देश्यता के संदर्भ में बार-बार कहते हैं कि उनके लेखन का लक्ष्य है –पाठकों की चित्त-ऋद्धि का विस्तार करना और उसे एक परिमार्जित भव्यता देना । अपने सम्पूर्ण लेखन के उद्देश्य की ओर इंगित करते हुए वे एक जगह लिखते हैं,  मेरा उद्देश्य रहा है हिन्दी-पाठक के हिन्दुस्तानी मन को विश्वचित्त से जोड़ना और उनको मानसिक ऋद्धि प्रदान करना । मेरे निबंध भारतीय मन और विश्वमन के बीच एक सामंजस्य उपस्थित करते हैं।” इस प्रतिबद्धता के पीछे उनकी यह निर्भ्रांत समझ है कि मनुष्य की सार्थकता उसकी देह में नहीं,उसके चित्त’ में है। उसके चित्त गुण को उसकी सोचने-समझने और अनुभव करने की क्षमता को विस्तीर्ण कराते चलना ही मानविकी के शास्त्रों का,विशेषत: साहित्य का मूलधर्म है।”  अपने उद्देश्य-सिद्धि के लिए जो उन्होने श्रम किया है उसकी कल्पना मात्र से मन रोमांचित हो उठता है। इसके लिए उन्होने प्राचीन-अर्वाचीन साहित्य को तो खंगाला ही है, घर-आँगन,वन-जंगल के महाकांतार में भी उनका रस आखेटक मन मधुकरी ग्रहण करने के लिए भटकता रहा है।  
समीक्ष्य पुस्तक की भूमिका में संपादक ने स्वीकार किया है कि इतने व्यापक लेखन से केवल पच्चीस निबंधों का चयन किसी लेखक की सम्पूर्ण छवि प्रस्तुत करने का दावा ...  नहीं कर सकता । बात सिर्फ पच्चीस-तीस निबंधों की प्रस्तुति भर ही नहीं है। श्री राय का अध्ययन क्षेत्र बड़ा विशाल और अद्भुत है । उनको पढ़ना अपने को समृद्ध करना होता है । उनके लेखन में जैसे लगता है कि नृतत्वशास्त्र, समाजशास्त्र, भाषाविज्ञान, अर्थ विज्ञान, भूगोल, इतिहास,मिथक,लोक,पुरातत्व,दर्शन,मनोविज्ञान,आधुनिक चिंतन,जातीय स्मृतियाँ आदि-आदि एक  जीवंत कोश बनकर पाठक के सामने उपस्थित हो जाते हैं । पाठक उनके निबंधों को पढ़ते हुए उनके तर्क,अगाध ज्ञान और मिथकों की अधुनातन व्याख्या से एक साथ न केवल विस्मित,मुग्ध और प्रसन्न होता है अपितु कई बार तो किताब बगल में रखकर आर्य-निषाद-किरात-द्राविड़ के साथ कुलांचे भरते हुए जम्बूद्वीप की यात्रा भी कर लेता है।
गांधी ने कहीं लिखा है –मुझे अपने देश का नाम बड़ा प्यारा है। कुबेरनाथजी इसकी सही व्याख्या प्रस्तुत करते हैं समीक्ष्य पुस्तक के निबंध जम्बूद्वीपे-भरतखंडे में –“ मुझे भारत शब्द सुनकर इसका अर्थ ..... एक प्रकाशमय,संगीतमय भाव-प्रत्यय या चैतन्य-प्रतिमा के रूप में होता है । भारत की यह निराकार मूर्ति सूक्ष्मतर होने की वजह से अधिक कालजयी है। कोई जवाहर लाल या जिन्ना इसकापार्टीशनया बंदरबांट नहीं कर सकता।” इससे बड़ी चुनौती कोई लेखक दे सकता है क्या ? दक्षिण अफ्रीका से लौटते समय गांधी कहते हैं –“अब मैं भोग भूमि से कर्म भूमि की ओर जा रहा हूँ।” श्री राय इसी निबंध में आगे लिखते हैं –“ इन सारे खंडों में सिर्फ भारतवर्ष ही कर्मभूमि है, शेष खंड मात्र भोगभूमि’...। कर्मभूमि होने के कारण ही भारतवर्ष मधुमय देश है।”  गांधी और श्री राय के भारत-चिंतन में कितना साम्य है? पाठक रचना-संचयन के पृष्ठ-प्रति-पृष्ठ पर इसे देख सकता है ।  
श्री राय को लोक-संस्कृति और प्रकृति का अद्भुत ज्ञान है । नदी-पर्वत,खेत-खलिहान, पुष्प-पौधे,पक्षी-जानवर ,जल-जंगल-जमीन आदि संबंधी उनका ज्ञान चकित कर देता है। समीक्ष्य पुस्तक में लगभग दर्जन भर ऐसे निबंध हैं जिनमे श्री राय की यह प्रतिभा उभरकर सामने आई है। जंगल-जानवर का ज्ञान तो ऐसे लगता है जैसे सामने एनिमल-प्लैनेट का चैनल चल रहा हो। श्री राय पाठक को प्रकृति के गोद में ले जाकर केवल छोड़ते भर नहीं हैं, वहीं वे जानवरों के माध्यम से व्यंग्य-सौंदर्य को भी उद्घाटित करते हैं। महाकांतार निबंध में वे लिखते हैं-“यह जीव (गैंडा) अपनी भारतीय डेमोक्रेसी की तरह मोट चम्मा और थेथर होता है। किसी भी प्रहार का कोई असर नहीं । और राजवाहन हस्ती के सामने घास में वैसे ही मुंह छिपा लेता है जैसे प्रजातन्त्र-वाहन नौकरशाही के सामने भारतीय जनता ।” आधुनिक भारतीय राजनीति पर इससे रम्य व्यंग्य और क्या हो सकता है? उसी महाकांतार (निबंध) में आगे बढ़ने पर श्री राय को सामने एक मृगयूथ मिल गया,गोया वे उन्हीं(हमारा) का इंतजार कर रहें हों। मुटुर-मुटुर ताकती आँखें। ... इतना सुंदर ताकना ! इतनी सुंदर दृष्टि: इतने सुंदर ढंग से तो विश्व में केवल भारतीय आँखें ही ताकती हैं।”
भारत के भूगोल की जानकारी जिस लालित्य पूर्ण ढंग से महीमाता निबंध में प्रस्तुत करते हैं वह एक कुशल भूगोल वेत्ता के लिए भी अविश्वासनीय सा लगता है। वह भारत की रूपसी धरा को वर्णगत विशेषता और रासायनिक बनावट की दृष्टि से दो भागों में बांटते हैं-सादा भारत अर्थात आर्यावर्त और रंगीन भारत अर्थात निषाद-द्राविड़-किरात भारत । प्रथम के निर्मिति में नदियों द्वारा लायी गई मिट्टी का योगदान है। इस मिट्टी के इनमें उपस्थित चीका और रेत के विविध परिमाण के आधार पर तीन रूप निर्धारित किए गए हैं-ऊसर(रेत),मटियार(करईल) और दोमट(बलधुस) । श्री राय की नजर में यह स्वर्णगर्भा वसुंधरा है,शस्य लक्ष्मी,... साक्षात माता हैमिट्टी के भीतर ही एक प्राणधर्मी प्रक्रिया चलती है जिसके अनुसार उसमें रासायनिक आत्म-परिवर्तन होता रहता है। इस निबंध को पढ़ते समय यह अहसास होता है कि काश इस रोचक ढंग से अगर  बचपन में भूगोल  पढ़ाया गया होता तो उस विषय में रुचि और बढ़ गई होती और तब श्री राय का यह उदघाटन कि इस प्रकार मिट्टी के रंग की दृष्टि से यह भारतवर्ष तिरंगा,त्रिवर्णी भूमि है-सादी,लाल और काली’, आसानी से हृदयंगम हुई होती।   
श्री राय के लेखन में आत्मविश्वास जबर्दस्त है । श्री राय उस ऋषि परंपरा के साहित्यकार हैं जो व्यास,वाल्मीकि,कालीदास और तुलसीदास से होती हुई रवीन्द्र-निराला तक आती है । वे कहते हैं “मेरा जन्म तुलसीदास की भूमि पर हुआ है। उनके द्वारा दिये गए उत्तराधिकार का मैं भी भागीदार हूँ। इसका मुझे औसत से ज्यादा घमंड रहता है।” और हो भी क्यों न?............... छद्म सेकुलरी लेखन को वे नापसंद करते थे। वे ताल ठोककर कहते हैं-और हिन्दू तो हैं ही,हूँ । अपने बाप को कैसे कह दूँ कि यह मेरा बाप नहीं। और यदि ऐसा कहूँ तो मुझसे बड़ा कमीना कौन होगा?” आज जब चारो तरफ पुरस्कार लेने-लौटाने का दुष्चक्र चल रहा हो  वैसे में श्री राय का कथन और भी मानीखेज हो जाता है। सच तो यह है कि  जिसके पास आत्मिक मूलाधार और भारतीयता का आधार भूमि होगी उसके लिए यह सामान्य बात होगी । श्री राय का सम्पूर्ण लेखन इसी से लबरेज है । इसीलिए तो वे कहते हैं-“देश को राजनीति के बाहर जाकर इतिहास,भूगोल,धर्म,संस्कृति और समाज में पहचानना होगा। ऐसा देशात्मबोध ही सबल और सही देश भक्ति को जन्म देगा। देश भक्ति को छोड़कर और कोई उबरने का रास्ता नहीं है।”
श्री राय जहां से आते हैं उस क्षेत्र में आय के सीमित संसाधन ही उपलब्ध हैं । सरकारी नौकरियों में भाई-भतीजावाद,वैचारिक जकड़बंदी का जबर्दस्त बोलबाला  था/है। आज तो हालत यह है कि हर नियुक्ति पर आप उंगली रख सकते हैं । आत्मसम्मान से समझौता न करने वाले श्री राय को सूदूर पूर्वोत्तर भारत में जाना पड़ता है- “मैं अपनी जन्मभूमि गंगातट से प्राय: दूर रहने को बाध्य हूँ और जीविकोपार्जन के लिए इस किरातारण्य से घिरे आर्यों के बीच,लौहित्य तट पर,निवास कर रहा हूँ।” वहाँ भी रहते हुए उन्होने अपने को  लक्ष्य से विरत नहीं होने दिया। साहित्य साधना में सतत लगे रहे । प्राचीन भारत की अद्भुत परम्पराओं/मिथकों की व्याख्या करते रहे और वामपंथियों को ललकारते रहे-“भारत में एक भी भी वामपंथी नहीं जन्मा,जिसके पास पढ़ी हुई किताब से एक कदम आगे सही सजीव सत्य को देखने की क्षमता हो।” यह कथन भी किसी लाभ-लोभ के लिए नहीं था। भारतमाता के प्रति एक नैसर्गिक आस्था थी। उनके निशाने पर न सिर्फ वामपंथी ही नहीं हैं अपितु हिन्दी-हिन्दी का झण्डा-माइक लेकर दिन-रात चक्रमण करने वाले  उद्भट विद्वान भी हैं-“हिन्दी के ये हीरो लोग भी अपने अंत:करण को एक बार,साल भर में कम से कम एक बार टटोलें और अपने कर्मों की जबाबदेही तुलसी-कबीर-प्रेमचंद आदि की स्मृति में मन ही मन स्वयं को दें। मात्र तुलसी-कबीर और और प्रेमचंद के बल परअँग्रेजी हटाओ किस सीमा तक सार्थक हो सकता है। .... आधे देश की मानसिक संरचना हिन्दी के साहित्यकारों के जिम्मे है। हिन्दी साहित्य के सर्वांगीण विकास का अर्थ होता है देश की आधी जनता के मानस का सर्वांगीण विकास । यह अखबारबाजी से नहीं हो सकता।” उनके इस दर्द को कौन सुनता है? सभी को जल्दी पड़ी है पद और छपास की ।
 श्री राय अपनी सामाजिक दायित्व को भी अच्छी तरह समझते हैं। बेकारी के दिनों में अपनी क्षुधा पूर्ति के लिए पशुओं के गोबर से अनपचे अन्न को निकालकर रखने वाली एक जाति-विशेष की दुर्दशा उनके लिए असहनीय है-“रस आखेटक जब यह सोचता है तो सकी आत्मा में घाव हो जाता है,उसका घोड़ा तनकर खड़ा हो जाता है,उसके मन में क्रोध के पवित्र फूल फूटने लगते हैं।” जातिवाद इस देश की उन्नति के लिए सैकड़ों वर्षो से अभिशाप बनी हुई है। श्री राय यह मानने को तैयार नहीं है कि यह प्रथा प्राचीन काल में भी ऐसी ही थी-“ यह आज की तरह अन्यायपूर्ण जन्मसिद्ध जबर्दस्ती न होकर सीधा-सादा स्वभावगत और कर्मगत विभाजन था और एक ही परिवार में  तरह-तरह के कर्म करने की छूट थी ।” पर निजी स्वार्थवश कुछ लोगों ने इसको तोड़-मरोड़कर अपने पक्ष में व्याख्यायित किया और निकल पड़ी एक अमानवीय प्रथा। श्री राय आशावादी हैं। वे यह मानकर चलते हैं कि “इस शताब्दी के अंत होते होते ...यह भी शेष भारत की डिजाइन में आ जाएगा... प्रक्रिया तो शुरू हो गई थी,परंतु हजारवर्ष का मध्यकाल बीच में व्यवधान डाल गया।” अब इसकी ज़िम्मेदारी हमारी पीढ़ी पर है कि वह इस प्रथा को दूर करने के लिए अपनी आहुति दे।
इतिहास की समझ और परंपरा-बोध में तो श्री राय का कोई सानी नहीं है। वृहत्तर भारत के इतिहास और उस इतिहास में पसरे लोक को खोजते हुए समुद्र पार कर शैवाल द्वीप की यात्रा कर आते हैं। और लौटते हैं सदा मणि लेकर –असंख्य अनाम अगसत्यों  ने इस भारत सावित्री को इस प्रकार दक्षिण-पूर्व एशिया की आत्मा में उतारकर प्रतिष्ठित कर दिया ।’’ अगस्त्य तारा’, निषाद-बांसुरी’,’भारतीय किरात आदि निबंधों में लेखक की यह प्रतिभा निखरकर सामने आई है –“कई शताब्दी पूर्व का एक दृश्य। .....जावा,सुमात्रा,बालीद्वीप या अन्य किसी ऐसी ही भूमि का कोई भी समुद्रतट। ....ईशानकोण से भारतीय जलयानों की पांत धीरे-2 निकट आ रही है। ....सारा थोक माल पोतों में भरा पड़ा है। नाविक माल उतारने में व्यस्त है और मन ही मन संतोष की सांस ले रहे हैं कि वरुण कृपा से यात्रा सकुशल रही।”  संघर्ष भरी यात्रा पूरा करने के बाद श्री राय का मन बड़े विश्वास से कहता है- “इसी से तो मैं बार बार कहता हूँ भारतीय इतिहास और लोक संस्कृति, लोक धर्म और लोकभाषा का महत्तम समापवर्तक निषाद अर्थात आस्ट्रिक है,आर्य  नहीं ।”
आज जीवन की आपाधापी में जिसे देखिये वही लिखने के लिए आतुर है। इसके लिए लेखन के हर विधा में हाथ आजमाना चाहता है । पर केवल एक विधा के माध्यम से साधना कर शीर्ष प्रतिष्ठा अर्जित करना कुबेनाथ के ही बस की बात है। उन्होने भारतीय पुरा -विद्या और मिथकों का मर्म खोला है। इसमें उनका सहायक है ललित निबंधविधा। इस विधा पर उनकी टिप्पणी देखने लायक है-“ललित निबंध एक ऐसी विधा है जो एक ही साथ शास्त्र और काव्य  दोनों है। एक ही साथ,आगे पीछे के क्रम में नहीं।” ललित निबंध की परिभाषा से शिव के सांढ का कोई भी संबंध हो सकता है,इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। पर श्री राय की तो बात ही अलग है- “ विषय के आसपास शिव के सांढ की भांति मुक्त चरण और विचरण ललित निबंध है।” निबंध/बात शुरू करने की श्री राय की अपनी शैली है। बात शुरू करते हैं घर-गाँव के आँगन से ही, पर पहुँच जाते हैं भारतीय साहित्य के उस पुरा काल में जहां से अमृत दिन-रात झरता है । समीक्ष्य पुस्तक के प्रथम  निबंध की शुरुआत कुछ यों होती है-“आदिम निषाद ने मुझसे कहना प्रारम्भ किया ....”। एक अन्य निबंध लोक-सरस्वती की प्रारम्भिक पंक्ति है-“इसी ग्रीष्मावकाश की बात है ...”।  फिर तो वे इतिहास से मधु  का एक-एक बूंद निचोड़कर  पाठक के सामने रखने लगते है। जिस  पाठक ने  एक बार इस मधु को चख लिया वह उनका मुरीद हुए बिना नहीं रहता।    
श्री राय की विशेषता एक यह है कि वे गंभीर से गंभीर चिंतन को भी सृजनशील लालित्य का रूप देने में समर्थ हैं। संपादित ग्रंथ मेंज्यां पाल सार्त्र: नव्य मार्क्सवाद की ओर इसका एक उदाहरण है। इस निबंध में श्री राय कहते हैं- “शोषक वर्ग का अंत हो जाना ही आखिरी बात नहीं,अंतिम लक्ष्य है अभाव का अंत”। इसी निबंध के अगले पृष्ठ पर वे कहते हैं-“मार्क्स कहता है कि सर्वहारा को बेड़ियों के अतिरिक्त कुछ खोना नहीं है। पर सार्त्र कहता है और ठीक ही कहता है कि सर्वहारा को भी एक चीज खोनी है और वह है उसका जीवन जो सबसे बड़ा मूलधन है! शेष सारी सफलताए-असफलताएं सूद-ब्याज हैं पर जीवन है मूलधन।”  हिन्दी जगत में इस तरह का लेखन दुर्लभ है।
श्री राय अपार साहस लेकर अवतरित हुए हैं। वे लिखते हैं -“ मनुष्य की मनुष्यता के प्रति मेरे इस प्रतिबद्धता को कोई गाली देना चाहे तो दे,परंतु मैं मनुष्य को (और उसकी अपनी ही प्रतिमा के रूप में ईश्वर और प्रकृति को भी) छोड़कर अन्य किसी के प्रति साहित्य को प्रतिबद्ध नहीं मानता। शेष अन्य प्रकार की प्रतिबद्धताएं अधूरी हैं,चाहे वह प्रतिबद्धता बहुविज्ञापित समाजवाद के ही प्रति क्यों न हो।” इसीलिए वे अपने सर्वप्रिय पुस्तक रामचरित मानस  में भी संशोधन प्रस्तावित करने का दुस्साहस करते हैं-मेरा तो प्रस्ताव सिर्फ एक दर्जा आक्रामक चौपाइयों को जो गाली गलौज सी लगती हैं(भले ही 16वीं शती में तर्क-सम्मत लगती रहीं हों) निकाल देने का है। क्योंकि आज उनका अस्तित्व मानस में कलंक की तरह है।” गांधी-तुलसी के प्रति श्री राय की श्रद्धा जगजाहिर है । पर उनके लिए युगधर्म भी एक बड़ी चीज है।  क्योंकि वे मानकर चलते हैं कि संतप्त थककर बैठे हुए का योजन लंबा होता है और जागने वाले की रात लंबी होती है। हमें थककर बैठना नहीं है। हमें चल देना है।’’
आज भारतीयता को लेकर एक बहस चल रही है। सभी अपनी-2 ढपली अपना-2  राग गा रहें हैं । मैं उन सभी लोगो से आग्रह करूंगा कि वे कुबेरनाथ राय को जरूर एक बार पढे ।

Wednesday, August 5, 2015

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के शताब्दी वर्ष पर महामना को पत्र

आदरणीय भारतभूषण मालवीयजी

आपको पत्र लिखने की इच्छा बहुत वर्षों से हो रही थी,परंतु इच्छा रह-रहकर बुझ जाती थी। घर-द्वार,रोजी-रोटी के चक्कर में पैर ऐसे फंसे थे कि पूछिये मत । पत्र लिखना मेरा पुराना शौक है -प्रेम-पत्र से लेकर द्वेष-पत्र(कुछ लोग ऐसा कहते हैं)तक । इधर मैंने कहीं पढ़ा कि फिराक गोरखपुरी ने अपनी मौत से कुछ महीने पूर्व एक साक्षात्कार में कहा था: अगले पचास वर्षों में हिंदुस्तान दुनिया को कुछ नहीं दे पाएगा । वह किसी तरह से पेट पालता हुआ बचा रहेगा ।अज्ञेय ने भी अपनी शैली में इस बात को रखा:सबसे बड़ा दुख यह है कि हमारे पास कोई नियतिबोध,सेंस आफ डेस्टिनी नहीं है।अर्थात हम कौन थे,क्या हो गए और क्या होंगे अभी की चिंता अब नहीं सताती। उक्त दोनों बातें काहिविवि सहित भारत के सभी विश्वविद्यालयो पर बड़ी सटीक बैठती हैं। दरअसल आपके आशीर्वाद की छत्र-छाया में स्थापित-पुष्पित-पल्लवित यह विवि पिछले दो दशक से नैतिक और प्रशासनिक अराजकता की ओर तेजी से लुढ़कता जा रहा है। गुलाम भारत में आपने ऋत-शील-अच्छाई पर छा रहे संकट को समझ लिया था । इसीलिए तो दर-दर की ठोकर खाकर भी अपने ध्येय से डिगे नहीं और एक विशाल प्रांगण युक्त विवि की स्थापना की । विवि में संकाय-सदस्यों की नियुक्ति के लिए विक्रमादित्य परंपरा का निर्वहन करते हुए आपने देश के कोने-कोने से विद्वानों को आमंत्रित किया –आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतः ।  आपके लिए भारत का मतलब था आर्य-द्रविण-किरात-निषाद का समंवय । मुझे याद है कि जब मैं बिरला छात्रावास का अंतेवासी था तब इस विवि में भारत के चारो दिशाओं से विद्यार्थी प्रवेश लेने आते थे । प्रत्येक विभाग (विशेषकर विज्ञान के विषयो में)में भारत के हर प्रांत के अध्यापक होते थे ।पर अब ऐसा नहीं है । टाक ग्लोबली,एक्ट लोकली का बेहतरीन उदाहरण है यह विवि । इसको कुलगुरुओ ने अडजस्ट्मेंट का अड्डा बना दिया  है ।  विवि में कार्यरत हर कर्मी ने अपना एक नया परिचय गढ़ लिया है-ठाकुर,बाभन,लाला,भुइहार,अहीर,डोम,गड़ेरिया आदि-2 । मजे की बात है कि ये इसी जाति-कवच में ही निवास से लेकर मल-मूत्र तक का त्याग करते हैं। यही इनका आक्सीजन बन चुका है। इससे बाहर निकलते ही इनकी अस्मिता खतरे में पड़ जाती है । यह विवि अब शंका और अविश्वास का अखाड़ा बन चुका है। यहाँ सब-के-सब बीमार है। कोई स्वस्थ नजर नहीं आता । रायसाहब बदहजमी के शिकार हैं तो सिंह साहब निष्ठावान साबित होने के लिए द्राविण-प्राणायाम कर रहे हैं। त्रिपाठी जी खुदगर्ज वाचाल-मौन रोग से पीड़ित हैं तो लालाजी सिमटम ही नहीं पकड़ पा रहें हैं। उपाध्यायजी के पेट में तो भयानक गैसहै । जब तक ये चार जगह बैठकर उसे निकाल नहीं लेंगे तब तक इनको चैन नहीं मिलता । पांडेजी श्वेत-दंडिका के अंतिम कश को अध्यापको के मुंह पर फेंकने के लिये बेचैन रहते है । उधर यादवजी मुरेठा-लाठी लेकर नये निशानेकी तलाश में हैं। प्रकृति-प्रदत्त सहज गुण-धर्म विवि के लिए कफ-पित्त-वात का कारण बन जाता है। विवि के लोगों ने घटिहाई,जातिवाद,चोरी,घूसख़ोरी,छिनालपन,चापलूसी जैसे विदेशी व्यंजनों को आत्मसात कर लिया है। घृणा यहाँ की रोटी दाल बन गई है। शुद्ध प्रणय-प्रेम का यहाँ घोर अभाव है। अनुराग-राग-पूर्वराग अब गुजरे दिनों की बात हो गई है।
महामनाजी विवि इस वर्ष अपना शताब्दी वर्ष मना रहा है। अलुमनाई होने के नाते मेरे मन में भी एक सवाल कौंधा कि क्यों न  यह पता किया जाय कि आज विवि वे कौन ऐसे पाँच बड़े लोग हैं  जिस पर यह विवि गर्व कर सके। आप जानकार हैरान होंगे कि विवि के लगभग सभी संकायों के एक-एक,दो-दो सदस्यों से व्यक्तिगत तौर पर मिला और उन सभी के सामने यह यक्ष प्रश्न रखा । पर आश्चर्य कि किसी के जुबां पर पाँच तो छोड़िए एक भी अध्यापक का नाम नहीं आया। एक-दो ने काँख-पाद कर दो-एक का नाम लेने की कोशिश की तो दूसरे ने अपने झन्नाटेदार तर्कों से उसे खारिज कर दिया। आखिर इसकी वजह क्या है? इस पर जब मैंने लोगों से चर्चा की तो सभी ने एक सुर से कहा कि अच्छी फ़ैकल्टी का न होना इसका सबसे बड़ा कारण है।  
मुझे यह याद नहीं है कि आपके जमाने में सरस्वती की कुल कितनी प्रतिमा विवि परिसर के भीतर लगी थी। पर इधर विवि ने तीन जगह सरस्वती प्रतिमा स्थापित की है-केंद्रीय ग्रंथालय,प्रबंध संकाय और चिकित्सा संस्थान के चौराहे पर । केंद्रीय ग्रंथालय का नजारा तो अद्भुत है। यहाँ किसी भी कोने में चले जाइए आपको यह महसूस होगा कि सरस्वती तो अपनी प्रतिमा स्थापित होने के पूर्व ही यहाँ से भाग खड़ी हुई। यह पवित्र स्थल निजी कुंठा और साजिश का केंद्र बन गया है। यहाँ प्रात:स्मरणीय और चरण-चुंबन का नैसर्गिक द्वंद्व-समास दिखेगा। अध्यापकों ने यहाँ आना छोड़ दिया। वैसे भी अब अध्यापक पढ़ाई छोड़करकुलपति-वंदना में ज्यादा विश्वास करते हैं। संकाय-संस्थान तो ग्रंथालय से भी आगे हैं। यहाँ डा फ्रायड का रमण-तृषा का सिद्धांत, जो हर संबन्धों में दमित-वासना की खोज करता है,प्रामाणिकता के साथ उपलब्ध है। सच तो यह है कि गरीबों के खून से प्राप्त इफ़रात के बल पर विवि का यह अति महत्वपूर्ण संस्थान महज केरीकेचर बन कर रह गया है। इस संस्थान को एम्स का दर्जा मिल जाये,यह सपना यहाँ के बड़े-बड़े चिकित्सक दिन में भी देखते हैं।संस्थान की गुणवत्ता का आलम यह है कि यहाँ होने वाली नियुक्तियों में एम्स अथवा किसी अन्य बड़े संस्थान से पढे-अनुभवी की नियुक्ति की बात तो छोड़िए वे झाँकने भी नहीं आते। यही पास-पडोस से झांसी-गोरखपुर से लगायत दरभंगा-पटना वाले आते है। डीएनबी जैसी दोयम डिग्री लेकर लोग नियुक्तियाँ पा गये हैं,जो मित्र-कृपा से गिरते-पड़ते ही मिली है। जब ऐसे ही लोग इस विवि में आएंगे तो समझा सकता है कि इस विवि का भविष्य क्या होगा? स्वयं यहाँ के कुलपति ने भरे मंच से स्वीकार किया है कि इस संस्थान के भीतर भी ग्लूकोमा-कटरैक्ट पर उतना ही खर्च आता है जितना कि बाहर निजी अस्पतालों में। भारतभूषणजी यहाँ के एक नामी प्रोफेसर से उनके किसी मित्र ने पूछा कि आप संस्थान के निदेशक के लिए क्यों नहीं जुगाड़ लगाते हैं? उनका जबाब बड़ा व्यावहारिक है –‘अरे भाई! अपने बस पर चढ़ूँ या दोनों लंगड़ों(पुत्र-जामाता) को चढ़ाऊँ। दोनों को तो नहीं पर एक को चढ़ाने में प्रोफेसर साहब सफल भी रहे। कुल मिलाकर यही स्थिति है कि आप मेरी पीठ खुजलाओ और मैं आपकी पीठ खुजलाऊंगा । कामुक-रात्रि में सिंह-सियार जैन-गोयल-मोहन-त्रिपाठी-मिश्र-लखोटिया सबको  ठौर मिला और मौज से एक दूसरे की पीठ खुजलायी ।  
महामनाजी आपके समकालीन रहे श्री अरविन्दो कहते हैं कि  किसी भी महान देश का बौद्धिक पतन सदैव गुणों के क्षरण से प्रारंभ होता है। यह बात सोलहो आने सच है। पेरिस स्थित कालेज द फ्रांस के एक ग्रंथालय कर्मी(केडिला बुशेल) ने अपने नौकरी से इस्तीफा देना स्वीकार किया पर किताब खरीद में हुई गड़बड़ी के कागज पर हस्ताक्षर नहीं किया। पाँच सौ वर्ष पूर्व स्थापित यह शिक्षण संस्थान  इसीलिए आज भी सीना तानकर खड़ा है। पर अपना विवि तो शताब्दी वर्ष में ही दम तोड़ने लगा है । अब तो ऐसी स्थिति है कि ग्रंथालयी को कौन कहे कुलपति तक प्रकाशक का आतिथ्य स्वीकार करने के लिए लालायित हैं। इसी कुर्सी पर आपके जमाने में रंगनाथन जी बैठे थे। पर अब वे लोग बैठ रहे हैं जो सुबह-सबेरे से लेकर देर रात तक कहीं भी किसी का हाथ-पैर पकड़ते नजर आएंगे। आपको तो याद ही होगा कि क्यों आपको पंडित रामवातार शर्मा के आवास पर जाकर यह कहना पड़ा कि मैंने तो सिर्फ यह जानने की कोशिश की थी कि आपके पास समय कब रहेगा,जब आप उनसे मिल सकें। पर अब जमाना बदल गया  है । अब तो समितियों में घुसने के लिए भी जुगाड़ खोजे जाते हैं और  प्रोफेसर साहब अपनी निष्ठा साबित करने के लिए देर रात तक कुलगुरु आवास पर गुड-नाइट के लिये खड़े रहते हैं।            
किसी भी जाति/संस्था के उन्नयन का असल पैमाना उसका सौंदर्यबोध,शील और नैतिकता होता है। बदलते परिवेश के साथ विवि से ये तीनों कब लुप्त हो गए पता ही नहीं चला। विवि के चौराहों पर वट-पीपल का वृक्ष और सड़कों के किनारे छायादार-फलदार वृक्ष अशोक-शेरशाह सूरी की याद दिलाते थे, तो समकोण पर काटती हुई सड़कें हड़प्पा-सभ्यता की याद ताजा कर देती थीं । महामनाजी तथ्य तो यह है कि अर्धचंद्राकार में स्थापित इस विवि के विशाल खेल मैदान अब कब्जा के शिकार हो रहें हैं। कोने-कोने पर कंक्रीट के जंगलों का वक्ष-विस्तार हो रहा है। जैसे-जैसे मैदान अब चहारदीवारी से घिरते जा रहे हैं वैसे-2 खिलाड़ी विलुप्त होते जा रहें हैं। आजकल तो विवि में इंफ्रास्ट्रक्चर का खेल सबसे फायदे मंद है। तभी तो इस विवि के एक पूर्व कुलपति ने व्यक्तिगत बातचीत में कहा –‘डेवलपमेंट इज दि बाई प्रोडक्ट आफ करप्शन।मुझे विश्वास है कि आचार्य नरेंद्र देव आपके बगल में बैठकर अपना माथा जरूर पीट रहें होंगे। 
तथ्य तो यह है कि हरि से लेकर गिरि तक के दरबार में मिश्रजी, जो जीवन भर पेट में अपने बड़प्पन के गैस को लेकर परेशान रहे हैं ,वे रात के अंधेरे में भींगते हुए भी जाति-मृदंग पर गत बजाने से नहीं चूकते । आज इस विवि में दिमागी गुलामों और कैरियर को ही चरम पुरुषार्थ मानने वाला एक अत्यंत संगठित दस्यु-दल पैदा हो गया है । यह दल येन केन  प्रकारेण अपनी सुविधाओं को पुत्र-जामाता तक ही सुरक्षित के लिए तत्पर और बेचैन है। जब-जब इन्हें अवसर मिलता है ये जाति-बिरादारी(यहाँ बिरादारी का अर्थ अध्यापक वर्ग से है) का लंगोट पहनकर इस्लाम खतरे में हैका नारा देते हुए सक्रिय हो जाते हैं। इनकी कुटिल व्यूह रचना के फलस्वरूप विश्वविद्यालय शब्द ने अपनी अर्थवत्ता खो दिया है। हरि-गिरिअवधि में यह विवि मूलत: एक स्थानीय कालेज के रूप में ढल गया है। अब इस विवि में उन लोगों का प्रवेश हो रहा है जहां कभी काशी प्रसाद जायसवाल,वासुदेव शरण अग्रवाल और ए एस आल्तेकर जैसे मनीषी बैठते थे । कुछ दिनों पहले विवि द्वारा आयोजित एक शताब्दी व्याख्यान में मैं भी उपस्थित था। व्याख्यान के बाद मैंने आयोजनकर्ता आचार्य से पूछा कि अमेरिका से आए इन महोदय ने तो कुछ बताया ही नहीं। इंहोने तो आडिएन्स को सिर्फ पीपीटी से बहकाया है। प्रोफेसर साहब शरमा गए। भारतभूषणजी अब तो ऐसे ही व्याख्यान इस विवि में हो रहें हैं। इस शताब्दी वर्ष में एक ऐसे प्रोफेसर को व्याख्यान के लिए बुलाया गया जिनके खाते में शोध के नाम पर सिर्फ एक बार सह-निर्देशक होने  का गौरव प्राप्त है।   
प्रकाश बन जाना,उजाला फैलाना,घर-आँगन और इतिहास के अंधेरे को भगाना कोई मौज-शौक की बात नहीं। बड़ी  कठिन साधना है। बिना अपने सम्पूर्ण का त्याग किए,बिना सर्वान्तक आत्मदान के यह संभव नहीं । महामनाजी! गांधीजी आपको  भारतभूषण इसीलिये  तो कहते थे । आप तो श्रीमद्भागवत के अन्यतम व्याख्याकार रहे हैं. उसी की शब्दावली उधार ले तो जिस कामुक-सभ्यता का  विवि अनुगामी हो गया है उसे भागवत में घोर और मूढ कर्मयोग की सभ्यता का दर्जा दिया गया  है।  किसी ने कहा है कि-“ जब-जब समाज में ऐसी  स्थिति आती है तो ये जीवन-दृष्टि और आचरण को आक्रांत कर देते हैं।  ऐसी  ही अवस्था होती है किसी महामानव के अवतरण की अवस्था।” क्या हम उम्मीद करें कि इस विवि में,जिसका मन ही अहंग्रस्त-कुटिल-शंकालु हो गया है,कोईमहामना’, ‘महात्मा बन पथ-प्रदर्शन के लिये आयेगा?