मुटुर-मुटुर ताकती भारतीय (भारतीयता की) आँखें
* मनोज कुमार राय
बहुत कम ऐसे साहित्यकार होंगे जिन्होंने आपने लेखन के शुरू में ही यह घोषित कर दिया हो ‘कि मेरा सम्पूर्ण साहित्य या तो क्रोध है,नहीं तो अंतर का हाहाकार’ और जीवन भर अपने इस आदर्श पर दृढ़ता पूर्वक बिना किसी लोभ-लालच के डटे रहे । श्री कुबेरनाथ राय को इसका श्रेय प्राप्त है। श्री राय का यह क्रोध या आर्तनाद उनका निजी नहीं है अपितु सम्पूर्ण भारत का है। श्री राय की ख्याति एक ललित निबंधकार के रूप में है। ललित निबंध की प्रस्थान-त्रयी की हिंदी साहित्य में एक अघोषित परम्परा चलती रही है । अपने विशद अध्ययन-चिंतन के बावजूद प्रस्तुत रचना संचयन का संपादक भी इस मिथ से ऊपर नहीं उठ सका है । यद्यपि कि संपादक ने प्रारम्भ में ही कुबेरनाथ राय को ‘एक विलक्षण प्रतिभा से सम्पन्न अनूठे साहित्यकार’ के रूप में देखा है जिसके ‘लेखन का परिविस्तार अपनी अंतर्वस्तु और चेतना में अखिल भारतीय या राष्ट्रीय था’।
समीक्ष्य पुस्तक में प्रो शुक्ल की यह चिंता कि ‘इधर हिन्दी आलोचना में मतवाद और विचारधारा का दुराग्रह समूची सर्जनात्मकता पर धुंध की तरह छा गया है। ..... कुछ जुमलों और कुछ दर्जन भर शब्दों(जार्गंस) के सहारे जुगाली करते हुए उपजे हुए फेन से रचना को आच्छादित करके संगठन के बल से सृजन-विरोधी वातावरण रच दिया गया है’, स्वाभाविक और जायज है। पिछले कई दशकों से यह देखने में आया है कि विश्वविद्यालयों से लेकर निजी संस्थानों तक में ऐसे लोगों की संख्या खूब बढ़ी है । दक्षिण-वाम की गोलबंदी/खेमे में हर रचना को देखने की प्रवृत्ति ने वस्तुत: साहित्य का ही नुकसान किया है। पर इसकी किसे चिंता? हर कोई पुरस्कार-छपास के रोग से ऐसा ग्रसित है कि हर विधा में हाथ आजमाने से न तो चूक रहा है न ही अपनी कृतियों पर लोगों से लिखवाने के मोह से मुक्त हो पा रहा है । लेकिन कलयुग के इन विपरीत परिस्थितियों में श्री कुबेरनाथ राय का एक ही विधा और उसके माध्यम से भारतीयता के उदघाटन के लिए ‘अंगद के पाँव’ की तरह जमे रहना भारतीय किसान के उद्यम,सिसृक्षा,तितिक्षा,दायित्वबोध,जिजीविषा को दर्शाता है । श्री राय भी किसान पुत्र हैं और यह पंचामृत उन्हें जन्मजात घुट्टी में मिला है।
श्री राय अपने निबंधों की सोद्देश्यता के संदर्भ में बार-बार कहते हैं कि उनके लेखन का लक्ष्य है –‘पाठकों की चित्त-ऋद्धि का विस्तार करना और उसे एक परिमार्जित भव्यता देना ।’ अपने सम्पूर्ण लेखन के उद्देश्य की ओर इंगित करते हुए वे एक जगह लिखते हैं, “ मेरा उद्देश्य रहा है हिन्दी-पाठक के हिन्दुस्तानी मन को विश्वचित्त से जोड़ना और उनको मानसिक ऋद्धि प्रदान करना । मेरे निबंध ‘भारतीय मन और विश्वमन’ के बीच एक सामंजस्य उपस्थित करते हैं।” इस प्रतिबद्धता के पीछे उनकी यह निर्भ्रांत समझ है कि ‘मनुष्य की सार्थकता उसकी ‘देह’ में नहीं,उसके ‘चित्त’ में है। उसके चित्त गुण को उसकी सोचने-समझने और अनुभव करने की क्षमता को विस्तीर्ण कराते चलना ही ‘मानविकी’ के शास्त्रों का,विशेषत: साहित्य का मूलधर्म है।” अपने उद्देश्य-सिद्धि के लिए जो उन्होने श्रम किया है उसकी कल्पना मात्र से मन रोमांचित हो उठता है। इसके लिए उन्होने प्राचीन-अर्वाचीन साहित्य को तो खंगाला ही है, घर-आँगन,वन-जंगल के ‘महाकांतार’ में भी उनका ‘रस आखेटक’ मन मधुकरी ग्रहण करने के लिए भटकता रहा है।
समीक्ष्य पुस्तक की भूमिका में संपादक ने स्वीकार किया है कि ‘इतने व्यापक लेखन से केवल पच्चीस निबंधों का चयन किसी लेखक की सम्पूर्ण छवि प्रस्तुत करने का दावा ... नहीं कर सकता ।’ बात सिर्फ पच्चीस-तीस निबंधों की प्रस्तुति भर ही नहीं है। श्री राय का अध्ययन क्षेत्र बड़ा विशाल और अद्भुत है । उनको पढ़ना अपने को समृद्ध करना होता है । उनके लेखन में जैसे लगता है कि नृतत्वशास्त्र, समाजशास्त्र, भाषाविज्ञान, अर्थ विज्ञान, भूगोल, इतिहास,मिथक,लोक,पुरातत्व,दर्शन,मनोविज्ञान,आधुनिक चिंतन,जातीय स्मृतियाँ आदि-आदि एक जीवंत कोश बनकर पाठक के सामने उपस्थित हो जाते हैं । पाठक उनके निबंधों को पढ़ते हुए उनके तर्क,अगाध ज्ञान और मिथकों की अधुनातन व्याख्या से एक साथ न केवल विस्मित,मुग्ध और प्रसन्न होता है अपितु कई बार तो किताब बगल में रखकर आर्य-निषाद-किरात-द्राविड़ के साथ कुलांचे भरते हुए जम्बूद्वीप की यात्रा भी कर लेता है।
गांधी ने कहीं लिखा है –‘मुझे अपने देश का नाम बड़ा प्यारा है।’ कुबेरनाथजी इसकी सही व्याख्या प्रस्तुत करते हैं समीक्ष्य पुस्तक के निबंध ‘जम्बूद्वीपे-भरतखंडे’ में –“ मुझे ‘भारत’ शब्द सुनकर इसका अर्थ ..... एक प्रकाशमय,संगीतमय भाव-प्रत्यय या चैतन्य-प्रतिमा के रूप में होता है । भारत की यह निराकार मूर्ति सूक्ष्मतर होने की वजह से अधिक कालजयी है। कोई जवाहर लाल या जिन्ना इसका‘पार्टीशन’या बंदरबांट नहीं कर सकता।” इससे बड़ी चुनौती कोई लेखक दे सकता है क्या ? दक्षिण अफ्रीका से लौटते समय गांधी कहते हैं –“अब मैं भोग भूमि से कर्म भूमि की ओर जा रहा हूँ।” श्री राय इसी निबंध में आगे लिखते हैं –“ इन सारे खंडों में सिर्फ भारतवर्ष ही ‘कर्मभूमि’ है, शेष खंड मात्र ‘भोगभूमि’...। कर्मभूमि होने के कारण ही भारतवर्ष मधुमय देश है।” गांधी और श्री राय के भारत-चिंतन में कितना साम्य है? पाठक रचना-संचयन के पृष्ठ-प्रति-पृष्ठ पर इसे देख सकता है ।
श्री राय को लोक-संस्कृति और प्रकृति का अद्भुत ज्ञान है । नदी-पर्वत,खेत-खलिहान, पुष्प-पौधे,पक्षी-जानवर ,जल-जंगल-जमीन आदि संबंधी उनका ज्ञान चकित कर देता है। समीक्ष्य पुस्तक में लगभग दर्जन भर ऐसे निबंध हैं जिनमे श्री राय की यह प्रतिभा उभरकर सामने आई है। जंगल-जानवर का ज्ञान तो ऐसे लगता है जैसे सामने ‘एनिमल-प्लैनेट’ का चैनल चल रहा हो। श्री राय पाठक को प्रकृति के गोद में ले जाकर केवल छोड़ते भर नहीं हैं, वहीं वे जानवरों के माध्यम से व्यंग्य-सौंदर्य को भी उद्घाटित करते हैं। महाकांतार निबंध में वे लिखते हैं-“यह जीव (गैंडा) अपनी भारतीय ‘डेमोक्रेसी’ की तरह ‘मोट चम्मा’ और थेथर होता है। किसी भी प्रहार का कोई असर नहीं । और राजवाहन हस्ती के सामने घास में वैसे ही मुंह छिपा लेता है जैसे प्रजातन्त्र-वाहन नौकरशाही के सामने भारतीय जनता ।” आधुनिक भारतीय राजनीति पर इससे रम्य व्यंग्य और क्या हो सकता है? उसी महाकांतार (निबंध) में आगे बढ़ने पर श्री राय को ‘सामने एक मृगयूथ मिल गया,गोया वे उन्हीं(हमारा) का इंतजार कर रहें हों। मुटुर-मुटुर ताकती आँखें। ... इतना सुंदर ताकना ! इतनी सुंदर दृष्टि: इतने सुंदर ढंग से तो विश्व में केवल भारतीय आँखें ही ताकती हैं।”
भारत के भूगोल की जानकारी जिस लालित्य पूर्ण ढंग से ‘महीमाता’ निबंध में प्रस्तुत करते हैं वह एक कुशल भूगोल वेत्ता के लिए भी अविश्वासनीय सा लगता है। वह भारत की ‘रूपसी धरा’ को ‘वर्णगत विशेषता’ और ‘रासायनिक बनावट’ की दृष्टि से दो भागों में बांटते हैं-सादा भारत अर्थात आर्यावर्त और रंगीन भारत अर्थात निषाद-द्राविड़-किरात भारत । प्रथम के निर्मिति में नदियों द्वारा लायी गई मिट्टी का योगदान है। इस मिट्टी के इनमें उपस्थित चीका और रेत के विविध परिमाण के आधार पर तीन रूप निर्धारित किए गए हैं-ऊसर(रेत),मटियार(करईल) और दोमट(बलधुस) । श्री राय की नजर में ‘यह स्वर्णगर्भा वसुंधरा है,शस्य लक्ष्मी,... साक्षात माता है’।‘मिट्टी के भीतर ही एक प्राणधर्मी प्रक्रिया चलती है जिसके अनुसार उसमें रासायनिक आत्म-परिवर्तन होता रहता है’। इस निबंध को पढ़ते समय यह अहसास होता है कि काश इस रोचक ढंग से अगर बचपन में ‘भूगोल’ पढ़ाया गया होता तो उस विषय में रुचि और बढ़ गई होती और तब श्री राय का यह उदघाटन कि ‘इस प्रकार मिट्टी के रंग की दृष्टि से यह भारतवर्ष तिरंगा,त्रिवर्णी भूमि है-सादी,लाल और काली’, आसानी से हृदयंगम हुई होती।
श्री राय के लेखन में आत्मविश्वास जबर्दस्त है । श्री राय उस ऋषि परंपरा के साहित्यकार हैं जो व्यास,वाल्मीकि,कालीदास और तुलसीदास से होती हुई रवीन्द्र-निराला तक आती है । वे कहते हैं “मेरा जन्म तुलसीदास की भूमि पर हुआ है। उनके द्वारा दिये गए उत्तराधिकार का मैं भी भागीदार हूँ। इसका मुझे औसत से ज्यादा घमंड रहता है।” और हो भी क्यों न?............... छद्म सेकुलरी लेखन को वे नापसंद करते थे। वे ताल ठोककर कहते हैं-“और हिन्दू तो हैं ही,हूँ । अपने बाप को कैसे कह दूँ कि यह मेरा बाप नहीं। और यदि ऐसा कहूँ तो मुझसे बड़ा कमीना कौन होगा?” आज जब चारो तरफ पुरस्कार लेने-लौटाने का दुष्चक्र चल रहा हो वैसे में श्री राय का कथन और भी मानीखेज हो जाता है। सच तो यह है कि जिसके पास आत्मिक मूलाधार और भारतीयता का आधार भूमि होगी उसके लिए यह सामान्य बात होगी । श्री राय का सम्पूर्ण लेखन इसी से लबरेज है । इसीलिए तो वे कहते हैं-“देश को राजनीति के बाहर जाकर इतिहास,भूगोल,धर्म,संस्कृति और समाज में पहचानना होगा। ऐसा ‘देशात्मबोध’ ही सबल और सही देश भक्ति को जन्म देगा। देश भक्ति को छोड़कर और कोई उबरने का रास्ता नहीं है।”
श्री राय जहां से आते हैं उस क्षेत्र में आय के सीमित संसाधन ही उपलब्ध हैं । सरकारी नौकरियों में भाई-भतीजावाद,वैचारिक जकड़बंदी का जबर्दस्त बोलबाला था/है। आज तो हालत यह है कि हर नियुक्ति पर आप उंगली रख सकते हैं । आत्मसम्मान से समझौता न करने वाले श्री राय को सूदूर पूर्वोत्तर भारत में जाना पड़ता है- “मैं अपनी जन्मभूमि गंगातट से प्राय: दूर रहने को बाध्य हूँ और जीविकोपार्जन के लिए इस किरातारण्य से घिरे आर्यों के बीच,लौहित्य तट पर,निवास कर रहा हूँ।” वहाँ भी रहते हुए उन्होने अपने को लक्ष्य से विरत नहीं होने दिया। साहित्य साधना में सतत लगे रहे । प्राचीन भारत की अद्भुत परम्पराओं/मिथकों की व्याख्या करते रहे और वामपंथियों को ललकारते रहे-“भारत में एक भी भी वामपंथी नहीं जन्मा,जिसके पास पढ़ी हुई किताब से एक कदम आगे सही सजीव सत्य को देखने की क्षमता हो।” यह कथन भी किसी लाभ-लोभ के लिए नहीं था। भारतमाता के प्रति एक नैसर्गिक आस्था थी। उनके निशाने पर न सिर्फ वामपंथी ही नहीं हैं अपितु हिन्दी-हिन्दी का झण्डा-माइक लेकर दिन-रात चक्रमण करने वाले उद्भट विद्वान भी हैं-“हिन्दी के ये ‘हीरो’ लोग भी अपने अंत:करण को एक बार,साल भर में कम से कम एक बार टटोलें और अपने कर्मों की जबाबदेही तुलसी-कबीर-प्रेमचंद आदि की स्मृति में मन ही मन स्वयं को दें। मात्र तुलसी-कबीर और और प्रेमचंद के बल पर‘अँग्रेजी हटाओ’ किस सीमा तक सार्थक हो सकता है। .... आधे देश की मानसिक संरचना हिन्दी के साहित्यकारों के जिम्मे है। हिन्दी साहित्य के सर्वांगीण विकास का अर्थ होता है देश की आधी जनता के मानस का सर्वांगीण विकास । यह अखबारबाजी से नहीं हो सकता।” उनके इस दर्द को कौन सुनता है? सभी को जल्दी पड़ी है ‘पद’ और ‘छपास’ की ।
श्री राय अपनी सामाजिक दायित्व को भी अच्छी तरह समझते हैं। बेकारी के दिनों में अपनी क्षुधा पूर्ति के लिए पशुओं के गोबर से अनपचे अन्न को निकालकर रखने वाली एक जाति-विशेष की दुर्दशा उनके लिए असहनीय है-“रस आखेटक जब यह सोचता है तो सकी आत्मा में घाव हो जाता है,उसका घोड़ा तनकर खड़ा हो जाता है,उसके मन में क्रोध के पवित्र फूल फूटने लगते हैं।” जातिवाद इस देश की उन्नति के लिए सैकड़ों वर्षो से अभिशाप बनी हुई है। श्री राय यह मानने को तैयार नहीं है कि यह प्रथा प्राचीन काल में भी ऐसी ही थी-“ यह आज की तरह अन्यायपूर्ण जन्मसिद्ध ‘जबर्दस्ती’ न होकर सीधा-सादा स्वभावगत और कर्मगत विभाजन था और एक ही परिवार में तरह-तरह के कर्म करने की छूट थी ।” पर निजी स्वार्थवश कुछ लोगों ने इसको तोड़-मरोड़कर अपने पक्ष में व्याख्यायित किया और निकल पड़ी एक अमानवीय प्रथा। श्री राय आशावादी हैं। वे यह मानकर चलते हैं कि “इस शताब्दी के अंत होते होते ...यह भी शेष भारत की डिजाइन में आ जाएगा... प्रक्रिया तो शुरू हो गई थी,परंतु हजारवर्ष का मध्यकाल बीच में व्यवधान डाल गया।” अब इसकी ज़िम्मेदारी हमारी पीढ़ी पर है कि वह इस प्रथा को दूर करने के लिए अपनी आहुति दे।
इतिहास की समझ और परंपरा-बोध में तो श्री राय का कोई सानी नहीं है। वृहत्तर भारत के इतिहास और उस इतिहास में पसरे लोक को खोजते हुए समुद्र पार कर शैवाल द्वीप की यात्रा कर आते हैं। और लौटते हैं सदा मणि लेकर –“असंख्य अनाम अगसत्यों ने इस भारत सावित्री को इस प्रकार दक्षिण-पूर्व एशिया की आत्मा में उतारकर प्रतिष्ठित कर दिया ।’’ ‘अगस्त्य तारा’, ‘निषाद-बांसुरी’,’भारतीय किरात’ आदि निबंधों में लेखक की यह प्रतिभा निखरकर सामने आई है –“कई शताब्दी पूर्व का एक दृश्य। .....जावा,सुमात्रा,बालीद्वीप या अन्य किसी ऐसी ही भूमि का कोई भी समुद्रतट। ....ईशानकोण से भारतीय जलयानों की पांत धीरे-2 निकट आ रही है। ....सारा थोक माल पोतों में भरा पड़ा है। नाविक माल उतारने में व्यस्त है और मन ही मन संतोष की सांस ले रहे हैं कि वरुण कृपा से यात्रा सकुशल रही।” संघर्ष भरी यात्रा पूरा करने के बाद श्री राय का मन बड़े विश्वास से कहता है- “इसी से तो मैं बार बार कहता हूँ भारतीय इतिहास और लोक संस्कृति, लोक धर्म और लोकभाषा का महत्तम समापवर्तक ‘निषाद’ अर्थात आस्ट्रिक है,आर्य नहीं ।”
आज जीवन की आपाधापी में जिसे देखिये वही लिखने के लिए आतुर है। इसके लिए लेखन के हर विधा में हाथ आजमाना चाहता है । पर केवल एक विधा के माध्यम से साधना कर शीर्ष प्रतिष्ठा अर्जित करना कुबेनाथ के ही बस की बात है। उन्होने ‘भारतीय पुरा -विद्या और मिथकों का मर्म खोला है’। इसमें उनका सहायक है ‘ललित निबंध’विधा। इस विधा पर उनकी टिप्पणी देखने लायक है-“ललित निबंध एक ऐसी विधा है जो एक ही साथ शास्त्र और काव्य दोनों है। एक ही साथ,आगे पीछे के क्रम में नहीं।” ललित निबंध की परिभाषा से ‘शिव के सांढ’ का कोई भी संबंध हो सकता है,इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। पर श्री राय की तो बात ही अलग है- “ विषय के आसपास शिव के सांढ की भांति मुक्त चरण और विचरण ललित निबंध है।” निबंध/बात शुरू करने की श्री राय की अपनी शैली है। बात शुरू करते हैं घर-गाँव के आँगन से ही, पर पहुँच जाते हैं भारतीय साहित्य के उस पुरा काल में जहां से अमृत दिन-रात झरता है । समीक्ष्य पुस्तक के प्रथम निबंध की शुरुआत कुछ यों होती है-“आदिम निषाद ने मुझसे कहना प्रारम्भ किया ....”। एक अन्य निबंध ‘लोक-सरस्वती’ की प्रारम्भिक पंक्ति है-“इसी ग्रीष्मावकाश की बात है ...”। फिर तो वे इतिहास से मधु का एक-एक बूंद निचोड़कर पाठक के सामने रखने लगते है। जिस पाठक ने एक बार इस ‘मधु’ को चख लिया वह उनका मुरीद हुए बिना नहीं रहता।
श्री राय की विशेषता एक यह है कि वे गंभीर से गंभीर चिंतन को भी सृजनशील लालित्य का रूप देने में समर्थ हैं। संपादित ग्रंथ में‘ज्यां पाल सार्त्र: नव्य मार्क्सवाद की ओर’ इसका एक उदाहरण है। इस निबंध में श्री राय कहते हैं- “शोषक वर्ग का अंत हो जाना ही आखिरी बात नहीं,अंतिम लक्ष्य है अभाव का अंत”। इसी निबंध के अगले पृष्ठ पर वे कहते हैं-“मार्क्स कहता है कि सर्वहारा को बेड़ियों के अतिरिक्त कुछ खोना नहीं है। पर सार्त्र कहता है और ठीक ही कहता है कि सर्वहारा को भी एक चीज खोनी है और वह है उसका जीवन जो सबसे बड़ा मूलधन है! शेष सारी सफलताए-असफलताएं सूद-ब्याज हैं पर जीवन है मूलधन।” हिन्दी जगत में इस तरह का लेखन दुर्लभ है।
श्री राय अपार साहस लेकर अवतरित हुए हैं। वे लिखते हैं -“ मनुष्य की मनुष्यता के प्रति मेरे इस प्रतिबद्धता को कोई गाली देना चाहे तो दे,परंतु मैं मनुष्य को (और उसकी अपनी ही प्रतिमा के रूप में ‘ईश्वर’ और ‘प्रकृति’ को भी) छोड़कर अन्य किसी के प्रति साहित्य को प्रतिबद्ध नहीं मानता। शेष अन्य प्रकार की प्रतिबद्धताएं अधूरी हैं,चाहे वह प्रतिबद्धता बहुविज्ञापित समाजवाद के ही प्रति क्यों न हो।” इसीलिए वे अपने सर्वप्रिय पुस्तक ‘रामचरित मानस’ में भी संशोधन प्रस्तावित करने का दुस्साहस करते हैं-मेरा तो प्रस्ताव सिर्फ एक दर्जा ‘आक्रामक’ चौपाइयों को जो गाली गलौज सी लगती हैं(भले ही 16वीं शती में तर्क-सम्मत लगती रहीं हों) निकाल देने का है। क्योंकि आज उनका अस्तित्व ‘मानस’ में कलंक की तरह है।” गांधी-तुलसी के प्रति श्री राय की श्रद्धा जगजाहिर है । पर उनके लिए युगधर्म भी एक बड़ी चीज है। क्योंकि वे मानकर चलते हैं कि ‘संतप्त थककर बैठे हुए का योजन लंबा होता है और जागने वाले की रात लंबी होती है। हमें थककर बैठना नहीं है। हमें चल देना है।’’
आज ‘भारतीयता’ को लेकर एक बहस चल रही है। सभी अपनी-2 ढपली अपना-2 राग गा रहें हैं । मैं उन सभी लोगो से आग्रह करूंगा कि वे कुबेरनाथ राय को जरूर एक बार पढे ।