Tuesday, September 26, 2023
गांधी,स्वच्छता और सफाई
डा मनोज कुमार राय *
भारतीय इतिहास में कुछ ऐसे नायक हुए हैं जो हमारे सामने दृढ़ता और संघर्षशील का सहज सूत्र प्रस्तुत करते हैं। ऐसे अनेक नामों सर्वाधिक निकटस्थ नाम महात्मा गांधी का है। गांधी का जन्म इतिहास के उस कालखंड में हुआ था जब ‘मैं मानता हूँ कि हमारा धर्म पूर्वजों की विरासत में वृद्धि करना है ,उसे आज की मुद्रा में बदलना वर्तमान के अनुकूल बनाना है । यह काम सिर्फ अनुवाद से नहीं होगा’। ‘मैं झाड़ू में जीवन की पूरी फ़िलासफ़ी देखता हूँ।’ इस तरह की घोषणा तो वही कर सकता है जो अपार साहस लेकर पैदा हुआ हो। लिखित इतिहास का पृष्ठ-दर-पृष्ठ पलटते जाइए, इस तरह का साहसपूर्ण संदेश देने वाला और उससे बढ़कर संदेश को आचरण में उतारने वाला व्यक्ति शायद ही दिखाई दे । जीवन को टुकड़ों में बांटकर देखने वाली भेद दृष्टि गांधी को समझने में असमर्थ होती है। उनको समझने के लिए हमें जीवन को अविभक्त और अखंड ईकाई मानकर चलना होगा और तब गांधी हस्तामलकवत हो जाते हैं।
दरअसल गांधी की सबसे बड़ी खूबी यह थी कि वह संपूर्णता की लड़ाई लड़ने के लिए तैयार थे-‘हर चीज को स्वराज्य प्राप्त करने तक टालते रहना गलत बात है।.... स्वराज्य तो बहादुर और शुद्ध और स्वच्छ लोग ही प्राप्त कर सकते हैं।’ गांधी अपार साहस लेकर पैदा हुए थे। उन्होने स्वच्छता को स्वराज से जोड़ते हुए कहा -‘स्वच्छता का महत्व राजनीतिक स्वतन्त्रता से अधिक है’, और यह आत्मानुशासन के रास्ते से होकर जाता है। आजादी से चंद महीने पूर्व भी उन्होने साफ तौर पर घोषित किया,“यदि हम अपने आसपास को साफ-सुथरा नहीं रख सकते हैं तो हमारा स्वराज बेकार साबित होगा।” विशुद्ध राजनीति के क्षेत्र में आकंठ डुबकी लगाने वाले विश्व-राजनेताओं में ऐसा कोई उदाहरण नहीं दिखता है जिंहोने जीवन के हर कोने को साफ-सुथरा बनाने की कोशिश की हो । पर गांधी तो अलग मिट्टी के बने हैं । साफ-सफाई से लेकर रसोई और स्त्री समस्या तक सभी का महत्व उनकी नजर में समान है। प्रकृति-प्रेम और स्वच्छता तो उनको हृदय की गहराइयों तक पसंद थे । इन दोनों विषयों को लेकर अपनी सीमा के भीतर उन्होने खूब लिखा और भाषण दिया है। भारत लौटने के बाद 1915 के कांग्रेस अधिवेशन में वह भी आमंत्रित थे। पर ‘साधुता के बाद स्वच्छता को ही सबसे बड़ा गुण’ मानने वाला यह योद्धा-सन्यासी वहाँ भी सफाई में ही लगा ।
गांधी जब अफ्रीका से भारत लौटे तो गोखले ने उन्हें सलाह दी कि वे भारत-भ्रमण पर निकलें और भारत को समझने की कोशिश करें । गांधी के लिए यह सुझाव भारत को समझने के लिए एक बेहतरीन अवसर साबित हुआ। लेकिन गांधी के लिए उनकी भारत-यात्रा के तीर्थस्थल– ‘बनारस-हरिद्वार-गया’ एक भयानक अनुभव ही साबित हो रहे थे। हरिद्वार की यात्रा तो उनके जीवन में एक विचित्र ही अनुभव लेकर आया। यहा वे कुंभ मेले में स्वैच्छिक सेवा देने के लिए आये थे । तीर्थ-स्थलों में फैली-पसरी गंदगी उनके लिए तीर्थ न होकर व्यथा-तीर्थ का रूप धर लेती हैं—‘मैं बड़ी-2 आशाएँ लेकर और बड़ी श्रद्धा से प्रेरित होकर हरिद्वार गया था। लेकिन मैंने देखा कि वहाँ नैतिक और शारीरिक दोनों ही तरह की मलिनता है और यह स्थिति देखकर मुझे अत्यंत दुख हुआ’। सच्चाई तो यह कि सदियों से ‘धर्मशास्त्रों ने नदियों की धारा,नदी तट,आम सड़क और आमदरफ्त के दूसरे स्थानों को गंदा न करने’ की सलाह देते रहें हैं पर हमने आलस्य और अज्ञान के चलते इसे कभी गंभीरता से नहीं लिया । अपनी डाकोर यात्रा के बारे में गांधी ने लिखा है -‘पवित्र तीर्थ स्थान डाकोर यहाँ से बहुत दूर नहीं है। मैं वहाँ गया था। वहाँ की पवित्रता की कोई सीमा नहीं है। मैं स्वयं को वैष्णव भक्त मानता हूँ,इसलिए मैं डाकोर जी की स्थिति की विशेष रूप से आलोचना कर सकता हूँ। उस स्थान पर गंदगी की स्थिति ऐसी है कि स्वच्छ वातावरण में रहने वाला कोई व्यक्ति वहाँ 24 घंटे तक भी नहीं ठहर सकता । तीर्थ यात्रियों ने वहाँ के टैंकरों और गलियों को प्रदूषित कर दिया है।’ कल्पना की जा सकती है कि यह सब गंदगी गांधी तब देख रहे थे जब भारत की जनसंख्या वर्तमान जनसंख्या की एक तिहाई से भी कम थी। जनसंख्या का बहुत बड़ा हिस्सा गाँव में ही बसता था। शहरों का अमानुषी विस्तार अभी नहीं हुआ था।
गांधी मूलत: एक वैज्ञानिक थे-दार्शनिक और व्यावहारिक दोनों अर्थ में। उनके कर्म-संकुल जीवन-पद्धति में यह गुण सहज हो गया था। ‘विज्ञान और तकनीक’ गांधी की दृष्टि में अपने नाम की सार्थकता तभी साबित कर सकते हैं जब वे मनुष्य की समस्याओं को हल करने में सहायक हों । ‘गंगा की निर्मल धारा और हिमाचल के पवित्र पर्वत-शिखरों पर मोहित’ होने वाले गांधी भारत को चतुर्दिक गंदगी से जब भरा पाते हैं तो उनका मन कराह उठता था- ‘तालाबों का इतना जबर्दस्त दुरुपयोग होते रहने पर भी महामारियों से गांवों का नाश अब तक क्यों नहीं हुआ?’ अहिंसा का यह पुजारी यहीं नहीं रुकता है-‘जहां तक अस्वच्छता के इस सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न का संबंध है,मेरा मन ज़ोर-जबर्दस्ती के तरीके को भी स्वीकार करने के लिए लगभग तैयार हो जाता है।’ कल्पना की जा सकती है कि स्वच्छता बनाए रखने के लिए वे कहाँ तक जा सकते हैं। गांधी निर्भ्रांत शब्दों में कहते हैं-‘हमने पिछले सौ वर्षों में जो शिक्षा पाई है,उसका हमपर रत्ती भर भी असर नहीं पड़ा है’। वे शिक्षा के सवाल को भी बड़ी शिद्दत से उठाते हैं और उसका समाधान भी प्रस्तुत करने की कोशिश करते हैं। लगभग सौ वर्ष पूर्व ही उन्होने संकेत किया था कि सभी स्तरों पर शिक्षा पाठ्यक्रमों में स्वच्छता को शामिल किया जाना चाहिए-‘गुरुकुल के बच्चों के लिए स्वच्छता और सफाई के नियमों के ज्ञान के साथ ही उनका पालन करना भी प्रशिक्षण का हिस्सा होना चाहिए.....इन अदम्य स्वच्छता निरीक्षकों ने हमे लगातार चेतावनी दी कि स्वच्छता के संबंध में सब कुछ ठीक नहीं है...मुझे लग रहा है कि स्वच्छता पर आगन्तुको के लिए वार्षिक-व्यावहारिक सबक देने के सुनहरे मौके को हमने खो दिया।” यह तो गांधी की ही कूबत थी जिंहोने सफाई, स्वराज और शिक्षा को एक तराजू पर तौला। सच तो यह है कि किसी भी राष्ट्र को समर्थ और शक्तिशाली बनने का सूत्र तो गांधी ने बहुत पहले ही दे दिया था।
मुंबई के एक हिल स्टेशन का गांधी ने दौरा किया। वे लिखते हैं- ‘पंचगनी में सफाई की हालत भयावह है। ....लोग जहां-तहां थूक देते हैं और गंदगी फैलाते रहते हैं। ....मैं खुद भंगी बन गया हूँ....मैं भंगी का काम दक्षिण अफ्रीका से ही करता आ रहा हूँ। मैं जानता हूँ कि गंदा बने बिना यह काम कैसे किया जा सकता है। .......भंगी का काम तो एक सुंदर कला है। न केवल सफाई बिलकुल ठीक होनी चाहिए,बल्कि उसे करने का तरीका और उसके उपकरण भी साफ होने चाहिए, न कि स्वच्छता की भावना को ठेस पहुंचाने वाले।’’ गांधी की यह खूबी है कि किसी चीज को कैसे गरिमा के साथ उसके महत्व को सामने लाया जाय। भंगी-कार्य को वे कला से जोड़ देते हैं। जिस कार्य को समाज नीच कर्म मानता है उसे वे उच्च स्तर पर रख देते हैं और दूसरों का आह्वान करते हैं कि वे भी इसे उसी रूप में देखें। इतना ही नहीं भंगी को वे ब्राह्मण से भी श्रेष्ठ मानते हैं। जाति-वर्ण में श्रेष्ठता देखने वाले जड़- समाज में इस तरह का वक्तव्य देना सामान्य बात नहीं है। गांधी अपनी माँ को भी भंगी इसलिए मानते हैं कि बचपन में माँ ही उनकी साफ-सफाई का का काम देखती थी। इसी तरह भंगी भी पूरे समाज के स्वास्थ्य की सुरक्षा का ध्यान रखते हैं। इसका यह मतलब नहीं है कि वे मैला उठाने जैसे कुत्सित कार्य को बढ़ावा देते हैं- “किसी भंगी को सिर पर मल की टोकरी उठाए जाते देखकर मेरा मन खराब हो जाता है।” कोई ‘व्यक्ति अपना पेट पालने के लिए दूसरों के मैला को अपने सिर पर ढोये मानवता पर इससे बड़ा कलंक क्या होगा। समाधान के लिए भी संकेत करते हैं-‘मल-विसर्जन के लिए तो हमें कोई वैज्ञानिक तरीका प्रयोग में लाना चाहिए’।
गांधी के लिए उनका शरीर और आश्रम प्रयोगशाला के रूप में कार्य करते थे। आश्रम में साफ-सफाई को लेकर वे बहुत सतर्क रहते थे। वे आश्रम वासियों को अपने भाषण अथवा लेखन से यह बताने की प्रयास करते थे कि कैसे मल को वैज्ञानिक तरीके से विसर्जित किया जा सकता है। खेतों में जाने वालों को वह हिदायत देते थे कि पहले नौ इंच का गड्ढा खोदें फिर शौच करे । पुन: उसे ढँक दें। वह ऐसा करने के लिए इसलिए कहते थे कि जमीन के ऊपरी सतह के कुछ नीचे तक खास किस्म के जीवाणु होते हैं जो यथाशीघ्र मल को विसर्जित कर खाद के रूप में परिवर्तित कर देते हैं। कम पानी में शौच की व्यवस्था कैसे हो आश्रम में इसे लेकर वे नवीन प्रयोग करते रहते थे। एकत्रित मल को कैसे उसे खाद के रूप में बिना गंदगी के परिवर्तित कर दिया जाय इस पर भी वे पैनी नजर रखते थे।
गांधी स्वदेशी के पक्षधर थे। लेकिन अगर दूसरों से कोई अच्छी चीज सीखने को मिलती थी तो वे उसे कृतज्ञतापूर्वक स्वीकार करते थे। उन्होने लिखा-‘ पश्चिम से अभी बहुत कुछ सीखना है। पश्चिमी लोगों ने बड़े-2 शहरों का निर्माण किया है। वे ताजी हवा,स्वच्छ पानी और अपने चारो तरफ की सफाई का महत्व जानते हैं। जो शहर अपनी अपनी सफाई की ओर उचित रीति से ध्यान देगा,उसके निवासियों के स्वास्थ्य और समृद्धि दोनों की उन्नति होगी।’ स्वच्छता को वे सांस्कृतिक दाय के रूप में भी देखते हैं-‘ स्वच्छता देवत्व के निकट है । मनु,मूसा और मोहम्मद सभी अपने-अपने युगों के लिए उपयुक्त स्वच्छता के नियम बना गए हैं। प्राचीन शास्त्रकार स्वच्छता को सच्चे धार्मिक जीवन का अंग मानते थे’।
गांधी न तो कभी रूकते हैं, न ही थकते हैं। जब-जब मौका मिलता है वे अपने ध्येय पर लौट ही आते हैं-‘व्यक्ति को सबसे पहले गाँव की सफाई के सवाल को अपने हाथ में लेना चाहिए। अगर ग्राम सेवक सेवा भाव से काम करनेवाला भंगी बन जाये वह इस काम को मैला उठाकर उसकी खाद बनाने और गाँव के रास्ते बुहारने शुरू करे । गाँव के लोग उसकी बात सुने या न सुने ,वह अपना काम बराबर करता रहे।’ इसके पीछे के तर्क को भी वे सामने रखते हैं-‘स्त्रियाँ और पुरुष जिन सड़कों पर नंगे पैर चलते हैं उन्हीं को वे पाखाना करके रोज हर सुबह गंदा करते हैं।वयस्क समझदार लोगों का नदी के किनारों पर कतार बांधकर बैठ जाना और फिर पाखाना करके अपराधपूर्ण विचार-हीनता का परिचय देते हुए नदी में जाकर गंदगी साफ करना और इस तरह उसके पवित्र जल में टायफाइड,हैजे और पेचिश के कीटाणु छोड़ आना-यह दृश्य भूला नहीं हूँ।’ काव्यमयी भाषा में कही हुई यह बात हृदय को झकझोर देने के लिए काफी है। पर गांधी यहीं नहीं रुकते हैं। वे इसके तह तक जाते हैं और समाधान भी प्रस्तुत करते हैं -‘हमारे अनेक रोगों की उत्पत्ति का मूल हमारे पाखानों अथवा हमारे ‘जंगल’जाने की आदत में है।....प्रत्येक घर में शौचालय होना चाहिए। मैंने आज से पैंतीस साल पहले यह बात सीख ली थी कि शौच का स्थान भी उतना ही साफ-सुथरा रहना चाहिए जितना कि सोने-बैठने का स्थान । मैंने यह बात पश्चिम से सीखी है। मैं मानता हूँ कि शौच के बहुत से नियमों का सूछ्म पालन जैसा पश्चिम में होता है,वैसा पूर्व में नहीं । पश्चिम के शौचादि के नियमों में कुछ अपूर्णता है जो आसानी से दूर की जा सकती है।’
यह सहज ही कल्पना की जा सकती है कि दशकों पूर्व गांधी ने साफ-सफाई को लेकर जो मुकम्मल खाका खींचा था उस रास्ते पर हम कभी चले ही नहीं। परिणाम क्या हुआ? आंकड़े यह बताते हैं कि विश्व में डायरिया से होने वाली मौतों में भारत का प्रतिशत सर्वाधिक है। भारत के बड़े शहरों में एक तिहाई से अधिक अधिक लोगों के पास खुले में शौच करने के अलावा कोई विकल्प नहीं हैं। हजारो–लाखों लीटर मल-मूत्र का पानी रोज हमारे पवित्र नदियों के पेट में समा रहा है। फलस्वरूप काशी-प्रयाग जैसे तीर्थस्थालों में गंगा-यमुना जैसी पवित्र नदियां दम तोड़ रही हैं। घटिया स्वच्छता का सीधा असर हमारी आधी आबादी के मान-सम्मान,पढ़ाई-लिखाई,स्वास्थ्य और रोजगार पर पड़ता है। अपने देश में लड़कियों के स्कूल छोड़ने का एक बड़ा कारण स्कूलों में पर्याप्त साफ-सुथरा शौचालय का न होना भी है। यूटीआई जैसी घातक बीमारी भी इसी कारण होती है। आंकड़ों और अनुभव के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा रहा है कि पर्याप्त और उचित साफ-सफाई की व्यवस्था शायद 2050 तक हो पावे। ऐसे में हमें यह तय करना होगा कि यदि हम समर्थ भारत की कल्पना को साकार करना चाहते हैं तो इसके लिए पहली सीढ़ी ‘स्वच्छता’ को मजबूती से पकड़ना पड़ेगा जिसकी तरफ एक सदी पूर्व महात्मा गांधी ने न केवल संकेत किया था अपितु आचरण और सूत्र दोनों का मणिकांचनयोग हमारे सामने प्रस्तुत किया था।
*गांधी एवं शांति अध्ययन विभाग
महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय
वर्धा,महाराष्ट्र
गांधी,स्वच्छता और सफाई
डा मनोज कुमार राय *
‘मैं झाड़ू में जीवन की पूरी फ़िलासफ़ी देखता हूँ।’ इस तरह की घोषणा तो वही कर सकता है जो अपार साहस लेकर पैदा हुआ हो। लिखित इतिहास का पृष्ठ-दर-पृष्ठ पलटते जाइए,इस तरह का साहसपूर्ण संदेश देने वाला और उससे बढ़कर संदेश को आचरण में उतारने वाला व्यक्ति शायद ही दिखाई दे । गांधी के इन्हीं गुणों के बिना पर भारतीय मनीषा के अद्भूत चितेरे कुबेरनाथ जी लिखते हैं-‘मुझसे जब कोई पूछता है, ‘भारतीयता क्या है’,तो मैं इसका एक शब्द में उत्तर देता हूँ,वह शब्द है ‘रामत्व’—राम जैसा होना ही सही ढंग से भारतीय होना है। हमारे युग में भी एक पुरुष ऐसा हो गया था जिसने राम जैसा होने की चेष्टा की और बहुत कुछ सफल रहा । वह पुरुष था महात्मा गांधी ।’ भारतीयता के इतने बड़े साधक पर भी उनके वैज्ञानिक मनोदशा,सौंदर्यबोध,पर्यावरण,जीवनशैली,वन्य जीव आदि को लेकर लोग अक्सर सवाल खड़ा कर ही देते हैं । पर जब गांधी वांगमय से गुजरना होता है तो ये सारे सवाल ‘पण्ड-श्रम’ ही साबित होते हैं। दरअसल यह सब गांधी को न समझने के कारण ही होता है। जीवन को टुकड़ों में बांटकर देखने वाली भेद दृष्टि गांधी को समझने में असमर्थ होती है। उनको समझने के लिए हमें जीवन को अविभक्त और अखंड ईकाई मानकर चलना होगा और तब गांधी हस्तामलकवत हो जाते हैं।
दरअसल गांधी की सबसे बड़ी खूबी यह थी कि वह संपूर्णता की लड़ाई लड़ने के लिए तैयार थे-‘हर चीज को स्वराज्य प्राप्त करने तक टालते रहना गलत बात है।.... स्वराज्य तो बहादुर और शुद्ध और स्वच्छ लोग ही प्राप्त कर सकते हैं।’ जब वे ‘हिन्द-स्वराज’ में क्रांतिकारियों को उनकी स्वराज के संकीर्ण सोच के लिए ललकारते हैं तो इसके पीछे उनकी सुचिन्तित धारणा ही काम कर रही थी। गांधी अपार साहस लेकर पैदा हुए थे। उन्होने स्वच्छता को स्वराज से जोड़ते हुए कहा -‘स्वच्छता का महत्व राजनीतिक स्वतन्त्रता से अधिक है’, और यह आत्मानुशासन के रास्ते से होकर जाता है। आजादी से चंद महीने पूर्व भी उन्होने साफ तौर पर घोषित किया,“यदि हम अपने आसपास को साफ-सुथरा नहीं रख सकते हैं तो हमारा स्वराज बेकार साबित होगा।” विशुद्ध राजनीति के क्षेत्र में आकंठ डुबकी लगाने वाले विश्व-राजनेताओं में ऐसा कोई उदाहरण नहीं दिखता है जिंहोने जीवन के हर कोने को साफ-सुथरा बनाने की कोशिश की हो । पर गांधी तो अलग मिट्टी के बने हैं । साफ-सफाई से लेकर रसोई और स्त्री समस्या तक सभी का महत्व उनकी नजर में समान है। प्रकृति-प्रेम और स्वच्छता तो उनको हृदय की गहराइयों तक पसंद थे । इन दोनों विषयों को लेकर अपनी सीमा के भीतर उन्होने खूब लिखा और भाषण दिया है। भारत लौटने के बाद 1915 के कांग्रेस अधिवेशन में वह भी आमंत्रित थे। पर ‘साधुता के बाद स्वच्छता को ही सबसे बड़ा गुण’ मानने वाला यह योद्धा-सन्यासी वहाँ भी सफाई में ही लगा ।
गांधी जब अफ्रीका से भारत लौटे तो गोखले ने उन्हें सलाह दी कि वे भारत-भ्रमण पर निकलें और भारत को समझने की कोशिश करें । गांधी के लिए यह सुझाव भारत को समझने के लिए एक बेहतरीन अवसर साबित हुआ। लेकिन गांधी के लिए उनकी भारत-यात्रा के तीर्थस्थल– ‘बनारस-हरिद्वार-गया’ एक भयानक अनुभव ही साबित हो रहे थे। हरिद्वार की यात्रा तो उनके जीवन में एक विचित्र ही अनुभव लेकर आया। यहा वे कुंभ मेले में स्वैच्छिक सेवा देने के लिए आये थे । तीर्थ-स्थलों में फैली-पसरी गंदगी उनके लिए तीर्थ न होकर व्यथा-तीर्थ का रूप धर लेती हैं—‘मैं बड़ी-2 आशाएँ लेकर और बड़ी श्रद्धा से प्रेरित होकर हरिद्वार गया था। लेकिन मैंने देखा कि वहाँ नैतिक और शारीरिक दोनों ही तरह की मलिनता है और यह स्थिति देखकर मुझे अत्यंत दुख हुआ’। सच्चाई तो यह कि सदियों से ‘धर्मशास्त्रों ने नदियों की धारा,नदी तट,आम सड़क और आमदरफ्त के दूसरे स्थानों को गंदा न करने’ की सलाह देते रहें हैं पर हमने आलस्य और अज्ञान के चलते इसे कभी गंभीरता से नहीं लिया । अपनी डाकोर यात्रा के बारे में गांधी ने लिखा है -‘पवित्र तीर्थ स्थान डाकोर यहाँ से बहुत दूर नहीं है। मैं वहाँ गया था। वहाँ की पवित्रता की कोई सीमा नहीं है। मैं स्वयं को वैष्णव भक्त मानता हूँ,इसलिए मैं डाकोर जी की स्थिति की विशेष रूप से आलोचना कर सकता हूँ। उस स्थान पर गंदगी की स्थिति ऐसी है कि स्वच्छ वातावरण में रहने वाला कोई व्यक्ति वहाँ 24 घंटे तक भी नहीं ठहर सकता । तीर्थ यात्रियों ने वहाँ के टैंकरों और गलियों को प्रदूषित कर दिया है।’ कल्पना की जा सकती है कि यह सब गंदगी गांधी तब देख रहे थे जब भारत की जनसंख्या वर्तमान जनसंख्या की एक तिहाई से भी कम थी। जनसंख्या का बहुत बड़ा हिस्सा गाँव में ही बसता था। शहरों का अमानुषी विस्तार अभी नहीं हुआ था।
गांधी मूलत: एक वैज्ञानिक थे-दार्शनिक और व्यावहारिक दोनों अर्थ में। उनके कर्म-संकुल जीवन-पद्धति में यह गुण सहज हो गया था। ‘विज्ञान और तकनीक’ गांधी की दृष्टि में अपने नाम की सार्थकता तभी साबित कर सकते हैं जब वे मनुष्य की समस्याओं को हल करने में सहायक हों । ‘गंगा की निर्मल धारा और हिमाचल के पवित्र पर्वत-शिखरों पर मोहित’ होने वाले गांधी भारत को चतुर्दिक गंदगी से जब भरा पाते हैं तो उनका मन कराह उठता था- ‘तालाबों का इतना जबर्दस्त दुरुपयोग होते रहने पर भी महामारियों से गांवों का नाश अब तक क्यों नहीं हुआ?’ अहिंसा का यह पुजारी यहीं नहीं रुकता है-‘जहां तक अस्वच्छता के इस सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न का संबंध है,मेरा मन ज़ोर-जबर्दस्ती के तरीके को भी स्वीकार करने के लिए लगभग तैयार हो जाता है।’ कल्पना की जा सकती है कि स्वच्छता बनाए रखने के लिए वे कहाँ तक जा सकते हैं। गांधी निर्भ्रांत शब्दों में कहते हैं-‘हमने पिछले सौ वर्षों में जो शिक्षा पाई है,उसका हमपर रत्ती भर भी असर नहीं पड़ा है’। वे शिक्षा के सवाल को भी बड़ी शिद्दत से उठाते हैं और उसका समाधान भी प्रस्तुत करने की कोशिश करते हैं। लगभग सौ वर्ष पूर्व ही उन्होने संकेत किया था कि सभी स्तरों पर शिक्षा पाठ्यक्रमों में स्वच्छता को शामिल किया जाना चाहिए-‘गुरुकुल के बच्चों के लिए स्वच्छता और सफाई के नियमों के ज्ञान के साथ ही उनका पालन करना भी प्रशिक्षण का हिस्सा होना चाहिए.....इन अदम्य स्वच्छता निरीक्षकों ने हमे लगातार चेतावनी दी कि स्वच्छता के संबंध में सब कुछ ठीक नहीं है...मुझे लग रहा है कि स्वच्छता पर आगन्तुको के लिए वार्षिक-व्यावहारिक सबक देने के सुनहरे मौके को हमने खो दिया।” यह तो गांधी की ही कूबत थी जिंहोने सफाई, स्वराज और शिक्षा को एक तराजू पर तौला। सच तो यह है कि किसी भी राष्ट्र को समर्थ और शक्तिशाली बनने का सूत्र तो गांधी ने बहुत पहले ही दे दिया था।
मुंबई के एक हिल स्टेशन का गांधी ने दौरा किया। वे लिखते हैं- ‘पंचगनी में सफाई की हालत भयावह है। ....लोग जहां-तहां थूक देते हैं और गंदगी फैलाते रहते हैं। ....मैं खुद भंगी बन गया हूँ....मैं भंगी का काम दक्षिण अफ्रीका से ही करता आ रहा हूँ। मैं जानता हूँ कि गंदा बने बिना यह काम कैसे किया जा सकता है। .......भंगी का काम तो एक सुंदर कला है। न केवल सफाई बिलकुल ठीक होनी चाहिए,बल्कि उसे करने का तरीका और उसके उपकरण भी साफ होने चाहिए, न कि स्वच्छता की भावना को ठेस पहुंचाने वाले।’’ गांधी की यह खूबी है कि किसी चीज को कैसे गरिमा के साथ उसके महत्व को सामने लाया जाय। भंगी-कार्य को वे कला से जोड़ देते हैं। जिस कार्य को समाज नीच कर्म मानता है उसे वे उच्च स्तर पर रख देते हैं और दूसरों का आह्वान करते हैं कि वे भी इसे उसी रूप में देखें। इतना ही नहीं भंगी को वे ब्राह्मण से भी श्रेष्ठ मानते हैं। जाति-वर्ण में श्रेष्ठता देखने वाले जड़- समाज में इस तरह का वक्तव्य देना सामान्य बात नहीं है। गांधी अपनी माँ को भी भंगी इसलिए मानते हैं कि बचपन में माँ ही उनकी साफ-सफाई का का काम देखती थी। इसी तरह भंगी भी पूरे समाज के स्वास्थ्य की सुरक्षा का ध्यान रखते हैं। इसका यह मतलब नहीं है कि वे मैला उठाने जैसे कुत्सित कार्य को बढ़ावा देते हैं- “किसी भंगी को सिर पर मल की टोकरी उठाए जाते देखकर मेरा मन खराब हो जाता है।” कोई ‘व्यक्ति अपना पेट पालने के लिए दूसरों के मैला को अपने सिर पर ढोये मानवता पर इससे बड़ा कलंक क्या होगा। समाधान के लिए भी संकेत करते हैं-‘मल-विसर्जन के लिए तो हमें कोई वैज्ञानिक तरीका प्रयोग में लाना चाहिए’।
गांधी के लिए उनका शरीर और आश्रम प्रयोगशाला के रूप में कार्य करते थे। आश्रम में साफ-सफाई को लेकर वे बहुत सतर्क रहते थे। वे आश्रम वासियों को अपने भाषण अथवा लेखन से यह बताने की प्रयास करते थे कि कैसे मल को वैज्ञानिक तरीके से विसर्जित किया जा सकता है। खेतों में जाने वालों को वह हिदायत देते थे कि पहले नौ इंच का गड्ढा खोदें फिर शौच करे । पुन: उसे ढँक दें। वह ऐसा करने के लिए इसलिए कहते थे कि जमीन के ऊपरी सतह के कुछ नीचे तक खास किस्म के जीवाणु होते हैं जो यथाशीघ्र मल को विसर्जित कर खाद के रूप में परिवर्तित कर देते हैं। कम पानी में शौच की व्यवस्था कैसे हो आश्रम में इसे लेकर वे नवीन प्रयोग करते रहते थे। एकत्रित मल को कैसे उसे खाद के रूप में बिना गंदगी के परिवर्तित कर दिया जाय इस पर भी वे पैनी नजर रखते थे।
गांधी स्वदेशी के पक्षधर थे। लेकिन अगर दूसरों से कोई अच्छी चीज सीखने को मिलती थी तो वे उसे कृतज्ञतापूर्वक स्वीकार करते थे। उन्होने लिखा-‘ पश्चिम से अभी बहुत कुछ सीखना है। पश्चिमी लोगों ने बड़े-2 शहरों का निर्माण किया है। वे ताजी हवा,स्वच्छ पानी और अपने चारो तरफ की सफाई का महत्व जानते हैं। जो शहर अपनी अपनी सफाई की ओर उचित रीति से ध्यान देगा,उसके निवासियों के स्वास्थ्य और समृद्धि दोनों की उन्नति होगी।’ स्वच्छता को वे सांस्कृतिक दाय के रूप में भी देखते हैं-‘ स्वच्छता देवत्व के निकट है । मनु,मूसा और मोहम्मद सभी अपने-अपने युगों के लिए उपयुक्त स्वच्छता के नियम बना गए हैं। प्राचीन शास्त्रकार स्वच्छता को सच्चे धार्मिक जीवन का अंग मानते थे’।
गांधी न तो कभी रूकते हैं, न ही थकते हैं। जब-जब मौका मिलता है वे अपने ध्येय पर लौट ही आते हैं-‘व्यक्ति को सबसे पहले गाँव की सफाई के सवाल को अपने हाथ में लेना चाहिए। अगर ग्राम सेवक सेवा भाव से काम करनेवाला भंगी बन जाये वह इस काम को मैला उठाकर उसकी खाद बनाने और गाँव के रास्ते बुहारने शुरू करे । गाँव के लोग उसकी बात सुने या न सुने ,वह अपना काम बराबर करता रहे।’ इसके पीछे के तर्क को भी वे सामने रखते हैं-‘स्त्रियाँ और पुरुष जिन सड़कों पर नंगे पैर चलते हैं उन्हीं को वे पाखाना करके रोज हर सुबह गंदा करते हैं।वयस्क समझदार लोगों का नदी के किनारों पर कतार बांधकर बैठ जाना और फिर पाखाना करके अपराधपूर्ण विचार-हीनता का परिचय देते हुए नदी में जाकर गंदगी साफ करना और इस तरह उसके पवित्र जल में टायफाइड,हैजे और पेचिश के कीटाणु छोड़ आना-यह दृश्य भूला नहीं हूँ।’ काव्यमयी भाषा में कही हुई यह बात हृदय को झकझोर देने के लिए काफी है। पर गांधी यहीं नहीं रुकते हैं। वे इसके तह तक जाते हैं और समाधान भी प्रस्तुत करते हैं -‘हमारे अनेक रोगों की उत्पत्ति का मूल हमारे पाखानों अथवा हमारे ‘जंगल’जाने की आदत में है।....प्रत्येक घर में शौचालय होना चाहिए। मैंने आज से पैंतीस साल पहले यह बात सीख ली थी कि शौच का स्थान भी उतना ही साफ-सुथरा रहना चाहिए जितना कि सोने-बैठने का स्थान । मैंने यह बात पश्चिम से सीखी है। मैं मानता हूँ कि शौच के बहुत से नियमों का सूछ्म पालन जैसा पश्चिम में होता है,वैसा पूर्व में नहीं । पश्चिम के शौचादि के नियमों में कुछ अपूर्णता है जो आसानी से दूर की जा सकती है।’
यह सहज ही कल्पना की जा सकती है कि दशकों पूर्व गांधी ने साफ-सफाई को लेकर जो मुकम्मल खाका खींचा था उस रास्ते पर हम कभी चले ही नहीं। परिणाम क्या हुआ? आंकड़े यह बताते हैं कि विश्व में डायरिया से होने वाली मौतों में भारत का प्रतिशत सर्वाधिक है। भारत के बड़े शहरों में एक तिहाई से अधिक अधिक लोगों के पास खुले में शौच करने के अलावा कोई विकल्प नहीं हैं। हजारो–लाखों लीटर मल-मूत्र का पानी रोज हमारे पवित्र नदियों के पेट में समा रहा है। फलस्वरूप काशी-प्रयाग जैसे तीर्थस्थालों में गंगा-यमुना जैसी पवित्र नदियां दम तोड़ रही हैं। घटिया स्वच्छता का सीधा असर हमारी आधी आबादी के मान-सम्मान,पढ़ाई-लिखाई,स्वास्थ्य और रोजगार पर पड़ता है। अपने देश में लड़कियों के स्कूल छोड़ने का एक बड़ा कारण स्कूलों में पर्याप्त साफ-सुथरा शौचालय का न होना भी है। यूटीआई जैसी घातक बीमारी भी इसी कारण होती है। आंकड़ों और अनुभव के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा रहा है कि पर्याप्त और उचित साफ-सफाई की व्यवस्था शायद 2050 तक हो पावे। ऐसे में हमें यह तय करना होगा कि यदि हम समर्थ भारत की कल्पना को साकार करना चाहते हैं तो इसके लिए पहली सीढ़ी ‘स्वच्छता’ को मजबूती से पकड़ना पड़ेगा जिसकी तरफ एक सदी पूर्व महात्मा गांधी ने न केवल संकेत किया था अपितु आचरण और सूत्र दोनों का मणिकांचनयोग हमारे सामने प्रस्तुत किया था।
*विकास एवं शांति अध्ययन विभाग
महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय
वर्धा,महाराष्ट्र
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment