सेवा में
अध्यक्ष
भारतीय विश्वविद्यालय
का एक विभाग
भारतीय विश्वविद्यालय,भारत
विषय: विभाग के उन्नयन
के संदर्भ में।
महोदय,
मुझे यह
औपचारिक पत्र बहुत विचार करने के बाद लिखना पड़ रहा है। लगभग पाँच-छ: हफ्ते से मैं
परेशान हूँ। मुझे लग रहा है जैसे कि मुझसे कोई अपराध हो गया हो। इसलिये तय किया कि ‘मन की बात’ को लिख ही देना चाहिये आखिर अपने
प्रधानमंत्री भी तो ‘मन की बात’ करते ही हैं।
मई 2018 के किसी तारीख को
विभाग में ‘डिग्री/डिप्लोमा’ का साक्षात्कार था। विभागीय सहयोगियों के साथ-2 वाह्य विशेषज्ञ के रूप में
विवि के ही एक वरिष्ठ/गरिष्ठ प्रोफेसर कुमार साहब भी उपस्थित थे। साक्षात्कार में
प्रतिभागियों का प्रदर्शन सामान्य से लेकर उत्तम
तक था। लेकिन दो-तीन विद्यार्थी जो विभाग के शोधार्थी भी हैं,का साक्षात्कार बेहद खराब था। उन्होने एक भी प्रश्न का जबाब नहीं दिया। एक
विद्यार्थी ने तो अपना मुंह तक नहीं खोला। एक प्रश्न के जबाब में एक विभागीय
सहयोगी ने तो इमिला-सुलेख बोलकर उससे उत्तर जानने की भी कोशिश की। मैंने इन दोनों
को फेल करने के लिए कहा । पर विभाग के अन्य सहयोगियों तथा खास तौर पर आप और वाह्य
विशेषज्ञ महोदय किसी अदृश्य कारण से उन्हें उत्तीर्ण करने पर आमादा थे। न चाहते
हुए भी मुझे आप लोगों का साथ देना पड़ा। यही ‘साथ देना’ अब भी मुझे कचोट रहा है।
अध्यक्ष महोदय
अभी-अभी एम फिल/पीएच डी के विद्यार्थियों ने विभाग की कार्यशैली को लेकर प्रश्न
खड़ा किया हैं। अंकों को लेकर उनके मन में कल्मष और अमर्ष है। दरअसल विद्यार्थियों
द्वारा उठाया गया सवाल उस सामूहिक संत्रास को व्यक्त करता है जो अराजकता के मध्य
पड़ी किसी भी भारतीय विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों को भोगना पड़ता है। विभाग के लिए यह कोई शुभ संकेत नहीं है। विद्यार्थियों ने पिछले कई वर्षों से हो रहे इस धांधली (यदि है तो) की
ओर ध्यान आकृष्ट कराया है। मैं उनके द्वारा प्रस्तुत आंकड़ो के विश्लेषण से स्वयं
हतप्रभ हूँ। एक अध्यापक होने के नाते मुझे कभी नहीं लगा कि किसी एक विद्यार्थी के पक्ष में खड़े होकर दूसरे का नुकसान करना चाहिए ।
विश्वविद्यालय के दूसरे विभागों में यह सब सुनने में आता रहा है।यहाँ तक कि
विश्वविद्यालय के वरिष्ठ अधिकारियों पर भी इस तरह के आरोप विद्यार्थियों द्वारा
लगाए जाते रहें हैं। लेकिन अपने ही पाँव तले जमीन इतनी पोली होगी,इसकी तो कल्पना ही नहीं की थी। ‘सर्टिफिकेट/डिप्लोमा’ में फेल होने लायक विद्यार्थी का ‘शोध-परीक्षा’ में पास हो जाना निश्चित तौर पर एक गहरी साजिश का हिस्सा है,अब यह मानने का मन करता है। विभाग के एक वरिष्ठ साथी ने भी इस बात को दबे
स्वर में स्वीकार किया। लेकिन एक अदृश्य भय ने सबका मुंह बंद कर रखा है।
अध्यक्ष महोदय
महाभारत के वन पर्व के एक प्रसंग में यक्ष युधिष्ठिर से पूछता है-‘हे युधिष्ठिर-‘पुरुष’ का
विस्तार क्या है? युधिष्ठिर का उत्तर अद्भुत और शानदार
है: ‘अच्छे कर्मों का शब्द पृथ्वी को छूकर आकाश को छू लेता है और जितना पुण्य कर्म की ध्वनि का
विस्तार होता है,उतना ही ‘पुरुष’ का विस्तार समझो’। महोदय
मैं भारत के तमाम विश्वविद्यालयों के इतिहास में
धावमान महावीरों का अक्सर स्मरण करता हूँ फिर अपने या विभाग को उनकी कसौटी पर कसने
की कोशिश करता हूँ। यह स्वीकार करने में कत्तई गुरेज नहीं कि विश्वविद्यालय सहित
विभाग द्रुत गति से पतन के रास्ते पर है। विभाग या विश्वविद्यालय का नाम किसी महापुरुष के नाम पर रख देने या लिनेन-खादी का बुशर्ट-कुर्ता-पायजामा
पहनकर यदि गांधी-अंबेडकर-लोहिया पथ का मिलना होता तो कब का मिल गया होता। आदरणीय
डा साहब! यह ‘असि धारा व्रत’ है। यहाँ अहर्निश सजगता और सतर्कता की जरूरत पड़ती है। अश्वत्थामा की तरह
सफ़ेद घोल को पीकर ‘दूध पी रहा हूँ’,सोचकर संतोष कर लेने से काम नहीं चलने वाला। यहाँ तो नोय-पगहा-बछड़ा-गाय और
नाद-खूंटा के ‘महायान’ का ‘अनुशासन-पर्व’ रचना होगा ।और ईमानदारी से कहूँ
तो आप इसमें बुरी तरह असफल रहें हैं । वेतन भोगियों की तरह महीने के अंतिम दिन
सिर्फ ‘पासबुक’ देखने के लिए
अध्यापक नहीं होते है। समाज से हम जो ले रहें है, उसमें
कितना ‘वैल्यू एडिशन’ कर पा
रहें हैं,इसे तय करना होगा।
आदरणीय अध्यक्ष जी
आप तो भारत-अध्ययन के सुधी विद्वान के रूप में ख्यात हैं।
मुझे उम्मीद है कि आपने निश्चित ही रामायण,भागवत और महाभारत
को ठीक तरीके से पढ़ा ही होगा ।ये ग्रंथ भारतीय
नायकों को न केवल प्रिय रहे हैं अपितु उन लोगों
ने तो यहाँ से अपने लिए शील,रस और बोध का आहरण किया है । रामायण में लिखा है - ‘सत्य मूलानि सर्वाणि सत्या परन्नास्ति पदम’ अर्थात ‘सत्य ही मनुष्य जीवन के सारे अंगों और क्रियाओं के मूल में है,सत्य से आगे कुछ नहीं,वही पराकाष्ठा है’।अब जब हम सब आपके नेतृत्व में इस विभाग को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहें
हैं, उसमें इस तरह के प्रसंगों का घटना अत्यंत दुखदायी
है। माना कि हम लोगों के पास कोई मौलिक ज्ञान देने की हैसियत नहीं है। पर आचरण को
शुद्ध करने की क्षमता तो होनी ही चाहिए।
अध्यक्ष जी
आपकी कार्यशैली भी अद्भुत है। गोपनीयता आपके पोर-पोर में भिनी हुई है। अक्सर देखने
में आया है कि विभागीय स्तर पर होने वाली ‘बोर्ड आफ
स्टडीज़’ जैसी महत्वपूर्ण समिति की बैठक-तिथि हो या या
इस समिति के लिए वाह्य विशेषज्ञ अथवा पूर्व छात्र के नाम तय करने की बात हो,आप अकेले ही (किसी से विशेष तरीके से बात करते हों तो मुझे नहीं पता) तय
कर लेते हैं। इस गोपनीयता से आप क्या प्राप्त करते हैं,आप ही
बेहतर जानते होंगे। मेरी दृष्टि में यह एक खतरनाक प्रवृत्ति है जो प्राय:
विनाशकारी ही होती है। आप कई बार तो चतुराई से बैठक की सूचना घंटा भर पहले देते
हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि विभाग में संवाद की कोई परंपरा ही विकसित नहीं हो पाई।
अध्यक्ष के रूप में मिली ताकत का आपने निजी लाभ के लिए ही ज्यादा किया है,विभाग के लिए कम। कई बार तो कार्यलीय पत्र को भी सामने ही छुपाकर पढ़ते हैं
अथवा हस्ताक्षर करते हैं। मुझे नहीं लगता कि कभी आपने विभाग के बारे में छात्रों
की पसंद-नापसंद का ध्यान रखा हो या उनके भी विचार जानने की कोशिश की हो। सदैव केवल
कुछ आत्मप्रशंसा के शब्द-वाक्य ही आपके लिए अर्थपूर्ण बने रहे और उसी का झुनझुना
बजाते रहते हैं।
विभागीय सहयोगियों सहित
छात्रों से भी जब आप यह कहते हैं कि ‘मैं तो छः बजे तक दुकान
लगाकर बैठा रहता हूँ और एक मिनट के लिए भी इधर-उधर नहीं होता हूँ’, तो हंसने का मन होता है। डा साहब ! छात्र यह सब सुन-सुनाकर खिल-खिलाकर
हँसते हैं । छात्रों की छोटी सी चूक(मोबाइल का बज जाना या ऐसी ही कुछ घटनाएँ) पर
जब आप यह कहते हैं कि ‘भूतपूर्व हो जायेंगे’ या ‘पीछे चले गए’, इत्यादि
तो विद्यार्थी इसका मोनो एक्टिंग भी करते हैं। आदरणीय अध्यक्ष जी दिन भर बैठने के
बाद प्रगति क्या हुई यह महत्वपूर्ण है न कि घंटा देखना। तुलसी ने कहा भी है-‘बहुत चले सो वीर न होई’। क्या आपने यह कोशिश कभी की कि सुबह साढ़े दस बजे तक सभी सहयोगी इकट्ठा हो
सकें और विषय पर बातचीत करें कि विभागीय प्रगति के लिए क्या कुछ किया जा सकता है।
जुमला या किस्सा कहानी से विभाग नहीं चलता है। विभाग की उन्नति के लिये अपने को
पलछिन होम करना पड़ता है।
अध्यक्ष जी मुझे यह
कहने में कत्तई संकोच नहीं है कि आज अदृश्य आसुरी प्रवृत्तियों के प्रभाव में
विभागीय दीपक की लौ निरंतर पतली होती जा रही है और आप रोम के नीरो की तरह चैन की
वंशी बजा रहें हैं। विश्वविद्यालय स्तर पर विभागीय संवेदना को लेकर चटखारे लिए
जाते रहें हैं। उच्च पदस्थ अधिकारी भी कई बार सामने ही व्यंग्य कर जाते हैं और आप
उसे ‘इलहाम’ के रूप में दत्तचित होकर सुनते रहते हैं। विभाग को क्या-क्या सुविधाएं
मिलनी चाहिए इस पर आपका कभी ध्यान गया हो, मुझे याद
नहीं है। विद्यार्थियों की सुविधाओं कैसे वृद्धि की जाये जिससे वे आकर्षित होकर
यहाँ समय दें, इस पर कभी भी सामूहिक रूप से विचार नहीं
किया गया। पैसेंजर ट्रेन के डिब्बों की तरह सभी अध्यापक अलग-2 डिब्बों/कमरों में
अपना राज-सिंहासन जमा कर बैठ गए हैं। अब तो स्थिति आ गई है कि अध्यापक एक दूसरे के
खिलाफ विष-वमन कर रहें हैं और विद्यार्थी अलग-2 समूहों में इस पतन-गाथा पर
व्हाटसैप-कवितायें भी लिख रहें हैं।
डा साहब ! आप इतिहास के
भी अध्येता हैं। इतिहास-प्रवेश में आपकी गहरी रुचि है। बातचीत के दौरान अक्सर आप
इतिहास खासकर आधुनिक इतिहास को लेकर अपनी टिप्पणी भी देते रहते हैं। इतिहास की
पाश्चात्य व्याख्या है ‘इतिहास सामाजिक एवं आर्थिक शक्तियों की’रचना’ या ‘उत्पादन’ है। लेकिन इसकी भारतीय व्याख्या कहती है-‘राजा
कालस्य कारणम’। अर्थात राजा ‘राजा’ यानि महापुरुष ही ‘काल’ अर्थात इतिहास की रचना करता है’। मैं भी अपने प्रिय लेखक द्वारा की गई इस व्याख्या से सहमत हूँ। उनकी उस
व्याख्या को यदि विभाग के उन्नयन के रूप में व्याख्यायित करूँ तो कह सकता हूँ कि
जिस तरह ‘काल’ की रचना में
राजा या महापुरुष का योगदान होता है उसी तरह विभाग की रचना में अध्यक्ष का योगदान
होता है। खास तौर से उसकी जिम्मेदारी तब और बढ़ जाती है जब वह संस्थापक अध्यक्ष के
रूप में सामने हो। लेखक की यह टिप्पणी कि ‘इतिहास-सभ्यता-संस्कृति
आदि की रचना ‘व्यक्ति’ करता
है ‘जन’ तो उसे विस्तार और
दृढ़ता मात्र देता है’, देखने में प्रतिक्रियावादी जरूर
लगता है परंतु है सौ फीसदी सच। ठीक इसी तरह विभाग के निर्माण में अध्यक्ष की
भूमिका महत्वपूर्ण होती है । वह चाहे तो विभाग को सही दिशा में ले जा सकता है या
फिर उस पर कुंडली मारकर बैठ भी सकता है।
डा साहब ! हमारे
पूर्वजों ने हमें बार-2 चेताते हुए कहा है-“ भिक्षुओं,आँखें
जल रहीं हैं! सारा दृश्यमान जगत जल रहा है!” यह
एकदम सीधा संदेश है। परंतु हम पर इस चेतावनी का कोई असर नहीं होता। क्या कारण है
कि प्रवेश प्रक्रिया से लेकर परिणाम आने तक पूरा विवि ही मानसिक रणक्षेत्र में बदल
जाता है। विभाग भी इससे अछूता नहीं है। इस पर हमे गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए।
विषय बहुत गंभीर है। इस
पर फिर कभी लेखन-चर्चा होगी। एक सुंदर कविता से इस पत्र को विश्राम दे रहा हूँ-
“मुझसे
मत पूछो मैं अशांत क्यों हूँ?
समुद्र से पूछो वह
अशांत क्यों हैं?
मुझसे मत पूछो मैं
क्रुद्ध क्यों हूँ? तूफान से उत्तर मांगो।
यह जान लो कि समय मेरे
लिए कागज है
जिस पर मैं मानव जगत के
लिए अपने स्वप्न अंकित कर रहा हूँ।”
धन्यवाद सहित !
आपका
चिन्मय भारत
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