Wednesday, September 5, 2018


सेवा में
अध्यक्ष
भारतीय विश्वविद्यालय का एक विभाग
भारतीय विश्वविद्यालय,भारत

विषय: विभाग के उन्नयन के संदर्भ में।
महोदय,
मुझे यह औपचारिक पत्र बहुत विचार करने के बाद लिखना पड़ रहा है। लगभग पाँच-छ: हफ्ते से मैं परेशान हूँ। मुझे लग रहा है जैसे कि मुझसे कोई अपराध हो गया हो। इसलिये तय किया कि ‘मन की बात’ को लिख ही देना चाहिये आखिर अपने प्रधानमंत्री भी तो ‘मन की बात’ करते ही हैं।
 मई 2018 के किसी तारीख को विभाग में ‘डिग्री/डिप्लोमा’ का साक्षात्कार था। विभागीय सहयोगियों के साथ-2 वाह्य विशेषज्ञ के रूप में विवि के ही एक वरिष्ठ/गरिष्ठ प्रोफेसर कुमार साहब भी उपस्थित थे। साक्षात्कार में प्रतिभागियों का प्रदर्शन सामान्य  से लेकर उत्तम तक था। लेकिन दो-तीन विद्यार्थी जो विभाग के शोधार्थी भी हैं,का साक्षात्कार बेहद खराब था। उन्होने एक भी प्रश्न का जबाब नहीं दिया। एक विद्यार्थी ने तो अपना मुंह तक नहीं खोला। एक प्रश्न के जबाब में एक विभागीय सहयोगी ने तो इमिला-सुलेख बोलकर उससे उत्तर जानने की भी कोशिश की। मैंने इन दोनों को फेल करने के लिए कहा । पर विभाग के अन्य सहयोगियों तथा खास तौर पर आप और वाह्य विशेषज्ञ महोदय किसी अदृश्य कारण से उन्हें उत्तीर्ण करने पर आमादा थे। न चाहते हुए भी मुझे आप लोगों का साथ देना पड़ा। यही ‘साथ देना’ अब भी मुझे कचोट रहा है।
अध्यक्ष महोदय अभी-अभी एम फिल/पीएच डी के विद्यार्थियों ने विभाग की कार्यशैली को लेकर प्रश्न खड़ा किया हैं। अंकों को लेकर उनके मन में कल्मष और अमर्ष है। दरअसल विद्यार्थियों द्वारा उठाया गया सवाल उस सामूहिक संत्रास को व्यक्त करता है जो अराजकता के मध्य पड़ी किसी भी भारतीय विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों को भोगना पड़ता है।  विभाग के लिए यह कोई शुभ संकेत नहीं है। विद्यार्थियों ने पिछले कई वर्षों से हो रहे इस धांधली (यदि है तो) की ओर ध्यान आकृष्ट कराया है। मैं उनके द्वारा प्रस्तुत आंकड़ो के विश्लेषण से स्वयं हतप्रभ हूँ। एक अध्यापक होने के नाते मुझे कभी नहीं लगा कि किसी  एक विद्यार्थी के पक्ष में खड़े होकर दूसरे का नुकसान करना चाहिए । विश्वविद्यालय के दूसरे विभागों में यह सब सुनने में आता रहा है।यहाँ तक कि विश्वविद्यालय के वरिष्ठ अधिकारियों पर भी इस तरह के आरोप विद्यार्थियों द्वारा लगाए जाते रहें हैं। लेकिन अपने ही पाँव तले जमीन इतनी पोली होगी,इसकी तो कल्पना ही नहीं की थी। ‘सर्टिफिकेट/डिप्लोमा’ में फेल होने लायक विद्यार्थी का ‘शोध-परीक्षा’ में पास हो जाना निश्चित तौर पर एक गहरी साजिश का हिस्सा है,अब यह मानने का मन करता है। विभाग के एक वरिष्ठ साथी ने भी इस बात को दबे स्वर में स्वीकार किया। लेकिन एक अदृश्य भय ने सबका मुंह बंद कर रखा है।
अध्यक्ष महोदय महाभारत के वन पर्व के एक प्रसंग में यक्ष युधिष्ठिर से पूछता है-हे युधिष्ठिर-पुरुष’ का विस्तार क्या हैयुधिष्ठिर का उत्तर अद्भुत और शानदार है: ‘अच्छे कर्मों का शब्द  पृथ्वी को छूकर आकाश को छू लेता है और जितना पुण्य कर्म की ध्वनि का विस्तार होता है,उतना ही ‘पुरुष’ का विस्तार समझो  महोदय मैं भारत के तमाम  विश्वविद्यालयों के इतिहास में धावमान महावीरों का अक्सर स्मरण करता हूँ फिर अपने या विभाग को उनकी कसौटी पर कसने की कोशिश करता हूँ। यह स्वीकार करने में कत्तई गुरेज नहीं कि विश्वविद्यालय सहित विभाग द्रुत गति से पतन के रास्ते पर है। विभाग या विश्वविद्यालय का नाम किसी महापुरुष के नाम पर रख देने या लिनेन-खादी का बुशर्ट-कुर्ता-पायजामा पहनकर यदि गांधी-अंबेडकर-लोहिया पथ का मिलना होता तो कब का मिल गया होता। आदरणीय डा साहबयह ‘असि धारा व्रत’ है। यहाँ अहर्निश सजगता और सतर्कता की जरूरत पड़ती है। अश्वत्थामा की तरह सफ़ेद घोल को पीकर ‘दूध पी रहा हूँ’,सोचकर संतोष कर लेने से काम नहीं चलने वाला। यहाँ तो नोय-पगहा-बछड़ा-गाय और नाद-खूंटा के ‘महायान’ का ‘अनुशासन-पर्व’ रचना होगा ।और ईमानदारी से कहूँ तो आप इसमें बुरी तरह असफल रहें हैं । वेतन भोगियों की तरह महीने के अंतिम दिन सिर्फ ‘पासबुक’ देखने के लिए अध्यापक नहीं होते है। समाज से हम जो ले रहें हैउसमें कितना ‘वैल्यू एडिशन’ कर पा रहें हैं,इसे तय करना होगा। 
आदरणीय अध्यक्ष जी आप तो भारत-अध्ययन के सुधी विद्वान के रूप में ख्यात हैं। मुझे उम्मीद है कि आपने निश्चित ही रामायण,भागवत और महाभारत को ठीक तरीके से पढ़ा  ही होगा ।ये ग्रंथ भारतीय नायकों  को न केवल प्रिय रहे हैं अपितु उन लोगों ने तो यहाँ से अपने लिए  शील,रस और बोध का आहरण किया है । रामायण में लिखा है - ‘सत्य मूलानि सर्वाणि सत्या परन्नास्ति पदम’ अर्थात ‘सत्य ही मनुष्य जीवन के सारे अंगों और क्रियाओं के मूल में है,सत्य से आगे कुछ नहीं,वही पराकाष्ठा है।अब जब हम सब आपके नेतृत्व में इस विभाग को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहें हैंउसमें इस तरह के प्रसंगों का घटना अत्यंत दुखदायी है। माना कि हम लोगों के पास कोई मौलिक ज्ञान देने की हैसियत नहीं है। पर आचरण को शुद्ध करने की क्षमता तो होनी ही चाहिए।
अध्यक्ष जी आपकी कार्यशैली भी अद्भुत है। गोपनीयता आपके पोर-पोर में भिनी हुई है। अक्सर देखने में आया है कि विभागीय स्तर पर होने वाली ‘बोर्ड आफ स्टडीज़’ जैसी महत्वपूर्ण समिति की बैठक-तिथि हो या या इस समिति के लिए वाह्य विशेषज्ञ अथवा पूर्व छात्र के नाम तय करने की बात हो,आप अकेले ही (किसी से विशेष तरीके से बात करते हों तो मुझे नहीं पता) तय कर लेते हैं। इस गोपनीयता से आप क्या प्राप्त करते हैं,आप ही बेहतर जानते होंगे। मेरी दृष्टि में यह एक खतरनाक प्रवृत्ति है जो प्राय: विनाशकारी ही होती है। आप कई बार तो चतुराई से बैठक की सूचना घंटा भर पहले देते हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि विभाग में संवाद की कोई परंपरा ही विकसित नहीं हो पाई। अध्यक्ष के रूप में मिली ताकत का आपने निजी लाभ के लिए ही ज्यादा किया है,विभाग के लिए कम। कई बार तो कार्यलीय पत्र को भी सामने ही छुपाकर पढ़ते हैं अथवा हस्ताक्षर करते हैं। मुझे नहीं लगता कि कभी आपने विभाग के बारे में छात्रों की पसंद-नापसंद का ध्यान रखा हो या उनके भी विचार जानने की कोशिश की हो। सदैव केवल कुछ आत्मप्रशंसा के शब्द-वाक्य ही आपके लिए अर्थपूर्ण बने रहे और उसी का झुनझुना बजाते रहते हैं। 
विभागीय सहयोगियों सहित छात्रों से भी जब आप यह कहते हैं कि ‘मैं तो छः बजे तक दुकान लगाकर बैठा रहता हूँ और एक मिनट के लिए भी इधर-उधर नहीं होता हूँ’, तो हंसने का मन होता है। डा साहब ! छात्र यह सब सुन-सुनाकर खिल-खिलाकर हँसते हैं । छात्रों की छोटी सी चूक(मोबाइल का बज जाना या ऐसी ही कुछ घटनाएँ) पर जब आप यह कहते हैं कि ‘भूतपूर्व हो जायेंगे’ या ‘पीछे चले गए’, इत्यादि तो विद्यार्थी इसका मोनो एक्टिंग भी करते हैं। आदरणीय अध्यक्ष जी दिन भर बैठने के बाद प्रगति क्या हुई यह महत्वपूर्ण है न कि घंटा देखना। तुलसी ने कहा भी है-बहुत चले सो वीर न होई  क्या आपने यह कोशिश कभी की कि सुबह साढ़े दस बजे तक सभी सहयोगी इकट्ठा हो सकें और विषय पर बातचीत करें कि विभागीय प्रगति के लिए क्या कुछ किया जा सकता है। जुमला या किस्सा कहानी से विभाग नहीं चलता है। विभाग की उन्नति के लिये अपने को पलछिन होम करना पड़ता है।
अध्यक्ष जी मुझे यह कहने में कत्तई संकोच नहीं है कि आज अदृश्य आसुरी प्रवृत्तियों के प्रभाव में विभागीय दीपक की लौ निरंतर पतली होती जा रही है और आप रोम के नीरो की तरह चैन की वंशी बजा रहें हैं। विश्वविद्यालय स्तर पर विभागीय संवेदना को लेकर चटखारे लिए जाते रहें हैं। उच्च पदस्थ अधिकारी भी कई बार सामने ही व्यंग्य कर जाते हैं और आप उसे ‘इलहाम’ के रूप में दत्तचित होकर सुनते रहते हैं। विभाग को क्या-क्या सुविधाएं मिलनी चाहिए इस पर आपका कभी ध्यान गया होमुझे याद नहीं है। विद्यार्थियों की सुविधाओं कैसे वृद्धि की जाये जिससे वे आकर्षित होकर यहाँ समय देंइस पर कभी भी सामूहिक रूप से विचार नहीं किया गया। पैसेंजर ट्रेन के डिब्बों की तरह सभी अध्यापक अलग-2 डिब्बों/कमरों में अपना राज-सिंहासन जमा कर बैठ गए हैं। अब तो स्थिति आ गई है कि अध्यापक एक दूसरे के खिलाफ विष-वमन कर रहें हैं और विद्यार्थी अलग-2 समूहों में इस पतन-गाथा पर व्हाटसैप-कवितायें भी लिख रहें हैं।
डा साहब ! आप इतिहास के भी अध्येता हैं। इतिहास-प्रवेश में आपकी गहरी रुचि है। बातचीत के दौरान अक्सर आप इतिहास खासकर आधुनिक इतिहास को लेकर अपनी टिप्पणी भी देते रहते हैं। इतिहास की पाश्चात्य व्याख्या है ‘इतिहास सामाजिक एवं आर्थिक शक्तियों कीरचना’ या ‘उत्पादन’ है। लेकिन इसकी भारतीय व्याख्या कहती है-राजा कालस्य कारणम। अर्थात राजा ‘राजा’ यानि महापुरुष ही ‘काल’ अर्थात इतिहास की रचना करता है  मैं भी अपने प्रिय लेखक द्वारा की गई इस व्याख्या से सहमत हूँ। उनकी उस व्याख्या को यदि विभाग के उन्नयन के रूप में व्याख्यायित करूँ तो कह सकता हूँ कि जिस तरह ‘काल’ की रचना में राजा या महापुरुष का योगदान होता है उसी तरह विभाग की रचना में अध्यक्ष का योगदान होता है। खास तौर से उसकी जिम्मेदारी तब और बढ़ जाती है जब वह संस्थापक अध्यक्ष के रूप में सामने हो। लेखक की यह टिप्पणी कि ‘इतिहास-सभ्यता-संस्कृति आदि की रचना ‘व्यक्ति’ करता है ‘जन’ तो उसे विस्तार और दृढ़ता मात्र देता है’, देखने में प्रतिक्रियावादी जरूर लगता है परंतु है सौ फीसदी सच। ठीक इसी तरह विभाग के निर्माण में अध्यक्ष की भूमिका महत्वपूर्ण होती है । वह चाहे तो विभाग को सही दिशा में ले जा सकता है या फिर उस पर कुंडली मारकर बैठ भी सकता है।  
डा साहब ! हमारे पूर्वजों ने हमें बार-2 चेताते हुए कहा है-भिक्षुओं,आँखें जल रहीं हैं! सारा दृश्यमान जगत जल रहा है!”  यह एकदम सीधा संदेश है। परंतु हम पर इस चेतावनी का कोई असर नहीं होता। क्या कारण है कि प्रवेश प्रक्रिया से लेकर परिणाम आने तक पूरा विवि ही मानसिक रणक्षेत्र में बदल जाता है। विभाग भी इससे अछूता नहीं है। इस पर हमे गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए।
विषय बहुत गंभीर है। इस पर फिर कभी लेखन-चर्चा होगी। एक सुंदर कविता से इस पत्र को विश्राम दे रहा हूँ-
मुझसे मत पूछो मैं अशांत क्यों हूँ?
समुद्र से पूछो वह अशांत क्यों हैं?
मुझसे मत पूछो मैं क्रुद्ध क्यों हूँतूफान से उत्तर मांगो।
यह जान लो कि समय मेरे लिए कागज है
जिस पर मैं मानव जगत के लिए अपने स्वप्न अंकित कर रहा हूँ।

धन्यवाद सहित !
आपका
चिन्मय भारत


Monday, August 6, 2018


                                           हाय हुसैन, हम क्यों न हुए... 

भारतीय मन की एक खास विशेषता है-विदेशी वस्तुओं/यात्राओं/पुरस्कारों/डिग्रियों/प्रमाणों को कुंतलसे भी अधिक तवज्जो देना । जब कभी अवसर मिलता है वह इन अवसरों से चूकना नहीं चाहता है। अपने देश के पठन-पाठन की कक्षा में जिस अध्यापक की नानी मर जाती हैं वह विदेश में हिन्दी के नाम पर मिडिल दर्जे की हिन्दी पढ़ाने के लिए बेचैन हो जाता है। विदेश जाने की यह ललक/वायरस केवल शिक्षा जगत तक ही सीमित नहीं है। यह तो हर हिन्दुस्तानी के डीएनए में है। खेल कूद में ही देखिये । कहीं भी टीम जानी हो दौरे को लेकर विवाद शुरू हो जाता है। जिंहोने कभी लंगोट भी नहीं पहना वे कुश्ती टीम के मैनेजर ही बनकर जा रहें हैं। खिलाड़ी चार जा रहें है तो चौदह खानसामे भी जा रहें हैं। जनता के बाप का पैसा है तो गुलछर्रे उड़ाने के लिए ताकतवर ही जाएँगे।

वैसे तो आजकल विदेश यात्रा के ढेरों अवसर मिलते रहते हैं। फर्राश से लेकर नाबदान साफ करने वाले स्किल्ड लेबर भी खाड़ी देशों में अपनी जवानी ताक पर रखकर डालर-दीनार से भारत सरकार के विदेशी मुद्रा-भंडार में बढ़ोत्तरी कर रहें हैं। पर ये बिचारे अपने खर्चे पर जाते हैं। अत: इसमें वह मजा नहीं है जो सरकारी दामाद बन कर जाने में है। विदेश यात्राओं के तमाम बहानों में से एक सुंदर बहाना है-विश्व हिन्दी सम्मेलन। भाषा-विकास के मिशन-समृद्धि के बहाने ऐसी यात्रा पूरे विश्व में कहीं नहीं होगी। भारतीय लोकतन्त्र की यही तो खूबसूरती है।

इस वर्ष का विश्व हिन्दी सम्मेलन मारीशस में हो रहा है। पिछले कई महीने से मारीशस जाने के लिए संसद से लेकर सड़क तक फाइलें दौड़ाई जा रहीं है। नाम जोड़े-घटाएँ जा रहें हैं। अपने-2 आकाओं के माध्यम से गोटियाँ-सेंकी /रोटियाँ-फेंकी जा रही हैं। ऐसे में हिन्दी के नाम पर बने कुछ संस्थान भला पीछे कैसे रहते! हिन्दी के नाम पर जजमानी का असली अधिकार तो इन्हीं संस्थाओं का है। सो वहाँ भी मार-काट मची है मारीशस की यात्रा को लेकर। इन संस्थानों में भी वे ही अग्रगण्य हैं जो केंद्रीय सरकार से अनुदान पाते हैं। क्योंकि राज्य सरकारों के हाथ थोड़ी तंगी में होते हैं। लिहाजा वे दूसरों के भरोसे ज्यादा रहते हैं। पर केंद्रीय संस्थानों/विश्वविद्यालयों के क्या कहने! वहाँ तो उतरा है रामराज कुलपति निवास में

भारत के भूगोल के हिसाब से केंद्र में एक केंद्रीय विश्वविद्यालय स्थित है।  यह विश्वविद्यालय हिन्दी भाषा की वकालत करने वाले के नाम पर है। यद्यपि कि जिस महापुरुष के नाम पर इस विश्वविद्यालय की स्थापना हुई है वह जीवन पर्यंत अपरिग्रही ही रहे। लेकिन इस विश्वविद्यालय में काम करने वालों ने शुरू में ही उनके इस सिद्धांत की तेरही कर दी थी । तब से यह विश्वविद्यालय उत्सव धर्मी विश्वविद्यालय के रूप में ज्यादा जाने लगा। मारीशस यात्रा को लेकर यहाँ भी गहमागहमी है। बैठकों का दौर जारी है। सारा कुछ गोपनीय तरीके से किया जा रहा है। कौन-2 लोग जाएँगे यह किसी को नहीं पता है। यह केवल उसी को पता है कि जो जा रहा है। केंद्रीय कार्यालय का एक भूतकर्मी कई बार देर रात को विश्वविद्यालय के किसी कर्मी का फोन घनघनाता है और विनम्रता पूर्वक कहता है –‘सर, वी सी साहब आपको मारीशस में हो रहे विश्व हिन्दी सम्मेलन में ले जाना चाहते हैं । कृपया आप अपना पासपोर्ट आदि तैयार कर कार्यालय में आ जाएँ जिससे अन्य औपचारिकताएं पूरी की जा सकें। और हाँ सर! आपसे एक गुजारिश और है कि इस संदर्भ में आप किसी और से कोई चर्चा न करें तो बेहतर होगा। ऐसा ऊपर का निर्देश है। कर्मी फोन रखते ही उत्साह में चमगादड़ की तरह छत पर जा चिपकता है। घरवाले उसकी इस मुद्रा को देखकर हक्का बक्का। ये तो अभी अच्छे भले थे। इन्हें क्या हो गया?प्राक्टर को फोन करने की धमकी के साथ कर्मी जमीन पर आ गिरता है । तब कहीं माजरा साफ होता है। करीब पौना दर्जन कर्मियों को इसी तरह की सूचना दी जाती है और वे सब चुपके से औपचारिकताओं की पूर्ति में लग जाते हैं। प्राय: कंधे पर झोला लटकाये और मुंह गिराए रहने वालों की खुशी देखकर कुछ लोग सशंकित हो उठते हैं। कानाफूँसी के साथ ही जासूस छोड़ दिये जाते हैं। जाने वालों का गोपनीय नाम धीरे-2 विश्वविद्यालय की चहारदीवारियों पर रक्तवर्णी लाल चटख रंग में साफ-2 उभर आता है।

यह तो हद है भाई”! एक नेतानुमा अध्यापक ने अपने वरिष्ठ सहयोगी से  दीवाल पर खुदे नाम की ओर इशारा करते हुए कहता है । वरिष्ठ सहयोगी भी मुस्कराहट के साथ जबाब देते है-कुछ करते क्यों नहीं? ये कोई बात हुई कि मनमानी तरीके से नाम तय कर दिया जाय

उधर कुलपति के जासूस भी जगह-2 ऐयारी के लिए तैयार हो गए थे। रिम-झिम वर्षा हो रही थी। एक दूसरे नेतानुमा नेता विश्वविद्यालय के जामवंत का दरवाजा खटखटाता है और धीरे से अंदर हो लेता है।

इतनी रात को तुम ! बारिश में। सब खैरियत तो है न’! मेजबान ने पूछा।

क्या खैरियत है सर ? यहाँ कुलपति मनमानी किए जा रहे हैं और आप सांकल लगाकर सो रहे हैं’?

क्या हुआ भाई ? आप इतने नाराज क्यों हैं? कुलपति जी तो विद्वान हैं! वे तो सोच समझकर सब कुछ अच्छा ही करते हैं। अच्छा चलो ! बताओ, बात क्या है’? मेहमान सारा किस्सा दुहरा देता है और आग्रह करता है-सर! आप गाँडीव उठाइए। बिना इसके बात नहीं बनेगी। विश्वविद्यालय में तो अनर्थ हो रहा है। आखिर मेरा मुंह तो इतना खराब नहीं है कि मारीशस जाने से विश्वविद्यालय की बेइज्जती होगी। कल-2 के आए लोग जा रहें हैं। कुछ लोग दुबारा जा रहें है। तो मैं क्यों न जाऊँ?        

मेजबान ने कहा – ‘मित्रवर इस निशीथ रात्रि में क्या हो सकता है?सुबह इस पर चर्चा करते हैं। हाँ यदि आप कोई लिखत-पढ़त करते हैं तो मेरा अवश्य सहयोग रहेगा- 'रहा प्रथम बल मम तनु नाहीं'

 विश्वविद्यालय में मचे गहमागहमी के बीच प्रशासन ने जाति-रिश्ते को साधते हुए कुछ और कर्मियों से भी मारीशस जाने का अनुरोध किया। लेकिन छवि के प्रति अतिरिक्त सावधानी बरतने वाले एक चौथाई दर्जन कर्मियों ने निजी कारणों से यात्रा करने में असमर्थता व्यक्त की। यह सूचना जाने के लिए तैयार बैठे लोगों के लिए चौकाने वाले था। तत्काल एक सज्जन ने अपनी चटख जवा-कुसुम जैसी रंगीन बाइक से कुलपति कार्यालय पहुंच गए।

सर,मैं भी मारीशस जाना चाहता हूँ। आप नहीं ले जाएँगे तो ....पद से इस्तीफा दे दूँगा। मुखिया हत-प्रभ!   मान-मनौवल के बाद आखिर गाड़ी पटरी पर आ गई और वे भी कागज-पत्र लेकर भूतकर्मी के पास हाँफते-काँपते पहुँच ही गए। उधर मौके की तलाश का इंतजार कर रहे कर्मियों में एक नाम और जुडने की खबर सुनते ही भूचाल सा आ गया। आनन-फानन में इधर-उधर बैठक भी हुई। शिक्षक संघ से लेकर जाति संघों में बात रखने पर ज़ोर दिया जाने लगा। अंतत: यह तय हुआ कि एक पत्रक लिखकर मुखिया को दिया जाय कि मिशन हिन्दी समृद्धि के लिए विदेश यात्रा के लिए कोई नियम-कायदा बनाया जाय। पत्रक पर हस्ताक्षर जारी है। उधर कुछ अध्यापकों में इस बात का रोष  है कि मुखिया अगर हमसे भी पूछते तो हम भी न कुछ तो कम से कम न जाने की ईच्छा रखने वालोंकी श्रेणी में ही नाखून कटाकर शहीद हो गए होते।


Saturday, May 5, 2018


                              
कुबेरनाथ राय को पढ़ते हुए
                                                                                                            
“निबंध ही किसी जाति के ब्रह्मतेज को व्यक्त करता है । ललित निबंध भी काव्यधर्मी होने के बावजूद इस दायित्व से छुट्टी नहीं पा सकता” के उद्घोषक श्री कुबेरनाथ राय की ख्याति साहित्य जगत में एक ललित निबंधकार के रूप में समादृत है । कुबेरनाथ राय हिन्दी के उन लेखकों में हैं,जिनके लेखन की परिधि अपनी अंतर्वस्तु और चेतना में अखिल  भारतीय या राष्ट्रीय थी। उनका लेखन बहुआयामी और विविधिता पूर्ण है,जिसका लक्ष्य है सत्यान्वेषण-साहित्यकार सत्य के प्रति ईमानदार रहे और सत्य के लिए ही एक सांस्कारिक,मानसिक वातावरण तैयार करे।”  वैसे तो श्री राय ने अपना लेखन छात्र-जीवन से ही शुरू कर दिया था । उनके निबंध तबके प्रतिष्ठित पत्रिकाओं माधुरी और विशाल भारत में छप भी रहे थे । पर असल लेखन बक़ौल श्री राय “सन 1962 में प्रो हूमायूँ कबीर की इतिहास संबंधी उलजूलूल मान्यताओं पर मेरे एक तर्कपूर्ण और क्रोधपूर्ण निबंध को पढ़कर पं श्रीनारायन चतुर्वेदी ने मुझे घसीट कर मैदान में खड़ा कर दिया और हाथ में धनुष-बाण  पकड़ा  दिया।अब मैं अपने राष्ट्रीय  और साहित्यिक उत्तरदायित्व के प्रति सजग था”, से शुरू हुआ । 1969 में भारतीय ज्ञानपीठ से श्री राय का प्रथम निबंध संग्रह छपा-प्रिया नीलकंठी जिसकी भूमिका (अंत में’) में उन्होने लिखा: “ मुझे किसी भाई के श्रेय की पत्तल नहीं छीननी है क्योंकि न तो मैं कवि हूँ  और न कहानीकार। निबंधकार की महत्वाकांक्षाए सीमित होती है।” लेकिन अगली ही पंक्ति में अपने विशाल अध्ययन,अगाध पांडित्य और अपने अंतर्यामी के प्रति अचल निष्ठा के कारण उनमें उपजा अखंड आत्म विश्वास उनसे यह कहलवाने से भी नहीं चूकता है कि -“मैं अपने गाँव की धरती के हृदय से एक जीवित परंपरा का चयन करने चला हूँ। परंतु अतिशय विनय और अतिशय प्रीति के साथ.....  अब एक किनारे मैं भी जम रहा हूँ।”
श्री राय के कुल 20 निबंध संग्रह प्रकाशित हैं। 1969 में प्रिया नीलकंठी से शुरू हुई उनकी सारस्वत रस-आखेटक साधना उनकी तीसरी कृति गंधमादन में ही अपने चरम पर पहुँच गई सी लगती है । श्री राय के इन निबंध-संग्रहों को पढ़ते समय कई बार ऐसा लगता है कि अब आगे क्या होगा ? कहीं लेखक चुक तो नहीं गया? लेखक कैसे पाठक के साथ न्याय करेगा? पर अपने अगले ही संग्रह विषाद योग में  श्री राय एक दूसरे अवतार में और कसे हुए नजर आते हैं । कहने का तात्पर्य कि पाठक एक बार यदि श्री राय के निबंध-कांतार में प्रवेश कर लिया तो देखता है कि लेखक  तो पर्णमुकुट बांधकर कामधेनु की रस्सी को महाकवि की तर्जनीमें लपेटे हुए निषाद-बांसुरी पर त्रेता का वृहत्साम धुन गाता हुआ आगे बढ़ता चला जा रहा  है। रास्ते में यदि कहीं किरात नदी में चंद्रमधु दिखा तो मन पवन की नौका पर सवार होकर पत्र मणिपुतुल के नाम को काँख में दबाये हुए मराल बनकर उत्तरकुरु की ओर उड़ते हुए चिन्मय भारत का दृष्टि अभिसार कर रहा है । पुन: वह जब जमीन पर उतरता है तो  अंधकार में अग्निशिखा के माध्यम से आगम की नाव में सवार होकर रामायण महातीर्थम तक पहुंचकर वाणी के क्षीर सागर में  विश्राम पा लेता है। 
श्री राय ने अतीत,वर्तमान और भविष्य की साधना एक साथ की है ,पर दृष्टि केन्द्रित रही है सर्वदा भविष्य पर ही। उनका रस आखेटक मन गज़ब का है । कभी वह वह वैदिक साहित्य, भारतीय तंत्र साधना, वैष्णव परम्परा,राम कथा,महाभारत और प्राचीन इतिहास के महासागर में गोते मारकर वहाँ से भारत-निर्मित के सूत्र आर्य-किरात-निषाद-द्राविड़लब्ध करता है तो कभी भूमिहार,कायस्थ,अहीर,धोबी,डोम आदि जातियों के उत्स-कला-परम्पराओं की तलस्पर्शी छानबीन करते हुए उतराता है। कभी जीवहंस बनकर भारतीय साहित्य की रसवादी  परंपरा के कजरीवन में डुबकी लगाता है तो कभी विश्व साहित्य और राजनीति के महाकांतार में अकेले ही गदा लेकर घूम आता है । वहीं पर वह  शेक्सपीयर-होमर-वर्जिल के साथ कुछ गप-शप भी लड़ा लेता है । फिर मन हुआ तो कंधे पर गमछा और हाथ में लउर लेकर गंगा किनारे चला जाता है । वहाँ अरार पर खड़ा होकर श्री राय जब निषाद बांसुरी का तान छेड़ते हैं तो अरियात-करियात से फागुन डोम,रामदेव मल्लाह और रंगा माझी को कौन कहे धोबी,होली-चैता-लोरकी गाने वालों के साथ-साथ फूल लोढ़ने वालों/वालियों की भीड़ लग जाती है । वहीं उस पांत के आखिर में  शील गंध अनुत्तरों का सोटा लिए हुए गांधी भी खड़े नजर आते हैं ।
              श्री राय का जन्म भोजपुरी भाषी क्षेत्र गाजीपुर जिले के गंगातटवर्ती गाँव मतसा में हुआ था। पारिवारिक संस्कार वैष्णव था। वे एक किसान परिवार से थे। भारतीय किसान-मन उद्यम-तितिक्षा-सिसृक्षा-जिजीविषा का संगम होता है। श्री राय में यह गुण सहज-आनुवांशिक रूप में उपलब्ध था। गांधी ने किसान को सौर-मण्डल का सूर्य कहा है तो श्री राय किसान को संस्कृति का शेषनाग कहते हुए -“छोटे-छोटे किसान ही संस्कृति के शेषनाग हैं-सबका भार वहन करने का इनका उत्तरदायित्व है। जो शेषनाग पृथ्वी का समस्त भार अपने फन पर लिए हुए हैं,उनकी एक ही करवट सबकी धड़कन बंद कर सकती है’’उसके महत्व को बताना नहीं भूलते हैं। श्री राय का मन गाँव में खूब रमा है।  उनके निबंध संग्रहों के नाम हों या उनमें संकलित निबंधों के नाम हों ,दोनों इसकी पुष्टि करते हैं।
             कुबेर नाथ राय अपने लेखन-उद्देश्य के प्रति सतत जागरूक रहें हैं-सच तो यह है कि मेरा सम्पूर्ण साहित्य या तो क्रोध है,नहीं तो अंतर का हाहाकार । पर इस क्रोध और आर्तनाद को मैंने सारे हिंदुस्तान के क्रोध और आर्तनाद के रूप में देखा है। इन निबंधों को लिखते समय मुझे सदैव अनुभव होता रहा-अहं भारतोऽस्मि। अपने एक निबंध संग्रह के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए कहते हैं- निषाद-बांसुरी संग्रह का एक उद्देश्य यह भी है : भारतीयता का प्रत्यभिज्ञान,अर्थात भारत की सही आइडेंटिटी का पुनराविष्कार,जिससे वे जो कई हजार वर्षों से आत्महीनता की तमसा में आबद्ध रहें हैं.....’’ । लेकिन श्री राय की नजर में यह भारतीयता किसी एक की बपौती नहीं अपितु ‘‘संयुक्त उत्तराधिकार है। और इस उत्तराधिकार के रचयिता सिर्फ आर्य ही नहीं रहे हैं। वस्तुत: आर्यों के नेतृत्व में इस संयुक्त उत्तराधिकार की रचना द्राविड़-निषाद-किरात ने की है। ग्राम-संस्कृति और कृषि-सभ्यता का बीजारोपण और विकास निषाद द्वारा हुआ है । नगर सभ्यता,कलाशिल्प,ध्यान-धारणा,भक्तियोग के पीछे द्राविड़ मन है। अरण्यक शिल्प और कला-संस्कारों में किरातों का योगदान है। ...भारतीय ब्रह्मा चतुरानन हैं जिनके चार मुख हैं: आर्य-द्राविड़-किरात-निषाद।” श्री राय के लिए भारतीयता कोई अमूर्त अथवा यूटोपिया नहीं है अपितु प्रत्यक्ष सगुण रूप है-मुझसे जब कोई पूछता है कि भारतीयता क्या है तो मैं इसका एक शब्द में उत्तर देता हूँ,वह शब्द है रामत्व’-राम जैसा होना ही सही ढंग की भारतीयता है। हमारे युग में  भी एक पुरुष ऐसा हो गया था जिसने राम जैसा होने की चेष्टा की और बहुत कुछ सफल भी रहा।” उनके लिए भारत कोई मानसिक भोग या भौगोलिक सत्ता  नहीं है। यह उससे बढ़कर एक प्रकाशमय,संगीतमय भाव-प्रत्यय या चैतन्य-प्रतिमा का रूप तो है ही अधिक सत्य एवं शाश्वतभी है। अरूप-अनिकेत गंध-उपवनके मंह-मंह सुगंध से श्री राय की  परमा-स्मृति प्राय: सक्रिय रहती है-भारत की यह निराकार मूर्ति  (अर्थात संस्कार समूह के रूप में) सूक्ष्मतर होने की वजह से अधिक कालजयी है। कोई जवाहरलाल या कोई जिन्ना इसका पार्टीशनया बंदर-बाँट नहीं कर सकता।” गांधी ने भी हिन्द-स्वराज में इसी बात को अपनी शैली में कहा है –हिंदुस्तान को बहुत से अक्ल देने वाले आए और गए पर हिंदुस्तान जस का तस रहा।”
               कुबेरनाथ राय अँग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तर थे, पर लिखा उन्होने हिन्दी में। भोजपुरी/हिन्दी उनकी मातृभाषा थी। वे इस बात से सहमत थे कि अभिव्यक्ति के लिए सर्वोत्तम भाषा मातृभाषा ही हो सकती है। अँग्रेजी साहित्य का उन्होने गंभीर अध्ययन किया था। इसका प्रमाण है होमर-वर्जिल-शेक्सपीयर पर उनके द्वारा लिखे गए मोनोग्राफ। ये मोनोग्राफ गाँव-देहात से निकलकर विश्वविद्यालयों में अँग्रेजी साहित्य से अध्ययन करने वालों के लिए एक अमूल्य थाती है। भारत में कम विद्वान होंगे जिन्होंने अपने विषय के प्रख्यात विदेशी विद्वानों को लेकर श्री राय के मोनोग्राफ जैसी गंभीर रचना की हो। अपनी भाषा से लगाव रखने के साथ ही वे दूसरी भाषाओं से भी समय-समय पर आवश्यकतानुसार शब्दों का आहरण भी करते रहे हैं। लेकिन श्री राय का मन तो जहाज-पंछी की तरह बार-बार अपने गाँव-घर की ओर लौट आता है-अभिव्यक्ति की दृष्टि से अकेले-अकेले खड़ी बोली एक नितांत अक्षम भाषा है। यह कस्बे की बोली है। परंतु समग्र जीवन-व्यापी भाषा बनाने के लिए इसे  ब्रज-अवधी-भोजपुरी-मगही-मैथली-छत्तीसगढ़ी के जानदार-पानीदार शब्दों को लेना ही होगा,इसमें कोई विवाद ही नहीं,क्योंकि यह तो घर की निधि है। श्री राय साहित्य साधना के लिये एकांत को आवश्यक मानते हैं। उन्होने स्वयं दुनियाँ के भीड़ से हटकर कामरूप-कांजीरंगा और गंगा-ब्रह्मपुत्रके तट पर रहकर साहित्य साधना की थी । उन्होने अपने  पिताजी को बचपन में ही संतोष दिलाया था कि वे बड़े होकर सन्यासी नहीं प्रोफेसर बनेगे । पर तब उनको यह नहीं पता था कि भारतीय प्रोफेसर जीवन भर कदर्य-कुत्सित या अभिशप्त जीवन ही जियेगा और उसके जीवन का अधिकांश हिस्सा मंत्री से लेकर संतरी तक को खुश रखने में ही खर्च हो जाएगा। बुद्धिजीवियों का नाई-बारी,भाँट-पवनी बनना उन्हें कत्तई पसंद नहीं है। 
                  कुबेरनाथ राय एक सजग भारतीय हैं। भाषा का प्रश्न भी उनके लिए एक गंभीर प्रश्न  हैं। वे कबीर की भाषा संबंधी उक्ति संस्कृत कबीरा कूप जल,भाषा बहता नीरको अर्धसत्य मानते हैं। श्री राय मानते हैं कि “संस्कृत जब पिघलती है या रिसती है तो पेय जल बनकर भाषा का रूप लेती है। भारतीय संदर्भ में यह अनिवार्य अमोघ सत्य है। जब-जब हिंदुस्तान पर आक्रमण हुआ हिन्दुस्तान  उसे अपने साहित्य और भाषिक संस्कृति के बल पर झेल गया। उसके संस्कार जस-के-तस बने रहे। अगर आज हिन्दी ने अँग्रेजी के मुक़ाबले कुछ ही समय में लंबी छलांग लगाई है तो इसके पीछे भाषा की तत्सम संस्कृति की ही ताकत है। वनस्पति हो या भाषा उसकी जड़ें बड़ी गहरी होती है। वहीं से वे अपना प्राण-रस खींचती हैं। आज की भाषायी राजनीति को वे खतरे के रूप में देखते हैं। जो लोग इससे जुड़े हैं अथवा संयोग से केंद्र में हैं, उनकी नजर में आउटसाइडरहैं । ये बाहरी वस्तुत: भाषा बहता नीर को अपना गुप्त हथियार  बनाकर देश की आत्मा को बंधक बनाना चाह रहें हैं। श्री राय समाधान भी प्रस्तुत करते चलते हैं-हिन्दी ऐसी होनी चाहिए जिसे समग्र भारतवर्ष समझे और इसका महाकोश 1) लोकभाषा,2) प्रांतीय भाषा,3) संस्कृत भाषा के सहयोग से विस्तृत होगा। भाषा की दृष्टि से दिल्ली ही सारा हिंदुस्तान नहीं है। हिन्दी को यदि वह भूमिका निभानी है जिसे संस्कृत अभी तक निभा रही थी,तो उसे संस्कृत जैसा बनना होगा। तभी वह शिक्षा,संस्कृति,विज्ञान और साहित्य की दृष्टि से राष्ट्रभाषा बन सकेगी।”
            सच तो यह है कि कुबेरनाथ राय को पढ़ने-समझने का मतलब है भारतीयता के मनोमय और चिन्मय स्वरूप से परिचित होना । श्री राय के शब्दों में ही कहें तो उन्हें पढ़ते समय “ऐसा लगता है कि इसके भीतर काव्य सुलग रहा है और कहीं-कहीं पर भक से गांजे की चिलम की तरह जल भी उठता है”,और तब ठिठकर किताब बगल में रखकर लेखक के साथ रस-लोलुप बनना पड़ता है  । उनके साहित्य साधना को लेकर रघुबीर सहाय की टिप्पणी बहुत कुछ कह जाती है- “यदि संस्कार परंपरावादी हों तो क्या दृष्टि आधुनिक हो सकती है?....इस प्रश्न का जितना साफ उत्तर कुबेरनाथ राय के निबंध को पढ़ कर मिलता है,उतना हिन्दी में लिखी गई किसी कृति को पढ़कर नहीं मिलता। इन निबंधों को पढ़ना एक नया अनुभव पाना है।” दरअसल श्री राय को पढ़ते हुए पाठक एक ही साथ साहित्य, इतिहास, दर्शन, धर्म, नृतत्व, विज्ञान, मिथक,लोक,मनोविज्ञान,अर्थशास्त्र, शिक्षा आदि से परिचित होता हुआ अपने मानसिक ऋद्धि और बौद्धिक क्षितिज का विस्तार करता चलता है। श्री राय कहते भी हैं-“मेरा उद्देश्य रहा है हिन्दी-पाठक के हिन्दुस्तानी मन को विश्वचित्त से जोड़ना और उनको मानसिक ऋद्धि प्रदान करना । मेरे निबंध भारतीय मन और विश्वमन के बीच एक सामंजस्य उपस्थित करते हैं।” उस रास्ते पर उसे वे  वाल्मीकि से लेकर रवीन्द्र-गांधी,लोहिया-मुक्तिबोध-निराला के साथ-साथ इमर्सन, बायरन, सार्त्र, कामू,मार्क्स आदि सैकड़ों दार्शनिकों,साहित्यकारों,इतिहासकारों,भाषाविदों आदि के उक्तियों,सूक्तियों,विचारों से भी परिचित कराते चलाते हैं। श्री राय को  संस्कृति-चिंतन और प्रकृति के चित्रांकन में महारत हासिल है। मौसम विज्ञान,पक्षी विज्ञान और प्राणिशास्त्र नदी-ताल,पुष्प-पक्षी जंगल-जानवर आदि के बारे में उनका ज्ञान हमें चमत्कृत कर देता है । जिन चीजों के बारे में हम डिस्कवरी आदि चैनल से जान पाते हैं उनके यहाँ वह ज्ञान-संवेदन के साथ सहज उपलब्ध है। कभी  सारंग और पंचाप्सर की मार कन्याएँ के माध्यम से उनका रस-आखेटक मन रमन-तृषा में उलझाता है तो कभी वही महाकांतार में ले जाकर हमें उसकी विराटता से परिचित कराता है । एक तरफ नीलकंठकिसी गहनतर दु:ख का चिंतन करता हुआ प्रतीत होता है तो दूसरी ओर पाकड़ बोली रात भर हमारी परमा स्मृति की याद दिला जाती है। श्री राय के लेखन के परास को देखते हुए निश्चय ही यह कहा जा सकता है कि हिन्दी-निबंध-साहित्य को महत्व और गरिमा प्रदान करने वाले तमाम रचनाकारों के बीच अपने व्यापक अध्ययन,संस्कृति-चिंतन,मिथकीय-व्याख्या,औदात्य,लोक-संपृक्ति और शील-सौंदर्य-नीति बोध जनित रचना-भंगिमा के कारण भोर के तारे की तरह अलग चमकते हुए दिखाई देते हैं ।