शेरपुर
: क्रांतिकारियों की तीर्थस्थली
(18 अगस्त 1942 के संदर्भ में)
मनोज कुमार
राय
उत्तर प्रदेश के
पूर्वाञ्चल का आजादी की लड़ाई में बड़ा योगदान रहा है। सन् 1942 की अगस्त क्रांति के इतिहास में महाराष्ट्र में
सतारा, बंगाल में मिदनापुर और उत्तर प्रदेश में बलिया तथा गाजीपुर
का नाम आदर के साथ लिया जाता है। कहते हैं कि राजा गाधि के नाम पर ही गाजीपुर जिले
का नाम पड़ा है । इसी जिले का एक गाँव शेरपुर है। गंगा किनारे बसा विशाल आबादी वाला यह गाँव अपने मनमौजीपन और
पहलवानी के लिए विख्यात रहा है। किंवदंती के अनुसार इस गाँव के लोग शेर और
वनसुअरों के साथ भी दो-दो हाथ करने से नहीं चूकते थे। मुख्यत: किसानी पर निर्भर इस
गाँव के लोगों को तितिक्षा और धैर्य घुट्टी में मिली है। यह गाँव आज भी अपने क्रोड़
में एक उज्ज्वल अतीत की उदात्त परम्परा को संजोये हुए है ।1857 से लेकर 1947 तक
भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में इस गाँव का योगदान उल्लेखनीय रहा है।
‘स्वतंत्रता के सिवाय कुछ भी नही’ और ‘करो या मरो’ का मंत्र जब गांधी ने 8 अगस्त 1942 को
मुंबई के ऐतिहासक भाषण में दिया तो अगले दिन पूरे देश में यह जंगल के आग की तरह
फैल गया । गांधी ने उस भाषण में कहा था -‘सत्याग्रह में
धोखे, जालसाजी या किसी प्रकार के झूठ के लिए जगह नहीं है। मैं
पूर्ण स्वतंत्रता के सिवाय किसी चीज से संतुष्ट होनेवाला भी नहीं। ..... ‘यह एक छोटा सा मंत्र मैं
आपको देता हूँ। आप इसे अपने हृदय पटल पर अंकित कर लीजिए और हर श्वांस के साथ उसका
जप किया कीजिए । एक मंत्र है : ‘करो या मरो’। डेढ़ हजार किमी की दूरी पर स्थित यह गाँव जैसे उनके इसी मंत्र का इंतजार
कर रहा था। शेरपुर के लोगों ने इस मंत्र को सचमुच में अपने हृदय पटल पर अंकित कर
लिया था ।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी
के आह्वान ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ पर देश के कोने-कोने से लोग स्वतंत्रता संग्राम के महायज्ञ में अपने
प्राणों की आहुति देने के लिए आगे आ रहे थे। शेरपुर गाँव भला इसमें कब पीछे रहता।
डा शिवपूजन राय जो एक प्रतिष्ठित भूमिहार (आर्य) परिवार से आते थे, ने इस अलख को गाँव के जन-जन तक पहुंचा दिया । कुशाग्र और मेधावी डा
शिवपूजन राय के इस अभियान में उनका साथ
दिया शेरपुर के ही एक नौजवान श्री सीताराम राय ने जो उस वक्त काशी हिन्दू
विश्वविद्यालय में स्नातक (अर्थशास्त्र)की पढ़ाई कर रहे थे। विश्वविद्यालय में भी ‘भारत-छोड़ो’ का नारा गूंज रहा था। उस समय वहाँ के
कुलपति डा सर्वपल्ली राधाकृष्णन थे । विद्यार्थियों के प्रति उनके मन में अपार स्नेह था। विदेशी शासन में भी समय आने पर वे
विद्यार्थियों के साथ खड़े हुए और पुलिस को परिसर में घुसने से मना कर दिया। उनके
इस व्यक्तित्व से वहाँ के विद्यार्थी बहुत प्रभावित थे। श्री सीताराम राय जी जिनकी
अवस्था करीब 19 वर्ष थी ब्रोचा छात्रावास के अंतेवासी थे। वे वहाँ से असबाब-समान
लेकर क्रांति की ज्योति जगाने गाँव आ गए । डा राय के नेतृत्व में गाँव में उत्साह
चरम पर था। जवानों की टोली गाँव-गाँव घूम रही थी। अंतत: यह तय हुआ कि मुहम्मदाबाद स्थित
तहसील पर तिरंगा फहराकर आजादी की घोषणा की जाय। उन दिनों गुलामी के बेड़ियों को
उतार फेंकने का यह बड़ा प्रतीक मान जाता था। शेरपुर गाँव मुहम्मदाबाद तहसील से लगभग
आठ किमी पूरब में स्थित है। बारिश का मौसम था। नदी भी अपने उफान पर थी। 18 अगस्त
1942 को शेरपुर गांव के नवयुवक देश को आजाद कराने की ललक अपने दिलों में संजोये
मुहम्मदाबाद तहसील की ओर चल पड़े। उनके पीछे हजारों की संख्या में
पूरा गांव उमड़ पड़ा। कुछ लोग तहसील पर शीघ्र पहुँचने की फिराक में खेत-खलिहान के
रास्ते चल दिये। बाढ़ ने उनके रास्ते में बाधा पैदा की । पर आजादी का जोश भला
बाधा को कैसे स्वीकार करने लगा। सदियों से हिन्दुस्तानी किसान और नदी
सहजीवी रहे हैं। वे लोग भागड़ और खेत में तैरते-कूदते-फाँदते अंतत: बड़की बारी तक
पहुँच गए। वहीं पर डा शिवपूजन राय ने एक बैठक की और अपनी योजना बतायी। गांधी ने
महज दस दिन पूर्व ही अपने ऐतिहासिक भाषण में कहा था-“लेकिन
कोई भी काम गुप्त रुप से नहीं करना चाहिए। यह एक खुली बगावत है। इस संघर्ष में
गुप्त रुप से काम करना पाप है। स्वतंत्र आदमी किसी गुप्त आदोलन में शामिल नहीं
होता। लेकिन वर्तमान संघर्ष में हमें खुल्लम खुल्ला कार्यवाही करनी है और अपनी
छाती पर गोलियां खानी हैं और भागना नहीं है।” डा साहब तो पक्के गांधीवादी थे।
गांधी के इस कथन को कि ‘अगर हम विचार,शब्द और कर्म में पूर्ण अंहिंसा का
आश्रय लेंगे तो भारत की आजादी अवश्य प्राप्त होगी’, पहली
बार सुनकर इतिहास के प्रो जे.बी. कृपलानी गांधी के पास चले गये थे और क्रोध में
कहा था : “मि. गांधी आप बाइबिल या गीता के ज्ञाता हो सकते हैं, पर आपको इतिहास का तनिक भी ज्ञान
नहीं है। कोई भी राष्ट्र अपने को बिना हिंसा के मुक्त नहीं कर पाया है।” गांधी
मुस्कराये और सुधारते हुए धीरे से कहा,“आप इतिहास के बारे
में कुछ नहीं जानते। इतिहास के संदर्भ में सबसे पहले आपको यह जानना चाहिए कि अगर
कोई चीज भूत में नहीं घटित हुई है तो उसका अर्थ यह नहीं कि वह भविष्य में भी नहीं
घटित होगी।” डा शिवपूजन राय विज्ञान के
विद्यार्थी थे। उनको गांधी के इतिहास बोध पर तनिक भी संदेह नहीं था। उन्होने वहीं
बड़की बारी में आंदोलनकारियों से अपना विचार साझा किया । तत्पश्चात जुलूस दो भागों में बांट गया। एक जत्था नगर के बाहर-बाहर
तहसील भवन के पीछे पहुंचा और दूसरा जत्था जिसमें अधिकांश नवयुवक थे, मुख्य सडक़ से होते हुए तहसील भवन की ओर चला
जिसका नेतृत्व अमर शहीद डा शिवपूजन राय कर रहे थे।
गांधी
ने अपने भाषण में कहा था कि ‘आज उसमें जीवन का कोई चिन्ह शेष नहीं है। उसके जीवन के
रस को निचोड़ लिया गया है। यदि उसकी आंखों
की चमक को वापस लाना है तो स्वतंत्रता को कल नहीं बल्कि आज ही आना होगा’। डा राय
के मन में यह बात हथौड़े की तरह चोट पहुंचा
रही थी। वे यह जानते हुये कि जिन लोगों से उनका सामना होने वाला है वे हथियारों से
लैस हैं, लोगों का आह्वान किया वे अपने हथियार आदि को यहीं फेंक दे और निहत्थे
सामने छाती पर गोली खाने के लिए आगे बढ़ें। डा साहब का जादू सिर चढ़ कर बोल रहा था।
लोगों ने कस्बे से एक मील पहले ही लाठी-डंडे आदि सभी
हथियारों को फेंक पूर्ण अहिंसक क्रांति के लिए तहसील भवन की ओर कूच किया । श्री
सीताराम राय जी बताते थे कि वहाँ तैनात सरकार के नुमाइंदों ने क्रूरता का खुला प्रदर्शन करते हुए जुलूस पर ही
गोलियां बरसाना शुरू कर दिया। भगदड़ मचना स्वाभाविक था। लेकिन आजादी के दीवाने
गोलियां अपने सीने पर झेलते हुए कदम आगे बढ़ाते रहे। डा शिवपूजन राय जो हाथ में
तिरंगा लिये सबसे आगे-आगे चल रहे थे । तहसीलदार ने बिना किसी चेतावनी के पहली गोली
उनके एक जांघ में और दूसरी गोली दूसरे जांघ में मारी। पहलवानी शरीर फिर भी आगे
तिरंगा लेकर आगे बढ़ता रहा। अंतत: उनके सीने पर भी दो-तीन गोलियां दाग दी। डा साहब
बेदम होकर गिर पड़े। लेकिन इस दौरान उनके साथ चल रहे वंश नारायण राय ने तिरंगे को अपने
हाथ में ले लिया और उसे तहसील पर फहराने की जिद में आगे बढ़े । उनका भी वही हश्र
हुआ जो डा राय का हुआ था । एक-एक करके रामबदन उपाध्याय, वशिष्ट राय, ऋशेश्वर राय,
नारायण राय, वंशनारायण द्वितीय और राजनारायण
राय (सभी शेरपुर निवासी) ने शेरों की तरह अग्रेजों की गोलियां अपने सीने पर झेलते
हुए प्राणों की आहुति दे दी, लेकिन तिरंगे को झुकने नहीं
दिया । शहीदों ने सिपाहियों की बंदूकें छीनकर भी उसे फेंक दिया पर उससे वार नहीं
किया। गांधी के अहिंसक आंदोलन के प्रति इससे बड़ी श्रद्धा और क्या हो सकती थी । अंत
में जिंदा शहीद के नाम से विख्यात श्री सीताराम राय ने उस तिरंगे को तहसील भवन पर
लहरा ही दिया। श्री सीताराम राय को भी हाथ
और पेट में गोलियां लगी थी। सिपाहियों ने उन सभी नौ शवों को कठवा मोड़ के पुल से
नीचे फेंकने के फिराक में थे। लेकिन डा शिवपूजन राय का शरीर बहुत भारी था। उनका शव
पुल के किनारे पर लगे नुकीले लोहे में फंस गया था। इस प्रक्रिया में काफी समय लग
गया । तब तक घायल श्री सीताराम राय को होश आ गया था। उधर से ही एक सरकारी अधिकारी
गुजर रहा था। उसे देखकर उन्होने अँग्रेजी
में कहा-‘मि मुनरो अभी मैं जिंदा हूँ’।
उस अधिकारी ने वहाँ से उनको उठाया और जेल
भेज दिया। आजादी की इस लड़ाई में शेरपुर के नौजवानों की शहादत के साथ-साथ जिले के अन्य क्षेत्रों सैदपुर, सादात, नंदगंज के नौजवानों ने भी अपना दमखम दिखाया था। शहीदों की यह शेरपुर की धरती किसी तीर्थ स्थली
से कम नहीं हैं। आज 18 अगस्त है । आज इन अष्ट शहीदों के बलिदान की 75वीं वर्षगांठ
है। आजादी के इन वीर सपूतों को याद करने का दिन है। आइये हम सभी उनकी याद में यह
प्रतिज्ञा करें कि उनके बलिदान को हम व्यर्थ नहीं जाने देंगे। जय हिन्द!
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