Sunday, November 15, 2020
प्रिय जी
नमस्कार
हजारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पर रोती हैं
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा।
जी, हां इस चमन में आज से लगभग 150 वर्ष पूर्व एक दीदावर पैदा हुआ था जिसे राष्ट्रपिता गांधी ने भारत भूषण और मालवीय जी महाराज की संज्ञा दे रखा था। इतना ही नहीं गांधी को जीवन भर मलाल रहा कि यदि इस भारत भूषण से बचपन में ही भागवत पुराण सुनने को मिला होता तो ‘कुछ और बात होती’। उसी भारतभूषण ने भिखारी से लेकर निजामों तक के सामन हाथ पसारे और इस विश्वविद्यालय की नींव रखी। यह उसी पवित्र आत्मा का कमाल था इस विश्वविद्यालय के कुलगीत की रचना एक प्रख्यात वैज्ञानिक ने की। यदि कभी आपने ध्यान से कुलपति को सुना होता तो इसकी गहराई और सौन्दर्यबोध को अवश्य ही अनुभव किया होता और तब शायद यह पवित्र विश्वविद्यालय अपनी गुणवत्ता से कोसो दूर चला गया है। दूसरे शब्दों में अर्थात् पर्यावरण ; यह आपका प्रिय विषय है द्ध शब्दावली में कहे तो संगम से ‘सरस्वती’ नदी जो सतत-सलिला भी गायब हो गई। और यह सब हुआ उस व्यक्ति के कर-कमलो से जिसने विज्ञान-पर्यावरण-अध्यात्म के त्रिकोण पर आधारित इस विश्वविद्यालय के ढांचा को अपनी बनाई हुई ‘रेखा’ पर चलने को मजबूर कर दिया। विश्वविद्यालयके मुखिया होने के नाते इस असंतुलन की जिम्मेदारी सिर्फ आप पर ही बनती है।
भारतीय परंपरा में इतिहास की संकल्पना चक्रीय है। परंतु आपकी संकल्पना में इतिहास एक रेखीय है जिसके दो छोर हैं। पहला मध्यप्रदेश और दूसरा जाति क्षेत्र। और यहीं से विश्वविद्यालयका पतन शुरू हुआ। बदले परिवेश में जाति और क्षेत्र जब अपनी अंतिम सांस ले रहे थे तभी आपने अपने पर्यावरण-अध्यात्म की संजीवनी बूटी पिला दी और यह विश्वविद्यालयगुलजार हो उठा। विश्वविद्यालयकी बगिया खिल उठी और इसमें बेला, चमेली, आर्य-महुआ, पीपल-पाकड़, नीम-इमली की जगह गुलमोहर-ऐ बेहया-कुकुरमुत्ते जैसे पेड-पौधों ने अपनी-अपनी गर्दन सीधी की। शेरों के मांद में सियारो ;लोमडी ने जगह बनाई और धन-बल के आधार पर विश्वविद्यालयने अपनी रेटिंग नं 1 कराई।
आइय रेटिंग नं 1 की कुछ फाइलों को भी खंगाला जाय। शुरूआत विश्वविद्यालयके अर्धचन्द्राकार स्वरूप के मध्य स्थित भगवान शंकर के तीसरे नेत्र के ठीक सामने स्थापित सरस्वती मां के उस मन्दिर से जिसे आधुनिक शब्दावली में ग्रन्थालय’ के नाम से जानते है। ग्रन्थावली से लेकर चपरासी तक की नियुक्ति संदेह-युक्त है। आपको पता होना चाहिए कि इस ग्रंथालय की कुर्सी पर ग्रंथालय-वि़ज्ञान के जन्मदाता श्री रंगानाथन जी भी बैठे हैं और उन्ही के द्वारा दिए गए सिद्वांत पर ग्रंथालय के पुस्तकों का वर्गीकरण किया गया है। और आज उसी कुर्सी पर वैसे व्यक्ति को बैठाया गया है जो अपने विषय के लिए नहीं अपितु हास्य कविताओं के लिए जाना जाता है तथा जिस पर हिन्दी विभाग में अपनें सेवाकाल में पुस्तकालय का गेट भी न खुलवाने को आरोप है। ग्रंथालस किसी विश्वविद्यालयकी हृदय-स्थान होता है और आपने उस स्थली में ही छेद कर दिया। पैसे-ठेके पर निचले पदों पर नियुक्ति तो कराई ही तीस से अधिक लोगों के प्रमाण पत्र ही फर्जी हैं ;कभी समय मिले तो देखियेगा। उनकी भी आपने अनदेखी की। ग्रंथालय गुटबाज़ी का शिकार हुआ। डी.पी.सिंह जी ग्रंथालय बाहरी रंगरोगन से नहीं अपनी आन्तरिक सज्जा से चलता है। जरा पता करिये कि यह ग्रंथालय अब कितने लोगों द्वारा प्रयोग किया जा रहा है। शोध चोरी की संख्या हटा दें अंगुली पर ही संख्या होगी। इतना ही नहीं आपका ‘सागर-प्रेम’ तो और करामात कर बैठा। सार-बहनोई को आमने-सामने बैठाने के लिए अध्यापकों के लिए आरक्षित कमरे को भी आपने नहीं बख्शा और विश्वविद्यालयके अध्यापक ऐसे शेर-दिल कि किसी ने चूं तक नहीं कसी। कसे भी क्यों? विश्वविद्यालयतो आपके मार्ग-दर्शन में नं 1 तो है ही।
ग्रंथालय से सटे ‘एकेडेमिक स्टाफ काले की ओर बढें तो आपका क्षेत्रवाद’ ध्रुवतारा की तरह अटल दिखा। यहां ‘डायरेक्टर साहब आपको ‘देवता’ की संज्ञा देते हैं। ‘काशी की पांडित्य पर परत के लेखक की कर्मस्थली के सेवक-पुत्र की यह भावना तत्काल समझ में आयी। स्थानान्तरण के दंष से पीडित ‘शर्मा जी’ करे बिना साक्षात्कार के ‘निदेशक’-पद-प्राप्ति’ मिला जो वह देवता ही कहेंगे। यहां भी आपकी मंधा की दाद देनी पडे़गी।
अब इसे क्या नाम दें, ये बेल देखो तो
कल उगी थी, आज शानों तक पहुंचती है।
धीरेन्द्र जी यह एकेदेमिक स्टाफ कालेज वह स्थली है जहँ से अध्यापको के कौशल-विकास की संभावनाएँ संजोयी जाती हैं और आपने इन अबसेन्सिया के रूप में ‘शर्माजी’ को लाया। तमाम वरिष्ठ आचार्यो को उनकी करतूतों को एक और चपत के द्वारा चुप रहने को मजबूर कर दिया। इस तरह की गतिविधियों का एक लम्बा जखीरा है। जनता को पता है कि कितने शर्मनाक तरीके से बिना किसी अकादमिक वैशिष्ट्य के आपने कुछ लोगों को ‘अतिरिक्त वेतन वृद्धि’ से सुसज्जित कर दिया। मालवीय जी की आत्मा कराहती रही और आपने ‘मानवीय मूल्य अनुशीलन केन्द्र’ में अपनी गरिमामयी उपस्थिति में ‘मूल्यों’ को तारतार कर दिया। ओमकार-अश्विनी के अकार’ से आप इतना सम्मोहित हुए कि एक को अवैध वेतन दिया तो दूसरे को आवास और भाई की नियुक्ति से नवाजा। ‘जाति का सेगा’ जब सिर पर चढ़ा तो ‘प्रबंध-शास्त्र’ पांच बिरादरी से चुना तो साथ बैडमिंटन खेलने वाले को भी ला पटका। ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता’।
पर्यावरण के प्रति आपका प्रेम देखने लायक है। विश्वविद्यालय के खेल मैदानों पर कंक्रीट के जंगल देखने लायक हैं। कल तक जहाँ खेती होती थी वहाँ भी आपका पर्यावरण प्रेम भवन-निर्माण के रूप में प्रस्फुटित हुआ। केन्द्रीय कार्यालय से लेकर विभागों तक में अवैध तरीके से लगे ए.सी. से निकलते फ्लोरो कार्बन आपके प्रकृति-प्रेम के ही तो प्रमाण हैं। अन्यथा पिछले तीन सालों से पर्यावरण प्रेमी दंपत्ति (अग्रवाल) कार्बन फुट-प्रिंटस को कब का नियंत्रित कर चुके होते। प्रकृति प्रेम का चरमोत्कर्ष तो तब दिखता है जब आप महीने में एक दिन ‘साईकिल की सवारी’ करते हैं और फोटो अखबार में छपता है। सादगी की इस कयामती अदा पर तो मर-मिटने का मन करता है। ‘कोचीन हाऊस से होलकर भवन’ की यात्रा जब चारपहिये से होते हुए देखता हूँ तो मेरा मन आपके प्रति आगाध श्रद्धा से भर-भर आता है। मालवीय जी के समय चैराहों पर बरगद-पीपल का वृक्ष लगाया जाता था तो अब चैराहों के चारों कोनों ईंट का बड़ा गमलानुमा चौकोना स्थल तैयार कर उसमें कुछ झाड़-झंखाड़ गाड़ दिये गये हैं। बदलते परिवेश में आखिर सतत-विकास के अर्थ को आप जैसा पर्यावरण प्रेमी ही तो समझ सकता है। संस्थान के लिए कमरा/जगह हो न हो निदेशक की नियुक्ति ‘रघुकुल’ से तो करनी ही थी। सतत-विकास के लिए इससे बढ़िया आप ‘क्या’ कर सकते हैं। हर मनुष्य की अपनी सीमा होती है, आपकी भी है। गाँधी बेवकूफ था जो जाति का अर्थ राष्ट्र /प्रजा निकालता था वरना वह तो ‘कास्ट’ का ही हिन्दी-रूप है। आपने ‘जाति’ के अर्थ को ठीक पकड़ा और इसे पर्यावरण से जोडकर देखा। पर्यावरण समृद्धि के लिए जाति के पेड़ खूब लगाये। विश्वविद्यालय की बगिया में आपने इमेरिटस आचार्य भी नियुक्त किये। ‘सिमिट्री’ न गड़बड़ाये इसलिए आपने सी.पी. सिंह ,वी.डी. सिंह को तरजीह दिया। इसी विज्ञान संकाय में एक ऋषि भी पिछले पचास वर्षों से साधनारत है, पर उधर आपका ध्यान नही गया। जाना भी नहीं चाहिए। राजाओं/कलमाड़ियों की दुनियाँ में अब फकीरों की नहीं ‘सी ई ओ’ज की जरूरत है जो लोभ, काम आदि को सबकी जरूरत बना दे।
भारतीय परंपरा में ‘रस’ पर खूब चर्चा हुई है। दर अन्तराल रस-कुम्भ जीवन ही व्यक्ति के सौन्दर्य-बोध की निर्मिति के मूल में होता है। सौन्दर्य है क्या? जटिल सवाल है। सदियों से मनीषी इस पर चिन्तन-मनन करते आये हैं। निष्कर्षतः यह माना गया है कि सौन्दर्य देखने वाले की दृष्टि, उसकी संवेदना उसकी पात्रता ही दय के सौन्दर्य का आकलन करने में निर्णायक होती है। इस प्रकार हम देखें तो कह सकते हैं कि विश्वविद्यालय के सौन्दर्यबोध का स्तर उठा है। दरअसल सौन्दर्य के स्तर की तरह ही दृष्टा और भावक के भी स्तर होते हैं। अब देखिये न जब विश्वविद्यालय के नये कुलपति के चयन हेतु ‘खोज समिति’ लगातार तीन दिन तक विश्वविद्यालय परिवार से परिचर्चा-चर्चा कर रही थी तब विरोधी अपनी भूमिका में थे। खोज समिति के समक्ष एक प्रोफेसर ने आपके प्रशंसा का फ्लाईओवर क्या तैयार किया दूसरे उस पर या तो चढकर निकले या नीचे से गुजरे। आपकी सादगी, गोपूजा, विज्ञान-अध्यात्म व भाषा की खूब चर्चा हुई, बस नहीं हुई तो विषय के अंतरवस्तु की चर्चा।
आपके विश्वविद्यालयआगमन से ‘रघुदिलीप’ की याद आई जब एक आचार्य ने खोज-समिति के समक्ष गायो के दूध में वृद्धि की चर्चा की। आपके गो सेवा के बदौलत गायें तीन लीटर से बढ़कर चौदह लीटर तक दूध देने लगी। वह तो ‘खोज समिति’ तैयार नहीं हुई अन्यथा ‘पेनड्राइव’ से उस अनन्त सौंदर्य का भावन कराने के लिए महोदय तैयार थे।
खुदा भी जग कभी आसमा से देखता होगा
मेरे महबूब को किसने बनाया सोचता होगा।
खोज समिति आयी थी विश्वविद्यालयके कुलपति पद के लिए किस तरह के व्यक्तित्व को तरजीह दिया जाय। पर हुआ ठीक उल्टा। पूरा विश्वविद्यालयदो ग्रुपों में बंट गया। लोग लंगोटे, के साथ मैदान में उतर गये। स्वतंत्रता भवन सचमुच स्वतंत्रता’ के आन्दोलन के रूप में दिखा। सत्ता पक्ष अर्थात् आपका पक्ष दिन-रात मेहनत कर लोगों को आपके पक्ष में बोलने के लिए तैयार कर रहा था। तैयारी दिखी थी। जब ‘ठीकेदार’ भी प्रोफेसरों के बीच बैठकर ताली बजाते दिखे तो मैं सचमुच आपके ‘देवत्व’ के प्रति नत मस्तक हो उठा। होता भी क्यों न! पांत/पंक्ति के आखिरी पायदान पर बैठे मेरे सहित अन्य व्यक्ति भी वाह-वाह करने लगे। मजा तो तब और आया जब एक अध्यापक ने खोज-समिति से गुजारिश की कि ड्राइवर ;(वर्तमान कुलपति) को मत बदलिए अन्यथा ट्रेन डिरेल हो जाएगी। आपके पक्ष में उठा जनमत वस्तुतः आपकी सेवा का ही परिचायक है। विश्वविद्यालयकी सेवा जिस रूप में की है वह काबिले तारीफ है। विज्ञापनो की दुनिया को भी आपने ठीक से समझा है। अन्यथा ट्वाय और सुलेख एडवर्टाइजिंग हो ही मोटी रकम क्यों जाती। वहां भी राजेश द्वय आने कार्य को बखूबी अंजाम दे रहे हैं।
व्यक्तिगत तौर पर तो मैं भी यही चाहूंगा कि आप दुबारा कुलपति बने और आपके देवत्व के प्रति लोगो में सम्मान बना रहें। बी.एच.यू. जी एक अघोषित/तथाकथित अध्यादेश पर चल रहा है चलता रहे। संभव है कुछ वर्षों बाद कोई प्राइवेट संस्था इस विश्वविद्यालयको जमीन की कीमत अदा कर विश्वविद्यालयको खरीद ले। आखिर मे हम तो उसी देश के वासी है न जहां शरणागत को पूरी सुरक्षा दी जाती है। अत: आप इसका पुख्ता इंतजाम करके जाये जिससे आने वाली पीढ़ी आपके योगदान को भूले नहीं। मै अपनी बात इस शेर से समाप्त करता हू।
अफवाह है या सच है यह किसी ने नहीं बोला
मैने भी सुना है अब जायेगा तेरा डोला
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