हाय हुसैन, हम क्यों न हुए...
भारतीय मन की एक खास विशेषता है-विदेशी
वस्तुओं/यात्राओं/पुरस्कारों/डिग्रियों/प्रमाणों को ‘कुंतल’ से
भी अधिक तवज्जो देना । जब कभी अवसर मिलता है वह इन अवसरों से चूकना नहीं चाहता है।
अपने देश के पठन-पाठन की कक्षा में जिस अध्यापक की नानी मर जाती हैं वह विदेश में
हिन्दी के नाम पर मिडिल दर्जे की हिन्दी पढ़ाने के लिए बेचैन हो जाता है। विदेश
जाने की यह ललक/वायरस केवल शिक्षा जगत तक ही सीमित नहीं है। यह तो हर हिन्दुस्तानी
के डीएनए में है। खेल कूद में ही देखिये । कहीं भी टीम जानी हो दौरे को लेकर विवाद
शुरू हो जाता है। जिंहोने कभी लंगोट भी नहीं पहना वे कुश्ती टीम के मैनेजर ही बनकर
जा रहें हैं। खिलाड़ी चार जा रहें है तो चौदह खानसामे भी जा रहें हैं। जनता के बाप
का पैसा है तो गुलछर्रे उड़ाने के लिए ताकतवर ही जाएँगे।
वैसे तो आजकल विदेश यात्रा के ढेरों अवसर मिलते
रहते हैं। फर्राश से लेकर नाबदान साफ करने वाले स्किल्ड लेबर भी खाड़ी देशों में अपनी
जवानी ताक पर रखकर डालर-दीनार से भारत सरकार के विदेशी मुद्रा-भंडार में बढ़ोत्तरी
कर रहें हैं। पर ये बिचारे अपने खर्चे पर जाते हैं। अत: इसमें वह मजा नहीं है जो
सरकारी दामाद बन कर जाने में है। विदेश यात्राओं के तमाम बहानों में से एक सुंदर
बहाना है-‘विश्व
हिन्दी सम्मेलन’। भाषा-विकास के मिशन-समृद्धि के बहाने ऐसी
यात्रा पूरे विश्व में कहीं नहीं होगी। भारतीय लोकतन्त्र की यही तो खूबसूरती है।
इस वर्ष का विश्व हिन्दी सम्मेलन मारीशस में हो
रहा है। पिछले कई महीने से मारीशस जाने के लिए संसद से लेकर सड़क तक फाइलें दौड़ाई
जा रहीं है। नाम जोड़े-घटाएँ जा रहें हैं। अपने-2 आकाओं के माध्यम से गोटियाँ-सेंकी /रोटियाँ-फेंकी
जा रही हैं। ऐसे में हिन्दी के नाम पर बने कुछ संस्थान भला पीछे कैसे रहते! हिन्दी
के नाम पर जजमानी का असली अधिकार तो इन्हीं संस्थाओं का है। सो वहाँ भी मार-काट मची
है मारीशस की यात्रा को लेकर। इन संस्थानों में भी वे ही अग्रगण्य हैं जो केंद्रीय
सरकार से अनुदान पाते हैं। क्योंकि राज्य सरकारों के हाथ थोड़ी तंगी में होते हैं।
लिहाजा वे दूसरों के भरोसे ज्यादा रहते हैं। पर केंद्रीय
संस्थानों/विश्वविद्यालयों के क्या कहने! वहाँ तो ‘उतरा
है रामराज कुलपति निवास में’।
भारत के भूगोल के हिसाब से केंद्र में एक
केंद्रीय विश्वविद्यालय स्थित है। यह विश्वविद्यालय हिन्दी भाषा की वकालत करने
वाले के नाम पर है। यद्यपि कि जिस महापुरुष के नाम पर इस विश्वविद्यालय की स्थापना
हुई है वह जीवन पर्यंत अपरिग्रही ही रहे। लेकिन इस विश्वविद्यालय में काम करने
वालों ने शुरू में ही उनके इस सिद्धांत की तेरही कर दी थी । तब से यह
विश्वविद्यालय उत्सव धर्मी विश्वविद्यालय के रूप में ज्यादा जाने लगा। मारीशस
यात्रा को लेकर यहाँ भी गहमागहमी है। बैठकों का दौर जारी है। सारा कुछ गोपनीय
तरीके से किया जा रहा है। कौन-2 लोग जाएँगे यह किसी को नहीं
पता है। यह केवल उसी को पता है कि जो जा रहा है। केंद्रीय कार्यालय का एक भूतकर्मी
कई बार देर रात को विश्वविद्यालय के किसी कर्मी का फोन घनघनाता है और विनम्रता
पूर्वक कहता है –‘सर, वी सी साहब आपको
मारीशस में हो रहे विश्व हिन्दी सम्मेलन में ले जाना चाहते हैं । कृपया आप अपना
पासपोर्ट आदि तैयार कर कार्यालय में आ जाएँ जिससे अन्य औपचारिकताएं पूरी की जा
सकें। और हाँ सर! आपसे एक गुजारिश और है कि इस संदर्भ में आप किसी और से कोई चर्चा
न करें तो बेहतर होगा। ऐसा ऊपर का निर्देश है”। कर्मी फोन
रखते ही उत्साह में चमगादड़ की तरह छत पर जा चिपकता है। घरवाले उसकी इस मुद्रा को
देखकर हक्का बक्का। ये तो अभी अच्छे भले थे। इन्हें क्या हो गया?प्राक्टर को फोन करने की धमकी के साथ कर्मी जमीन पर आ गिरता है । तब कहीं
माजरा साफ होता है। करीब पौना दर्जन कर्मियों को इसी तरह की सूचना दी जाती है और
वे सब चुपके से औपचारिकताओं की पूर्ति में लग जाते हैं। प्राय: कंधे पर झोला
लटकाये और मुंह गिराए रहने वालों की खुशी देखकर कुछ लोग सशंकित हो उठते हैं।
कानाफूँसी के साथ ही जासूस छोड़ दिये जाते हैं। जाने वालों का गोपनीय नाम धीरे-2
विश्वविद्यालय की चहारदीवारियों पर रक्तवर्णी लाल चटख रंग में साफ-2
उभर आता है।
‘यह तो हद है भाई”! एक नेतानुमा अध्यापक ने अपने वरिष्ठ सहयोगी से दीवाल पर खुदे नाम की ओर इशारा करते हुए कहता है । वरिष्ठ सहयोगी भी
मुस्कराहट के साथ जबाब देते है-‘कुछ करते क्यों नहीं?
ये कोई बात हुई कि मनमानी तरीके से नाम तय कर दिया जाय’।
उधर कुलपति के जासूस भी जगह-2 ऐयारी के लिए तैयार हो गए थे। रिम-झिम
वर्षा हो रही थी। एक दूसरे नेतानुमा नेता विश्वविद्यालय के जामवंत का दरवाजा
खटखटाता है और धीरे से अंदर हो लेता है।
‘इतनी रात को तुम ! बारिश में। सब
खैरियत तो है न’! मेजबान ने पूछा।
‘क्या खैरियत है सर ? यहाँ कुलपति मनमानी किए जा रहे हैं और आप सांकल लगाकर सो रहे हैं’?
‘क्या हुआ भाई ? आप इतने नाराज क्यों हैं? कुलपति जी तो विद्वान हैं!
वे तो सोच समझकर सब कुछ अच्छा ही करते हैं। अच्छा चलो ! बताओ, बात क्या है’? मेहमान सारा किस्सा दुहरा देता है और
आग्रह करता है-सर! आप गाँडीव उठाइए। बिना इसके बात नहीं बनेगी। विश्वविद्यालय में
तो अनर्थ हो रहा है। आखिर मेरा मुंह तो इतना खराब नहीं है कि मारीशस जाने से
विश्वविद्यालय की बेइज्जती होगी। कल-2 के आए लोग जा रहें
हैं। कुछ लोग दुबारा जा रहें है। तो मैं क्यों न जाऊँ?
मेजबान ने कहा – ‘मित्रवर इस निशीथ रात्रि में क्या हो सकता है?सुबह इस पर चर्चा करते हैं। हाँ यदि आप कोई लिखत-पढ़त करते हैं तो मेरा
अवश्य सहयोग रहेगा- 'रहा प्रथम बल मम तनु नाहीं'
विश्वविद्यालय में मचे
गहमागहमी के बीच प्रशासन ने जाति-रिश्ते को साधते हुए कुछ और कर्मियों से भी
मारीशस जाने का अनुरोध किया। लेकिन छवि के प्रति अतिरिक्त सावधानी बरतने वाले एक
चौथाई दर्जन कर्मियों ने निजी कारणों से यात्रा करने में असमर्थता व्यक्त की। यह
सूचना जाने के लिए तैयार बैठे लोगों के लिए चौकाने वाले था। तत्काल एक सज्जन ने
अपनी चटख जवा-कुसुम जैसी रंगीन बाइक से कुलपति कार्यालय पहुंच गए।
‘सर,मैं भी
मारीशस जाना चाहता हूँ। आप नहीं ले जाएँगे तो ....पद से इस्तीफा दे दूँगा’। मुखिया हत-प्रभ! मान-मनौवल के बाद
आखिर गाड़ी पटरी पर आ गई और वे भी कागज-पत्र लेकर भूतकर्मी के पास हाँफते-काँपते
पहुँच ही गए। उधर मौके की तलाश का इंतजार कर रहे कर्मियों में एक नाम और जुडने की
खबर सुनते ही भूचाल सा आ गया। आनन-फानन में इधर-उधर बैठक भी हुई। शिक्षक संघ से
लेकर जाति संघों में बात रखने पर ज़ोर दिया जाने लगा। अंतत: यह तय हुआ कि एक पत्रक लिखकर
मुखिया को दिया जाय कि मिशन हिन्दी समृद्धि के लिए विदेश यात्रा के लिए कोई
नियम-कायदा बनाया जाय। पत्रक पर हस्ताक्षर जारी है। उधर कुछ अध्यापकों में इस बात
का रोष है कि मुखिया अगर हमसे भी पूछते तो हम भी न कुछ
तो कम से कम ‘न जाने की ईच्छा रखने वालों’ की श्रेणी में ही नाखून कटाकर शहीद हो गए होते।