Thursday, October 19, 2017

लोहियावादी-समाजवाद का जातिवादी आदर्श

आदरणीय डॉ साहब
नमस्कार

यह पत्र इसलिए लिखना पड़ रहा है कि आपने एसएमएस द्वारा कई लोगों से यह बात साझा की है कि संस्था और सबके भले के लिए अपनी सीमा भर कोशिश की और विवि से (आप) संतोष पूर्वक घर लौट रहें हैं। आपने यह एसएमएस उनसे भी साझा किया जिसके खिलाफ आपने स्वयं साजिश करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी । मैंने जब आपका एसएमएस पढ़ा तो मुफ़लर/गमछा डाले सूर्योदय होने के बाद आपके टहलते-खिलखिलाते सुमधुर-यात्रा की यादे ताजा हो गई। संस्था के प्रति आपकी ईमानदारी का तो मैं भी कायल हूँ। संस्था की भलाई के लिए ही आपने विवि के खर्च पर सात समुद्र पार मारीशस-यात्रा का खतरा मोल लिया था । गोजर-बिच्छू,साँप-नेवला के लजीज भोज्य-पदार्थ के आग्रही देश चीन की भी यात्रा आपने की । वरना वहाँ कौन जाना चाहेगा ? लेकिन खतरा मोल लेकर भी विवि हित में आपने यह सब किया । आपकी यात्रा के पूर्व में तो कुछ लोगों ने मस्ती के लिए यात्रा की थी । पर  आपकी यात्रा तो  संस्था और राष्ट्र-भक्ति से भरपूर थी । जहां तक मुझे याद आ रहा है विवि में आगमन के कुछ ही दिनों बाद अपने छ्ठी इंद्रिय के कमाल से आपने यह जान लिया था कि एक जाति विशेष के लोग इस विवि को डिस्टर्ब करना चाहते हैं । इस विचार को  आपने अपनी ही जाति के एक अध्यापक से यह बात साझा की थी । (जबकि मगहर से आप त्याग-तपस्या करने आये थे) वो बिचारे ठहरे सेकुलर जातिवादी । उनके पेट का गैस उबाल मारने लगा और उन्होने तुरंत मुझ जैसे जातिवादी व्यक्ति से इस बात की चर्चा की। उस दिन वे तनाव में थे। मैंने उनसे कहा-महाराज! यह तो बड़ी अच्छी बात कही है उन्होने । डॉ साहब तो मगहर से यहाँ इस विवि को शांति का ही पाठ पढ़ाने आयें हैं । साहित्य की तो यही सही परिभाषा है । मैंने अपने  मित्र से कहा कि  महाराज ,वहाँ उन्होने जाति विशेष के चरणों में बैठकर वर्षों तक अपने को जातीय लौह-कवच में संस्कारित किया है । तभी तो वे शिक्षाविद बनने के लिए  एक तरफ व्योम मिश्र का  शिष्यत्व स्वीकार किया तो दूसरी तरफ राजनीति के क्षेत्र में ज्ञानेश्वर मिश्र की चरण-वंदना की । दीनदयाल विवि के शंकर ने अपने कंधे से राजनीति का झोला उतारकर इनके कंधे पर रखा था । ये तो बस अपने आचरण में उसे उतार रहे हैं । मैंने उनसे कहा कि आप परेशान न हों । वैसे भी डॉ साहब धुरंधरों के बीच रहते हुए जातियों के गुण दोष को ठीक तरीके से समझते होंगे तभी ऐसा कहा होगा । डॉ साहब आप तो साहित्य के आचार्य हैं ।(हालांकि कुछ लोगों को लगता है कि आप आचार्य नहीं है। वे मूर्ख हैं। ब्राह्मण तो पैदाइशी आचार्य होता है। यूजीसी का नियम ब्राह्मणों पर लागू ही नहीं होता है) आप तो अमित-अनंत ज्ञान में डुबकी के बाद जातीय मणि-रत्न को लेकर  ही रामगढ-ताल से निकले हैं। फलस्वरूप अवसर मिलते ही आपने गुरु दक्षिणा स्वरूप  प्रमेय को इतिसिद्धम तक पहुंचा दिया।  
            डॉ साहब आपको मंच से सुनना लोगों को कर्णप्रिय (?) लगता था। हमारे एक जानने वाले तो आपके भाषणों पर फिदा ही रहते थे। आपके मंच पर चढ़ते ही वे कहते थे कि अब देखो ! इस विषय पर गुरुजी चार घंटा बोलेंगे। यद्यपि कि एक बार भी आपको चार घंटा बोलने का अवसर नहीं मिल पाया। फिर भी किस्सागोई और स्वय हंसने-मुस्कराने की कला यह बता देती थी कि वक्त मिलता तो आप अवश्य ही शिष्य की बात को सच कर देते। वर्धा में आपका जातिगत राजनीति  का अनुभव भी गाँव के चौधरी के रूप में विकसित हुआ। आपने  अपने इलाके के जातीय-विद्वानों की विवि में झड़ी लगा दी । अहो रूपं अहो ध्वनि की अनुगूँज से हिन्दी विवि भी वाह-वाह कर उठा । आपने शंकर पर जरा सी कृपा क्या की, कि तुरंत कोलकाता से आपको बुलावा भी आया (वरना किसी  जमाने  में अहोम शासकों के राज्य में शोध-जजमानी के लिए आप वर्षों तक छटपटाते रहे हैं)। सर आशुतोष मुखर्जी के शहर में आपने जब यह रहस्योद्घाटन किया कि अंधेरा इतना पसरा हुआ है कि सच इसमें कहीं खो गया है’, तब वहाँ मुझे मुक्तिबोध का चाँद का मुंह टेढ़ा है अपनी संपूर्णता में उपस्थित होता दिखा । विवि की कार्य परिषद की बैठक में (जिसके आप भी मानद सदस्य थे) जब आपने अपनी जाति के एक नव नियुक्त सदस्य पर प्रश्न चिन्ह खड़ा होते हुए देखा तो झूठ की झोली आपने वहीं पसार दी और कहा कि नहीं ! यह बात गलत है । वे इस विवि में नहीं पढ़ाते हैं। आपके इस आप्त वचन के बाद तो कार्य परिषद के कई सदस्य चाहकर भी सच को बोल नहीं पाये। क्योंकि झूठ ने अपना पाँव इतना लंबा कर लिया था कि सच ने वहाँ से अपनी जान बचाकर भागने में ही भलाई समझी । सच रूआँसे मन से वहाँ निकल भागा । मैंने स्वयं अपनी आँखों से उसे विद्यापीठ से रोते हुए निकलते देखा। एक बार मन हुआ कि उसे पुकारूँ लेकिन गला ही रुद्ध हो गया मेरा। आखिर मैं भी तो जातीय-दंश से पीड़ित ही हूँ न !
       अब देखिये न! जब से आप विवि में आए थे आपकी जाति-विशेष ने इतनी खूबसूरती से अपना पाँव पसार लिया कि किसी को पता ही नहीं चला। त्वरित टिप्पणी और तीसरी आँख लेकर पैदा हुए सोशल मीडिया तक को आपने भनक नहीं लगने दी। कबीर के मगहर से जिस जाति की चदरिया को लेकर आप वहाँ से आये थे उसे आपने यहाँ ज्यों का त्यों धर दिया। ऊपर नभ-मण्डल में देवताओं ने भी साधु-साधु कहकर पुष्प वर्षा की। वर्धा का पंचटीला जातीय फूलों की गंध से मंह-मंह सुगंधित हो उठा। हालांकि महात्मा गांधी को विवि के गांधी हिल्स से अपनी  लकुटिया के साथ चुपके से निकलते हुए मैंने देख लिया था । मैंने उन्हें आवाज भी दिया । पर उन्होने अपनी उसी पुराने अंदाज में होंठों पर तर्जनी रखकर चुप रहने का इशारा किया और  आगे बढ़ गये ।
 लोग कहते हैं कि गीता में जन्म से नहीं कर्म से जाति/वर्ण के निर्धारण होने की बात कही गयी है। लेकिन असली व्याख्या आपने अपने पुरुषार्थ से दिया कि जाति/वर्ण का निर्धारण कर्म नहीं जाति ही होती है। मगहर से लेकर सेवाग्राम तक की बेधड़क यात्रा से आपने इसे सिद्ध भी कर दिया है। अब कुछ लोग इसके खिलाफ पिपीहरी बजाएँ तो बजाते रहें। वर्धा में काम करते हुए भी आपकी अर्जुन-आंखे मगहर विवि की तरफ ही लगी रही। क्योंकि वहाँ भी बीज(क) को बोना था। अध्यक्ष पद पर ज्योही एक जाति विशेष के बैठने की बारी आयी आपने आनन-फानन(?) में लौटने का फैसला ले लिया । मगहर विवि में होने वाली नियुक्तियों में आपके रहते दूसरे लोग हाथ बँटाले यह कैसे हो सकता है? आपने दुखी(?) मन से जाने का फैसला ले लिया । मजे की बात यह कि कई लोगो से आप अलग-अलग मिले और सभी से आपने  यह कहा कि मै जा रहा हूँ । पर यह बात मैंने सिर्फ आपसे ही कहा है। सभी अपना कालर उंचा कर रहे थे कि वे ही सबसे करीबी हैं आपके। लेकिन सच्चाई तो सिर्फ आप और हम जानते हैं। है न! भला अपनी जाति के बाहर किसी को करीबी समझा जाता है? जाति ही क्यों? अवसर पड़ने पर अपनी जाति को भी पटकनी देने में आपकी कोई शानी नहीं है। अब देखिये न! कुछ कर्मचारियों के मुद्दे को अंजाम तक पहुंचाने में कई लोगों ने जमकर रगड घिस्स किया था ।  यह तो हम  सब  जानते हैं कि विवि के किसी भी नीति-निर्णय पर अंतिम मुहर कुलगुरु ही लगाते है। पर एक ब्राह्मण मनोवैज्ञानिक के नीचे से इस तरीके से आपने दरी खींच ली कि अगले को पता नहीं चला और सारा श्रेय स्वयं लेकर मगहर को चले गये। वरना सम कुलगुरु तो कुलगुरु  का छाया मात्र ही होता है। विवि के एक भव्य भवन के निचले तल के बरामदे में आपने एक अध्यापक से कितनी व्यावहारिक बात कही थी निजी स्वार्थ  को लेकर । जब  अपने यह कहा कि ये (कुलगुरु) तो अपना झोला उठाएंगे और कहीं निकल लेंगे । पर मेरा क्या होगा? मेरी तो  आंख  खुली की खुली  ही रह  गयी। उस  दिन हमने आपसे जाना कि आप तो  विवि और कुलगुरु के प्रति तो आप कभी ईमानदार ही नहीं थे। यही तो हमारी जातिवादी राजनीति की खासियत है।  मेरा भी सीना छप्पन  इंच’  का  हो  गया।
 कबीर दास ने जात-पांत के खिलाफ भाषण चाहे जितना दिये हों, उन्हें भी हमारे पूर्वजों  ने मौका मिलते ही विधवा-ब्राहमणी के गर्भ का ही सिद्ध कर दिया । प्राइमरी से लेकर विवि तक यही गाथा पढ़ाई जा रही है। दूसरे किसी जाति के गर्भ से पैदा हुए होते तो न जाने किन-2 विशेषणों से नवाजे जाते। भोजपुरी क्षेत्र का होने के नाते आप खूब समझ रहें होंगे। परिणाम स्वरूप आजतक पता नहीं कितने अपने जाति के लोग कबीर-लेड़ी से बाबा रामदेव की तरह चूरन-पंजीरी बाँट रहे हैं और दुकान चल भी रही है। इधर उत्तम अग्रवाल टाइप कुछ लोग कबीर को वैश्य बनाने की जुगत में लगे हुए हैं। पर सफल नहीं हो पाएंगे । अब दो हजारी द्विवेदी ने जिस पर अपना कलम चला दिया हो उस पर बनिए-बक्काड़ क्या कलम चलाएँगे?
असल बात जो यह है कि सारे भारत में नैतिकता और सच्चाई आज जाति सापेक्ष हो गई है’, बहुत कम लोग ही समझ आते हैं। इस देश के अंदर,एक विशिष्ट वर्ग के अंदर उदात्त व्यक्तित्व की प्रतिष्ठा हुई है और वे व्यक्तित्व बहुआयामी हैं। इसमे अरुंधति राय जैसी कुछ अराजक-प्रबुद्ध भी हैं जो इस बात को समझते हैं । उसने कहीं कहा है कि संघ भी राष्ट्रवाद के नाम पर ब्राह्मणवाद ही करता है। दरअसल ये वो सिरफिरे हैं जो भारत की तासीर को नहीं समझते हैं और इस तरह का वक्तव्य देते रहते हैं। ढाई हजार वर्षों से इस तरह के विरोध के हमलोग आदी हो चुके हैं । क्या कर लिया लोगों ने विरोध करके? आज भी अपने गाँव में जो सूप-सूपेली बीनने वाला डोम है, वह दक्षिण दिशा के दुर्गंध युक्त वातावरण में खौरहे कुत्ते और सूअरों के बीच ही अपना जीवनयापन कर रहा है । और हम लोग देखते ही देखते 21 वीं सदी मेंमंगल पर जाने की तैयारी कर चुके  हैं । वे ही क्यों ? अन्य जातियाँ भी मालिक और बाबा कहकर आशीर्वाद लेने तो आती ही हैं। बड़ी खूबसूरती से हमारे पूर्वजों ने इस जन्म में सेवा करो अगले जन्म में मेवा मिलेगा का जन्म से लेकर मरण तक ऐसा लौह-चक्रव्यूह बनाया है कि फ्रायड-युंग-एडलर की तिकड़ी भी इसे नहीं तोड़ पा रही है।
जातीय महीरुह कितनी महत्वपूर्ण होते हैं इसे आपसे बेहतर कौन समझ सकता है? साहित्य अकादमी के युवा पुरस्कार के चयन कर्ताओं में आप भी एक सदस्य हैं। तिवारी जो आपके वरिष्ठ सहयोगी रहे हैं ,यदि साहित्य अकादमी के अध्यक्ष न रहते तो आप कैसे वहाँ रहते? हिन्दी विवि में भी आगमन तो इसी महीरूहों के ही शाखा-सूत्रों के ही माध्यम से हुआ था। आपके ही शहर के एक बड़े विद्वान त्रिपाठीजी ने एक दिन दूरभाष पर मुझसे बड़ी ही मासूमियत से पूछा कि डॉ साहब विवि क्यो छोड़कर चले गए? मैंने उनसे कहा कि वे संभवत: अध्यक्ष बनने के लिए गए हैं। वे इससे संतुष्ट नहीं हुए। हालांकि सच्चाई उनको पता रही होगी। पर वे मुझसे कुछ और जानना चाह रहे होंगे। पर अपन भी जातीय खेल का पुराना खिलाड़ी है। गूगली को गली से निकाल दिया।  
आपने एक और महत्वपूर्ण कार्य इस विवि में किया है जिसकी जानकारी बहुत कम लोगों को है। वह है मित्रता की परिभाषा । ज्ञान के प्रमुख स्रोत तो ब्राह्मण ही रहे हैं। मित्रता का जो नया पैमाना आपने बनाया है उस पर हम सब सौ-सौ बार फिदा हैं। हों भी क्यों न? सिंह एक ही साथ तिवारी- शुक्ला और राय दोनों के मित्र कैसे हो सकते हैं? आपके इस मासूमियत भरे सवाल और उसके पीछे के तर्क पर विश्वामित्र की संतान के होश ही उड़ गये। अब तो आपके इस कृष्ण ज्ञान पर शिरीष के फूल भी उग आए हैं। विवि में आकर आपने जातिवाद का जो नया सौंदर्यशास्त्र गढ़ा है, वह सचमुच काबिले तारीफ है । भारत के बारे में डा लोहिया ने एक बार कहा था- भारत एक आइडिया है,एकशिवोहम जैसी आइडिया । आप तो दुनियाँ की नजर में  लोहियावादी ही हैं। लोहिया के इस विचार को भी किस तरह से जाति की तरफ मोड़ा जा सकता है इसकी कला हमलोगों ने आपसे सीखी है। अब कोई माई का लाल ऐसा नहीं है जिसे हम लोग आपके ज्ञान-सहयोग से धूल न चटा दें। वर्धा प्रवास के दौरान आपके द्वारा लोहियावादी-समाजवादी जातिवाद के इनोवेटिव ज्ञान से हम सब बहुत लाभान्वित हुए ,इसके लिए आपका बार-2 आभार ।
खैर! पत्र लंबा हो गया। त्रुटि को सुधार कर पढ़िएगा । आपके जाने के बाद मन बड़ा दुखी-दुखी सा रहता है। यहां की तो दीमकें भी फूट-फूट कर रोईं थी । हम सबके मन में एक ही सवाल कौंधता है –हाय!अब हमलोगों का कौन मार्गदर्शन करेगा? पता नहीं किस बेवकूफ ने लिखा है-अभिव्यक्ति के खतरे उठाने ही होंगे /तोड़ने ही होंगे मठ और  गढ़ सब   ..... खतरा तो हम लोग आपके साथ मिलकर उठाते थे। खैर! आप अपने मिशन में वहाँ भी सफल हों। यही मेरी शुभकामना है। कभी अवसर मिले तो जरूर  इधर आइएगा । हम सबको आपका इंतजार रहेगा ।
आपका अपना ही
चिन्मय भारत








जी हाँ!  बीएचयू आज असुरक्षित है। sept 2016
अपन की एक खास विशेषता है सवाल से भागने की। हम बीएचयूआइट भी थोड़े अजीब किस्म के हैं। जरा सी  आलोचना हुई नहीं कि लगता है कि इज्जत अब गई कि तब गई। विवि की लड़कियां अपने ऊपर होने वाले  छेड़छाड़ के खिलाफ आजिज होकर आंदोलन पर उतारू क्या हुई सबके आंतों में दर्द का मरोड़ उठने लगा। शील-शुचिता पर गहरा संकट आन पड़ा। नये-पुराने  बीएचयूआइटों ने पक्ष-विपक्ष में तुरंत मोर्चा सँभाल लिया। किसी की वेदना छलक कर हलक से निकल कर बाहर आ गई यह आंदोलन मूलत:विवि को बदनाम करने के लिए किया जा रहा है।  एक वरिष्ठ आचार्य ने नैतिक शिक्षा का पाठ पढ़ाते हुए कहा-जो कोई भी इस विवि में कुछ भी गड़बड़ करेगा उसे मालवीयजी की आत्मा अवश्य ही दंडित करेगी।( गोया मालवीयजी की आत्मा को चित्रगुप्त ने कोई काम एलाट ही नहीं किया हो )।
अतीत के नोस्टाल्जिक हवाई चिंतन में जीने वालों को लगता है जैसे धरती पर इससे बेहतर कोई जगह न थीन है और न होगी। दरअसल मालवीय भक्ति का जैसा विद्रूप चेहरा यहाँ देखने को  मिलता है वैसा शायद ही कहीं देखने को मिले। विवि में किसी भी तरह का पाप होता रहे आप चुपचाप सुनिए देखिये और भुगतिए और हर मंच से मालवीयजी को प्रिय एक-दो श्लोकों को कंठ के ज़ोर से गाते रहिए । क्योंकि आपके अपने  हक-हुकूक की लड़ाई के बारे में सोचते ही मालवीय-मर्यादा तार-तार होने लगती है।
विश्वविद्यालय में महिलाएं असुरक्षित हैं-
कोई भी संस्थान/परिसर तभी सुरक्षित कहा जाता है जब वहाँ चौतरफा खुशी का माहौल हो-पर्यावरण से लेकर दैनंदिन व्यवहार तक । क्या बीएचयू इस तरह का माहौल दे पा रहा हैजबाब है नहीं। और यह कहने में हमें कत्तई गुरेज नहीं है कि ऐसा माहौल आज से नहीं जब हम केंद्रीय विद्यालय की कक्षा 9वीं-दसवीं के विद्यार्थी थे तब से है । जी हाँ तब छात्रावास में रहने वाले लड़के हों या कोई और ‘लौलिताओंकी तलाश में बीएचयू के मुख्य डाकघर के आस-पास चाय पीने के लिए आ धमकते थे। जाड़े के दिनों में भी एकदम सुबह-सबेरे ही हाजिर हो जाते थे और तमाम अश्लील फब्तियाँ हमारे ऊपर टैंक के गोलों की तरह बरसाते थे। कभी जरा सा अवसर मिला नहीं कि शरीर छूने से भी बाज नहीं आते थे। कुछ कहने पर बेहया की तरह हँसना और ‘काहो भौजी ------। यहाँ तक कि ठेले-खोमचे वाले भी मौका नहीं चूकते थे। घर पर जब कभी कहने की कोशिश की गई तो वही पुरानी शिक्षा-उधर जाने क्या जरूरत थीमत जाओ !ध्यान मत दो! आखिर माता-पिता इससे अधिक कर भी क्या सकते थे?बेटी को पढ़ाएँ या फ़ौजदारी करें।
 थोड़ा और बड़े हुए तो महिला महाविद्यालय और फ़ैकल्टी में जाना पड़ा। खुदा न खास्ता कभी कम दूरी की सोचते हुए छात्रावास के रास्ते से यदि गुजरना हुआ तो छात्रावासों के अंतेवासी अचानक ‘खेदा’ पर निकल आते थे। विविध मुद्राओं और विचित्र रूपों में अवतरित इन दर्जनों दंतैल महिषों के नितांत पूर्वाञ्चली लंपटई  ‘महोच्चार’ से व्योम का सारा वातावरण ही महादुर्गंध के संगीत से गुंजायमान हो उठता था  युधिष्ठिर की तरह नीची दृष्टि किये हुए चलना हमारी मजबूरी होती थी। पर मन तो यही कहता था कि काश कोई देवी इन पर चरण-प्रहार कर इनके मस्तक को विदीर्ण कर देती 
 मैं अच्छी तरह जानती हूँ कि उनमें से कुछ लोग आज इसी विवि में आचार्य/उपाचार्य/चीफ प्राक्टर तक की कुर्सी पर बैठकर मालवीय गरिमा की रक्षा में ‘राग-गर्दभ’ में ‘सत्येन-ब्रह्मचर्य’ का पाठ कर रहें हैं । मैं तो बस यही जानना चाहती हूँ कि कोई लड़की सायकिल/स्कूटी से अगर जा रही है तो  इन आतताइयों को कभी यह ख्याल नहीं आया कि बेचारी सुबह परीक्षा देने जा रही है या घर/अस्पताल में किसी घटना के घटित होने की आशंका या तनाव में भागी जा रही हैं। नवरात्र में कुंआरी कन्याओं को खाना खिलाने के लिए परेशान इन टोटकेबाज़ जाहिलों के मन में कभी इन लड़कियों के प्रति घर के बाहर भी पवित्र भाव क्यों नहीं उपजा। और तो और यहीं के पालक-बालक समाजशास्त्री बड़ी प्रसन्नता पूर्वक ‘फ़ैकल्टी-रोड’ को माल-रोड कहते थे । आज जो इन परेशान लड़कियों को धर्म-कर्तव्य-चरित्र का पाठ पढ़ा रहें हैं उन्होने कभी  इस परिसर को ‘सुरक्षित’ बनाने की पहल की?  
प्रतिभाएं असुरक्षित हैं -
जब 21-22 सितंबर को छात्राओं ने अनसेफ- बीएचयू का बैनर सिंह द्वार पर टांग दिया तो यहाँ के जातिवादी खोल में पले-बढ़े धुरंधरों को दिल को बड़ा जबर्दस्त धक्का लगा। उदण्ड और जाहिल अध्यापकों की कौन कहे कुछ पढे-लिखे और पेशे के प्रति ईमानदार कर्मियों के भी पेट में मरोड़ उठाने लगा कि यह तो ठीक नहीं है। विरोध अपनी जगह सही है। पर विवि की गरिमा की रक्षा हम सबकी ज़िम्मेदारी है। विवि की गरिमा की रक्षा तो तभी हो सकती है अथवा होती है जब ‘जाति’ से ऊपर उठकर ‘मेरिट’ को महत्व दिया जाय। लेकिन इस विवि ने यह काम शायद ही किया हो। ‘मेरिट’ को यदि कभी अवसर मिला भी होगा तो वह सिर्फ उदाहरण के लिए अंगुलियों की कसरत के लिए।
इसी विवि के एक प्रखर और मेधावी छात्र ने 1956 से लेकर 1996 तक के कुलपतियों के कार्यकाल काइथनोग्राफिक’ अध्ययन किया है । आंकड़ों पर आधारित यह अध्ययन जब पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुई तो तब के कुलपति ने इसे लाइब्रेरी में रखवाने से मना कर दिया जबकि लेखक ने इस पुस्तक की दो प्रतियाँ दान स्वरूप लाइब्रेरी को भेंट भी कर दिया था। लेकिन कुलपति-भय के कारण इसे ‘क्लासीफाइडनहीं किया गया।  बेटी-बेटा-बहू-दामाद से लगायत ‘डीप-रिलेशन’ तक की पड़ताल करने वाली इस पुस्तक में चार दशकों के जातिवादी इतिहास का कच्चा चिट्ठा खोलकर रख दिया है। उस दौर में थोड़ी बहुत जो गरिमा बची थी  वह पिछले चार-पाँच कुलपतियों के कार्यकाल में पूर्णत: ध्वस्त हो गई। विश्वविद्यालय शब्द से ‘विश्व’ कब गायब होकर ‘स्थानीयता’ मे परिवर्तित हो गया किसी को पता ही नहीं चला।
अस्पताल भी असुरक्षित है-
यूपी-बिहार मिलाकर लगभग चार-पाँच करोड़ की आबादी बीएचयू के अस्पताल पर भरोसा करती आई है। सस्ता और उचित  इलाज के लिए लगभग तैंतीस जिलों के लोग इस अस्पताल की ओर आशा भरी नजरों से देखते हैं। किसी भी प्रकार की गंभीर बीमारी के लिए सबसे पहले यहाँ की जनता इसी अस्पताल की ओर दौड़ी चली आती है। एक समय था जब यहाँ के चिकित्सकों ने सचमुच में कर्तव्य-निर्वहन में अपनी छाप छोड़ी थी। पर समय के साथ इस अस्पताल में भी जातिवादी रोग लग गए। चिकित्सकों ने न केवल निजी प्रैक्टिस शुरू की वरन जांच से लेकर दवा खरीद में ‘कमीशन’ खाना शुरू कर दिया। बीएचयू अस्पताल में आपरेशन करेंगे और उसके एवज में दस-बीस हजार अलग से ऐंठ लेते हैं। यहा के हर डाक्टर का अपना चहेता दुकानदार है जहां से हर शाम इनका बंधा-बँधाया पैसा आ जाता है। यहाँ के कुशल चिकित्सकों ने अपने अयोग्य वंशजों के लिए इसे सुरक्षित कर लिया। अभी हाल-2 में हुई नियुक्तियाँ इस बात की पुष्टि भी करती है। यह एक मात्र ऐसा संस्थान है जहां बिना प्रोफेसर के ‘कार्डियोलाजी’ में ‘डीएमकी डिग्री दी जाती रही है। हद तो तब हो गई जब जानवरों के उपयोग में आने वाली दवा से मनुष्यों को बेहोश किया जाने लगा । उपलब्ध जानकारी के अनुसार यह दवा भी वहाँ से खरीदी गई जहां इस दवा के लिए कोई लाइसेन्स ही नहीं दिया गया है। अस्पताल में मिलने वाली दवा बाहर की दुकानों से महंगी मिलती है। सैंपल के लिए डाक्टरों को दी जाने वाली दवा भी इन दुकानों पर सहज ही उपलब्ध रहता है।
 इस विवि से पिछले दिनों ‘पीडियाट्रिक्स’ के एक प्रोफेसर को यौन उत्पीड़न के आरोप में धरे गए थे पर विवि प्रशासन ने उस प्रोफेसर को ‘वी आर एस’ देते हुए बाइज्जत बाहर का रास्ता दिखा दिया। ऊपर से कोढ़ में खाज यह कि एक अंतराष्ट्रीय यौन उत्पीड़न के आरोपी को इस अस्पताल का मालिक ही बना दिया गया।  ऐसी विकट परिस्थिति में यह अस्पताल आज हम सब के लिए असुरक्षित हो चुका है।  
अब तो यहाँ की पारिस्थतिकी भी असुरक्षित हो रही है
मालवीयजी एक ‘विजनरी’ व्यक्ति थे। वे पारिस्थितिकी तंत्र को ठीक तरीके से समझते थे। इसीलिए जब इस विवि की संरचना को अंतिम स्वरूप दिया जा रहा था तो उनके मन में सिंधु-सभ्यता की अच्छाइयों का ध्यान था। वृक्षों और सड़कों के साथ साथ परिसर में रहने वाले अध्यापकों-कर्मचारियों के रहने लिए आवास आदि का निर्माण कराते हुए उन्होने इसके पारिस्थितिकी को विशेष रूप से ध्यान में रखा था। छायादार और फलदार वृक्ष के साथ-2 इमारती और पर्यावरणीय दृष्टि से लाभदायक वृक्षों की एक लंबी शृंखला तैयार की थी। तालाब और मैदान भी इस विवि की खूबसूरती के अंग हुआ करते थे। लेकिन समय बदला और बौने किस्म के सत्ता-लोलुप और जातिवादी सोच के लोग कुलपति बनते गए और विवि धीरे-2असुरक्षित होता चला गया। तालाब तो अब इस विवि में आपको शायद ही दिखें। मैदानों पर धीरे-2 कब्जा बढ़ता गया। अधिकांश मैदानों का स्वरूप बदलता गया और वहाँ पर कंकरीट के जंगल खड़े होते चले गए। यह सिलसिला जहां-2 खाली जमीन मिलती गई वहाँ-2 चलता रहा। क्योंकि अधिसंरचना का खेल सबसे खूबसूरत खेल है। यहाँ निश्चित रकम आपके दरवाजे पर दस्तक देने के लिए तैयार बैठी होती है। इसीलिए आज कुलपतियों का मूल्यांकन उनकी ज्ञान-क्षुधा से नहीं भवन-निर्माण से की जाती है।
आजकल देश से लेकर विदेश तक ‘क्लाइमेट चेंज’ को लेकर चर्चा का बाजार गरम है। इस विवि में भी इसकी खूब चर्चा है। जैसे-चर्चा बढ़ती गई वैसे-2 इस परिसर की पारिस्थितिकी तंत्र पर खतरा बढ़ता गया। विवि  में जैसे-2 जनसंख्या बढ़ती गई वैसे-2 वृक्षों की संख्या घटती गई। हाँ केवल खानापूर्ति के लिए सरकारी वृक्ष खूब लगे। आज परिणाम यह है जो चौराहे कभी विशाल वृक्षों से आच्छादित हुआ करते थे वे अब सूने और वीराने से लगते हैं। प्रवेश द्वार के निकट महिला महाविद्यालय और विश्वनाथ मंदिर का चौराहा इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। मेरा बचपन इसी विवि में गुजरा है। इसकी सोंधी गंध आज भी मुझे आकर्षित करती है। पर यह विशाल परिसर समय के साथ चौतरफा असुरक्षित होता चला गया।
इतिहास इस बात का गवाह है कि किसी विवि का नाम सिर्फ उसके पूर्वजों के गौरव-गान से नहीं अपितु उसका वर्तमान किस हद तक समय के साथ मुक़ाबले के लिए तैयार है उससे जाना जाता है। पढ़ाई-लिखाई से लेकर उच्च कोटि की लाइब्रेरी किसी भी शिक्षण संस्थान की जान हुआ करती है। अत्यंत क्षोभ के साथ कहना पड़ रहा है इस विवि में लाइब्रेरी की दशा सबसे खराब है। पिछले एक दशक से यह अपनी दुर्दशा की चरम पर है । पुस्तकों की खरीद-फरोख्त से लेकर नियुक्तियों में हुई फर्जीवाड़ा ही इस केंद्रीय ग्रंथालय की पहचान बन गई है। क्या मजाल कि वहाँ लड़कियां ‘स्टैक’ में निश्चिंतता पूर्वक पुस्तकें खोज सकें । वहाँ भी शोहदों की नजरें उनके इतिहास-भूगोल पर पड़ी ही रहती हैं।


बहादुर लड़कियों ने जब अपने दम पर आंदोलन को खड़ा करते हुए अपने आक्रोश को अभिव्यक्ति देते हुए सिंह द्वार पर ‘अनसेफ बीएचयू’ लिखा तो विवि में अपनी पैठ बना चुके भगवा-ब्राह्मण किले के खानाबदोशों को  सबसे अधिक चिंता उसके ‘सुलेख’ को लेकर हुई। इन दलालों ने घोषित कर दिया कि यह सुलेख तो राष्ट्रवादियों/मालवीय प्रेमियों का तो हो ही नहीं सकता। अर्थात अच्छी लिखावट उनके बस की बात नहीं है । वस्तुत: इस स्वत:स्फूर्त आंदोलन को बदनाम करने के लिए विवि प्रशासन ने हर हथकंडे अपनाएं । इसके लिए धेलेबाजी से लेकर पेट्रोल बम तक का सहारा लिया गया। बात-बात में बम मारने-चलाने की कला वस्तुत: प्रयाग की धरती की उपज है न कि काशी की । हंसी तब और आती है जब एक तरफ भगवा-ब्राह्मण किले में परिवर्तित बीएचयू का वर्तमान इतिहास अपनी बरबादी पर अट्टहास कर रहा है और हम वीरगाथा काल के चारणों की तरह ‘मेरे मालवीय तो महान है’ विषय पर ललित-निबंध लिख रहे हैं। लब्बोलुआब यह कि विवि यदि आज भी अगर कुछ लोगो को सुरक्षित लग रहा हो तो उसे शुतुरमुर्गी ख्याल से अधिक कुछ नहीं कहा जा सकता है। सच तो यह है कि ‘मालवीयजी का यह  जीवंत मूर्तिमान विग्रह’ जातिवादी-दंश के कारण कत्तई महफूज नहीं  है।     

आज कुछ दर्द मेरे दिल में सिवा होता है
संस्मरण लिखना एक कठिन विधा मानी जाती है,यदि वह आब्जेक्टिविटीके साथ लिखी गई हो । आजकल संस्मरण और आत्मकथा लेखन की भरमार हो गई है । इनमें जातीय प्रधानता (दलित आत्मकथा) अथवा अपनी आचरण-सम्पदाकी पतनगाथा को खास तवज्जो दिया जा रहा है। रचनाशीलता अथवा पाठक को उदात्तता का बोध कराने वाले साहित्य का प्राय: लोप सा हो गया है । सब कुछ राजनीति की तरह तात्कालिता पर निर्भर हो गया है। अभी हाल-हाल में आई पुस्तक रंजिश ही सहीइसका टटका उदाहरण है। लेखक की किस्सागोई और खिलंदनापण का पता चलता हैया लेखक में विटी-निटी और ह्यूमरअब भी शेष है, इत्यादि तरह के क्लिंसेज आपको अनेक चेले-चपाटी अथवा धूर्त सहकर्मियों की कलम से यत्र-तत्र भविष्य में प्रकाशित होने वाले समीक्षा लेखन में देखने को मिल ही जाएँगे । पर मेरी रुचि कुमार पंकज के नकली साहित्य(रंजिश ही सही) में न होकर प्रत्यक्ष अनुभव से जुड़ा है । इसलिए जब उनकी पुस्तक की चर्चा चली तो मैं भी आधुनिक ग्रंथालय विज्ञान के जनक एस आर रंगनाथन के फाइव लाज़ आफ लाइब्रेरी साईंसका सम्मान करते हुए सरसरी तौर पर इस पुस्तक को उलटनेपुलटने से अपने को रोक नहीं पाया। वैसे तो यह पुस्तक कुल मिलाकर एक अतिमहत्वाकांक्षी ,अनर्गल,अश्लील,झूठ और कुंठित मानसिकता का पिटारा भर है जिसे खरीदकर पढ़ना कत्तई समझदारी नहीं होगी । इस पुस्तक पर कुछ लिखने का मेरा कोई इरादा नहीं है। यह हिन्दी साहित्य के तमाम कथित-पुरस्कृत छोटे-बड़े साहित्यकारों और लेखकों का घटिया और निजी दस्त-नाबदान है जिसमें सच और झूठ तो लिखने वाला या संबधित जन ही जानते होंगे। हिन्दी साहित्य/विभाग की दशा-दिशा यदि इतनी गंदी और घृणित है तो राम ही मालिक है। मेरे कई मित्र जो कमलमें उगे कीचड़की चर्चा चटखारे लेकर करते थे उस पर अविश्वास का कोई कारण नहीं दिखता है। फिर भी किसी के निजी जीवन और ड्राइंग रूम के खिड़की दरवाजों में झांकना न तो कोई अच्छा कार्य है न ही मेरी कोई रुचि है । पर पुस्तक से गुजरते हुए लगा कि इन कामजल-पिपासु और मूत्रागार के उपासकअध्यापक/लेखक के साथ जो मेरा अनुभव है उसे साझा करना मेरा दायित्व है।
लेखक से मेरा दो बार साक्षात साक्षात्कार हुआ है और वह भी बड़े ऐतिहासिक ढंग से ।(राह चलते तो कई बार देखा है) मैं अपनी कलम को इसी मुलाक़ात के दायरे तक सीमित रखते हुए विश्वविद्यालयीय अध्यापकीय मानसिकता की तरफ इशारा करूंगा जो कमोवेश लगभग सभी विश्वविद्यालयों में देखने को मिल जायेगी ।
बात 1990 की है जब मैं बिरला छात्रावास के कमरा संख्या 118 का अंतेवासी था। बसंत का अवसान हो चुका था और वातावरण में आम-महुआ के बौर-फल की भीनी-भीनी खूशबू पोर-पोर में भिन रही थी। अलसुबह उठकर यदि आप छात्रावास से निकल कर मालवीयजी के सौंदर्यबोध का दर्शन करना चाहें तो किसी भी सड़क को पकड़ लीजिये अद्भुत नजारा देखने को मिलेगा। खेल के विशाल मैदान,छायादार और फलदार वृक्ष विशाल छात्रावास,समकोण पर काटती हुई सड़के चौराहों पर पीपल-बरगद-पाकड़ के पेड़ आदि एक खूबसूरत मालवीयजी के अद्भुत कल्पना का दर्शन करा देते हैं। छात्रावास का जीवन अत्यंत निरभ्र,शुभ और पवित्र होता है। इन दिनों झूठ-फरेब से मुक्त जीवन में नई ऊंचाइयों को छूने की ललक होती है।गलतियाँ भी होती हैं और उससे सीखने का भरपूर अवसर भी होता है। निराशा के क्षणों में भी अक्सर तेज: प्रचंडकी तरह हर बाधा को तोड़ने के लिए मन-मस्तिष्क का कसमसा उठना एक सहज प्रक्रिया होती है। परीक्षा के दिनों में यह भाव कुछ ज्यादा ही सक्रिय हो जाता है क्योंकि इस पर भविष्य का दांव लगा होता है। उन्हीं दिनों कुछ इसी तरह के माहौल में मैं भी अपने को इस नदी-धारा में डालने की कोशिश कर रहा था।
एक दिन हमारे छात्रावासी मित्र अनिल सिंह शाम के समय कमरे पर आए और कहा कि यार चलो, नरिया चलते हैं। रिफिल खरीदनी है।मैंने मित्र से कहा कि दूध पिलाओगे तो अवश्य चलूँगा। थोड़ा ना-नुकुर करने के बाद मित्र तैयार हो गए और हम दोनों पैदल ही ब्लाक के कोने पर बने पतले रास्ते(अब शायद बंद कर दिया गया है क्योंकि विवि प्रगति कर रहा है) निकलकर मेडिकल छात्रावास से होते हुए आगे बढ़े । तभी एक और मित्र साइकिल से आते हुए दिखे और वे भी हम लोगों के साथ हो लिए । हम दोनों पैदल थे और मित्र अतुल सिंह गौतम जो आजकल कहीं लेफ्टिनेंट जनरल होंगे,अपनी साइकिल से हमलोगों के कदम-से कदम मिलाकर चल रहे थे। उन दिनों नरिया-बाजार हमलोगों के लिए सबसे नजदीक का बाजार होता था और दैनिक आवश्यकता की काफी चीजें वहाँ मिल जाती थी। सड़क पर प्राय: सन्नाटा था। नरिया वाले रास्ते के तिराहे से महज दस-पाँच कदम हमलोग पहले होंगे कि बाईं तरफ एन सी सी रोड से एक तेज गति से आती हुई गाड़ी दिखाई दी। वह गाड़ी अभी दूर थी और हम लोगों ने सड़क पार कर लिया। तब तक गाड़ी भी नजदीक आ चुकी थी। दो कदम आगे बढ़कर गाड़ी रूकी और उसमें एक-दो सुरक्षाकर्मी उतरे और कहा कि आफिसचलो साहब बुलाये हैं । अभी हमलोग कुछ कहते कि पीछे से मूसदानीजिसमें दर्जन भर सुरक्षाकर्मी बैठे थे, भी आ गई। कार चली गई हम दोनों पैदल मित्रों को उस मूसदानी में बैठने को कहा गया। हम दोनों चुपचाप बैठ गए और तीसरे मित्र के साथ दो सुरक्षाकर्मी उसकी साइकिल के साथ हो लिए। तीन-चार मिनट के भीतर ही हम लोग चीफ प्राक्टरकार्यालय में पहुँच गए। गाड़ी से उतर कर मैं वहाँ बरामदेनुमा जगह में रखे गए एक टूटे फूटे सोफ़े पर बैठ गया और मित्र अनिल भी वहीं विराजे । अभी हमलोग बैठे ही थे कि किसी अधिकारी ने मोहल्ला अस्सीकी गाली से नवाजते हुए कहा कि सोफ़ा पर कैसे बैठ गए? चलो पत्थर पर बैठो। मानो वज्र ही टूट पड़ा। विवि के संसाधनों पर पहला हक छात्रों का होता है और यहाँ डंडा पीटने वाले नकारा किस्म के सुरक्षाकर्मी गालियों की बौछार करने पर आमादा थे। मरता क्या न करता! हमलोग बरामदे से बाहर आकर खड़े हो गए। चीफ प्राक्टरकार्यालय जाने का यह पहला अवसर था। अत: पता ही नहीं था कि किधर जाना है ,कहाँ बैठना है अथवा किससे बात करनी है। अभी इसी ऊहा पोह में थे कि सामने से हमारे तीसरे मित्र भी आते हुए दिखे । उन्होने एक किनारे साइकिल खड़ी की और हमारी तरफ बढ़े। देखने से साफ लग रहा था कि मित्र की धुनाई कर दी गई है। (बाद में अतुल ने बताया कि सुरक्षाकर्मियों ने उस पर 20-25 डंडे गिराए थे और उसके पीछे जो बड़ा कारण था वह था उन सुरक्षाकर्मियों से उसका अँग्रेजी में बात करना) अब तक माजरा समझ में आ गया था कि परीक्षा से एक दिन पहले हम लोग किसी घटिया सोच के शिकार हो चुके हैं । हनुमान-चालीसा के अलावा और कोई सहारा नहीं दिख रहा था। तब तक एक सुरक्षाकर्मी ठीक मेरे बगल में आकर बोला कि भाग्यशाली हो कि आज दिलावर सिंह (नाम स्पष्ट याद नहीं है) नहीं है, वरना चमड़ी उधेड़ देता। चालीसा-पाठ का असर तुरंत दिखा । निश्चिंत हुआ कि खूंखार और निर्दय सुरक्षाकर्मी उस दिन नहीं था। जब हम तीनों मित्र एक साथ हो लिए तभी किसी की आवाज कान में गूंजी –‘इन सबों को ऊपर ले चलो और गरम करो। मैं तो काँप गया कि अब क्या होगा ? इसी बीच अनिल ने थोड़ी चालाकी करने की कोशिश की और कहा चचा! बरसातु सिंह हमारे रिश्तेदार हैं। उसने यह बात इसलिए कही कि शायद इस नाम के प्रताप से हम सब छूट जाएँगे। बरसातु सिंह एक नामी प्राक्टर कर्मी थे। नाम के हिसाब से वे प्राक्टर के पर्याय थे। जब कभी छात्रों और प्राक्टर कर्मियों के बीच कुछ धकम-पेल होती थी तो आकाश में बस एक ही नाम गुंजायमान होता था-बरसतुआ .......के । और मान लिया जाता था कि समस्त प्राक्टरकर्मियों से बदला ले लिया गया। होली के दिनों में भी बरसातु सिंह को ही गाली दी जाती थी और छात्र मान लेते थे कि होली का रिश्ता निभ गया। बरसातु सिंह का नाम सुनते ही एक सुरक्षाकर्मी ने मित्र पर निर्दयता-पूर्वक चार डंडे जड़ दिये। मेरे पास तो हनुमानजीके अलावा कोई चारा ही नहीं था। बचपन से ही हनुमानजी साथ देते आयें हैं - चाहे किसी के खेत से चना उखाड़ना हो या कटहल तोड़ना । जब-जब मैंने हनुमान जी को बाजी जात गजेन्द्र की राखौ बाजी लाजकी तरह शुद्ध मन से याद किया है, उन्होने सहायता की है और आज भी उनकी अहेतुक कृपा बनी हुई है। खैर, अभी जय हनुमान ज्ञान गुणसागरशुरू कर ही रहा था कि एक डंडा बाएँ हांथ की कनिष्ठिका के जोड़ पर गिरा । चटाक! पूरा शरीर झन्ना गया। आज भी जब मैं इस संस्मरण को आप सबसे साझा कर रहा हूँ तो नजर उस कनिष्ठिका पर बरबस टिक जा रही है जिस पर किसी माननीय का डंडा गिरा था। इसकी टीस आज भी एकदम ताजा है । आज भी मन करता है कि केशव-केशनिका बाल पकड़कर हिलाऊँ और पूछूँ कि अरे नीच आदमी! कौन सी गलती हमने की थी जो इस तरह का निर्दयतापूर्ण व्यवहार करवा रहे थे। साहित्य का कौन सा पाठालोचन था वह । खैर! निर्देशानुसार हमलोगों को एक कर्मचारी ने ऊपर जाने के लिए बनी सीढ़ियों की तरफ इशारा किया और आगे बढ़ गया। सीढ़ी का रास्ता अंधकारमय था। मुझे अब पक्का विश्वास हो चुका था कि ये किसी ऐसी जगह ले जा रहें हैं जहां करेंट का झटकादेंगे। क्योंकि गरम करने का आदेशऔर रास्ते का अंधकारका जो कोलाज बन रहा था वह इलेक्ट्रिक टार्चरका ही बन रहा था। अब मैं पूरी तरह से हनुमान आश्रित हो गया- हरि अनाथ के नाथ। सौभाग्य से 12-15 सीढ़ी चढ़ने के बाद एक कार्यालयनुमा कमरा दिखा जहां 4-5 लोग बैठे दिखे। कमरे में प्रवेश करते ही एक आवाज गूंजी- ओम प्रकाश सिंह की गुंडई खत्म कर दी तो तुम लोगों की क्या औकात है। हम लोग सन्न थे । आखिर हम लोगों ने तो कुछ गलत किया भी नहीं और गाली-डंडा सब सहें जा रहें हैं । हंसी और रोना दोनों आ रहा था। तभी मेरा ध्यान एक व्यक्ति की तरफ गया जो ज्यादा वाचाल था । सफ़ेद शर्ट पहने गँवईं बिरजू महाराजकी स्टाइल में बाल बिखेरे हुए अपनी बदजबान से हमलोगों को हड़काए चले जा रहा था। हमलोग मेमने की तरह भेड़ियों से न्याय की गुहार कर रहे थे कि गुरुजी हमने कुछ गलत नहीं किया है । हमलोग तो सिर्फ रिफिल लेने बाजार जा रहे थे। इसमे हमलोगों की क्या गलती है’? अंतत: यह कहने पर कि आज के बाद ऐसी गलती नहीं होगी’, हमलोगों की जान छूटी और छात्रावास लौटे। अपने ही विद्यार्थियों को नीचा दिखाकर ये प्राक्टरनुमा अध्यापक कैसे अपने को श्रेष्ठ साबित करने पर उतारू हो जाते हैं समझना मुश्किल नहीं है। घटना के 27 वर्ष बीत जाने के बाद आज भी मैं यह बात समझ पाने में असमर्थ हूँ कि बहुतेरे अध्यापक प्रार्क्टोरियल बोर्डमें जाने के लिए क्यों लालायित रहते हैं। पठन-पाठन जैसा पवित्र कार्य छोड़कर चौबीस24*7 घंटा अनपढ़-गंवार-अनैतिक कृत्यों के गोरखधंधों में संलिप्त कामी-लोभी कुलपतियों का चरण पकड़ने के चारण-युगको क्यों चरितार्थ कराते हैं? मुफ्त गाड़ी-गनर लेकर घूमने अथवा कुछ महुआ-आम-जामुन के फल मुफ्त अपने घर मंगाने के अलावा कौन सा सुख प्राप्त करते हैं? चापलूस अध्यापकों और सुरक्षाकर्मियों से लैस इस सवाना मैदानी कार्यालय में बैठकर रामचरितमानस का पाठ तो होता नहीं । अपितु एक दूसरे को पटकनी देने के फिराक में माता-पिता से मिला संस्कार भी छीजने लगता है और अपने ही विद्यार्थी दाऊद-इब्राहिमकी तरह दिखने लगते हैं। फिर तो भीतर रमण-तृषा के लिए ताक-झांक को सदैव तैयार बैठी आसुरी शक्तियों को अपना हुनर दिखाने का अवसर मिल ही जाता है-आवत देखि विषय बयारी। ते हठि देहिं कपाट उघारी

दूसरी मुलाक़ात कुमार पंकज से वर्ष 2008 में तब हुई जब वे काहिविवि के एकेडेमिक स्टाफ कालेजके निदेशक थे। मैं एक अभिविन्यास पाठ्यक्रम में वहाँ बतौर एक प्रतिभागी उपस्थित था। यह कार्यक्रम कुल चार सप्ताह का होता है । विभिन्न विषयों पर अलग-अलग विद्वान सम्बन्धोंके आधार पर इस कार्यक्रम में यात्रा-मुद्राके लालच में अपना ज्ञान गिराने आते रहते हैं। कितने प्रतिभागी इस कार्यक्रम से लाभान्वित होते हैं यह एक अलग विषय है। तो, उस पाठ्यक्रम में एक दिन तब केंद्रीय कार्यालय के उप कुलसचिव माथुर का RTI पर एक व्याख्यान था। आरटीआई कानून अभी नया-2 ही बना था तो एक हौवा की तरह यह चर्चा में बना रहता था । विवि के CPIO होने के नाते माथुर साहब भी अपना अनुभव-ज्ञान बांटने आए थे । 1 घंटा तक उन्होने इस विषय पर अपनी शैली में ज्ञान दिया जो अधिकांश के पल्ले नहीं पड़ा था । व्याख्यान के बाद प्रश्नकाल में प्रतिभागियों को कुछ- कुछ प्रश्न करना होता है। मैंने भी बस प्रश्न करने के लिए प्रश्नपूछ लिया कि यदि विवि के CPIO ने उदाहरण के तौर पर हिन्दी विभाग के अध्यक्ष के पास फाइल भेज दी और विभागाध्यक्ष महोदय से उत्तर मिलने में देर हो गई तो किस अनुपात में जुर्माना का बंटवारा होगा। मि माथुर को जो उत्तर देना था दिया और बात खत्म हो गई। पाठ्यक्रम के दूसरे दिन के वर्ग में मैं पीछे बैठा था। अचानक एक कोर्स कोआर्डिनेटर (विधि विभाग के संभवत: डा अजय कुमार थे ) पिछले दरवाजे से आए और हमसे कहा कि डाइरेक्टर साहब बुला रहें हैं । मैंने पूछा क्यों? तो उनका उत्तर था कि मुझे नहीं पता। मैं पीछे के दरवाजे से बाहर निकला और डाइरेक्टर के कमरे में पहुंचा । 18 साल पुरानी घटना अचानक से स्मृति पटल पर बिजली सी कौंधी और देखा कि सफ़ेद शर्ट में वही पुराने गँवईं बिरजू महाराजआज निदेशक-कुर्सी पर विराजमान थे। आज इनकी बारी थी खैर मनाने की । मैं भी तैयार था कि चापलूसी से प्राप्त करने का पर्याय बन चुकी इस कुर्सी पर निदेशक को आज उसकी औकात बता ही दिया जाय । कमरे में घुसते ही उस दिन मैं फिर से सफ़ेद सोफ़े पर जान-बूझकर बैठ गया । (जान बूझकर इसलिए कि पाठ्यक्रमों में भाग लेने वाले अध्यापक प्राय: अपना जमीर बेचकर पाठ्यक्रम पूरा करते हैं और महीना भर चपरासी से लेकर निदेशक की चापलूसी करते रहते हैं। निदेशक/कोआर्डिनेटर भी कुछ लोगों को ताड़ लेते हैं और उनसे सूचना आदि लेते रहते हैं) यह सोफ़ा 1990 के प्राक्टर कार्यालय के सोफ़े से साफ-सुथरा और आरामदायक था। बैठने के कुछ
ही क्षण बाद कुमार पंकज उवाच -
आपको क्या परेशानी है’ ? मैंने रूखाई से कहा-कुछ नहीं 

अगला सवाल –‘कहाँ से आए हैं’? वर्धा से- जैसे मेरी कोई रुचि न हो इनके प्रश्न को सुनने में । 

आपने कल आरटीआई को लेकर कुछ सवाल किया थाहाँ किया था, तो ! ’-मैंने जबाब दिया।

हिन्दी विभाग से आपका कोई परिचय’ ? ‘दूर-दूर तक कोई परिचय नहीं 

तो फिर हिन्दी विभाग के अध्यक्ष को लेकर आपने कल आरटीआई के संदर्भ में सवाल क्यों किया था
सवाल और विभाग का नाम महज एक संयोग था । हिन्दी विभाग की जगह इतिहास-भूगोल का भी नाम हो सकता था । नाम में क्या रखा है’?
मि पंकज ने कहा –‘ठीक है। अब आप जा सकते हैं
समय नष्ट करने के लिए आपका धन्यवादकहते हुए मैं खड़ा हुआ और बाहर निकाला आया।
मैं जब वर्ग में लौट कर अपनी सीट पर विराजमान हुआ तो मेरे मन में यह बात घूमने लगी कि 1990 में सीधे-साधे विद्यार्थियों के समक्ष शेर बनने वाला यह धवल वस्त्र धारी गँवईं बिरजू महाराजआज इतना निरीह क्यों है। जो सवाल व्याख्यान के दौरान पूछे गए थे वह अत्यंत साधारण और सिर्फ जिज्ञासा और प्रश्न करने के लिए प्रश्नथा। पर यह शख्स उससे भी काँप गया। यह तो निश्चित था कि प्रतिभागी अध्यापकों में से ही किसी ने उनको बताया होगा। (ऐसे लोगों से आप क्या उम्मीद करेंगे कि वे अभिविन्यसित होंगे और भविष्य में छात्रहित अथवा संस्था हित में काम कर सकते हैं।) साथ के ही किसी अध्यापक ने बताया कि कुमार पंकज पर आजकल उनके विभागीय सहकर्मी फिदा हैं । उन पर बतौर विभागाध्यक्ष और कुछ इधर-उधर की खबरों को लेकर आरटीआई डाली जा रही थी इसलिए वे डरे होंगे कि कहीं इस सवाल के पीछे कोई हिन्दी विभाग का हांथ तो नहीं है। मुझे उस दिन इन गँवईं बिरजू महाराजका व्यक्तित्व बड़ा ही लिजलिजा और निर्वीय सा लगा । सचमुच ये मास्टर केवल कविता-कहानी-संस्मरण के ही कागजी शेर होते हैं । इधर बीच कोई बता रहा था कि इन केशव-केशनिके पीछे बड़वानल स्तोत्रम की कोई मृगलोचनी शाकिनी-डाकिनी पीछे पड़ गई है जिससे ये भयाक्रांत होकर फिर कुछ डंडा धारी अध्यापकों के शरण में चले गए हैं -–‘बुद्धि बिकल भइ बिषय बतासा

Sept 2017