आरक्षण का जातिवादी व्याकरण
यथार्थ !
बचपन में पिताजी ने कणाद ऋषि की कथा बताते हुए यह बात समझाने की कोशिश की थी कि अन्न के एक-एक कण का आदर करना चाहिए । सभ्यता के आरंभ से ही हमारे ऋषियों-मुनियों ने अन्न के आदर सहित सम्पूर्ण पर्यावरण की सीख हमें दी है। जब थोड़ा और बड़े हुए और खेत-खलिहान की तरफ जाना हुआ तो देखा कि सचमुच में गांव के कई भाई-बंधु पशुओं के गोबर से अन्न का दाना बीन रहे हैं। मन में कौतूहल हुआ कि क्या ये लोग ही कणाद ऋषि के सच्चे वाहक हैं? गाँव में ही यह भी देखा कि परंपरागत भोज की समाप्ति के बाद जूठे पत्तलों में बचे अन्न के दानों के लिए मनुष्य और कुत्ते दोनों संघर्ष कर रहे हैं। क्या ये सचमुच में अन्न के आदर के लिए संघर्ष कर रहे हैं? उत्तर था या है – नहीं। नहीं तो, फिर वह कौन सी मजबूरी है जो मनुष्य को इतना हेय बना देती है । आज जब हम 21वीं सदी के दूसरे दशक के मध्य में हम सीना ठोंककर कह रहे हैं कि हम भी मंगल पर जाने की क्षमता रखते हैं। उधर‘इसरो’ नित-नवीन ऊचाइयाँ को छूने के लिए बेताब है। तब भी ऐसी भीषण और वीभत्स परम्पराएँ विद्यमान हैं।क्या यह उनके मानवाधिकार का हनन नहीं है? क्या उन्हें भी एक सामान्य जीवन जीने का अधिकार नहीं मिलना चाहिए? क्या उन्हें अपना जीवन जीने के लिए उनकी न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं होनी चाहिए । तमाम उपलब्धियों के बावजूद ये प्रश्न विचलित करने वाले हैं।
एक यथार्थ यह भी !
सरकारी नौकरियों में जाने के लिए प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए शहरों में कुकुरमुत्तों की तरह उगे हुए गली-कूँचों के 8*10 के कमरों में ‘मेरिट’ में आने के लिए रात-दिन हाड़-तोड़ परिश्रम करते विद्यार्थी अपनी जिंदगी के स्वर्णिम एक युग झोंक दे रहें हैं। लाखों की संख्या में बैठने वाले परीक्षार्थियों में से कुछ हजार ही सफल हो पाते हैं। उन्हें जब यह पता चलता है कि उनसे कम अंक प्राप्त करके भी उनका साथी सफल हो गया है तो उसे दिन में ही तारे नजर आने लगते हैं। कुछ अगले साल के तैयारी में लगते हैं तो कुछ निराश-हताश घर लौट जाते हैं। क्या यहाँ भी संविधान द्वारा प्रदत्त ‘समान अवसर’ अथवा का सवाल नहीं उठता है? क्या यहाँ भी मानवाधिकार का हनन नहीं हो रहा है? यह सवाल भी परेशान करने वाला है।
एक कड़वा सच और!
यह एक तथ्य है कि सैकडों वर्षों से भारतीय समाज व्यवस्था असमानता और शोषण पर आश्रित रही है। शुचिता,वर्ण और जाति समगोत्रीय थे। समाज के स्तरभेद के ऐतिहासिक विकास के कालक्रम में शुद्धता –अशुद्धता के विचार के साथ आर्थिक-राजनीतिक समीकरण भी गूँथे हुये थे। सत्ता के सामने समाज व्यवस्था झुकने को मजबूर थी। कर्म का समाज दर्शन ऊपरी स्तर पर स्वीकृत था पर श्रम को उसका सही सामाजिक मूल्य प्राप्त नहीं हो पा रहा था। एक खास वर्ग ने बड़ी चालाकी से गरीबी को भाग्यवाद से जोड़ने में सफल रहा । कुबेर की ‘मन पवन की नौका’ पर सवार होकर सदियों तक सागर पार कर सुदूर इलाकों में ‘भारतीयता’ की सुगंध फैलाने वालों पर बिजली गिरा दी जाती है-‘खबरदार,समुद्र यात्रा करके आचार विचार मत भ्रष्ट करो’। तभी कोई अदृश्य मनु फतवा दे डालता है-‘समुद्र यात्रा कराने-करने वाला ब्राह्मण धार्मिक कल्पों के कराने का आधिकारी नहीं’। उधर एक आर्य पुरोहित हमें लगातार समझाता रहा –‘मणि-माणिक-अर्थ-काम के लोभ से क्या फायदा। यह सब माया है। मैं तो तुम्हारी थाली में ही समुद्र उतार देता हूँ। इसमे हाथ डालो और जीवन की सबसे कीमती चीज ‘अनंत फल’ यानी ‘मोक्ष’ प्राप्त कर लो’। फलस्वरूप भारतीय इतिहास में करीब हजार वर्षों तक सामाजिक संगठन, विवाह, खान-पान,शिक्षा-दीक्षा और आचार-विचार के क्षेत्र में ‘जीवन निषेध’ और ‘जीवन जिजीविषा’ के लिए चली लंबी लड़ाई के अंत में ‘निषेध’ जीत गया, और ‘जिजीविषा’ हार गई । फिर भी गतिशील निषाद मन शायद ही इसे पूरी तरह स्वीकार किया हो। उन्नीसवीं शती में फिर से एक बार निषाद मन गंगा में डुबकी लगा कर उठ खड़ा हुआ। इस बार वह पहले से ज्यादा सतर्क और सावधान था। राममोहन राय,ईश्वरचंद, दयानंद,विवेकानंद,गांधी,नेहरू और अंबेडकर उसी अव्याहत ‘जिजीविषा’ की जीवंत साँस बनकर हमारे सामने उपस्थित हुए।
आजादी की लड़ाई के दौरान ही आधुनिक भारत के निर्माता भारतीय समाज में व्याप्त सामाजिक बुराइयों को लेकर भी संवेदनशील थे। गांधी और अंबेडकर तो इस जटिल मुद्दे को लेकर अपने-2 तरीके से न केवल आंदोलन चलाया अपितु आमने-सामने भी हुए । पर हजार वर्षों से ‘डी एन ए’ में घुसी बीमारी एक झटके में कहाँ खत्म होने वाली थी। पुरातनपंथी तो गांधी-अंबेडकर पर अपनी लाठी भाँजने से नहीं चूकते थे।
आजादी के संघर्ष के दिनो से ही हमारे संविधान निर्माताओं के मन-मस्तिष्क में प्रजातन्त्र, समता, सामाजिक न्याय, बंधुत्व, एकता आदि के आदर्श सक्रिय थे। यह ठीक है कि कुछ आदर्श पश्चिम से भी लिए गए जो उनके(पश्चिम) दीर्घकालिक सामाजिक-आर्थिक प्रक्रियाओं की उपज थे । लेकिन इसमें संविधान निर्माताओं के अध्ययन और अनुभव की देन को नकारना भी असंभव है। संविधान की उद्देशिका को पढ़कर आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के एक बड़े नामी राजनीतिशास्त्री ने लिखा-
“ जब मैंने इसे पढ़ा तो मुझे ऐसा लगा कि मैने अपनी सारी पुस्तक में जो कुछ कहने का प्रयास किया है वह इसमे बहुत थोड़े शब्दों में रख दिया गया है और इसे मेरी पुस्तक का मूल स्वर माना जा सकता है।”
यह कथन संविधान निर्माताओं की निष्ठा को प्रमाणित करता है। वे भारत को एक आधुनिक भारत के रूप में बढ़ते देखना चाहते थे। गांधी ने स्वयं कहीं लिखा है- "It is against the fundamental principles of humanity, it is against the dictates of reason that a man should, by reason of birth, be denied or given extra privileges"
भारत में जाति आधारित आरक्षण व्यवस्था और संवैधानिक प्रावधान :
व्यक्तिमात्र को ब्रह्म का प्रतिरूम मानने, नारी को शक्ति मानने,महाकरुणा का सिद्धांत प्रतिपादन करने तथा दरिद्र में नारायण का दर्शन करने वाले देश में सदियों से ऐसी प्रथाएँ चलती आ रहीं थीं जो किसी भी सभ्य देश अथवा मानवता के मस्तक पर कलंक का धब्बा हो सकता है। अनुसूचित जाति के लोग तथाकथित सामाजिक दबाबों के चलते इन निकृष्ट प्रथाओं के सैकड़ों वर्षो से वाहक बने रहे। आजादी के तुरंत बाद संविधान ने इस आमानवीय प्रथाओं पर तुरंत रोक लगाया जो मनुष्य को मनुष्य से ही हेय समझने में सहायक बनी हुई थी । यह एक तथ्य है कि वैदिक काल में व्यक्ति के वर्ण की पहचान उसके सामाजिक/आर्थिक कर्तव्य अथवा पेशा से होता था और यह वर्ण जाति का सूचक नहीं था। एक वर्ण से दूसरे वर्ण में जाने की मनाही नहीं थी। तथापि कालांतर में जन्म के साथ ही जाति का निर्धारण होने लगा और प्रत्येक जाति ने अपने से नीचे एक जाति की खोजबीन की और स्वयं को उससे श्रेष्ठ साबित करने की कोशिश की । वस्तुत: यह एक किस्म का चालाकी भरा अघोषित नियम /मनोवैज्ञानिक खेल था जो निचले तबके को विरोध करने से रोकता था । संविधान सभा के विद्वान सदस्यों ने इस दर्द को ठीक तरह से समझा और उसने इन लोगों को समाज में उनका वाजिब हक और प्रतिष्ठा कैसे मिले इस पर गंभीरता पूर्वक विचार किया । उन्होने उन्हें समाज की मुख्य धारा से जोड़ने के लिए संविधान में कुछ आवश्यक प्रावधान दिए ।
संविधान के अनुच्छेद 14 से लेकर अनु 17 तक में गांधी के उपरोक्त कथन और उसकी व्याप्ति को संपूर्णता में लिया गया है । अनु 14 वस्तुत: एक समतावादी समाज की निर्मिति पर बल देता है जिसमे यह कहा गया है कि ‘विधि के समक्ष सभी समान हैं और बिना किसी विभेद के विधि के समान सरंक्षण के हकदार हैं’। अनु 15 राज्य को यह अधिकार देता है कि वह किसी भी नागरिक के साथ केवल धर्म, जाति, मूलवंश , लिंग,जन्मस्थान या इनमे से किसी एक आधार पर विभेद न करे। लेकिन भारत की ऐतिहासिक और सामाजिक परिस्थितियाँ ऐसी रही हैं कि इनमे विसंगतियों का का जड़ जमना स्वाभाविक था। उन विसंगतियों को दूर करने तथा एक सामाजिक सौहार्द्र बनाए रखने के लिए संविधान ने कुछ नई व्यवस्था दी जिससे दौड़ में पीछे रह गए भाई-बंधु भी स्वतन्त्रता के साथ आधुनिक सुख-सुविधाओं का आनंद ले सकें और ‘समानता’ तथा ‘बराबरी’ तक पहुँच सके । यह नई व्यवस्था ही ‘आरक्षण’ है और वह अत्यंत महत्वपूर्ण है। ध्यान देने की बात है कि विश्व में भारत ही एक ऐसा देश है जहां यह व्यवस्था लागू है। संविधान का अनु 15(4) राज्य को क्रमश: शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हुए नागरिकों के कुछ वर्गों तथा अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की उन्नति के लिए विशेष प्रावधान करने का अधिकार देता है । यह नीति उन्हें न केवल पदों को आरक्षित करने की शक्ति देता है अपितु उम्र/शुल्क/शैक्षणिक योग्यता/अवसर आदि में भी छूट देने के साथ-2 वजीफा आदि भी प्रदान करती है जिससे वे प्रतियोगी दौड़ में शामिल हो सकें। राज्य/सरकार ने अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के अभ्यर्थियो के साथ साक्षात्कार में भेदभाव न हो इसके लिए प्रत्येक साक्षात्कार बोर्ड मे उनके एक प्रतिनिधि का होना भी आवश्यक है। कार्मिक मंत्रालयनेअपने हाल के निर्देश में यह प्राव्धान किया है कि यदि किसी संस्था आदि में दस से अधिक पदो का चयन होना है तो उसके साक्षात्कार बोर्ड में महिला और पिछ्डे वर्ग के विशेषज्ञो का भी होना जरूरी है.
राजनीति में उनकी सहभागिता हो तथा उनकी राजनीतिक हैसियत में वृद्धि हो इसके लिए संविधान में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए लोकसभा में भी राज्यवार जनसंख्या अनुपात में आरक्षण का प्रावधान है ।(अनु 330 और 334) इसी तरह राज्य, जिला,प्रखण्ड और गाँव में भी उनके जनसंख्या के अनुपात में सीटों का आरक्षण किया गया है।
संविधान द्वारा प्रदत्त आरक्षण की यह नीति सरकारी संस्थानों अर्थात सरकारी नौकरियों, सरकारी शैक्षणिक संस्थानों में शिक्षा हेतु प्रवेश और त्रिस्तरीय कार्यपालिकाओं में लागू है । इसमें प्राइवेट सेक्टर को शामिल नहीं किया गया है। समय के साथ सरकार ने इसका दायरा बढ़ाते हुए मकान,दुकान और व्यापारिक प्रतिष्ठानों के आबंटन में भी लागू किया है। यद्यपि कि कुछ क्षेत्रों में जैसे रक्षा,न्यायपालिका में इसे लागू नहीं किया गया है।
आरक्षण का भीतरी झोल:
ऊपर के विवरण से स्पष्ट है कि दौड़ में पीछे छूट गए लोगों को मुख्यधारा में आने के लिए संविधान में मुकम्मल व्यवस्था के गई है। संविधान में उल्लिखित प्रावधानों का स्पष्ट उद्देश्य था कि आरक्षण पा रहे जातियों/वर्गों का लोक सेवा,सरकारी उपक्रम और शिक्षण संस्थानों में उनका प्रतिनिधित्व बढ़े और एक सुंदर और समरस भारत का निर्माण संभव हो सके । परंतु आंकड़े कुछ और कहते हैं। सरकार और स्वयं के प्रयास से सरकारी सेवाओं में अनुसूचित जातियों,अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों की संख्या में सकारात्मक वृद्धि हुई है जिससे उनकी आर्थिक और सामाजिक हैसियत बढ़ी है। लेकिन जिनकी हैसियत बढ़ी है वे अब इसे दूसरों के लिए छोड़ने को कत्तई तैयार नहीं है। अब तो आरक्षण पाने के लिए अन्य जातियाँ भी अपने को इस दौड़ में शामिल कर चुकी हैं।
यह एक तथ्य है कि आरक्षण का संवैधानिक प्रावधान भी प्रत्येक समुदाय/वर्ग में समाहित सभी जातियों के लिए बराबर का अवसर दे पाने में असफल रहा है। फलस्वरूप विभिन्न जातियाँ और जनजातियाँ जो इसकी हकदार थीं समान रूप से इसका लाभ नहीं उठा पायीं । उनकी भी अब आँख खुल गई है। अब वे भी मुखरित हो रहें हैं। इसका परिणाम यह हो रहा है इन समुदायों के भीतर ही एक प्रकार का ईर्ष्या-द्वेष पनप रहा है। जिन जातियों/समुदायों में कुछ शिक्षित हुए हैं अब वे अपने हक के लिए पैंतरेबाजी कर रहें हैं। यह पैंतरेबाजी एक स्वाभाविक क्रिया है। अनुसूचित जाति के अंदर चमार (उत्तर प्रदेश),महार (महाराष्ट्र),रामदासी(पंजाब) ने आरक्षण का अधिकांश फायदा ले लिया है। इसी तरह जनजातियों में ‘मीणा’ लोगों ने अधिकांश लाभ उठाया। आरक्षण की सही पहुँच की समस्या पिछड़े वर्गों को लेकर भी है। आरक्षण के इस दौड़ में तमाम जातियाँ कूद पड़ीं जो राजनीतिक तौर पर न केवल मजबूत थीं अपितु इतिहास में भी वे ‘दबंग’ और ‘मजबूत’ मानी जाती रही हैं । आज जब हम इस विषय पर चर्चा कर रहें हैं तो ये जातियाँ राजनैतिक तौर पर सर्वाधिक मजबूत लोगों में शामिल हो चुकी हैं। केरल में एझवा,तमिलनाडु में नादार और थेवर, कर्नाटक में लिंगायत और वोकालिंगा, मध्य भारत में लोध और कुर्मी, बिहार और उत्तरप्रदेश में यादव और कुर्मी ,राजस्थान और हरियाणा में जाट अपनी सामाजिक,आर्थिक हैसियत के बावजूद आरक्षण का लाभ लेने वाली जातियों में सम्मिलित हैं। इन जातियो की राजानैतिक हैसियत किसी से छुपा नहीं है. फिर भी इनमे से कोई भी जाति किसी भी प्रकार आरक्षण-दौड से बाहर नहीं होना चाहती हैं।
समस्या कहाँ है-
संविधान का अनु 15(4) राज्य को यह अधिकार देता है कि वह ‘सामाजिक तथा शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े वर्ग’, अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था कर सकता है। शर्त यह है कि उसे इसका समाधान हो जाय कि कथित जाति/वर्ग का लोक सेवा में उचितप्रतिनिधित्व नहीं है। स्वाभाविक है कि कोई एक मानदंड तो इस वर्ग का निर्धारण नहीं कर सकता है। एक मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह व्यवस्था दी है कि अमुक जाति/वर्ग पिछड़ा है, का विनिश्चय केवल ‘जाति’ के आधार पर नहीं की जा सकती है। ‘चित्रलेखा बनाम मैसूर’ के मामले में न्यायालय ने यह स्थापना दी कि पिछड़ा वर्ग के निर्धारण के लिए जाति एक प्रासंगिक कारण हो सकता है। एक अन्य मामले में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि पिछड़ेपन के निर्धारण के लिए जाति और निर्धनता दोनों प्रासंगिक है। (के एस जयश्री बनाम केरल) स्पष्ट है कि न्यायालय इस मामले में अपनी सीमाओं को पहचानते हुए उचित रास्ते की तलाश करता हुआ दिखता है। इन निर्णयों में एक स्वस्थ समाज की रचना की छटपटाहट भी दिखती है। लेकिन उसके खुद के हाथ संविधान से बंधे हुए हैं । पिछड़े वर्ग में आने वाली जातियों की पहचान आदि वस्तुत: राज्य का मामला है। राज्य के साथ राजनीति का चोली-दामन का संबंध है। और वह हर हाल में इस झुनझुने को छोड़ना नहीं चाहती।
आरक्षण और प्रतिभा :
बुनियादी तौर पर यह स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि आरक्षण मूलत: व्यक्ति के उस मौलिक अधिकार/मानवाधिकार का उल्लंघन जिसमे उसे जन्म से ही समानता का अधिकार और अवसर की समानता मिलनी चाहिए । यह मानीखेज है कि प्रत्येक व्यक्ति का मूल्यांकन उसकी क्षमता/प्रतिभा के आधार पर चाहिए । इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को खुले तौर अपनी प्रतिभा के बल पर विभिन्न सेवाओं ,शैक्षणिक संस्थानों आदि में स्थान बनाने देने का अवसर मिलना चाहिए जिससे वह समाज में अपनी रचनात्मक योगदान दे सके । इस प्रयास में सफलता अथवा असफलता उसकी व्यक्तिगत होगी न कि संस्थागत। एक तर्क यह भी दिया जाता है कि आरक्षण वस्तुत: प्रतिभा की जगह प्रतिभाहीन लोगों को अवसर देती है जो अंतत: ‘मानदंड’(स्टैंडर्ड) को ही नीचे गिराती है और अक्षमता को बढ़ावा देती है। यह तर्क एक सीमा/क्षेत्र तक ही सही है। बहुत से अध्ययनों से यह साबित हो गया है कि प्रशासन में कम पढ़े लिखे लोग भी बेहतर साबित हुए है बनिस्बत ‘टापरों’ के । लेकिन इसके विपरीत एक तर्क और भी है कि प्रतियोगिता तो समान लोगों के बीच में होना चाहिए । जब समान वातावरण ही उपलब्ध नहीं है तो प्रतियोगिता उचित कैसे मानी जाएगी । यह कोई बताने वाली बात नहीं है कि बहुत सारी योग्यता व्यक्ति के सामाजिक-आर्थिक परिस्थिति पर निर्भर होती है।
वैसे भी लोक सेवाओं में आरक्षण का अर्थ वस्तुत: ‘प्रतिनिधित्व नौकरशाही’ की व्यवस्था है जिसका सीधा अर्थ है समस्त समाज/वर्ग/जाति/क्षेत्र का लोक सेवा में उचित प्रतिनिधित्व हो जिससे कोई निर्णय लेते समय उस समाज विशेष के लोकाचार/प्रवृत्ति /संवेदना को भी ध्यान में रखा जा सके । ध्यान देने लायक एक और जो चीज है वह है ‘पर्याप्त प्रतिनिधित्व’ का सही अर्थ समझना। इस पद- विशेष में यह अर्थ सन्निहित है कि इसके लिए (पद) आवश्यक अर्हता/दक्षता को बनाये रखते हुए व्यक्ति विशेष का चयन करना । प्रतिभा की कोई आत्यंतिक परिभाषा नहीं हो सकती । ‘कला और सौन्दर्य’ की ही तरह इसकी भी कोई निरपेक्ष परिभाषा नहीं बन सकती । भारत जैसे विविधिता वाले देश में केवल तथाकथित ‘प्रतिभा’ ही चयन का मानदंड हो, यह भी बहुत उचित नहीं है । भारत में यह खुली किताब की तरह है कि चयन में ‘प्रतिभा’ नहीं,जाति/अर्थ/राजनीतिक संबंध ही प्रभावी हैं। इसके मकड़ जाल में उच्च शिक्षा से लेकर आयोग तक सब फंसे हुए हैं। शिक्षा जगत में तो चपरासी से लेकर चांसलर तक सबकी नियुक्ति पूर्व निर्धारित होती है। जिनके पास यह ‘शक्ति-त्रयी’ उपलब्ध नहीं है उसका चयन असम्भव है । कहना न होगा कि आजादी के बाद सम्पूर्ण समाज में चौतरफा मूल्यों में आई गिरावट ने इसको और मजबूत ही किया है । आरक्षण समाधान का कोई दीर्घजीवी सिद्धांत नहीं हो सकता। यह तो भारत जैसे बहुलवादी देश की ऐतिहासिक परिस्थितियों की परिणति थी/है । पर राजनीति के लंबरदारों ने इस सुविधा का इस कदर दुरुपयोग किया है कि इसकी मूल भावना ही नष्ट हो गई । अब आरक्षण एक दुधारी हथियार की तरह हो गया है। क्या मजाल जो कोई बिना मूंठ के इस तलवार को हाथ लगा सके।
आरक्षण का व्याकरण : दर्द भी दवा भी
संभवत: सरकार की कोई भी नीति इतनी विवादित नहीं रही है जितना कि ‘आरक्षण-व्यवस्था’ की नीति । यह एक सच्चाई है कि आरक्षण का लाभ बहुत से वे लोग नहीं उठा पा रहे हैं जिनको यह मिलना चाहिये । आरक्षण का लाभ उन्हीं लोगों को मिला जो पहले से ही समर्थ थे। प्रकृति की यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है जहां बलशाली का लाभांश सदैव अधिक होता है। आरक्षण के द्वारा प्रत्येक वर्ग/जाति में एक अलग नव्य-द्विज पैदा हुआ और वह उसका लाभ उठाने में सफल रहा है। अब तो आरक्षित वर्ग में पैदा हुए नव्य द्विजों ने पीढ़ी-दर-पीढ़ी इसका लाभ उठाते हुए स्वयं के लिए एक सीढ़ी का कवच तैयार कर लिया है।किसी विद्वान ने इस स्थिति को ‘ऊपरी स्तर’ पर विकास और निचले स्तर पर ‘जड़-स्थिर’ की संज्ञा दी है। सवाल यहाँ यह उठता है कि क्या वह आरक्षण की सीढ़ी से चढ़ जाने के बाद भी वह अब भी समाजार्थिक रूप से पिछड़ा ही है? यह एक विचित्र विरोधाभास है कि यहाँ लाभार्थी अपने लाभ को ‘व्यक्तिगत’ मानता है न कि ‘जातिगत’ । वह यह मानता है कि जाति विशेष के अधिकांश लोगों की स्थिति तो जस की तस ही है । स्पष्ट है कि आरक्षणवादियों के बराबरी का व्याकरण कुछ अलग है। वह तर्क करता है कि यह आरक्षण उसे जाति के आधार पर दी गई है। वह भले ही पढ़-लिख कर अपनी शैक्षिक-आर्थिक हैसियत बढ़ा चुका है,परंतु उसकी सामाजिक स्थिति अभी भी नहीं बदली है। तर्क के तरकश से वह यह तीर भी चला देता है कि उसके वर्ग/जाति के आगे बढ़े लोग उस जाति विशेष के लोगों के अहंकार के तुष्टि करते हैं। मंडल कमीशन ने इसी बात की पुष्टि करते हुए कहा है-“ आरक्षण पिछड़े वर्गों के बीच यह भाव पैदा करता है कि देश चलाने में उनकी भागीदारी है”। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि आरक्षण का मतलब जातियों के बीच की असमानता को कम करना है न कि जाति के भीतर की गैर बराबरी को खत्म करना ।उच्च जातियों में भी कुछ खास लोगों का ही पद-प्रतिष्ठा और शिक्षा पर कब्जा है। इसका अर्थ यह नहीं है कि जो लोग पद पर नहीं हैं उन्हे आरक्षण मिलना ही चाहिए। इस प्रकार आरक्षित समुदाय में नव्य-द्विजों का उभरना वस्तुत: उस जाति के सामाजिक हैसियत की बढ़ोत्तरी का सूचक है जो उन्हे उच्च जातियो के समकक्ष खडी करती है।
समाधान के तरीके :
भारत एक बहुलतावादी और बहुसंख्या वाल देश है। यह इस देश की कमजोरी भी है और ताकत भी। आजादी के बाद सरकारों द्वारा दलित और पिछड़े वर्गों को मुख्य धारा में लाने के अनेक प्रयास हुए हैं। ये प्रयास सकारात्मक रहे हैं। आज यह एक सच्चाई है कि गांवों में भी उच्च जातियों की ‘श्रेष्ठ-ग्रंथि’ अंतिम सांस ले रही हैं। आर्थिक ढांचे बदल चुके हैं। उच्च वर्गों की ज़मीनें उसी जगह के दलित और पिछड़े वर्ग के लोग ले रहें हैं । गाँवो में प्रति व्यक्ति जमीन बीघा/विस्वा में बदल चुका है । खेती/जोत की जमीन अब प्रतिष्ठा की वस्तु नहीं रह गई है। ग्रामीण क्षेत्रो में शिक्षा और रोजगार में सब एक दूसरे को चुनौती देने को तत्पर हैं। समाज का हर तबका अब जाग चुका है। वह अपने हक-हुकूक को अच्छी तरह समझने लगा है। इसमे कोई संदेह नहीं है कि आरक्षण ने कुछ जातियों के कुछ लोगों को ही फायदा पहुंचाया पर इच्छाएं सभी की जग गईं। नई पीढ़ी यह मानने लगी है कि हमरे ही समुदाय के लोगो ने अवसर पाते ही हमारे साथ अन्याय किया है । उधर तथाकथित उच्च जाति में जन्मी नई पीढी यह मान रही है कि इतिहास में जो कुछ हुआ हम उसके दोषी कैसे हो जाएँगे । प्राथमिक विद्यालय में पढ रहे कुछ बच्चो को जब वजीफा आदि की सुविधाये नहीं मिलती हैं तो उनके इस प्रश्नो का जबाब देना मुश्किल हो जाता है कि तुम एक खास जाति में पैदा हुए हो । यह एक तथ्य है कि कुछ इलाको को छोड दिया जाय तो शायद ही समाज में किसी से किसी प्रकार का खान-पान से लेकर रहन-सहन तक में कोई भेद भाव हो रहा हो । हाँ यह जरूर है कि आरक्षण को लेकर एक नये किस्म का भेदभाव पैदा हो रहा है । युवा पीढ़ी को तब और कष्ट होता है जब वह देखता है कि हर तरह से मजबूत परिवार का विद्यार्थी आरक्षण का लाभ लेकर उसे पीछे छोड़ देता है । ऐसे में यह पीढ़ी या तो विदेश भाग रही है अथवा अवसाद की तरफ जा रही है।
अब समय आ गया है कि आरक्षण नीति पर पुनर्विचार किया जाय । इसके लिए तटस्थ होकर कुछ ठोस उपाय करने होंगे। मेरी दृष्टि में कुछ उपाय निम्नलिखित हैं ।
1- आरक्षण का प्रावधान लम्बवत न होकर क्षैतिज होना चाहिए। एक बार जिस व्यक्ति ने नौकरी में आरक्षण का लाभ उठा लिया है उसकी आने वाली पीढ़ी को आरक्षण का लाभ नहीं मिलना चाहिये । इसका लाभ यह होगा कि उसके पड़ोसी का लड़का भी उस जगह के लिए अपनी दावेदारी सुनिश्चित कर सकेगा और आरक्षण का दायरा अधिक परिवारो तक बढ सकेगा ।
2- एक बार जिस व्यक्ति ने नौकरी में आरक्षण का लाभ उठा लिया है तो दुबारा वह किसी अन्य सेवा में इसका हकदार नहीं होगा । इसका सबसे बड़ा लाभ होगा कि उसी के भाई-बंधु अगली बार उस सेवा में अपनी दावेदारी सुनिश्चित कर सकेंगे ।
3- आरक्षण प्राप्त कर अपनी सामाजिक हैसियत बढ़ा चुकीं जातियों को इस परिधि से बाहर किया जाय जिससे संविधान की आत्मा की रक्षा हो सके।
4- क्रीमी लेयर के दायरे को नीचे किया जाय। क्रीमी लेयर का सूत्र वस्तुत: कुछ मजबूत लोगो को भी इसमे बनाये रखने की साजिश है । नीति आयोग के द्वारा निर्धारित गरीबी रेखा को ध्यान में रखकर ही क्रीमी लेयर का सूत्र ईजाद किया था ।
कहना न होगा कि इस मामले में सरकार की गम्भीर और नैतिक ज़िम्मेदारी बनती है कि वह इस दिशा में ठोस और सुचिंतित कदम उठाएँ जिससे समाज में समरसता बनी रहे और प्रतिभा पलायन रुकने के साथ-2 मानवाधिकार का भी हनन न हो । लेकिन यह तभी होगा जब उसके पास राजनैतिक इच्छा शक्ति हो।