काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के शताब्दी वर्ष पर
महामना को पत्र
आदरणीय भारतभूषण मालवीयजी
आपको पत्र लिखने की इच्छा बहुत वर्षों से हो रही
थी,परंतु
इच्छा रह-रहकर बुझ जाती थी। घर-द्वार,रोजी-रोटी के चक्कर में
पैर ऐसे फंसे थे कि पूछिये मत । पत्र लिखना मेरा पुराना शौक है -प्रेम-पत्र से
लेकर द्वेष-पत्र(कुछ लोग ऐसा कहते हैं)तक । इधर मैंने कहीं पढ़ा कि फिराक गोरखपुरी
ने अपनी मौत से कुछ महीने पूर्व एक साक्षात्कार में कहा था: “अगले पचास वर्षों में हिंदुस्तान दुनिया को कुछ नहीं दे पाएगा । वह किसी
तरह से पेट पालता हुआ बचा रहेगा ।” अज्ञेय ने भी अपनी शैली
में इस बात को रखा:“सबसे बड़ा दुख यह है कि हमारे पास कोई
नियतिबोध,सेंस आफ डेस्टिनी नहीं है।” अर्थात ‘हम कौन थे,क्या हो गए और क्या
होंगे अभी’ की चिंता अब नहीं सताती। उक्त दोनों बातें
काहिविवि सहित भारत के सभी विश्वविद्यालयो पर बड़ी सटीक बैठती हैं। दरअसल आपके
आशीर्वाद की छत्र-छाया में स्थापित-पुष्पित-पल्लवित यह विवि पिछले दो दशक से नैतिक
और प्रशासनिक अराजकता की ओर तेजी से लुढ़कता जा रहा है। गुलाम भारत में आपने
ऋत-शील-अच्छाई पर छा रहे संकट को समझ लिया था । इसीलिए तो दर-दर की ठोकर खाकर भी
अपने ध्येय से डिगे नहीं और एक विशाल प्रांगण युक्त विवि की स्थापना की । विवि में
संकाय-सदस्यों की नियुक्ति के लिए विक्रमादित्य परंपरा का निर्वहन करते हुए आपने
देश के कोने-कोने से विद्वानों को आमंत्रित किया –आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु
विश्वतः । आपके लिए भारत का मतलब था
आर्य-द्रविण-किरात-निषाद का समंवय । मुझे याद है कि जब मैं बिरला छात्रावास का
अंतेवासी था तब इस विवि में भारत के चारो दिशाओं से विद्यार्थी प्रवेश लेने आते थे
। प्रत्येक विभाग (विशेषकर विज्ञान के विषयो में)में भारत के हर प्रांत के अध्यापक
होते थे ।पर अब ऐसा नहीं है । ‘टाक ग्लोबली,एक्ट लोकली’ का
बेहतरीन उदाहरण है यह विवि । इसको कुलगुरुओ ने ‘अडजस्ट्मेंट’ का अड्डा बना दिया है । विवि में कार्यरत हर कर्मी ने अपना एक नया
परिचय गढ़ लिया है-ठाकुर,बाभन,लाला,भुइहार,अहीर,डोम,गड़ेरिया आदि-2 । मजे की बात है कि ये इसी जाति-कवच में ही निवास से लेकर
मल-मूत्र तक का त्याग करते हैं। यही इनका आक्सीजन बन चुका है। इससे बाहर निकलते ही
इनकी अस्मिता खतरे में पड़ जाती है । यह विवि अब शंका और अविश्वास का अखाड़ा बन चुका
है। यहाँ सब-के-सब बीमार है। कोई स्वस्थ नजर नहीं आता । रायसाहब बदहजमी के शिकार
हैं तो सिंह साहब निष्ठावान साबित होने के लिए द्राविण-प्राणायाम कर रहे हैं।
त्रिपाठी जी खुदगर्ज वाचाल-मौन रोग से पीड़ित हैं तो लालाजी ‘सिमटम’ ही
नहीं पकड़ पा रहें हैं। उपाध्यायजी के पेट में तो भयानक ‘गैस’है । जब तक ये चार जगह
बैठकर उसे निकाल नहीं लेंगे तब तक इनको चैन नहीं मिलता । पांडेजी श्वेत-दंडिका के
अंतिम कश को अध्यापको के मुंह पर फेंकने के लिये बेचैन रहते है । उधर यादवजी
मुरेठा-लाठी लेकर नये निशानेकी तलाश में हैं। प्रकृति-प्रदत्त सहज गुण-धर्म विवि
के लिए ‘कफ-पित्त-वात’ का कारण बन जाता है। विवि के लोगों ने घटिहाई,जातिवाद,चोरी,घूसख़ोरी,छिनालपन,चापलूसी जैसे
विदेशी व्यंजनों को आत्मसात कर लिया है। घृणा यहाँ की रोटी दाल बन गई है। शुद्ध
प्रणय-प्रेम का यहाँ घोर अभाव है। अनुराग-राग-पूर्वराग अब गुजरे दिनों की बात हो
गई है।
महामनाजी विवि इस वर्ष अपना शताब्दी वर्ष मना
रहा है। ‘अलुमनाई’ होने के नाते मेरे मन में भी एक सवाल कौंधा कि क्यों न यह पता किया जाय कि आज
विवि वे कौन ऐसे पाँच ‘बड़े’ लोग हैं जिस
पर यह विवि गर्व कर सके। आप जानकार हैरान होंगे कि विवि के लगभग सभी संकायों के
एक-एक,दो-दो सदस्यों से व्यक्तिगत तौर पर मिला और उन सभी के
सामने यह यक्ष प्रश्न रखा । पर आश्चर्य कि किसी के जुबां पर पाँच तो छोड़िए एक भी
अध्यापक का नाम नहीं आया। एक-दो ने काँख-पाद कर दो-एक का नाम लेने की कोशिश की तो
दूसरे ने अपने झन्नाटेदार तर्कों से उसे खारिज कर दिया। आखिर इसकी वजह क्या है? इस पर जब मैंने लोगों से चर्चा की तो सभी ने एक सुर से कहा कि
अच्छी ‘फ़ैकल्टी’ का न होना इसका सबसे बड़ा कारण है।
मुझे यह याद नहीं है कि आपके जमाने में ‘सरस्वती’ की
कुल कितनी प्रतिमा विवि परिसर के भीतर लगी थी। पर इधर विवि ने तीन जगह सरस्वती
प्रतिमा स्थापित की है-केंद्रीय ग्रंथालय,प्रबंध संकाय और चिकित्सा संस्थान के चौराहे पर ।
केंद्रीय ग्रंथालय का नजारा तो अद्भुत है। यहाँ किसी भी कोने में चले जाइए आपको यह
महसूस होगा कि सरस्वती तो अपनी प्रतिमा स्थापित होने के पूर्व ही यहाँ से भाग खड़ी
हुई। यह पवित्र स्थल निजी कुंठा और साजिश का केंद्र बन गया है। यहाँ ‘प्रात:स्मरणीय’ और ‘चरण-चुंबन’ का नैसर्गिक द्वंद्व-समास दिखेगा। अध्यापकों ने यहाँ आना छोड़ दिया।
वैसे भी अब अध्यापक पढ़ाई छोड़कर‘कुलपति-वंदना’ में
ज्यादा विश्वास करते हैं। संकाय-संस्थान तो ग्रंथालय से भी आगे हैं। यहाँ डा
फ्रायड का ‘रमण-तृषा’ का सिद्धांत, जो हर संबन्धों में दमित-वासना की खोज करता है,प्रामाणिकता के साथ उपलब्ध है।
सच तो यह है कि गरीबों के खून से प्राप्त ‘इफ़रात’ के बल पर विवि का यह अति महत्वपूर्ण संस्थान महज ‘केरीकेचर’ बन
कर रह गया है। इस संस्थान को एम्स का दर्जा मिल जाये,यह सपना यहाँ के बड़े-बड़े
चिकित्सक दिन में भी देखते हैं।संस्थान की गुणवत्ता का आलम यह है कि यहाँ होने
वाली नियुक्तियों में एम्स अथवा किसी अन्य बड़े संस्थान से पढे-अनुभवी की नियुक्ति
की बात तो छोड़िए वे झाँकने भी नहीं आते। यही पास-पडोस से झांसी-गोरखपुर से लगायत
दरभंगा-पटना वाले आते है। ‘डीएनबी’ जैसी
दोयम डिग्री लेकर लोग नियुक्तियाँ पा गये हैं,जो मित्र-कृपा
से गिरते-पड़ते ही मिली है। जब ऐसे ही लोग इस विवि में आएंगे तो समझा सकता है कि इस
विवि का भविष्य क्या होगा? स्वयं यहाँ के कुलपति ने भरे मंच
से स्वीकार किया है कि इस संस्थान के भीतर भी ‘ग्लूकोमा-कटरैक्ट’ पर उतना ही खर्च आता है जितना कि बाहर निजी अस्पतालों में।
भारतभूषणजी यहाँ के एक नामी प्रोफेसर से उनके किसी मित्र ने पूछा कि आप संस्थान के
निदेशक के लिए क्यों नहीं जुगाड़ लगाते हैं? उनका जबाब बड़ा व्यावहारिक है –‘अरे भाई! अपने
बस पर चढ़ूँ या दोनों लंगड़ों(पुत्र-जामाता) को चढ़ाऊँ।’ दोनों को तो नहीं पर एक को चढ़ाने में प्रोफेसर साहब सफल भी रहे।
कुल मिलाकर यही स्थिति है कि आप मेरी पीठ खुजलाओ और मैं आपकी पीठ खुजलाऊंगा ।
कामुक-रात्रि में सिंह-सियार जैन-गोयल-मोहन-त्रिपाठी-मिश्र-लखोटिया सबको ‘ठौर’ मिला और मौज से एक दूसरे
की पीठ खुजलायी ।
महामनाजी आपके समकालीन रहे श्री अरविन्दो कहते
हैं कि ‘किसी भी
महान देश का बौद्धिक पतन सदैव गुणों के क्षरण से प्रारंभ होता है’। यह बात सोलहो आने सच है। पेरिस स्थित ‘कालेज द फ्रांस’ के एक ग्रंथालय कर्मी(केडिला बुशेल) ने अपने नौकरी से इस्तीफा देना
स्वीकार किया पर किताब खरीद में हुई गड़बड़ी के कागज पर हस्ताक्षर नहीं किया। पाँच
सौ वर्ष पूर्व स्थापित यह शिक्षण संस्थान इसीलिए आज भी सीना तानकर खड़ा है। पर अपना विवि
तो शताब्दी वर्ष में ही दम तोड़ने लगा है । अब तो ऐसी स्थिति है कि ग्रंथालयी को
कौन कहे कुलपति तक प्रकाशक का आतिथ्य स्वीकार करने के लिए लालायित हैं। इसी कुर्सी
पर आपके जमाने में रंगनाथन जी बैठे थे। पर अब वे लोग बैठ रहे हैं जो सुबह-सबेरे से
लेकर देर रात तक कहीं भी किसी का हाथ-पैर पकड़ते नजर आएंगे। आपको तो याद ही होगा कि
क्यों आपको पंडित रामवातार शर्मा के आवास पर जाकर यह कहना पड़ा कि ‘मैंने तो सिर्फ यह जानने की कोशिश की थी कि आपके
पास समय कब रहेगा,जब आप उनसे मिल सकें’।
पर अब जमाना बदल गया है । अब तो समितियों में घुसने के
लिए भी ‘जुगाड़’ खोजे जाते हैं और ‘प्रोफेसर’ साहब अपनी निष्ठा साबित करने के लिए देर रात तक कुलगुरु आवास पर ‘गुड-नाइट’ के
लिये खड़े रहते हैं।
किसी भी जाति/संस्था के उन्नयन का असल पैमाना
उसका सौंदर्यबोध,शील और
नैतिकता होता है। बदलते परिवेश के साथ विवि से ये तीनों कब लुप्त हो गए पता ही
नहीं चला। विवि के चौराहों पर वट-पीपल का वृक्ष और सड़कों के किनारे छायादार-फलदार
वृक्ष अशोक-शेरशाह सूरी की याद दिलाते थे, तो
समकोण पर काटती हुई सड़कें हड़प्पा-सभ्यता की याद ताजा कर देती थीं । महामनाजी तथ्य
तो यह है कि अर्धचंद्राकार में स्थापित इस विवि के विशाल खेल मैदान अब कब्जा के
शिकार हो रहें हैं। कोने-कोने पर कंक्रीट के जंगलों का वक्ष-विस्तार हो रहा है।
जैसे-जैसे मैदान अब चहारदीवारी से घिरते जा रहे हैं वैसे-2 खिलाड़ी विलुप्त होते जा
रहें हैं। आजकल तो विवि में ‘इंफ्रास्ट्रक्चर’ का ‘खेल’ सबसे फायदे मंद है। तभी तो इस विवि के एक पूर्व कुलपति ने
व्यक्तिगत बातचीत में कहा –‘डेवलपमेंट
इज दि बाई प्रोडक्ट आफ करप्शन’।मुझे विश्वास है कि आचार्य
नरेंद्र देव आपके बगल में बैठकर अपना माथा जरूर पीट रहें होंगे।
तथ्य तो यह है कि ‘हरि से
लेकर गिरि’ तक के दरबार में मिश्रजी, जो
जीवन भर पेट में अपने बड़प्पन के गैस को लेकर परेशान रहे हैं ,वे रात के अंधेरे में भींगते हुए भी जाति-मृदंग पर ‘गत’ बजाने
से नहीं चूकते । आज इस विवि में दिमागी गुलामों और ‘कैरियर’ को ही चरम पुरुषार्थ मानने वाला एक अत्यंत संगठित दस्यु-दल पैदा हो
गया है । यह दल येन केन प्रकारेण
अपनी सुविधाओं को पुत्र-जामाता तक ही सुरक्षित के लिए तत्पर और बेचैन है। जब-जब
इन्हें अवसर मिलता है ये जाति-बिरादारी(यहाँ बिरादारी का अर्थ अध्यापक वर्ग से है)
का लंगोट पहनकर ‘इस्लाम खतरे में है’का नारा देते हुए सक्रिय हो जाते हैं। इनकी कुटिल व्यूह रचना के फलस्वरूप ‘विश्वविद्यालय’ शब्द ने अपनी अर्थवत्ता खो दिया है। ‘हरि-गिरि’अवधि में यह विवि मूलत: एक स्थानीय कालेज के रूप में ढल गया है। अब इस
विवि में उन लोगों का ‘प्रवेश’ हो रहा है जहां कभी काशी प्रसाद जायसवाल,वासुदेव शरण अग्रवाल और ए एस
आल्तेकर जैसे मनीषी बैठते थे । कुछ दिनों पहले विवि द्वारा आयोजित एक शताब्दी
व्याख्यान में मैं भी उपस्थित था। व्याख्यान के बाद मैंने आयोजनकर्ता आचार्य से
पूछा कि अमेरिका से आए इन महोदय ने तो कुछ बताया ही नहीं। इंहोने तो ‘आडिएन्स’ को
सिर्फ पीपीटी से बहकाया है। प्रोफेसर साहब शरमा गए। भारतभूषणजी अब तो ऐसे ही व्याख्यान
इस विवि में हो रहें हैं। इस शताब्दी वर्ष में एक ऐसे प्रोफेसर को व्याख्यान
के लिए बुलाया गया जिनके खाते में शोध के नाम पर सिर्फ एक बार ‘सह-निर्देशक’ होने का गौरव प्राप्त है।
‘प्रकाश बन जाना,उजाला फैलाना,घर-आँगन और इतिहास के अंधेरे को भगाना
कोई मौज-शौक की बात नहीं। बड़ी कठिन साधना है। बिना
अपने ‘सम्पूर्ण’ का त्याग किए,बिना सर्वान्तक आत्मदान के यह संभव नहीं ।” महामनाजी!
गांधीजी आपको भारतभूषण इसीलिये तो कहते थे । आप तो श्रीमद्भागवत के अन्यतम
व्याख्याकार रहे हैं. उसी की शब्दावली उधार ले तो जिस कामुक-सभ्यता का विवि अनुगामी हो गया है उसे भागवत में ‘घोर’ और ‘मूढ’ कर्मयोग की सभ्यता का दर्जा दिया गया
है। किसी ने कहा है कि-“ जब-जब
समाज में ऐसी स्थिति आती है तो ये जीवन-दृष्टि
और आचरण को आक्रांत कर देते हैं। ऐसी ही अवस्था होती है किसी महामानव के अवतरण की
अवस्था।” क्या हम उम्मीद करें कि इस विवि में,जिसका मन ही ‘अहंग्रस्त-कुटिल-शंकालु’ हो गया है,कोई‘महामना’, ‘महात्मा’ बन
पथ-प्रदर्शन के लिये आयेगा?